Wednesday 25 October 2023 04:44 PM IST : By Kavita Vikas

मेरा आकाश

mera-aakash

शाम का धुंधलका घिरने लगा था। पेड़ों की डालियां पंछियों के कलरव से गूंज रही थीं। अपने नीड़ में लौटने की खुशी हर संवेदनशील प्राणी को होती है। मैं भी आज जल्द ही अपने ऑफिस से निकल गयी। प्राचार्या बनने के बाद मैं ज्यादा समय स्कूल में बिताती थी, छुट्टी के बाद भी एक-दो घंटे रुक कर सारे काम निबटाती। यों भी घर में मेरा इंतजार करने वाला कोई नहीं था। एकाकी जीवन जीते हुए एक लंबा अरसा बीत गया था। जीवन के उतार-चढ़ाव बहुत कोमल उम्र से शब्दों में ढल कर कहानी-कविता बनने लगे थे, पर यह मेरे अस्तित्व को एक नयी पहचान दे देगा, यह तो उस दिन पता चला जब मेरी रचनाओं की डायरी विपुल के हाथों लग गयी। मेरे चेंबर में मेरे भाई सरीखा एक कॉलेज का स्टाफ मेंबर जो बहुत मुंहलगा था, फाइलें उठाते समय खुली हुई डायरी की चंद पंक्तियां पढ़ने लगा। मेरी अनुपस्थिति में उन्हें पढ़ते हुए अनायास उसके मुंह से ‘वाह’, ‘गजब’ आदि शब्द निकल रहे थे। मैंने जब कमरे में प्रवेश किया, वह डायरी पढ़ने में तल्लीन था।

मैंने लगभग डांटते हुए उसे डायरी बंद करने को कहा। उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, ‘‘गुस्ताखी माफ दीदी, मैंने आपसे बिना पूछे आपकी डायरी हाथ लगायी। पर क्या करूं, एक-एक पंक्ति ने बांधे रखा। क्या खूब लिखती हैं आप ! एक सलाह दूं, आप इसे छपवा डालिए। आपकी रचना में लाखों दिलों की वेदना छिपी है। प्लीज दीदी, इंकार मत करिए। मुझे दे दीजिए, मैं यह काम करूंगा।’’

मैं उसे ना नहीं कर सकी। उसने प्रकाशक से संपर्क करके एक कहानी संग्रह छपवा डाला। और मजे की बात, हिंदी परिषद की ओर से उस कहानी संग्रह को साल की सबसे उत्कृष्ट पुस्तक का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल गया। ऐसा नहीं था कि यह मेरी पहली रचना थी। बचपन में मिली दुत्कार और समय-समय पर मिलने वाले अपमान की टीस को पन्नों पर 12-13 वर्ष की अवस्था में ही उतारने लगी थी, पर सबसे छुपा कर उन्हें डायरी में बंद रखती, क्योंकि मुझे पता था कि जिस घर में लड़की के रूप में जन्म लेना अपराध माना जाता है, वहां मेरी भावनाओं की क्या कीमत होगी। खैर, इस पुरस्कार के बाद पार्टियों का लंबा सिलसिला आरंभ हुआ, जो हफ्तेभर चलता रहा। शायद उसी की थकावट होगी, जो आज छुट्टी के बाद घर जा कर आराम करने का मन हो गया।

घर पहुंचने पर रोज की तरह नंदू ने दरवाजा खोला। मैं सोफे पर बैठ कर अखबार पलट रही थी और चाय का इंतजार भी। चाय पी कर ही फ्रेश होने जाती हूं। तभी कॉलबेल की आवाज आयी। नंदू ने दरवाजा खोलने के पश्चात आगंतुक से मुखातिब हो कर बताया, ‘‘दीदी, वीरभद्र से कोई आया है।’’

वीरभद्र का नाम सुनते ही मैं चौंक गयी। पर फिर रूखे स्वर में कहा, ‘‘बोल दो काम में व्यस्त हूं। अभी नहीं मिल पाऊंगी।’’

पांच मिनट बाद नंदू फिर आया और एक कागज देते हुए कहा, ‘‘उन्होंने यह आपको देने को कहा है।’’

कागज पर लिखा था, रोहन राजपूत उर्फ सोनू। मैं एक पल को सन्न रह गयी। नंदू को इशारा किया कि उसे अंदर ले आए। जैसे ही सोनू ने प्रवेश किया, मैं सकते में आ गयी। मेरा छोटा भाई सोनू मेरे विवाह के समय कक्षा 8 में था और अब 15 साल बाद लंबा, गोरा-चिट्टा स्मार्ट युवक। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि यह वही सोनू है, जिसे गोद में ले कर मैं पूरा मोहल्ला घूम जाती थी। जैसे ही उसने मेरे पैर छुए, मैंने उसे गले से लगा लिया। एक आत्मिक अनुभूति, जो एक लंबे अंतराल के बाद मिली थी, वह अवर्णनीय थी। हम दोनों भावातिरेक में रो पड़े थे।

उसने अपने आपको मुझसे अलग करते हुए कहा, ‘‘कैसी हो दीदी?’’ मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना बोल उठा, ‘‘अखबारों में तुम्हें मिलने वाले पुरस्कार की घोषणा और फोटोज देख कर रहा नहीं गया, मां को बिना बताए ही चल पड़ा।’’

‘‘मां कैसी हैं? पापा के पैरों का दर्द ठीक हुआ? तुम अभी क्या कर रहे हो?’’ मैंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

सोनू ने कहा, ‘‘सब कुछ एक साथ ही पूछ लोगी क्या? शायद तुम्हें पता नहीं दीदी, पिता जी 3 साल पहले गुजर गए।’’ मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुअा कि पिता जी की मृत्यु की सूचना मुझे नहीं दी गयी, आखिर उस परिवार ने बेटी होने की सजा मुझसे दुश्मनी की हद तक निभायी।

‘‘मैं एक मल्टीनेशनल कंपनी में बंगलुरु में पोस्टेड था, लेकिन पिता जी की मृत्यु के बाद उनका काम संभालने वीरभद्र आ गया,’’ सोनू ने बताया।

इसी बीच नंदू चाय-नाश्ता ले आया। चाय की चुस्कियां लेता हुआ सोनू मेरे घर का मुआयना कर रहा था, मानो वह जान लेना चाहता था कि उसकी दीदी वर्षों से बिना किसी मदद के कैसे जीवित रही और कितनी संपन्न है। उसने गांव-घर और अन्य रिश्तेदारों के बारे में बताया। कौन जिंदा है, कौन नहीं, फसल-व्यापार के नफा-नुकसान, किसकी शादी हो गयी किसकी नहीं। मेरे चेहरे के आते-जाते भावों पर वह एक बुजुर्ग की भांति मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर बैठ गया। करीबन 2 घंटे में वह 15 साल की बातें संक्षिप्त में बोल गया। फिर अचानक कहा, ‘‘दीदी, मैं रात की गाड़ी से निकल जाऊंगा, कल दोपहर तक पहुंच जाऊंगा, नहीं तो निन्नी मेरे बिना खाना नहीं खाएगी।’’

‘‘निन्नी, ये निन्नी कौन है?’’

‘‘मेरी 2 साल की बिटिया।’’

मैंने अपनी नजरें झुका लीं। एक बार उस घर में बेटी होने का दंश मैं भोग चुकी थी। फिर पोती होने का अभिशाप क्या उसे नहीं झेलना पड़ेगा? या घर में पोती के प्रेम ने मां-पिता जी के स्वभाव में बदलाव ला दिया? ना चाहते हुए भी मैं पूछ पड़ी, ‘‘सब लोग निन्नी को प्यार करते हैं ना ?’’

मेरा आशय वह समझ गया था। ‘‘दीदी, निन्नी के जन्म के बाद पापा कई दिनों तक मुझसे और ऋतु से बात नहीं करते थे। ऋतु को एक-दो बार उन्होंने उलाहना भी दिया मानो बेटी को जन्म दे कर उसने कोई अपराध किया हो। रोज-रोज की कलह से तंग आ कर मैंने अपना घर अलग करने की बात कह दी। मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया, ‘‘दीदी ने जिस अपमान को आजीवन भोगा है, मैं वह अपनी बेटी के साथ नहीं होने दूंगा। दीदी से कुछ साल बड़ा होता, तो शायद मैं दीदी के साथ खड़ा होता। ठाकुर परिवार में केवल बेटे पैदा हों, बेटी नहीं, यह कैसे संभव है?’’ पिता जी इस दो-टूक फैसले को ना तो मान सकते थे और ना अपनी दकियानूसी सोच से छुटकारा पा सकते थे। उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया और एक रात बाथरूम में ऐसा चक्कर खा कर गिरे कि उनका ब्रेन हैमरेज हो गया।’’

मैंने समझ लिया कि पिता जी को पोता ना होने का कितना गहरा आघात लगा होगा। मैंने जल्दी-जल्दी सोनू के लिए खाना तैयार करवाया। जाते-जाते वह फिर मेरे गले लग गया, जाने फिर जीवन में मुलाकात हो ना हो। उसकी हर बात पर मेरी उत्सुकता बनी हुई थी, केवल एक बार यह सुनने की कि ‘दीदी, तुम्हें हम सब बहुत याद करते हैं।’ शायद वर्षों का मलाल क्षणभर में मिट जाता, पर नहीं वह तो केवल इतना ही बोला, ‘‘अपना खयाल रखना दीदी।’’

उसके जाने के बाद मैं बिस्तर पर लेट गयी। लगता था कितने दिनों की थकी हुई हूं। दिमाग भनभना रहा था और आंखों से नींद कोसों दूर। पंद्रह साल पहले की कहानी चलचित्र की भांति गुजरने लगी। एक बार तो कोफ्त भी हुई कि जब इतने सालों तक घर वालों ने कोई खोज-खबर नहीं ली, तो अब क्यों पुराने जख्म ताजा करने यह भाई चला आया?

मेरा जन्म एक बेहद दकियानूसी ठाकुर परिवार में हुआ था। दादी बताती थीं कि मेरे जन्म के पहले पिता जी ने कई कर्मकांड करवाए थे कि बेटा हो। इसलिए मेरे जन्म के समय मातमी शांति थी। पिता जी ने मां से बात करना छोड़ दिया था। यह तो दादी थीं, जो उन्हें समझाती रहीं कि बेटा या बेटी होने में बहू का कोई वश नहीं चलता। मेरे चाचा के बच्चों से पिता जी को विशेष लगाव था, क्योंकि वे सभी लड़के थे। मेरी चाची को सभी सिर-आंखों पर बिठाते, हालांकि दादी ने मेरे जानते हुए ऐसा भेदभाव कभी मां के साथ नहीं किया। मैंने बहुत वर्षों बाद जाना कि मुझसे बड़ी 2 लड़कियों को जन्म के बाद शायद नमक चटा कर मार डाला गया था। पांच साल के बाद जब मेरा भाई पैदा हुआ, तब घर में दीवाली सा माहौल था।

मेरे भाई और मेरे बीच जबर्दस्त भेदभाव किया जाने लगा। समय के साथ मुझे महसूस होने लगा कि मैंने यहां जन्म ले कर अपराध किया है। पता नहीं शुरुआती दिनों की स्नेही मां कैसे बदल गयी? वह भी केवल भाई के लिए सोचती। इतना होने पर भी सोनू के लिए मेरे मन में कोई बैर भाव नहीं जागा। हम दोनों एक-दूसरे को बेहद चाहते। मैं उसे अपने पास ज्यादा रखती, क्योंकि स्कूल से आ कर उसके नहलाने-खिलाने और खेलाने की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी गयी थी। दादी की पहल पर मुझे पढ़ने का अधिकार मिल गया था। मैं पढ़ाई में अव्वल आती। लेकिन इंटरमीडिएट के बाद पिता जी ने पढ़ाई पर रोक लगा दी, उन्हें यह पैसे की बर्बादी लगता। पिता जी यों भी मुझे देखना नहीं पसंद करते। एक तलाकशुदा अधेड़ उम्र के पुरुष से मेरा विवाह करवा दिया गया, बदले में उसने कोई दहेज नहीं लिया। इस बेमेल विवाह से केवल मेरी दादी और मेरा भाई दुखी थे। विवाह के बाद मैं सोनभद्र आ गयी।

खैर, विप्लव के साथ मेरी सबसे अच्छी बात यह रही कि उसने मेरी पढ़ाई जारी करवा दी, विवाह के बंधन में नहीं जकड़ा। सोनभद्र आने के एक हफ्ते बाद ही उसने मेरा कमरा ऊपर की मंजिल में करवा दिया, ताकि मैं बिना किसी बाधा के पढ़ाई-लिखाई करती रहूं। घर के कामकाज के लिए कई नौकर-चाकर थे, पर फिर भी मैं रसोई वगैरह देख लेती। हल्के-फुल्के कामकाज निबटा कर कॉलेज जाती। मुझे आश्चर्य होता कि विप्लव ने मुझे एक पत्नी की हैसियत से कभी नहीं देखा। मेरे प्रति कोई आकर्षण नहीं, शायद उम्र का तकाजा था। कॉलेज में लड़कियां पूछतीं, ‘‘आज तू खूब सुंदर लग रही है, पति ने क्या कहा?’’ मैं केवल मुस्करा कर रह जाती। विप्लव के प्रति मेरी नापसंदगी अपनी जगह थी, पर उसने भी कभी प्यार का प्रस्ताव नहीं रखा, मानो यह शादी नहीं, एक साथ रहने की कोई डील हो। वह नीचे के कमरे में चैन से रहता और मैं ऊपर के कमरे में। मेरी शादी के बाद ना कोई मायके से मिलने आया और ना ही तीज-त्योहार में किसी ने खोज-खबर ली। मुझे याद है शादी के बाद की पहली तीज में मैंने घर जाना चाहा था, तो विप्लव ने कहा था, ‘‘अच्छी तरह सोच लो, वहां जा कर तुम्हें कुछ नहीं, बल्कि बेइज्जती ही मिलेगी। उनके लिए तुम एक कचरा थी, सो उसे फेंक कर उन्होंने अपने घर की सफाई कर ली।’’

फिर भी मैं गयी। उसका कहना ठीक ही था। सोनू आ कर लिपट गया और मेरा हालचाल पूछने लगा। मां थोड़ी देर तक मेरे पास बैठीं, मेरे कपड़ों और शृंगार से मेरा रहन-सहन आंकने लगीं। लेकिन जैसे ही पिता जी आए, वे उठ कर अंदर चली गयीं। पिता जी ने आते ही कहा, ‘‘यहां क्यों आयी? अब इस घर पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं। तुम्हें जन्म दे कर तो हमने पहले ही जिल्लत पायी है। पता नहीं क्या पाप किया था मैंने, जिसकी सजा तुझे जन्म दे कर चुकानी पड़ी। अब इस घर को भूल जाओ। यहां भूल कर भी ना आना।’’

पिता की बातें सुन कर मैं अवाक रह गयी। यों भी पिता जी ने कभी किसी की परवाह नहीं की थी, सो कोई उनकी बातों में हस्तक्षेप भी नहीं करता था। मां ने सही-गलत के फैसले में कभी अपनी राय नहीं दी और सोनू की सुनता ही कौन, उसे बड़ों के बीच अपनी बात रखने की इजाजत नहीं थी। चाचा-मामा पिता जी के शागिर्द थे, क्योंकि पिता जी घर में सबसे बड़े थे। एक दादी थीं, जो अपनी बात मनवा लेती थीं, पर वृद्धावस्था में वे भी ज्यादा नहीं बोलती थीं या यों कहें, समय के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए थे।

जैसे-तैसे मैंने रात गुजारी और सुबह की पहली गाड़ी से वापस आ गयी, फिर कभी वहां ना जाने की कसमें खाते हुए। मेरे उतरे हुए चेहरे को देख कर विप्लव ने कहा, ‘‘सब ठीक है ना, मैंने कहा था ना, वहां तुम्हें कोई नहीं पूछेगा। मैंने तुम्हारे पिता जी की तुम्हारे प्रति उपेक्षा उसी दिन भांप ली थी, जब वे तुम्हारा प्रस्ताव ले कर मेरे पास आए थे,’’ लगे हाथ उन्होंने एक और गोली दागी, ‘‘यहां भी कभी मुझसे एक पति की जिम्मेदारियों की अपेक्षा ना रखना। घर में नौकर-चाकर हैं तुम्हारा खयाल करने के लिए।’’

मैं अपने कमरे में पहुंच कर काफी देर तक रोती रही। ‘हाय रे नसीब, लड़की होने का इतना बड़ा कसूर, पहले पिता ने नफरत की और अब पति ने।’
देखते-देखते 5 साल बीत गए, मैंने मास्टर डिग्री हासिल करने के बाद डॉक्ट्रेट करना आरंभ कर दिया। विप्लव की उपेक्षा धीरे-धीरे समझ में आने लगी। इस विवाह की आड़ में और पढ़ाई में मेरी व्यस्तता का बहाना ले कर वह किसी और के साथ मशगूल रहता। घर के रसोइया बिधान काका एक बुजुर्ग थे, जिन्होंने अपने जवानी के दिन इसी घर में काटे थे। मालती दाई भी बहुत पुरानी थीं। सच कहूं, तो इन्होंने मुझे बहुत सहारा दिया। नीचे के कमरे में मेरा जाना बिलकुल मना था। अगर कभी विप्लव को देखने का मन करता, तो काका नहीं जाने देते। उन्होंने मुझे दबी जबान में विप्लव की आदतों के बारे में सब बता दिया था। मैं रोष में विप्लव से लड़ने का जब भी कोई कदम उठाती, मालती मुझे समझा-बुझा कर चुप करा देतीं। शायद उन्हें भी अपना काम छूट जाने का भय था। एक बार काका ने मुझे ठंडे दिमाग से यह सोचने को कहा, ‘‘यहां तुम्हे खाने-पीने, रहने की कोई कमी नहीं है। आखिर तुम मालकिन हो। तुम अगर मुंह खोलोगी, तो घर से बाहर कर दी जाओगी। इसलिए चुपचाप विप्लव बाबू से मन हटा कर अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयत्न करो। फिर कोई कड़ा निर्णय ले लेना।’’

उनकी बातों में दम था। मैंने विप्लव की नजरों में अपने आपको निरीह बना दिया था, एक कमजोर पत्नी, जिसे पति के विरुद्ध आवाज उठने की आजादी नहीं हो।

मेरी कुछ रचनाएं स्थानीय पत्रिकाअों में छपनी शुरू हुईं। रचनाओं के साथ दिया हुआ मेरा परिचय और फोटो से लोगों ने मेरे पति के बारे में भी जाना। उसी में किसी ने फोन करके बताया कि जिसे आप विप्लव शर्मा के नाम से जानती हैं, वह असल में भोलानाथ है और शहर की एक वेश्या के साथ उसका संबंध है। इसलिए मेरी रचनाओं के प्रकाशन के बाद विप्लव ने आपत्ति जतायी थी कि लिखने से कोई मनाही नहीं, पर छपवाना नहीं है। उसकी असलियत जानने के बाद मैंने भी तय कर लिया कि मैं उससे विधिवत अलग हो कर एक स्वतंत्र व्यक्तित्व का निर्माण करूंगी। संघर्ष मनुष्य को या तो तोड़ देता है या जोड़ देता है। मुझे मेरी नियति ने मजबूत बना दिया था। कुछ बुरे लोग मिले, तो अनेक अच्छे लोग भी। अपना अतीत भूल कर नए सिरे से जिंदगी की शुरुआत करूंगी।

मेरे इस नए निर्णय का मेरी सहपाठियों और कॉलेज की विभागाध्यक्ष मीरा दी ने स्वागत किया। तब तक पीएचडी पूरा होने में कुछ समय था। कॉलेज के प्रिंसिपल के अनुग्रह पर मुझे उसी कॉलेज में व्याख्याता की नौकरी मिल गयी। मैंने यह सब अभी तक विप्लव को नहीं बताया था। जब मैंने अलग ठिकाने की तलाश कर ली, तब एक दिन उनके कमरे में जाने का निर्णय किया, जहां मेरे जाने पर प्रतिबंध था। दोपहर का समय था। मैं बिना दरवाजा खटखटाए अंदर घुस गयी। सामने सोफे पर विप्लव और एक अधेड़ उम्र की महिला आपत्तिजनक मुद्रा में बैठे हुए थे।

मुझे इस तरह अंदर आते देख वह बरस पड़ा, ‘‘तुम यहां क्यों आयी?’’

उसकी बात का जवाब दिए बगैर मैंने कहा, ‘‘तलाक का नोटिस तुम तक पहुंच जाएगा। मैं जा रही हूं।’’

बिफर कर एक घायल शेर की तरह विप्लव ने हमला करना चाहा, ‘‘अपनी औकात मत भूलो। मेरे आसरे पलने वाली औरत आज मुझ पर सवाल उठा रही है।’’

इतने दिनों से अपने वजूद के कण-कण को समेटती हुई जिस स्वाभिमान का मैंने मान रखा था, वह बिखर ना जाए, इसका सदा ध्यान रखा था। मेरे संघर्ष ने मुझे बहुत बलवान बना दिया था।

मैंने पलट कर एक झन्नाटेदार तमाचा विप्लव के गाल पर जड़ते हुए कहा, ‘‘यह मत समझना मेरी बदनसीबी ने मुझे कमजोर कर दिया है। सामाजिकता की आड़ में मुझे अपनी पत्नी बना कर तुमने सभ्य कहलाने का नाटक किया था। सच पूछो, तो तुम ही मेरे आसरे पल रहे थे। तुम्हारी पहली पत्नी ने तुम्हें देर से पहचाना था, मैंने थोड़ा जल्दी पहचान लिया।’’

उसने उपहास करते हुए कहा, ‘‘जाओगी कहां? अपने मायके... हा हा हा। उन्होंने तो तुम्हारे हाथ पीले कर पल्ला झाड़ लिया है।’’

मैंने जवाब दिया, ‘‘मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं। मैंने जीना सीख लिया है। और हां, मेरी खोज-खबर लेने की कोशिश मत करना। मुझे तुमसे गुजारे-भत्ते की कोई चाह नहीं। मैंने वकील साहब को लिखित रूप में सब समझा दिया है। तुम इन्हीं औरतों के साथ दिन-रात गुजारो। यह मत समझना कि मुझे तुम्हारी करतूतें आज मालूम हुई हैं। जिस दिन तुमने मेरा कमरा अलग करवा दिया था, तुम्हारी आदतों की भनक मुझे उसी दिन लग गयी थी। पर पढ़ना मेरी मजबूरी थी और लाचारी भी। अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने पैरों पर खड़ा होने तक यह मकान मेरा आश्रयभर था और कुछ नहीं,’’ कह कर मैं निकल गयी। मैंने झट अपना जरूरी सामान बांधा और अपनी सहकर्मी मिसेज गोयल के यहां पहुंच गयी। उन्होंने बड़े प्रेम से मेरा स्वागत किया। नियति की मार झेली वे भी सिंगल वुमन थीं।
दो दिनों बाद मैंने कॉलेज के समीपवर्ती कॉलोनी में शिफ्ट किया। अकेले रहते हुए मैंने अपने आपको काम में इतना व्यस्त कर लिया था कि पिछले दिनों की कोई याद ना आ सके। कॉलेज के बाद रचनात्मक कामों में वक्त गुजर जाता। यों तो मैं खुश थी या खुश रहने का प्रयत्न करती, फिर भी कभी-कभी विप्लव के घर तरफ जाने का मन करता। लगता देखूं उस घर के नौकर-चाकर जो बड़ी तन्मयता से मेरी देखभाल कर रहे थे, अब मुझे याद करते हैं या नहीं। पर मैं अपने को संभाल लेती। मेरे तलाक की खबर मैंने मां को भेजी थी, पर उधर से कोई जवाब नहीं आया। ना किसी सहारे की पेशकश, ना ही कोई दया-माया का संदेश।
छह-सात महीने के बाद मुझे लगने लगा मैं इस शहर से दूर चली जाऊं, जहां मेरा अतीत पीछे छूट जाए। इत्तफाक की बात थी, उसी समय कुशीपुर में एक आवासीय विद्यालय में प्राचार्य के पद के लिए रिक्त स्थान की सूचना अखबारों में आयी। मैंने फॉर्म भर दिया। नियत समय पर लिखित परीक्षा के साथ इंटरव्यू हुआ और मैं चुन ली गयी।

पहाड़ों के बीच बसा कुशीनगर अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण जाना जाता है। यहां के लंबे-चौड़े अहाते में स्थित गर्ल्स सेकेंडरी स्कूल अपनी बेहतरीन पढ़ाई के लिए दूरदराज के इलाकों में प्रसिद्ध है। छात्रावास में भी लड़कियों को विशेष सुरक्षा और सुविधा दी जाती है। यह जगह मुझे बहुत पसंद आने लगी थी। स्कूल के कामों में मैंने अपने आपको इतना व्यस्त कर लिया कि अपनी पिछली जिंदगी मैं करीब-करीब भूल ही गयी थी। छात्रावास की लड़कियों में अपना बचपना मिल गया था। उनके साथ प्रिंसिपल होने के बाद भी एक दोस्ताना रिश्ता कायम हो गया था।

लिखने का शौक बचपन से था, पर हालात ने बहुत ज्यादा मौका नहीं दिया था। जो भी लिखा, अपनी व्यथा-कथा और संघर्षों से प्रेरित भावनाओं को लेखनी का माध्यम बनाया, जिसमें लड़कियों के उत्पीड़न और समाज में उनके स्थान पर प्रबल प्रहार होता। इसलिए असंख्य लोगों को उसमें अपनी कहानी दिखती। अब मैं स्वतंत्र हो कर लिखती। मुझे मेरा आकाश मिल गया था। लगता जैसे एक परिंदे ने अपनी परवाज पहचान ली थी। विद्यालय के सभी शिक्षक, स्टाफ और बच्चों का भरपूर सहयोग मिलता।

एक अरसे के बाद मां-पिता जी का चेहरा मेरे सामने से गुजर गया। पलभर को दादी, चाची-चाचा सभी की याद आ गयी। वो घर और चौबारा, जिसने मुझे कभी नहीं अपनाया, हमेशा लड़की होने के अपराधबोध से घिरी रही, आज सबके मोह-बंधन ने मुझे खींचना चाहा। वह मोह-बंधन जो सदा एकतरफा रहा। लगा जैसे आंखें भीग रही हैं, पर मैंने एक झटके से इन खयालों को परे धकेल दिया और खिड़की के पास आ खड़ी हुई।

रात बीत चुकी थी। चिड़ियों की चहचहाहट और पहाड़ के पीछे से फैलती हलकी किरणें नयी सुबह का संदेशा ला रही थीं। रातभर जागने के कारण आलस और सिर भारी-भारी सा लग रहा था। फ्रेश हो कर चाय की चुस्कियां ले रही थी। तभी दरवाजे से छात्रावास की लड़कियों का समूह आता दिख पड़ा। उन्हें देख कर याद अाया कि आज रविवार है और हरेक रविवार को हम स्कूल के पीछे बने पंछियों के हाते में उन्हें देखने जाते हैं। यह एक मिनी चिड़ियाघर था, जहां कुछ रंगबिरंगे पंछी और घरेलू जानवर थे। लड़कियों ने एक स्वर में गुडमॉर्निंग कहा और बाग में चलने की जिद की।

‘‘दीदी देखिए, पहाड़ के पीछे बादल उमड़ रहे हैं, मयूर भी नाच रहा है,’’ गीतिका ने कहा। मैंने उन्हें थोड़ी देर रुकने को कहा और स्वयं तैयार होने चली गयी। मैंने सुर्ख लाल सूट पहना। रास्तेभर लड़कियों की चुहलबाजियां मुझे गुदगुदाती रहीं। सच, मेरी जिंदगी खूबसूरत हो गयी थी।