Thursday 13 June 2024 03:17 PM IST : By Pallavi Pundir

यात्रा

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‘‘अरे नीरज अंकल, आज तो आप मुझसे पहले आ गए...’’

‘‘अरे भाई आमिर... तुम मेरे जैसे वेले थोड़े ही ना हो।’’

‘‘क्या अंकल आप भी, आप बैठिए मैं आपकी रेगुलर वाली कॉफी भेजता हूं।’’

नीरज भारद्वाज ने पिछले साल ही अपने प्रशासनिक पद से वॉलेंटरी रिटायरमेंट ली थी, पूछने पर कहते 1988 से लगातार काम कर रहे हैं, इसलिए अब आराम। पिछले 6 महीने से वे लगातार इस कॉफी शॉप में आने लगे थे। सुबह से शाम तक वहां बैठ कर किताबें पढ़ते रहते। बीच में एक बार बस खाना खाने के लिए घर जाते। वह भी तब जब उनका नौकर दीना, जिसे वे प्यार से सखा बुलाते थे जबर्दस्ती ले कर जाता। घर पर अपना कहने के लिए कोई नहीं था, काफी साल पहले उनका तलाक हो गया था।

‘‘गुड मॉर्निग अंकल, आप क्या पढ़ रहे हैं।’’

‘‘अरे, तुम सब भी आ गए।’’

‘‘11 बज गए हैं अंकल। आपको पता नहीं चला... ऐसा भी क्या पढ़ रहे हैं। ’’

‘‘ओह... आज मैं एक नयी लेखिका है कोई यात्रा, उसी की किताब पढ़ रहा हूं।’’

‘‘अंकल, यह तो आज के समय की प्रसिद्ध लेखिका है। इनकी बाकी 2 किताबें भी पढ़ी हैं क्या आपने?’’

‘‘नहीं भाई, आज यह पढ़ लूं... फिर दूसरी।’’

‘‘कौन सी पढ़ रहे हैं।’’

‘‘एक बार फिर...’’

‘‘अच्छा-अच्छा...’’ कॉफी रख कर राज चला गया था।

अच्छा लिखती है यह यात्रा। भाषा पर पकड़ काफी अच्छी लग रही थी उन्हें। आज के दौर में तो हिंदी लेखकों का जैसे अकाल आ गया हो। यही वह देश है, जहां प्रेमचंद तथा जयशंकर प्रसाद जैसे लेखक हुए थे। अच्छा लगा था उन्हें यह देख कर कि आज की जनरेशन के बच्चे हिंदी लेखिका की तारीफ कर रहे थे। चलो हिंदी का भविष्य सुरक्षित है। किताब पूरी करते-करते शाम हो गयी थी। खाना खाने भी नहीं गए थे उस दिन, ना जाने कितने कप कॉफी पी गए थे। किताब पूरी करके बस रखी ही थी कि उनकी नजर सामने बैठी महिला पर चली गयी। इस चेहरे को पहचानने में उनसे कभी गलती नहीं हो सकती थी। यामिनी ही थी वह...

30 साल पहले 1986

‘‘तो आज क्या बहाना है।’’

‘‘तुम्हें लगता है, मैं बहाना बनाती हूं।’’

‘‘लगता नहीं, मैं जानता हूं...’’

‘‘नीरज...’’

‘‘यामिनी...’’

यामिनी और नीरज दिल्ली के एक प्रख्यात कॉलेज में एक साथ पढ़ते हैं। अॉनर्स का विषय भी एक ही था, हिंदी साहित्य। साहित्य में रुचि तथा किताबों पर की जानेवाली परिचर्चा के कारण दोनों का एक-दूसरे से परिचय हुआ था। वह परिचय कब प्यार में बदल गया, दाेनों को पता ही नहीं चला। फाइनल इयर की परीक्षा अभी-अभी समाप्त हुई थी।

‘‘तो यूपीएससी का फॉर्म भेज दिया क्या तुमने।’’

‘‘हां जी मैडम, भेज दिया।’’

‘‘गुड बॉय।’’

‘‘देखो यामिनी, तुम्हारी जिद पर फॉर्म तो भेज दिया मैंने। परंतु मुझे नहीं लगता इस बार मेरा सलेक्शन होगा बेकार में चांस बर्बाद होगा।’’

‘‘कैसी बात करते हो तुम। बिना मेहनत किए परिणाम की बात करना ठीक वैसा ही है, जैसे बिना पुस्तक पढ़े लेखक की निंदा करना। ’’

‘‘जी... अच्छा तुम्हारी कहानी का क्या हुआ।’’

‘‘अरे वही बताने तो आयी थी, परंतु तुमने बातों में उलझा लिया। मेरी कहानी अगले महीने के इशू में आ रही है...’’

‘‘वाह-वाह... चलो इसी बात पर तुम्हें फिल्म दिखाने ले चलता हूं।’’

‘‘पर तुम्हारी पढ़ाई...’’

‘‘कल से जम कर शुरू करने वाला हूं। और सुनो कल से ले कर मेरी परीक्षा तक...’’

‘‘इन 4 महीनों में हम सिर्फ रविवार को मिलेंगे। और परीक्षा वाले महीने हम बिलकुल नहीं मिलेंगे।

‘‘मुझे पता है... और कुछ...’’

‘‘फोन भी नहीं...’’

‘‘जी सर...’’

‘‘वैसे हम कौन सी फिल्म देखने जा रहे हैं।’’

‘‘टॉपगन... काफी हिट हो रही है...’’

‘‘पर उसका टिकट...’’

‘‘ले लिया था मैंने पहले ही, टॉम क्रूज की फिल्म तुम ना देखो ऐसा कभी हो सकता है क्या।’’

‘‘शाबाश... मेरे साथ रह कर काफी समझदार हो गए हैं।’’

‘‘अच्छा, आंटी को बता दिया है।’’

‘‘जी, वे जानती हैं कि मैं तुमसे मिलने जा रही हूं। वैसे भी सगाई के बाद कपल्स को साथ घूमने का लाइसेंस मिल जाता है।’’

पिछले महीने ही दोनों की सगाई हुई थी। परिवारवालों की तरफ से विरोध होने का कोई कारण ही नहीं था। शादी नीरज नौकरी लगने के बाद करना चाहता था और उसकी यह शर्त सबको सहर्ष स्वीकार थी। परंतु समय कुछ और ही जाल बुन रहा था। शादी के पांच दिन पहले यामिनी ने शादी से इंकार कर दिया था।

आज के दिन

‘‘माफ कीजिएगा, कहीं मैं आपको डिस्टर्ब तो नहीं कर रहा हूं...’’

‘‘जी... कर तो रहे हैं।’’

नीरज असहज हो गए थे, परंतु अपने आपको संभाल कर बोले, ‘‘यामिनी... अब मैं इतना भी नहीं बदला हूं कि तुम पहचान ना पाओ।’’

‘‘अच्छा... पर मैंने तो आपको नहीं पहचाना..’’

‘‘मैं नीरज भारद्वाज...’’

‘‘हम्म... क्या काम है?’’

‘‘काम... काम तो कुछ नहीं... बस तुम्हें इतने साल बाद देखा, तो अपने आपको रोक नहीं पाया।’’

‘‘बैठो..’’

‘‘कैसी हो यामिनी?’’ बैठते हुए नीरज ने पूछा।

‘‘ठीक ही हूं... देख तो रहे हो...’’

‘‘इतने साल हो गए...’’

‘‘30 साल नीरज...’’

तो वह भी उन्हें पहचान गयी थी।

‘‘यहां... मेरा मतलब पूना में...’’

‘‘एक बुक लॉन्च के सिलसिले में आयी थी।’’

‘‘तुम आज भी लिखती हो..’’

‘‘हम्म...’’

‘‘टॉम क्रूज पसंद है अब भी...’’

‘‘हम्म...’’

‘‘तुम नहीं बदली...’’

‘‘हां, क्योंकि बदलना मेरी फितरत में नहीं है... यात्रा, यह मेरा ही छद्म नाम है।’’

‘‘यात्रा तुम हो...!’’

‘‘क्यों? नहीं हो सकती...’’

‘‘क्या सुखद संयोग है, मैं अभी तुम्हारी ही एक किताब पढ़ रहा था।’’

‘‘हम्म... अब आप मुझे अकेला छोड़ देंगे।’’

कितनी निष्ठुर हो गयी थी यामिनी। आखिर मेरे साथ उसके इस व्यवहार का कारण क्या स्वयं मैं था।

30 साल पहले 1986

जिस महीने नीरज की परीक्षा होने वाली थी, उसने अपने आपको बाहरी दुनिया से बिलकुल काट लिया था। यहां तक कि यामिनी को भी फोन करने से मना कर दिया था। घर वालों से भी कम बात होती थी।

परीक्षा समाप्त होते ही उसने सबसे पहले यामिनी को फोन लगाया, परंतु फोन नहीं लगा।

‘‘पापा, यामिनी के घर का फोन खराब है क्या? काफी देर से लगा रहा था मैं।’’

उसके बाद पापा ने जो बताया उसने मेरे पैरों तले से जमीन खींच ली थी।

15 दिन पहले जब यामिनी अपनी मां के साथ बाजार से घर आ रही थी, कुछ लोगों ने उसका अपहरण कर लिया था। अगले दिन सुबह पुलिस उसे तलाश कर पायी थी।

‘‘पापा, आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया।’’

‘‘यामिनी ने मना किया था... वह नहीं चाहती थी कि तुम्हारी परीक्षा में...’’

‘‘भाड़ में जाए परीक्षा।’’

हिम्मत बटोर कर नीरज यामिनी के सामने जा पाया था। उसके सीने से लग कर कितनी देर तक रोती रही थी वह।

‘‘नीरज, मैं... मैं... ’’

‘‘यामिनी... क्या सचमुच उन लोगों ने तुम्हारा.. मेरा मतलब है...’’ क्या कह गया था वह।

एक झटके में तड़प कर नीरज से अलग हो गयी थी यामिनी और चीख पड़ी थी, ‘‘हां नीरज, उन लोगों ने... उन 6 लोगों ने बारी-बारी से मेरा बलात्कार किया है...’’

‘‘चुप हो जाओ यामिनी... क्या बक रही हो... कुछ तो शरम करो। मम्मी-पापा यहीं खड़े हैं...’’

‘‘शरम... मुझे आनी चाहिए...’’

नजर नहीं मिला पाया था नीरज यामिनी से। नीरज इस परिस्थिति से सामंजस्य ही नहीं बैठा पा रहा था, बहुत कुछ चल रहा था उसके अंदर। तभी यामिनी के पिता जी ने उसे बात करने के लिए अंदर बुलाया, ‘‘बेटा नीरज, अब हम तुम्हारे रिजल्ट तक नहीं रुक सकते। शादी जल्दी ही करनी होगी...’’

इससे पहले नीरज कुछ कह पाता उसके पापा आगे आ गए थे, ‘‘देखिए शर्मा जी, हम जानते हैं कि यामिनी के साथ जो हुआ वह दुखद है। परंतु एक अपवित्र लड़की को अपने घर की बहू बना कर अपनी बेटी के भविष्य पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकते। हमें इसी समाज में रहना है।’’

‘‘भारद्वाज जी आप... यह... बेटा... बेटा तुम तो कुछ बोलो।’’

‘‘कमाल करते हैं आप शर्मा जी, मेरे बेटे की राय क्या मुझसे अलग होगी।’’

‘‘बेटा... दया कराे बेटा... लोग पहले ही उसके चरित्र को ले कर जाने कैसी-कैसी बातें बना रहे हैं। अब तुम भी उसे ठुकरा दोगे, तो क्या होगा हमारी यामिनी का। तुम नहीं अपनाओगे, तो कौन अपनाएगा उसे।’’

‘‘अंकल, मेरी पूरी सहानुभूति यामिनी के साथ है। परंतु माफ कीजिएगा, मुझे निर्णय लेने के लिए थोड़ा समय चाहिए। यह सब मेरे लिए भी इतना आसान नहीं है। आपको फोन पर सूचित कर दूंगा मैं,’’ यह कह कर निकल आया था नीरज। यामिनी से मिलना भी जरूरी नहीं समझा था उसने।

मम्मी-पापा को समझाबुझा कर किसी तरह शादी के लिए तैयार कर पाया था नीरज। यामिनी के घरवालों के लिए तो वह ईश्वर ही बन गया था। वैसे भी एक बलात्कार पीडि़ता से विवाह करनेवाला मनुष्य हमारे समाज में सुपर हीरो ही है, क्योंकि हमारे देश में बलात्कार भी स्त्री का होता है और कटघरे में भी वही खड़ी होती है। जुर्म जिसके साथ होता है, अपराधी भी उसे ही मान लिया जाता है।

ठीक 10 दिन बाद शादी की तारीख तय हुई थी, परंतु शादी के पांच दिन पहले यामिनी ने शादी से इंकार कर दिया था।

आज का दिन

‘‘तुम इतनी पत्थर दिल कब हो गयी यामिनी। मेरा यहां बैठना भी तुम्हें परेशान कर रहा है।’’

‘‘उसी दिन, जिस दिन तुम्हारा प्यार सहानुभूति में बदल गया था।’’

‘‘यामिनी, उस दिन तुमने...’’

‘‘हां, मैंने तुम्हारी और पापा की बातें सुन ली थीं।’’

‘‘नीरज, तुम्हें लग रहा था शायद मुझसे शादी करके तुम कोई अहसान कर रहे थे। तुम लोग और तुम्हारा यह समाज इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझ पाता कि रेप भी एक दुर्घटना है। पीडि़त को ही और पीड़ा देने में क्यों मजा आता है तुम लोगों को।

‘‘उन जख्मों, उन भयानक यादों के साथ मुझे जीना मंजूर था। परंतु तुम्हारी दया और तुम्हारे उपकार से दब कर जीना मंजूर नहीं था मुझे। मुझे तुम्हारे प्रेम की आवश्यकता थी, दया की नहीं बस इसीलिए मैंने शादी से इंकार किया था। यही जानना चाहते थे ना तुम।’’

‘‘यामिनी...’’

कुछ पल रुक कर फिर बोले नीरज, ‘‘एक साधारण मनुष्य था मैं, झूठ नहीं बोलूंगा आज तुमसे। कुछ पल के लिए मैं कमजोर जरूर पड़ गया था। जिस पल मुझे तुम्हारे साथ रहना चाहिए था, मैं नहीं था। परंतु इसलिए नहीं, क्योंकि मैं रहना नहीं चाहता था। हादसा तुम्हारे साथ हुआ था, परंतु उसकी पीड़ा ने मुझे भी कम नहीं सताया था। कई-कई रातों तक मैं सो नहीं पाया था। जानती हो मैंने तुम्हारे पापा से समय क्यों मांगा था।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मैं चाहता था कि जब तुम मेरे घर आओ, उस घटना की कोई छाया भी तुम्हें छू ना पाए। सब कुछ तुम्हें वैसा ही मिले जैसा इस घटना के पहले मिलता। मैं स्वयं को भी वस्तुस्थिति के अनुरूप ढालना चाहता था। मम्मी-पापा शादी के लिए तो मान गए थे, परंतु उनकी तरफ से तुम्हारे प्रति कटुता आ गयी थी। इसलिए मैंने सोचा था कि जब तक सब कुछ ठीक नहीं होता, हम किसी दूसरे शहर में जा कर रहेंगे। काश, हमने बात कर ली होती यामिनी...’’

‘‘तुमने तो कोशिश की थी नीरज... मैंने ही...’’

‘‘नहीं यामिनी, गलतफहमी की यह दीवार मेरी कायरता की वजह से ही खड़ी हो पायी। तुम सही कह रही थी... अपने आपको बड़ा महान समझने लगा था मैं।’’

‘‘शायद... नियति को हमारा मिलना मंजूर नहीं था। तभी तो सारे घटनाक्रम विपरीत हाेते चले गए। खैर छोड़ो यह सब, यह बताओ तुम्हारी बीवी और बच्चे कैसे हैं।’’

‘‘वह और उसके बच्चे दोनों ठीक हैं।’’

‘‘उसके बच्चे।’’

‘‘शादी के एक साल बाद ही हमारा तलाक हो गया था।’’

‘‘ओह आई एम सॉरी।’’

‘‘नहीं सॉरी क्यों। आई एम हैप्पी फॉर हर। जिसके लिए मैं बना ही नहीं था उसके साथ कैसे निभा पाता। और जो मेरे लिए बनी थी उसको कभी इस बात का यकीन ही नहीं दिला पाया।’’

‘‘तुम बताओ कुछ अपने बारे में...’’

‘‘अफेअर तो कई हुए... पर प्यार...’’

अचानक खड़ी हो गयी थी वह।

‘‘अब मुझे चलना होगा नीरज। कल सुबह की मेरी फ्लाइट है। यह मेरा कार्ड है। कभी हैदराबाद आना, तो मुझसे जरूर मिलना।’’

कहना तो नीरज बहुत कुछ चाहते थे परंतु बस कह सिर्फ इतना ही पाए...

‘‘थोड़ी देर बाद चली जाना...’’

यामिनी के कदम सहज ही रुक गए थे। उसी की पुस्तक उसके सामने कर दी थी नीरज ने।

‘‘नीरज, यह क्या।’’

‘‘एक बार फिर...’’

‘‘हां, शीर्षक है यह मेरी...’’

‘‘एक बार फिर...’’ उसकी बात काटते हुए नीरज ने दोबारा कहा।

‘‘तुम यह... हमारी उम्र... नीरज।’’

उसका हाथ साधिकार अपने हाथों में ले कर नीरज ने पुस्तक के आखिरी पन्नों को खोल कर यामिनी के सामने रख दिया था।

उस पन्ने पर लिखा था...

वक्त ले आया तुम्हारे करीब, एक बार फिर

आंखों ने कहा जी भर कर देख लूं तुम्हें,

एक बार फिर

हाथों ने कहा भर लूं तुम्हें आगोश में,

एक बार फिर

लबों ने कहा नाम पुकारूं तुम्हारा,

मरने से पहले जी लूं,

एक बार फिर... एक बार फिर...