गोरा रंग और फ्रेंचकट दाढ़ी के साथ रफीक खान एशियन कम रशियन ज्यादा लगते थे। हाइट भी उनकी 6 फुट की थी। खानदानी जमींदारी वे उत्तर प्रदेश के एक गांव फतेहगंज में ही छोड़ आए थे। अब्बू अब रहे नहीं, उनकी जमींदारी अब छोटे भाई के जिम्मे थी। जमींदारी भी क्या कही जाए- वो दबदबा तो था नहीं, बस खेती, किसानी, उपज, फसल, ट्रैक्टर-मवेशी यही बच गया था। अब्बू तो गांव में ही रचे-बसे थे, लेकिन रफीक उनकी जमींदारी के बल पर विदेशी डिग्रियां ले आए।
रफीक साहब विदेश में विदेशी अदब-कायदों और वहां की जहीन स्मार्ट लड़कियों के दीवाने बन बैठे। विदेश से पढ़ कर आने के बाद नौकरी उन्हें कहीं जमी नहीं, गांव में तो और भी दिल ना लगा, लखनऊ आ गए। ज्वेलरी की दुकान शुरू की और रफीक साहब के काॅमर्स के पुख्ता ज्ञान के चलते व्यापार विदेशों तक फैल गया। करोड़ों में व्यापार होने लगे। सत्ताइस की उम्र हो चुकी थी। अपनी बिरादरी में ऐसी लड़की जल्द मिली नहीं, जो हूबहू वैसी हो, जिसका ख्वाब वे देखते हैं। पहली बीवी आ गयी उनकी भाभी की खाला की बेटी नाहिदा। कुछ शहर की डिग्रियां थीं, रफीक भी मन मार कर मान गए।
नाहिदा के साथ शादी के 8 साल पूरे होने को हुए। अब तक रफीक साहब कुल जमा 3 बेटियों के बाप बन कर भी खुद को बेऔलाद ही समझते रहे। कारण था बेटा। उनका छोटा भाई 3 बेटों का बाप बन जहां मूंछों पर ताव दिए अकड़ा फिरता था, वे इतने बड़े बिजनेसमैन हो कर भी लोगों की सहानुभूति का पात्र बन जाते। लोग बिना पूछे ही कई तरह के मशविरा दे जाते, कई तो बीवी को खिलाने की दवा या चूर्ण भी दे जाते। पर बेटा ना होना था, ना हुआ।
‘बेटे का बाप’ कहलाने की रफीक मियां की हसरतों का इनकी बुआ को भी खबर लग चुकी थी। बुआ की 3 बेटियां थीं। बेचारी विधवा ने 2 का तो निकाह पढ़वा दिया था, मगर तीसरी शीरीन ने परेशानियां बढ़ा रखीं थीं। बाप सी सांवली काया थी, लोग निकाह के मामले में घास ही ना डालते। बुआ अपनी सांवली बेटी की तसवीर का जल्द फोटोशॉप करा कर पहुंच गयी रफीक साहब के पास। हफ्तेभर रह कर पहली बहू के कान बचा कर रफीक मियां के कान में बेटे ना होने के ऐसे-ऐसे अफसोस गिनाए, दोजख का यों डर दिखाया, समाज की थू-थू से ऐसा रूबरू कराया कि रफीक साहब बेचैनी में हां कह गए। शीरीन भी आ गयी। कुछ दिन रफीक साहब ने शीरीन में दिल लगाने की कोशिश की, फिर स्वभाव से ज्यादा मेल ना खाने की वजह से अपने बिजनेस में व्यस्त हो गए। नाहिदा पहले तो दुखी थी, लेकिन शीरीन को कमजोर प्रतिद्वंद्वी के रूप में पा कर वह निश्चिंत हो गयी थी।
शीरीन की तबीयत को कुछ जनाना उलझनें होने लगीं। वह 5 साल तक मां बनने की हायतोबा में ही उलझती रही। आखिरकार डॉक्टरों ने बेटे की तो क्या बच्चे जनने की ही उसकी उम्मीदों पर सवाल रख केस बंद कर दिया। रफीक साहब सिर पीट कर रह गए।
इन्हीं उदासियों के दिनों में एक शाम अशफाक मियां रफीक साहब की शॉप पर आए। उनकी उम्र 50 के आसपास की थी। मगर लगता था जैसे घर-परिवार और दिक्कतों की मार ने उन्हें समय से पहले ज्यादा ही वृद्ध कर दिया था। अशफाक मियां ने 3 महीने पहले रफीक मियां से 15 लाख के जेवर खरीदे थे। बात थी कि जिस पार्टी ने अशफाक मियां को माल का अाॅर्डर दिया है, उसके माल खरीदते ही अशफाक मियां रफीक साहब के पैसे चुका देंगे। पांच लाख अशफाक मियां ने दे रखे थे। बात हुई थी कि बाकी के पैसे 3 महीने पूरे होते ही ना चुका पाएं, तो अशफाक मियां के जेवर की दुकान रफीक साहब के पास तब तक गिरवी हो जाएगी, जब तक दुकान के जेवरों की खरीद-बिक्री के मुनाफे से उनका उधार ना चुकता हो जाए।
अशफाक मियां शर्मिंदा हो कर कह पड़े, ‘‘रफीक साहब, बाकी के 10 लाख के लिए कहीं रोशनी नहीं दिखती। पार्टी ऐन वक्त पर सौदे से मुकर गयी, हमें इसकी कतई उम्मीद ना थी। बेटा हमारा महज 10 साल का है, 2 बेटियों की शादी करवा चुका, 2 अभी सिर पे हैं। ऊपर से आपका कर्जा। मुरव्वत करके कोई ऐसी रकम तय करें कि हम भी जी लें। दुकान आ कर देख लें, और एक बात थी, कैसे कहूं। आप बुरा ना मानें, एक गुजारिश थी। सुना है बेटे की ख्वाहिश में आप तीसरी शादी करना चाहते हैं। एक बार मेरी बेटी को भी देख सकते हैं।’’
रफीक ठहरे बड़े बिजनेसमैन। पलक झपकते ही उन्होंने शतरंज की बिसात पर सारी गोटियां बिठा लीं। दिमाग में अशफाक मियां की तीसरी बेटी की तसवीर आंकने की कोशिश की, मगर सिवा नाहिदा और शीरीन के चेहरे के कुछ ना उभरा। छिः लाहौल बिला कुवत ! वे मन ही मन बुदबुदा पड़े। अशफाक मियां सतर्क से उन्हें देखते रहे। कल दुकान पर पहुंचने की बात कह रफीक साहब ने उन्हें विदा कर दिया।
दूसरे दिन मर्सीडीज कार जब अशफाक मियां की दुकान के दरवाजे पर आ कर रुकी, तो दुकान पर अशफाक नहीं थे। दोपहर का खाना खाने पास ही गली में अपने घर गए थे। अशफाक की तीसरी बेटी अब्बू की जगह पर बैठी थी। गजब की रंगत, बेमिसाल नैन-नक्श, इस्लामी चाल-चलन से अलग फुलस्लीव की फैशनेबल कुरती और जींस में दिखी। रफीक को अंदर आते देख नजाकत के साथ वह मालिकाना कुर्सी से उठ खड़ी हुई और बड़े सलीके से रफीक साहब का स्वागत किया, ‘‘अब्बू खाना खाने गए हैं, आपके बारे में बताया है, कुछ देर बैठिए, आते ही होंगे।’’
रफीक साहब लड़की के लाजवाब अंदाज, बेमिसाल खूबसूरती और मीठे बोलों के बस कायल हो कर रह गए। अपनी चतुरता से रफीक समझ गए कि अशफाक ने उन्हें वक्त और मौका दिया है, ताकि वे इस खुदा के नायाब हीरे को परख सकें।
रफीक ने बैठते हुए पूछा, ‘‘क्या नाम है आपका।’’
‘‘शहाना।’’
‘‘वाह ! मौसिकी सा नाम है। लगता है जैसे संगीत गूंज उठा हो।’’
‘‘जी शुक्रिया। एक राग का नाम है, गाया-बजाया जाता है।’’
रफीक मियां का रसिया मिजाज फिर से जैसे कब्र से उठ आया हो। बेहद खुश थे। कहा, ‘‘बुरा ना मानें शहाना, मैं एतबार नहीं कर पा रहा कि आप जन्नत से जमीं पर उतर आयी हैं। और ये जींस टॉप? अशफाक मियां आपको इजाजत देते हैं।’’
शहाना को यद्यपि रफीक मियां से उसकी शादी की बात पता नहीं थी, लेकिन ये दुकान को गिरवी रखने के लिए देखने आए हैं, इतना पता था। वह थोड़ा घबरायी, जाने क्या सोचें, क्या कहा जाए?
इतने में कलाम नाश्ता और कॉफी ला कर रफीक के सामने रखते हुए बोला, ‘‘हमारे चाचा बहुत ही खुले दिमाग के हैं। शहाना बीबी ऐसे तो 12वीं के बाद पढ़ नहीं पायी, लेकिन अंग्रेजी का कोर्स करने के बाद अंग्रेजी में बातें भी खूब बढि़या कर सकती हैं। बड़ी ही नेकदिल है शहाना बी।’’
‘‘आप कौन?’’ रफीक मियां तीसरे की उपस्थिति से जरा नाराज हुए।
शहाना ने बात संभाली, ‘‘मेरे अब्बू की मदद करते हैं, कलाम नाम है इनका।’’
‘‘ठीक है मैं समझ गया, आपको कोई काम है तो देखो, मैं शहाना जी से पहचान खुद ही बना लूंगा।’’
कलाम बड़ा ही खुद्दार, नेकदिल, शरीफ इंसान था, रफीक की झल्लाहटभरी बातें सुन वह तुरंत वहां से हट गया। गरीबी में पले-बढ़े कलाम को शहाना के अब्बू अपने गांव से लाए थे कि काम सीख कर विधवा बीमार मां को कुछ पैसे भेज पाएगा। पहले तो अशफाक चाचा के घर में ही आंगन के एक किनारे कलाम के लिए छाेटा सा कमरा बनवा दिया गया था। धीरे-धीरे चाचा की बेटियां बड़ी होती गयीं, आने-जाने वाले बेटियों के बारे में कुछ भी बुरा कहे, इससे पहले ही कलाम ने दुकान से कुछ दूरी पर अपने लिए एक किराए का मकान ले लिया।
अच्छे इंसान के साथ-साथ कलाम अच्छा कारीगर भी था। सोना गलाते आग में तप कर कलाम तांबे सा धूसर हाे गया था। मगर शहाना का मानना था कि कलाम के दिल का रंग दिनोंदिन निखर रहा था- सोने सा। क्या पता वहां शहाना की मूर्ति भी बसी हो।
शहाना उससे 6 साल छोटी है। वह अभी इक्कीस की है। पर जब वह बच्ची थी बड़ी चंचल थी। बस बाहर घूमने निकल जाना, अपने बचत के पैसे से क्रीम, लिपस्टिक, नेल पाॅलिश खरीदने घर वालों को बिना बताए बाजार जाना। अब जब शहाना बड़ी हो गयी थी, जाने क्या उसके प्रति उसकी कमजोरी थी, वह अपने 7 हजार की छोटी सी तनख्वाह से भी सारे खर्चे सही बिठा कर शहाना के लिए कुछ ना कुछ उसकी पसंद का तोहफा ले ही आता।
शहाना कभी उसे शरमा कर देखती, कभी अधिकार से, लेकिन कलाम खुद ही दूर रहता, उसे मालूम था चाचा के घर में वह कभी डाका नहीं डालेगा। शहाना की तीनों बहनें भी सुंदर हैं, पर शहाना को जैसे अल्लाह ने फुरसत से गढ़ा है। ‘ब्याही गयी, तो बादशाह की बेगम बनेगी,’ कलाम अकसर सोचता।
रफीक की नजर शहाना पर बंधी थी। शहाना मन ही मन अब्बू के वापस आ जाने की दुआ कर रही थी। आखिर कब तक रफीक की आशिक नजर को संभाल पाए। अब्बू तो जैसे जानबूझ कर समय काट रहे थे। शहाना ने अब्बू को फोन लगाया। अब्बू ने रफीक साहब से बात करनी चाही।
रफीक के बोल फोन पर कुछ ऐसे थे, ‘‘मुझे मंजूर है, हां दोनों, आप आइए मेरे अॉफिस, कल बात करता हूं,’’ रफीक साहब फोन का रिसीवर शहाना को थमाते हुए कहा, ‘‘हीरे की अंगूठी दिखाओ।’’
शहाना ने एक से बढ़ कर एक नगीने जड़े अंगूठी दिखायी। रफीक ने कहा, ‘‘एक चुन कर मुझे दो, जो मैं अपनी बीवी को भेंट कर सकूं। रुपए की फिक्र नहीं।’’
शहाना की नजर को जो पसंद आयी, उसने उठा कर रफीक को दी। रफीक ने कहा, ‘‘अपनी उंगली दो।’’ शहाना के चेहरे का रंग सफेद पड़ गया।
‘क्या ये बस देखना चाहते हैं या और कुछ। या खुदा कलाम पे मेरी सांसें अटकी हैं। मुझे दौलत, रुतबे और हुस्न की चाहत नहीं। मेरा सजना-संवरना सब तुम्हारे लिए कलाम। मुझे हीरा नहीं तुम चाहिए। मेरी दुआ कबूल करो खुदा।’
रफीक साहब की भौंहें तन गयीं। कहा, ‘‘सोच क्या रही हो, उंगली बढ़ाओ।’’
शहाना ने यंत्रवत उंगली बढ़ा दी। रफीक ने उसकी उंगली पकड़ हीरे की अंगूठी डाल कहा, ‘‘अब इसे उतारना मत, तुम मेरी हो गयी।’’
शहाना खौफजदा हो गयी, ‘‘अब्बू,’’ वह अचानक बोल पड़ी।
‘‘उनसे बात हो गयी है। अब्बू की ही मरजी से है यह,’’ कह कर रफीक उस पर एक रूमानी नजर डाल दुकान से निकल गए। कलाम सोने पर चोट करता रहा। सिर नीचे किए हुए अपना काम करता रहा।
सारी कायनात महीनेभर में बदल चुकी थी। देखते-देखते कलाम की आंखों के सामने अशफाक मियां ने रफीक से शहाना का निकाह पढ़वा दिया, मेहर की रकम भी रफीक को ना के बराबर लगी। साथ अशफाक मियां के इतने सालों का जेवर का व्यवसाय रफीक को गिरवी चला गया।
कलाम ने अपने प्रेम के भविष्य का सच पहले ही जान रखा था, शहाना की शादी में सबकी खातिरदारी में वह सबसे आगे रहा। शहाना ने जिंदगी का सच कबूल लिया।