
पापा ने हमेशा की तरह अपनी बात एक फरमान की तरह सुना दी और तीर की तरह बाहर निकल गए थे। उनके फरमान के अनुसार उनके बड़े भाई यानी ताऊजी के एक दोस्त की बेटी हमारे यहां रहने आ रही थी। उसकी यहां एक कंपनी में नौकरी लगी थी और कंपनी वाले उसे क्वार्टर दें, तब तक वह हमारे यहां रहने वाली थी। मेरे लिए पूरे फरमान में से महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुझे अपना एक कमरा उसके लिए खाली करना था और मम्मी के लिए महत्वपूर्ण बात यह थी कि लड़की विधवा थी। मेरे दोनों कमरे बिल्कुल पास-पास और एक जैसे ही थे। एक में मैं अपने ऑफिस की फाइलें और किताबें वगैरह रखता था। पढ़ने-लिखने का सारा काम मैं वहीं करता था और दूसरा मेरा बेडरूम था। मैंने बेडरूम अपने पास ही रखने का निश्चय किया और फाइलें, किताबें वगैरह सब वहां लाकर एक कमरा खाली कर दिया। दिव्या अगले दिन ही आ गई थी। वह मेरी हमउम्र ही थी। एकबारगी उसे देखते ही चेहरा परिचित सा लगा था। मानो ये आंखें और बाल कहीं देख रखे हैं, पर उससे बात करने पर शीघ्र ही मेरा यह भ्रम दूर हो गया क्योंकि हमारी यह पहली ही मुलाकात थी। दिव्या ने न केवल बहुत जल्दी अपना कमरा जमा लिया, बल्कि हम घरवालों के दिलों में भी अपने लिए जगह बना ली। वह वाकई बहुत संस्कारी और मधुर स्वभाव की लड़की थी। बातों ही बातों में मैं जान गया था कि वह व्यावसायिक रूप से भी बहुत कुशल थी। मम्मी को उसका विधवा होते हुए भी पाश्चात्य लिबास पहनना अखरा था लेकिन उसने बातों-बातों में मम्मी के मन की यह फांस भी निकाल दी थी। दिव्या ने बताया कि पहले वह साड़ी और सूट ही पहनती थी पर उनके साथ बिंदी-चूड़ी का अभाव तुरंत ही उसके विधवा होने का प्रमाण प्रस्तुत कर जाता और न चाहते हुए भी उसे लोगों की आंखों में अपने लिए सहानुभूति और बेचारगी के भाव देखने पड़ते थे, जो उस जैसी स्वाभिमानी युवती को कतई गवारा नहीं था। इसलिए उसने पाश्चात्य परिधान पहनने आरंभ कर दिए थे। कम उम्र में इतने बड़े अनुभवों ने उसे जिंदगी के कई छोटे-बड़े सबक सिखाकर परिपक्व बना दिया था। हम उसकी भावनाएं समझते थे, इसलिए घर में कोई भी उसके विगत के घाव नहीं कुरेदता था। उसे सम्मान देते-देते मैं शायद मन ही मन कहीं उसे चाहने भी लगा था। मम्मी और दिव्या की नजरें ये चाहत के भाव पढ़ चुकी थीं और इससे अपनी असहमति भी वे समय-समय पर जाहिर कर देती थीं। मसलन दिव्या की मौजूदगी में ही मम्मी मेरी शादी का जिक्र छेड़ देती थीं। ‘अब तो घर में बहू आ ही जानी चाहिए। हमारे पास नामीगिरामी घरानों से रिश्ते आ रहे हैं। बेटी, तू ही इसे समझा कि समय रहते उनमें से कोई चुन ले और हां तेरी जान-पहचान में भी कोई करण के लायक हो तो हमें जरूर बताना।’
दिव्या इस कटु सत्य से परिचित थी कि घर की मालकिन की नजरों में वह कितनी भी अच्छी क्यों न हो, मगर उसका वैधव्य उसके सर पर ऐसा बदनुमा दाग है कि वे उसे कभी इस घर की बहू नहीं स्वीकारेंगी। इसलिए वह हमेशा मर्यादा की सीमारेखा में ही बनी रहती थी। मैं चाहकर भी उस सीमारेखा को लांघने का साहस नहीं कर पाता था।

उस दिन मैं ऑफिस के लिए निकलने को ही था कि अचानक तेज बारिश शुरू हो गई। मैं छाता लेने वापिस कमरे की ओर गया तो ध्यान बरबस ही दिव्या के कमरे की ओर चला गया। वह ऑफिस निकल चुकी थी और बालकनी में सुखाए उसके कपड़े भीग रहे थे। हम दोनों भले ही कितना भी घुल-मिल गए थे पर एक-दूसरे के कमरे में नहीं जाते थे। मेरे पांव अनायास ही उसके कमरे में से होते हुए उसकी बालकनी में पहुंच गए। मैंने फटाफट सारे कपड़े उठा लिए और उसके कमरे में लाकर फैलाने लगा। इस उपक्रम में तकिया हटाया तो उसके नीचे दबे कुछ पन्ने स्वतः ही फड़फड़ाकर उड़ने लगे। उन्हें झुककर उठाने लगा तो लगा बिजली के नंगे तार से छू गया हूं। पास रखी कुर्सी का हत्था न पकड़ लिया होता तो वहीं भरभराकर ढह जाता। वे खत थे, मेरे अपने हाथों से लिखे गए खत। ये खत इस लड़की के पास कहां से आए? ये तो मुझसे विक्रम ने लिखवाए थे, अपनी मंगेतर के लिए। अपनी मंगेतर मतलब...... मतलब दिव्या विक्रम की विधवा है? विक्रम..... मतलब विक्रम अब इस दुनिया में नहीं है? ओह नो!
मैंने कांपते हाथों से खत वापिस तकिए के नीचे दबा दिए। मैं अपने चकराते सिर को थामे बाहर निकल आया था। घर से ऑफिस तक के रास्ते में विगत का घटनाक्रम तेजी से मेरी आंखों के सम्मुख सिनेमाई रील की भांति घूमता रहा। विक्रम और मैं कॉलेज में अच्छे दोस्त थे। मैं पढ़ाई में बहुत अच्छा था और वह कामचलाऊ नंबरों से पास हो जाता था। अंतिम वर्ष की पढ़ाई खत्म होने को थी। तभी उसका रिश्ता कहीं पक्का हो गया था।
‘इतनी भी क्या जल्दी है यार!’ मैंने उसे छेड़ा था।
‘लड़की के मां-बाप नहीं हैं और मामा जल्द शादी कर निबटाना चाहते हैं।’ विक्रम ने स्पष्ट किया था। वैसे इतना तो मैंने भी मन ही मन अनुमान लगा लिया था कि कोई मजबूरी में ही यह रिश्ता तय हुआ होगा, क्योंकि विक्रम की तो अभी नौकरी भी नहीं लगी थी, जबकि मेरा कैंपस इंटरव्यू में चयन हो गया था। एक दिन विक्रम थोड़ा मायूस सा मेरे पास आया था। उसे अपनी मंगेतर को प्रभावित करने के लिए एक खूबसूरत सा प्रेमपत्र लिखना था।
‘इसकी क्या जरूरत आन पड़ी?’ मैंने फिर उसे छेड़ा था।
‘लड़की अच्छी पढ़ी-लिखी और सुंदर है। नौकरी भी लग गयी है। यार, मुझमें बहुत कॉम्पलेक्स आ रहा है। कुछ तो मुझमें भी हो जिससे वह मेरी ओर खिंचे। उसकी तारीफ में ंगार और प्रेमरस से परिपूर्ण एक तड़कता-फड़कता सा खत लिख डाल, जिसे पढ़ते ही वह मेरे प्रेम सागर में गोते लगाने लगे।’
‘मैंने तो उसे देखा तक नहीं है और वैसे भी यह काम तुझे ही करना चाहिए,’ मैंने सफाई से हाथ झाड़ने चाहे थे लेकिन विक्रम इतनी आसानी से मुझे छोड़ने वाला नहीं था।
‘तू मेरा पक्का दोस्त है। मेरी कमजोरियों से वाकिफ है। जानता है, पढ़ाई-लिखाई में मेरा हाथ वैसे ही तंग है। तू यह काम बखूबी कर सकता है। इसीलिए तो तेरे पास आया हूं। रही बात उसे देखने की तो मैंने देखा, मतलब तूने भी देख लिया। मैं तुझे बताऊंगा उसकी आंखें, बाल कितने सुंदर हैं! तू बस उस वर्णन को कविता की लड़ियों में पिरोते जाना। क्या तू नहीं चाहता कि तेरे दोस्त की भी कोई इमेज बने?’ विक्रम इमोशनल ब्लैकमेलिंग पर उतर आया तो मैंने घुटने टेक दिए थे। उसके बताए वर्णन के अनुसार एक भावपूर्ण प्रेमरस में पगा खत लिखकर उसे दे दिया था। ‘इसे कम से कम अपनी हस्तलिपि में तो उतार लेना।’
‘मेरा क्या दिमाग खराब है जो इतने मोती जैसे अक्षरों को ठुकराकर अपनी मक्खी की टांग जैसी राइटिंग में खत उतारकर भेजूंगा?’ विक्रम ने खत समेटते हुए अपनी जेब में डाल लिया था।
‘अबे तू मरवाएगा यार! कभी पकड़ा गया तो तेरे साथ मैं भी लपेटे में आ जाऊंगा।’
‘कुछ नहीं होगा। और वैसे भी दोस्ती के लिए थोड़ा पिटना भी पड़े तो क्या है?’ वह हंसता हुआ खत लेकर रफूचक्कर हो गया था। पर थोड़े ही दिनों बाद फिर हाजिर था, अगला खत लिखवाने की गुजारिश लेकर। मैं साफ मुकर गया था। पर उसके तर्क बड़े अजीब थे। ‘एक खत ने ही जादू कर दिया है उस पर। देख क्या जवाब आया है?’ उसने होने वाली बीवी का खत मेरे सामने खोलकर रख दिया था। पर मैंने तुरंत नजरें घुमा ली थी।
‘प्लीज यार! मैं यह सब नहीं कर सकता।’
‘अच्छा इसे मत पढ़। मैं तुझे ऐसे ही बता देता हूं। उसने लिखा है कि वह सच बोलना पसंद करती है। और सच यह है कि अभी तक मुझे लेकर उसके दिल में कोई कोमल भावना नहीं थी पर अब यह खत पढ़ने के बाद उसके दिल में मेरे प्रति प्यार अंगड़ाइयां लेने लगा है। उन मोती जैसे अक्षरों में छुपे मेरे दिल के उद्गारों ने उसे अभिभूत कर दिया है। वह पत्रलेखन की इस ंखला को जारी रखना चाहती है।’ वह देर तक हाथ जोड़े मेरी चिरौरी करता रहा। मैं उसकी गृहस्थी बसने से पहले ही न उजाड़ूं, ऐसी मिन्नतें करता रहा। मजबूरन मुझे फिर उसके लिए पत्र लिखना पड़ा। चार-पांच पत्र मजबूरन लिखते हुए मुझे महसूस होने लगा कि अब मैं खुद ही इसमें रुचि लेने लगा हूं। हर खत के जवाब की शायद उससे ज्यादा मैं उत्कंठा से प्रतीक्षा करने लगा हूं। मेरी कल्पना में मेरी कविता साकार होने लगी थी और मैं भावों में डूबता-उतराता उसके लिए लिखता चला गया था। पच्चीस पत्रों की वह ंखला विक्रम के विवाह के साथ ही थमी थी। कई दिनों तक तो मुझे बहुत खालीपन महसूस होता रहा था। मैंने भी नयी-नयी नौकरी जॉइन की थी, इसलिए उसकी शादी में भी नहीं जा पाया और फिर विक्रम ही दूसरे शहर नौकरी करने चला गया था। तो बस पत्रों के साथ ही दोस्ती का सिलसिला भी वहीं थम गया था। आज मुझे समझ आया, पहले कभी न मिले होने पर भी पहली ही मुलाकात में मुझे दिव्या का चेहरा इतना परिचित और अपना सा क्यों लगा था। दिव्या के प्रति मेरी चाहत और भी बढ़ गयी थी। क्या मुझे उसे यह सब कुछ बता देना चाहिए? क्या मम्मी कभी इस रिश्ते के लिए राजी होंगी?
मैं अभी इस ऊहापोह से निकल भी नहीं पाया था कि सिर पर एक और संकट मंडरा उठा। पापा एक दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गए। चार दिन अस्पताल में भर्ती रहने के बाद वे चल बसे। हमारी तो दुनिया ही उजड़ गई थी। गृहस्थी के रथ को कंधा लगाने का प्रयास करते मेरे कंधों पर पूरे रथ की कमान ही आ पड़ी थी। मम्मी को संभालने के प्रयास में मेरे कंधे स्वतः ही मजबूत होते चले गए और इस प्रक्रिया में कंधे से कंधा मिलाकर मेरा साथ दिया दिव्या ने। जिस अपनेपन, समझदारी और जिम्मेदारी से उसने मुझे और मम्मी को संभाला, हम उसके मुरीद हो गए थे। पन्द्रह दिन खत्म होते-होते लगभग सभी नाते-रिश्तेदार रवाना हो चुके थे। अब दिव्या ने बताया कि उसे क्वार्टर मिले 15-20 दिन हो चुके हैं और अब वह हमें और कष्ट न देकर जाना चाहती है। यह सुनकर मम्मी ने तो एक तरह से उसके पांव ही पकड़ लिए थे और उससे वहीं रुक जाने की मिन्नतें करने लगी। मैं भी कातर नजरों से उसे ही ताक रहा था। दिव्या को पिघलना पड़ा। वह कुछ दिन और रुकने को तैयार हो गई।
वक्त के साथ वैधव्य को लेकर मम्मी की धारणा बदलती चली गई। दिव्या हर वक्त चट्टान की तरह उनके साथ बनी रहकर उनका मनोबल बनाए रखती। मम्मी का फिर से मुझ पर शादी के लिए दबाव बढ़ने लगा था। हां, उनके सुर अवश्य कुछ बदल गए थे। ‘‘तू जिस लड़की को चाहता है उसी से ब्याह कर ले, पर शीघ्र कर ले। मैं अब ज्यादा दिन तक जिंदा नहीं रहू सकूंगी।’’
एक दिन मौका पाकर दिव्या ने भी मेरी क्लास ले ली। ‘‘तुम शादी के लिए हां क्यों नहीं करते? आंटी बेचारी की कब से इच्छा है?’’
‘‘ऐसे बिना जाने-पहचाने कैसे किसी के साथ जीवन भर के लिए बंधा जा सकता है? मुझे तो विवाह की यह रीत ही समझ नहीं आती।’’
‘‘हूं, देखने-सुनने में जितना अजीब लगता है, असल में वैसा है नहीं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था। जब विक्रम से रिश्ता तय हुआ, मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी। तुम्हारी तरह ही सोचती थी कि कैसे एक अनजान इंसान के साथ पूरी जिंदगी काटूंगी? फिर पता है क्या हुआ? हमारे बीच खतों का कुछ ऐसा सिलसिला चल निकला कि बिना मिले ही हम एक-दूसरे को इतना समझने चाहने लगे जैसे पिछले कई जन्मों से एक दूसरे को जानते हों। सच, उसके खत इतने भावपूर्ण और उन्मादी होते थे कि पढ़कर एक नशा सा छाने लगता था। शादी के बाद मैंने एक-दो बार उसे छेड़ा भी कि अब वह वैसे रसपूर्ण खत नहीं लिखता।’’
‘तुम सामने तो हो, किसे लिखूं?’ वह तुनक कर बोला था।
‘अच्छा वैसी मीठी बातें बोल ही दिया करो।’
‘तुम्हें मेरे प्यार पर भरोसा नहीं है दिव्या। हर चीज कहकर या लिखकर ही बतानी पड़ेगी?’ प्यार के उन अंतरंग पलों में भी वह गुस्सा हो उठा तो मैं घबरा गई थी। फिर कभी उन खतों के बारे में बात करने का साहस नहीं हुआ था। पर सच, आज भी कभी-कभी दिल करता है कि कोई वैसे ही प्यार भरे खत लिखे।
मुझे एकटक खुद को घूरता पाकर दिव्या को अहसास हुआ कि वह क्या बोल गई थी?
‘‘आंटी की दवा का टाइम हो रहा है’’, वह वहां से खिसक ली थी।
दो दिन बाद ही दिव्या की ऑफिस टेबल पर एक व्यक्तिगत पत्र पड़ा था। पत्र खत्म करते-करते उसके पसीने छूटने लगे थे। उसने इधर-उधर चोर नजरों से देखा। कमरे में विक्रम का भूत तो नहीं है। पत्र की तारीख चेक की। कहीं चार साल पहले का खत डाक विभाग की मेहरबानी से अब मिला हो। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं था। वही प्रेम में पगे मोती जैसी हस्तलिपि में उकेरे अक्षर मानो उन्हीं प्रेमपत्रों की ंखला की अगली कड़ी हो। अचानक दिव्या के दिमाग में बिजली सी कौंधी। उसने घड़ी देखी। करण अभी तक घर नहीं आया होगा। उसने तेजी से अपनी फाइलें और पत्र समेटे और टैक्सी लेकर घर की ओर दौड़ पड़ी। अपने कमरे में जाकर उसने पहले विक्रम के पत्र बटोरे। फिर आज मिले उस गुमनाम खत से उसका मिलान करते हुए वह करण की स्टडी टेबल पर जा पहुंची और वहां रखे कागजों को उलटने-पलटने लगी।
‘‘तुम्हारा शक सही है दिव्या। पहले वाले खत भी मैंने ही लिखे थे और यह आज वाला खत भी मैंने ही लिखा है।’’ अपने कमरे में पहुंच मैं निढाल सा कुरसी पर पसर गया था और विगत का सारा सच उसके सम्मुख बयान कर दिया था।
‘‘उस बारिश वाले दिन तुम्हारे कमरे में ये खत पाकर मैं भी हैरान रह गया था। तुमसे बात करके तभी सब कुछ बता देना चाहता था, पर तभी पापा का एक्सीडेंट...... और फिर वो सब कुछ....’’ मुझे रुकना पड़ा क्योंकि सामने दिव्या फफक-फफककर रो रही थी।
‘‘तुम्हें मेरी भावनाओं से खिलवाड़ करने का कोई हक नहीं था,’’ वह बिलख उठी थी।
‘‘मानता हूं मुझसे गलती हुई। जो सजा देना चाहो, दे सकती हो। मैं प्रायश्चित के लिए तैयार हूं। चाहो तो सारी जिंदगी तुम्हें ऐसे खत लिखने की सजा दे सकती हो। मैं खुशी-खुशी भुगतने को तैयार हूं। बोलो, यह हक दोगी मुझे?’’
एकाएक दिव्या की रुलाई थम गई थी। अब उसकी नजरें मानो मेरे चेहरे पर एकटक जम सी गयी थीं। शायद अब तक पत्रों में उफनता प्यार का समंदर उसे मेरी आंखों में भी लहराता नजर आने लगा था। दिव्या के चेहरे पर उभर रही हया की लाली पल प्रतिपल गहराती जा रही थी।