Thursday 04 January 2024 05:12 PM IST : By Poorti Vaibhav Khare

लोकल में ससुराल

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मेरी मां कहती हैं कि एक बार बेटी ब्याह कर पीहर से विदा हो जाए, तो वह पराई हो ही जाती है, फिर चाहे उसकी ससुराल पड़ोस में हो या कहीं दूर देश में। बेटी हर सूरत में मायके से दूर हो जाती है, पर मेरी सासू मां का अलग ही फलसफा था। वे आराधना दीदी के लिए सिर्फ लोकल में ही रिश्ता तलाश करती रहतीं।

आराधना दीदी ! हम सबकी प्यारी। उनका स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि घर के बाकी सदस्य ही क्या, मैं नेहा उनकी भाभी हो कर भी उन्हें बहुत प्यार किया करती। उनका सरल-सौम्य व्यवहार सबको स्वतः ही आकर्षित करता। पर इन दिनों उनकी शादी को ले कर घर में सभी चिंतित थे और सासू मां इस बात को ले कर कुछ ज्यादा ही परेशान थीं। आराधना दीदी की उम्र काफी हो रही थी। अब उनके ब्याह में और देरी करना ठीक ना था।

सब दीदी की कुंडली को दोष देते रहते। पर मुझे मेरी सासू मां की सोच में दोष नजर आता। वे हमेशा यही कहती रहतीं, ‘‘अरे ! लोकल में ही बिटिया ब्याह जाए, तो अच्छा है, बांदा के बांदा लड़का मिल जाए, तो तीज-त्योहार में बिटिया आती-जाती रहे, जैसे हमारी बहू नेहा यहीं ससुराल यहीं मायका बांदा के बांदा।’’

माना कि मां जी ननद जी को बहुत प्यार करती थीं, मगर सिर्फ लोकल में ब्याहने के चक्कर में बहुत से अन्य रिश्तों को टालते रहना ठीक ना था। मुझे उनकी इस सोच से कोई परेशानी नहीं थी, पर इस चक्कर में कितने ही दूसरे अच्छे-अच्छे रिश्तों से हम हाथ धोते जा रहे थे। मेरे पति कुंतल अपनी बहन के लिए रोज रिश्ते तलाशते, पर मां जी रिश्ते की बात शुरू होने से पहले ही लड़के में बीस खोट निकाल देतीं। असल में उनके मना करने का कारण उन रिश्तों का दूसरे शहरों से संबंधित होना होता। वे साफ-साफ तो कुछ ना कहतीं, मगर अब हम सब उनकी मानसिकता से परिचित हो गए थे।

लेकिन अब पानी सिर से ऊपर था। मां जी को कैसे ना कैसे मुझे इस ‘लोकल में ससुराल’ वाली मानसिकता से बाहर निकालना ही था। फिर मैंने सोच लिया कि इस बारे में मैं आराधना दीदी से ही बात करूंगी।

वे सरदियों के दिसंबर माह के दिन थे, जब सब छत पर धूप सेंक रहे थे और आराधना दीदी नीचे अपने कमरे में अपनी अलमारी के कपड़े व्यवस्थित कर रही थीं। हिम्मत करके मैं आराधना दीदी के पास गयी, ‘‘दीदी ! आपसे एक बात कहूं?’’

‘‘हां ! भाभी कहिए ना, आपको पूछने की जरूरत कब से पड़ गयी? जो भी कहना है बेझिझक हो कर कहिए,’’ वे हमेशा की तरह मुस्कान भरे अंदाज में बोलीं।

‘‘दीदी ! क्या आप भी चाहती हैं कि आपकी शादी सिर्फ इसी शहर में हो?’’

‘‘हां ! मां का मन है, तो मैं भी उनके मन के मुताबिक ससुराल चाहती हूं, और इसमें हर्ज ही क्या है? लोकल में मायका और ससुराल होने के अपने ही मजे हैं, है ना भाभी !’’ वे कपड़ों को तह करती हुई बोलीं।

‘‘दीदी ! मैं आपकी भाभी से ज्यादा आपकी सहेली हूं, आपकी हितैषी हूं। और एक सहेली होने के नाते आपसे अपने मन की एक बात कह रही हूं।’’

‘‘भाभी ! ऐसी भी क्या बात है, जिसके लिए आप इतनी लंबी-चौड़ी भूमिका बांध रही हैं, अरे ! बेझिझक हो कर कहिए ना भाभी !’’ यह कहती हुई वे फिर मुस्करायीं।

‘‘दीदी ! क्या फर्क पड़ता है, अगर किसी दूसरे शहर में बेटी की शादी हो जाए तो? बल्कि लोकल में ब्याहने से ज्यादा बेहतर है दूसरे शहर में ब्याहना, अब मुझे ही देख लो, माना कि हर सावन, हर छोटे-बड़े उत्सवों में पीहर जाती हूं, पर कितनी देर को? घंटे, चार घंटे को बस, कब से मायके में एक रात नहीं रुकी मैं, जब भी पीहर जाती हूं किसी ना किसी बहाने से यहां बुला ही लेते हैं आप सब मुझे।’’

आराधना दीदी अब अपना काम रोक कर मेरे पास बैठ गयीं और आज मैं भी खुद के मन के सैलाब को रोक ना पायी, मैंने वह सब कह डाला जो कुछ भी मेरे भीतर था, ‘‘मेरी बहनें जब भी आती हैं, आठ-दस दिन रुकती जरूर हैं मायके में, मेरी सारी सहेलियां भी मायके में खूब मजे से रहती हैं। माना कि वे साल में एकाध बार ही आती हैं, मगर मायके में कुछ दिनों को रह तो पाती हैं। सच कहूं, तो उन सबको देख कर मुझे भी यही लगता है कि काश ! मेरी शादी भी किसी दूसरे शहर में हुई होती, तो शायद मैं भी कुछ रोज को...’’ ऐसा कहती हुई मैं रुआंसी सी हो गयी और दीदी ने मेरे मन के भाव संभालते हुए मुझे कस कर अपने गले लगा लिया।

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तभी मैंने अपनी बात को संभाला, ‘‘दीदी ! आप गलत ना समझें, मुझे आप लोगों से कोई शिकायत नहीं है, मैं तो बस मां जी की इस अजीब सोच को बदलना चाहती हूं, ताकि आपके लिए अच्छे रिश्तों के और भी विकल्प खुल सकें बस।’’

दीदी ज्यादा कुछ ना बोलीं और मैं अपनी बात कह कर वापस आ गयी। दूसरे दिन सुबह सासू मां ने सभी घर वालों के सामने एक घोषणा कर दी, ‘‘नेहा कल हफ्तेभर को अपने मायके जा रही है, और अगर उसका मन हो, तो वह वहां और भी ठहर सकती है।’’

ऐसा तो मेरी शादी के बाद सिर्फ तब हुआ था, जब मैं नयी-नयी दुलहन थी। तभी मैं दस दिन को मायके गयी थी, उसके बाद फिर कभी इतने दिनों को नहीं गयी। मैं अचंभित थी, मैं समझ गयी थी कि यह मां जी नहीं, बल्कि उनका गुस्सा बोल रहा है। मुझे आज यह जान कर बहुत बुरा लगा कि आराधना दीदी ने मेरे खिलाफ मां जी के कान भरे हैं, मैं तो बस अच्छी भाभी होने का फर्ज अदा कर रही थी। मुझे किसी को गुस्सा दिलाने का कोई इरादा ना था। मैं बिना कुछ बोले रुआंसी सी हो कर किचन में जा कर नाश्ता बनाने लगी। सूजी का हलवा बनाने को मैंने कड़ाही उठायी, तो पीछे से सूजी और घी का डिब्बा मेरे सामने मां जी ने प्लेटफाॅर्म पर रख दिया और मेरी दोनों हथेलियों को थामती हुई जो बोलीं, वह मुझे चीनी से भी ज्यादा मीठा लगा, ‘‘बेटा! मैं इस बात को ले कर खुश रहती थी कि तुम्हें रक्षाबंधन, भाई दूज जैसे तीज-त्योहारों पर पीहर जाने को मिल जाता है, पर मैंने यह कभी नहीं सोचा कि वह तुम्हारा पीहर है, ना कि किसी जान-परिचित का घर, जहां घंटे-दो घंटे बिता कर लौट आओ, वहां तुम ठहरना चाहती होगी, उस अांगन में कुछ पल सुकून से बैठना चाहती होगी।’’

‘‘मां जी, ऐसा कुछ नहीं, मैं तो बस दीदी को...। उन्होंने मेरी बात सुने बिना ही मुझे बीच में रोक दिया।

‘‘बेटा ! कभी-कभी तब तक हम दूसरे की मनोस्थिति को नहीं समझ पाते, जब हम खुद उससे नहीं गुजरते। आज तेरी ननद मुझे बड़े-बड़े उपदेश दे रही थी। कह रही थी कि भाभी को दो दिन भी मायके में रहने को नहीं मिलता, ऐसी लोकल की ससुराल का क्या फायदा ! सच कहूं, तो आज उसने मेरे बंद दिमाग का ताला खोल दिया उसने। देख बहू, तू कल के कल मायके जा और कुछ दिनों को अपनी मां-पापा के साथ रह कर आ।’’

‘‘मां जी ! पर राहुल और रूही का स्कूल, इनका ऑफिस?’’ मैंने अपनी जिम्मेदारियों की लंबी लिस्ट मां जी को थमा दी।

‘‘मैं देख लूंगी सब, इतनी भी बूढ़ी नहीं हुई तेरी सास, और आराधना भी तो है। तुझे ज्यादा फिक्र हो, तो बच्चों को साथ ले जाओ, वहीं से स्कूल भेज दिया करो उन्हें। अब लोकल में ससुराल और मायका होने का कुछ तो फायदा उठाओ, नेहा !’’ मां जी इतना कहती हुई सबके साथ लिविंग रूम में बैठ कर चाय पीने लगीं। तभी किचन के दरवाजे से टिकी अाराधना दीदी मेरे पास आयीं और एक सकारात्मक मुस्कराहट देने लगीं। मुझे उनको ले कर अपनी सोच पर पछतावा हुआ। दीदी हलवे को कटोरियों में परोसने लगीं और मैं बाहर नाश्ते की टेबल पर होती सबकी बातें सुनने लगी।

‘‘लोकल-वोकल का चक्कर छोड़ो अब, जहां अच्छा लड़का दिखे शादी तय कर दो। अरे ! अब तो लोग दूसरे शहर में क्या, दूसरे राज्यों और विदेशों में भी बेटी को ब्याहने लगे हैं।’’

मां जी की बातें उनकी बदली हुई मानसिकता को दर्शा रहीं थीं। सच ही तो है, पीहर दूर हो या पास, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, अगर ससुराल मेरे ससुराल सी हो- बहू के मन को समझने वाली। यह सोचती हुई मैं फिर से आराधना दीदी के गले लग गयी, जो परोसे हुए हलवे को सूखे मेवे से और दिलों को तरल प्यार से सजा रही थीं।