Monday 29 April 2024 02:47 PM IST : By Kumkum Chaturvedi

अनाघ्रात पुष्प भाग-2

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कुछ ही देर में शांतनु आ गए। सिल्क का क्रीम कुरता, लाल चुन्नटदार धोती उसके नीचे चमकते शुभ्र चरण द्वय। उंगलियों में पड़े माणिक पुखराज और कंधे पर फुलाम गमछा। मेरी आंखों की प्रशंसा उनसे छिपी नहीं रही।

शांतनु ने आंखें मूंद लीं और किसी का आवाह्न करने लगे। मेरे सामने रखा एक तिकोना बोर्ड था, जिस पर अंग्रेजी के अल्फाबेट्स लिखे थे। बीच में एक पेंसिल अटकी थी। अचानक मेरे हाथ भारी हो उठे। मैंने प्रश्न पूछा, ‘‘बिन्नू चाचा जीवित हैं?’’ पेंसिल ने इधर-उधर घूम कर उत्तर दे दिया। ‘कहां’ पूछने पर उत्तर आया ‘हिल्स ऑफ नाॅर्थ ईस्ट।’
इससे अधिक मुझे कुछ नहीं पूछना था। कुछ देर शांति रही। मैं अपनी पूर्वावस्था में आ गयी, चुपचाप उठी और घर की तरफ चल दी। बानी दी आसन पर वैसे ही आंखें मूंदे बैठी थीं। घर पहुंच कर भी गुमसुम बनी रही। अभिलाष ने मायूस देखा, तो बच्चों से पूछने लगे कि क्या बात है। मुझसे रहा नहीं गया और भरभरा कर रो पड़ी। सारा सच बाहर आ गया। सुनते ही अभि का चेहरा तन गया, “तुम क्यों गयीं, कितनी बार कहा इन चीजों से दूर रहो।”

इस बीच बानी दी के दो-तीन बार फोन आए। हर बार अपने यहां आने का आग्रह करती रहीं। मैंने कहा, “मैं तो कितनी बार हो आयी, अब आप और जिग्नेश भाई आइए।”

अचानक एक दिन बानी दी स्वयं आ खड़ी हुईं। बच्चे स्कूल गए थे। मैं अकेली थी। बानी दी के हाथ में अनेक पैकेट थे, बच्चों के लिए, मेरे और अभि के लिए। ड्राइवर को बाहर से विदा कर अपने बाहुपाश में भरती बानी दी बहुत अपनी सी लगीं। मैंने उपहारों के लिए मना किया तो बोली, ‘‘क्यों, छोटी बहन के घर खाली हाथ आती।’’

मैं नाश्ते, खाने का उपक्रम करने उठी, तो उन्होंने पास बैठा लिया, ‘‘आज बस तुम्हारे हाथ की अदरक वाली चाय पिऊंगी। खाना मैंने बच्चों के लिए भी आॅर्डर कर दिया है तेरी पसंद की गुजराती थालियां। बस तुम मेरे पास बैठो, कितने दिन यह मन खाली रहा, आज तुमसे सब बांट लेना चाहती हूं।”

चाय के कप ले कर हम सोफे में धंस गए। “अन्नू, सारे परदे खोल दो, पूरा आकाश दिखना चाहिए।” हंसती खनखनाती हंसी और भावों से भरी आवाज, बानी दी कितनी बदली-बदली लग रही थीं। कभी सीधी बैठतीं, कभी मेरे कंधे पर सिर टिका लेतीं रहस्य की एक-एक परत खोलती जा रही थीं, “अन्नू! आगरा से हमारा पलायन किन विकट परिस्थितियों में हुआ था तुम जानती हो। हम लोग चुपचाप जूनागढ़ आ गए, वहां मामा जी का परिवार था। संपूर्ण पूंजी गिरवी रख कर जीवन शुरू हुआ। पापा को अपने सिर पर चढ़े कर्जे का भय सताता रहता था। मामा जी के एक परिचित थे, उम्र में बड़े पर विवाह नहीं किया था। पता नहीं किस घड़ी में मैं उन्हें भा गयी। मेरी इच्छा-अनिच्छा जाने बगैर मेरा विवाह जिग्नेश से तय कर दिया गया। जिग्नेश ने पापा को कर्जों से मुक्ति दिलायी। उनको जिग्नेश के रूप में बेटा मिल गया, पर मुझे पति नहीं मिला। उनका एंटीक्स का बिजनेस था, प्रायः देश-विदेशों के दौरे रहते। मैं बस घड़ियां गिनती रहती। मेरा मन कुंअारा ही रह गया। एक संतान भी होती, तो अपने को धन्य मान लेती। जिग्नेश के लिए हर चीज नफा या नुकसान था। अपने अंतर में ही घुटती रहती। जिग्नेश समझते कि किताबें पढ़-पढ़ कर मेरा दिमाग खराब हो गया है। तभी बिजनेस के सिलसिले में दिल्ली शिफ्ट हुए। जिंदगी में कुछ तो बदला। इस बंगले को जी भर के सजाया, पर मन खाली रह ही गया। हमारे प्रतिवेशी मुखर्जी साब थे, उनके बच्चे बाहर सेटल हैं। इन लोगों का आना-जाना भी लगा रहता है। उनके घर पर ही शांतनु से भेंट हुई। मिसेज मुखर्जी ने कहा, ‘‘शांतनु, बानी का हाथ देख, कब इसकी गोद भरेगी।” वह दिन था और आज, उनके हाथों में ही मेरा हाथ है। उन्होंने पापा का पलायन, मेरा समझौता सब तो खुली किताब सा बांच दिया। अन्नू ! ऐसा लगता है हम दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं। जरूर पिछले जन्म में मैं उस यक्ष की यक्षिणी थी, वरना इतने वर्षों में उनके जीवन में कोई और क्यों नहीं आया?’’

मैंने आशंकित हो पूछा, “क्या यह सही है दी?’’

वे उत्तेजित हो कर बोलीं, ‘‘जो मेरे साथ हुआ, क्या वो सही था?’’

मैंने कहा, “गलत का जवाब गलत नहीं है दी।”

बानी दी का गला भर आया, “तुम्हें कैसे समझाऊं, जैसे तुम समझ रही हो वैसा कुछ नहीं है। शांतनु के प्यार से, उनके स्पर्श, आलिंगन से मेरा जीवन पूर्ण हो गया। प्रणय की इस प्रगाढ़ता को कोई नहीं समझेगा। कालिदास को पढ़ा है ना? मैं वही अनाघ्रात पुष्प हूं, जिसको किसी ने नहीं सूंघा। अब मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं। जिग्नेश का पहले से अधिक ध्यान रखती हूं।”

मैंने टोका, ‘‘क्या जिग्नेश जी ये सब जानते हैं?’’

बानी दी बोलीं, ‘‘हां या नहीं कह नहीं सकती पर उन्होंने ना कभी पूछा, ना मैंने बताया। वे घर में टिकते ही कितना हैं।”

मैंने ध्यान से देखा, प्रणय और अभिसार के मद ने उनका चेहरा अपूर्व कमनीय कर दिया था। मैंने हाथ पकड़ कर कहा, “इस मृग मरीचिका का अंत क्या होगा जानती हैं?”

“नहीं अन्नू, बस इस प्रणय सरिता में बहती जा रही हूं, कहां पहुंचूंगी पता नहीं, पर तुम कुछ भी हो, मेरा साथ कभी मत छोड़ना।”

बच्चों के आने का समय हो गया था। बच्चों को जी भर प्यार करके उन्होंने उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाया। बानी दी चली गयीं, पर कई अनुत्तरित प्रश्न छोड़ गयीं। अब हमारे संबंध घरेलू हो गए थे। अभि भी जिग्नेश जी से मिलते रहते।

बात यहीं खत्म हो जाती तो ठीक था। एक दिन अचानक जिग्नेश जी का फोन आया, “अनूषा, तुम फौरन आओ मैं गाड़ी भेज रहा हूं।” कुछ पूछती उससे पहले ही गाड़ी नीचे खड़ी थी। मैंने गाड़ी में बैठते ही अभि को फोन करके आने को कहा। उनके घर पर सन्नाटा था, जिग्नेश जी सिर पर हाथ रखे बैठे थे। बानी दी निढाल पड़ी थीं, मुझे देखते ही जोर-जोर से रोने लगीं। मैंने उन्हें अपने से चिपका लिया। अभि डॉक्टर को साथ ही ले कर आए। उनको सोने की दवाई दे कर हम बाहर टैरेस पर आ गए।

जिग्नेश जैसा तार्किक पुरुष रुंआसा खड़ा था “अभि ! क्या हो गया बानी को? कल तक ठीक थी, अचानक रात 10 बजे होंगे, उठी, मुंह धोया और तैयार होने लगी। मैंने टोका भी, पर लगा मेरी बात सुन ही नहीं रही। कमरे से निकल टैरेस पर बने बेडरूम में चली गयी और कमरा बंद कर लिया। मैंने बहुत बार दरवाजा खुलवाने की चेष्टा की, पर दरवाजा नहीं खुला। मैं भी जा कर सो गया। सुबह आंख खुली, तो देखा सोफे पर अस्त-व्यस्त हालत में लेटी है। मेरे पास जाने पर मुझे धकेल दिया। तब से बस रोए जा रही है। समझ नहीं आ रहा माजरा क्या है? यार मैं तो बहुत परेशान हूं।’’

अभि ने सांत्वना दी, “आज आप वॉच करिए कुछ अलग हो, तो बताइएगा। तब निर्णय लेंगे। अभी मैं ऑफिस के लिए निकलता हूं।”

घर लौट आए, पर ध्यान उधर ही लगा रहा। फोन पर बस यही सूचना मिली कि गहरी नींद में हैं। मुझे लगा एक दुस्वप्न था, जो बीत गया। रात होते-होते जिग्नेश भाई बदहवास से दौड़े आए, “जल्दी चलो, वो ट्रांस में है। वैसे ही तैयार हो रही है।’’ अभि अकेले उनके साथ गए। रात के 11 बजे वे थके-हारे लौटे। सीधे नहाने चले गए। खाना खाते हुए बोले, “ये औरत तो पागल हो गयी है, ऐसे तैयार हो रही थीं, जैसे सुहागरात मनाने जा रही हैं। मैंने, जिग्नेश ने कितना रोका, पर ताकत से हमें धकेलती कमरे में दाखिल हो गयीं। जिग्नेश बेचारा तो बेड से टकराया। या तो इन पर कोई भूत सवार है या पागलपन।”

इन सब उलझनों में मुझे अम्मा-पापा की बहुत जरूरत महसूस हुई। फोन किया, तो वे एक बार घबरा गयीं, फिर बोलीं, “अन्नू, हम दोनों कुछ दिन को आ जाते हैं, आगरा से दिल्ली कौन दूर है? तुम एक काम करो बानी के घर पर भी फोन करो, इस समय बेटी को नहीं संभालेंगी, तो कब संभालेंगी?”

अम्मा आ गयी थीं। हम तीनों दूसरे दिन उनके यहां गए। जिग्नेश जी दो दिन में बीमारों से निकल आए थे। बानी दी थकी सी लेटी थीं। किसी को देख कोई प्रतिक्रिया नहीं, हम जल्दी घर आ गए। दो दिन बाद उनकी मां भी आ गयीं। तीसरे दिन ताई जी का फोन आया, “बेटा, ये तो रोके नहीं रुकती, ना जाने कैसी प्रेतबाधा है?’’

अभि के आने पर तीनों वहां गए। जिग्नेश जी को जबर्दस्ती खाना खिलाया। किसी अन्य पुरुष के साथ अभिसार करना अम्मा, ताई जी की समझ से बाहर था। आखिर में यह तय हुआ कि किसी मनोचिकित्सक को दिखाया जाए। डॉ. शादाब हुसैन का अपॉइंटमेंट लिया गया। जिग्नेश जी, उनकी मां, मेरे साथ डॉक्टर ने अलग-अलग बात की। मैं उनके विषय में जितना जानती थी, शायद उतना उनकी मां भी नहीं। मिसेज मुखर्जी, शांतनु दा सबको फोन किए, पर कहीं संपर्क नहीं हो सका। डॉक्टर ने कहा, “दिस इज अ सिंपल केस ऑफ पैरानोइड सिजोफ्रेनिया।”

अनगिनत टेस्ट, टॉक थेरैपी, हिप्नोटिज्म सभी शुरू हो गए थे। जिग्नेश जी की अथक भागदौड़ का असर दिखने लगा था। ताई जी की बड़ी इच्छा थी कि मथुरा जा कर बांके बिहारी के दर्शन करवाए जाएं और बानी दी से उनके समस्त कृत्यों की क्षमा मंगवायी जाए। उनकी इच्छा का मान देने के लिए हम दोनों परिवार मथुरा, वृंदावन के दर्शन को निकले। एक दिन आराम करके दूसरे दिन हम लोग घाट पर गए और एक नौका ली। बानी दी शांत थीं। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। जिग्नेश जी को बहुत दिन बाद हंसते हुए देखा। घाट पर बैठे पंडित जी से बातें करते हुए वे बानी दी को साथ ले कर नाव में बैठे। जिग्नेश जी के कंधे पर सिर टिकाए वे दूर तक फैले जल प्रवाह को देख रही थीं। अचानक बानी दी का मुंह विद्रूप होने लगा और वे जोर-जोर से अट्टहास करने लगीं। सब भयभीत हो उन्हें देख रहे थे, जब तक नाव को किनारे किया जाता, वे चिल्लाने लगीं, “मैं आ रही हूं, मेरी प्रतीक्षा करना।”

अभि ने गुस्से के मारे उन्हें आपादमस्तक झिंझोड़ डाला। पर वे चेतना शून्य रहीं, दूसरे ही क्षण उनका आर्तनाद गूंजने लगा। तभी घाट वाले पंडित जी आ गए। अभि के पास धीरे से आ कर बोले, “भैया, जे डॉक्टर के बस की नांय। जाय तो बनारस शास्त्री के पास जितनी जल्दी है सकै लै जाऔ।”

अम्मा ने रुक कर सब पता पूछ लिया। हम निशब्द दिल्ली लौट आए। अभिलाष ने यथासंभव इस प्रकरण से हम सब को दूर रखने की चेष्टा की। जिग्नेश जी हर तरह से इतने वर्षों में हुए डैमेज की भरपाई में लगे थे। इलाज फिर से शुरू हो गया था, पर बानी दी दिन पर दिन निढाल होती जा रही थीं।

देखते-देखते सरदियां आ गयीं। अम्मा आगरा वापस जाने को उद्यत थीं। बच्चे दशहरे की छुट्टियों में स्कूल ट्रिप पर गए थे। हम लोग फुरसत से लॉन में धूप खा रहे थे, तभी दूर से जिग्नेश जी आते दिखे। अम्मा ने हाल पूछा, तो बोले, ‘‘मां जी, अब ऊपर वाले का ही भरोसा है। पहले वाली बानी तो कहीं खो गयी है। ना पढ़ने का शौक रहा, ना गाने का, ना मिलने का। सोचता हूं एक बार बनारस में और दिखा लें। अभि, तुमने इतना निभाया बस एक अहसान और कर दो, तुम दोनों हमारे साथ बनारस चलो।”

मना करने का साहस किसमें था? हम नियत समय पर निकल पड़े। बानी दी रास्ते भर नींद के नशे में रही। वहां शास्त्री जी से भेंट हुई। लंबी बातचीत के बाद लगा कि वे समस्या की तह तक पहुंच गए हैं।

वशीकरण के माध्यम से पता चला कि बानी दी की अतृप्त आकांक्षाएं और शांतनु के प्रति आसक्ति के कारण यह स्थिति बनी। मैंने आशंका जाहिर की कि ऐसा किसी के साथ भी संभव है? शास्त्री जी ने कहा, ‘‘नहीं, यहां स्त्री की आसक्ति इस दुर्घटना का कारण बनी। इस दुनिया से परे जिस पारलौकिक दुनिया में इन्होंने प्रवेश की चेष्टा की, वहां ना जाने कितनी अतृप्त आत्माएं विद्यमान हैं। कब, कौन, किसका रूप धर कर आपका शोषण करे, पता नहीं।’’

अचानक बानी दी का मुख विद्रूप होने लगा और वे आक्रामक हो कर आगे बढ़ी। शास्त्री जी ने उनके सिर पर हाथ फेरा, उनके मस्तक के कुछ बिंदुओं को दबाया, वे तुरंत शांत हो पलंग पर लेट गयीं।

शास्त्री जी जिग्नेश जी की तरफ मुड़े, “महाशय, इलाज की आवश्यकता तो आपको अधिक है। आपने अपनी जीती-जागती पत्नी को एक सामान भर बना दिया। जिसे आप वरण करके लाए, उसे कम से कम व्यावहारिक सुखों से तो वंचित ना रखते। एक पुरुष, एक पिता, एक सखा सभी रूपों में आवश्यक है। धनोपार्जन ही विवाह की धुरी नहीं। संभवतः आप समझ चुके हैं आपने क्या खोया है। सबसे पहले तो अपना गृह स्थान परिवर्तन करिए। भृत्यों की फौज खड़ी करने के बजाय पत्नी को भी कार्य करने दीजिए। शारीरिक श्रम मन, शरीर दोनों की चिकित्सा करेगा। उन्हें भावनात्मक संसर्ग दीजिए। इस तरह की घटनाएं हमारे शोध का विषय हैं। केवल आप यहां रुकें, अन्य व्यक्ति लौट जाएं।’’

बार-बार एक प्रश्न मुझे उद्वेलित कर रहा था। मैंने आखिर पूछ ही लिया, “शास्त्री जी ! इस दुष्चक्र के पीछे किसका हाथ है?”

शास्त्री जी बोले, “आप क्यों जानने को उत्सुक हैं? उस दुनिया के रहस्यों पर परदा रहने दीजिए। किसी पर दोषारोपण ठीक नहीं।” मैं चुप रह गयी। कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलना ही श्रेयस्कर है। शांतनु की छवि उन्होंने खंडित नहीं होने दी।

दो माह बाद वे लोग दिल्ली आए। बानी दी बदली-बदली लग रही थीं। आते ही वे लोग पैकिंग में व्यस्त हो गए। इस बार उनके पलायन का कारण शास्त्री जी का इस स्थान को जल्दी से जल्दी छोड़ने का निर्देश था। बड़े दुख के साथ हमने उनको विदा किया।

दो वर्ष गुजर गए। जिग्नेश जी के निरंतर आग्रह पर इस बार हम लोगों ने देहरादून जाने का प्रोग्राम बना लिया। दूर पर्वतों से आते ठंडी हवा के झोंके हमारा स्वागत कर रहे थे। लेंसडाउन में बानी दी के बंगले से दिखते शैल शिखर, देवदार और चीड़ के वृक्ष प्रवेश द्वार से अंदर तक पीले पुष्प गुच्छों की बेल सभी मनभावन था। तो ये था उनका सरप्राइज जिसको देखने के लिए इतना इसरार कर रहे थे। द्वार खुलते ही जिग्नेश जी ने अभि को गले लगा लिया। पीछे से मीठी सी रुदन की आवाज ने चौंकाया। देखा तो बानी दी गोद में नन्हे से शिशु को ले कर आयीं। आते ही बोलीं, “खड़े-खड़े देखती रहेगी, कैसी मौसी है? ये नहीं कि बिटिया को गोद में ले ले।”

मैंने बिटिया की तरफ नजर फेरी। हूबहू बानी दी, पर उसकी आंखों को देख वह विस्मृत छवि याद आ गयी। अपने को धिक्कारा और लपक कर उस नन्ही सी जान को ले कर अपने हृदय से लगा लिया। आंखों से झर-झर आंसू बह रहे थे। एक स्वप्न साकार हो उठा था।