Monday 29 April 2024 12:12 PM IST : By Kumkum Chaturvedi

अनाघ्रात पुष्प भाग-1

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हम दिल्ली में नए-नए ट्रांसफर हो कर आए थे। पास के फ्लैट्स और उनमें रहने वालों से परिचय नगण्य सा था। अभिलाष दिल्ली की भागमभाग जिंदगी में सहज होने की चेष्टा में थे, लिहाजा उनका आने-जाने का समय भी बदल गया था। शामें प्रायः अकेली ही हो जातीं। ऐसे में मैंने बच्चों को नजदीक के पार्क में ले जाना शुरू कर दिया। जब तक बच्चे खेलते, मैं बेंच पर बैठ कर कोई किताब पढ़ती या पेड़ों के झुरमुट के पीछे जो कृत्रिम झील थी, उसको निहारा करती।

दूर पड़ी एक बेंच पर एक स्त्री को बैठा देखती। सबकी तरफ से पीठ किए वह देर-देर तक फोन पर बात करती रहती। कभी लंबी ग्रीवा आगे कर खिलखिलाने लगती, कभी पीछे सिर टिका लेती, ऐसे में उसका संथाली जूड़ा खिसक कर बेंच के पीछे ढलक आता। उस देहयष्टि और सघन केश राशि को देख मुझे बानी दीदी की याद आ जाती।

इसी बीच अम्मा, पापा कुछ दिन के लिए आगरा से आ गए थे। उनके सान्निध्य में आठ-दस दिन पंख लगा कर उड़ गए। एक दिन अम्मा को पार्क ले कर चली आयी। दुनिया जहान के किस्से याद कर हम हंसते रहे। तभी दूर बैठी आकृति को दिखा कर मैंने कहा, “अम्मा, ऐसा नहीं लगता जैसे बानी दी हों?”

अम्मा ने पलट कर कहा, “हां रे, बानी ही तो है।” मैं कुछ कहती, तब तक अम्मा ने जोर से पुकारा, “बानी ओ बानी।” सामने वाली काया हिली और तेजी से दूसरी ओर निकल गयी। हम सोच में पड़ गए अगर ये बानी दी हैं, तो ऐसी बेरुखी क्यों?

बानी दी से हमारा परिचय एक दिन का नहीं था। आगरा के एक मुहल्ले में उनका घर हमसे चार-छह कदम पर ही था। मैं प्रायः उनको कॉलेज जाते देखती। उनकी लंबी चोटियां दोहरी मुड़ी झूला सा झूलती रहतीं। उनका लंबा व सांवला चेहरा, चुंबकीय आंखें और गाल में पड़ते मोहक गड्ढे।

जब हमारे यहां कथा हुई, तो मेरे विशेष आग्रह पर अम्मा ने शाह परिवार को बुलाया। बानी दी अपने माता-पिता की इकलौती पुत्री थीं। वे एकाकी थीं, पढ़ने की बेहद शौकीन, मितभाषी पर हमारी खूब पटती। धीरे-धीरे हमारे परिवारों के बीच मैत्री प्रगाढ़ होती चली गयी। कोई दिन ना होता, जब ताई जी दोपहर में ना आतीं या अम्मा वहां ना जातीं। इसी बीच घर में चर्चा सुनी कि शाह अंकल को बिजनेस में जबर्दस्त घाटा हुआ है। कर्जदारों से आजिज हो कर उन्होंने गुजरात जाने का फैसला कर लिया है। पापा के साथ उनकी प्रायः मंत्रणा होती रहती। अचानक कब सारा परिवार पलायन कर गया, पता ही नहीं चला ! मेरे विषाद की तो सीमा ही नहीं थी। बानी दी चली गयी, पर मुझे पूर्ण विश्वास था कि हम कभी ना कभी मिलेंगे जरूर।

दिल्ली में हमें 4 महीने हो गए थे। इस अंतराल में आसपास के फ्लैट्स से भी हमारा परिचय बढ़ गया, टी पार्टी, डिनर्स और छोटी-मोटी सोशल गैदरिंग से व्यस्तता बढ़ती जा रही थी। बच्चों ने भी नए दोस्त बना लिए थे। बहुत दिन बाद पार्क की तरफ निकली, तो अचानक पीले फूलों की लतरों के बीच उस अबूझ आकृति से टकरा गयी। वे किसी पुरुष के साथ टहल रही थीं। मैंने देर किए बिना उन्हें सामने से पकड़ लिया, “कब तक दूर रहोगी, बानी दी। मैंने कहा था ना हम जरूर मिलेंगे।”

बानी दी ने मुझे कस कर चिपका लिया, “तुम तो बिलकुल घरनी हो गयी अनूषा !”

“घरनी नहीं होऊंगी, दो-दो बच्चों की मां हूं,” हंसते हुए मैंने कहा। बानी दी का चेहरा विवर्ण हो गया। उनके साथ खड़े पुरुष ने उनके कंधे पर हाथ रख कर थपथपाया। मैंने प्रशंसा भरी निगाह से उनकी तरफ देखा- सुदृढ़ स्कंध, प्रशस्त ललाट, सुभग नासिका और बुद्धि से प्रदीप्त नयन, ऐसे आकर्षक व्यक्तित्व को देख कौन स्त्री आंख फेर सकती है। पर क्या था, जो मुझे खटक रहा था, शायद उनकी अंतर तक भेदती दृष्टि। परखती, जांचती हुई सी। बानी दी के संपूर्ण व्यक्तित्व में ऐसा मोहक भाव कभी नहीं देखा था, जैसे आकंठ प्रेम में डुबकियां लेती मुग्धा नायिका। बीच-बीच में हंसती जातीं तो गालों के चित्ताकर्षक गड्ढे अधिक स्पष्ट हो जाते। आकर्षण में बंधे वे प्यार से उन्हें निहारने लगते।

“बानी दी, जीजा जी से फॉर्मल परिचय तो करा दो,” मेरे कहने पर बानी दी ने मुस्करा कर उनको देखा, फिर मुझे चपत लगा कर बोलीं, “पागल ! जीजा जी किसे बोल रही है, ये तो शांतनु हैं मेरे प्रतिवेशी मुखर्जी साब के साले, कोलकता में प्रोफेसर हैं। आजकल आए हुए हैं। बिलकुल मेरे जैसा मिजाज है, पढ़ने के शौकीन, कौन सी भाषा नही जानते? स्पेनिश हो या मेंडरिन, और तो तुम्हारी भोजपुरी भी। जरा बोल के तो दिखाइए,” कहती बानी दी षोडशी की तरह उनकी ओर झुक आयीं।

मैंने अनसुना करते हुए कहा, “जीजा जी को कहां छिपा रखा है, बानी दी?”

बानी दी का उत्फुल्ल चेहरा एक क्षण को बुझ सा गया। खिसिया कर बोलीं, “जीजा तुम्हारा, कहीं बैठा रोकड़ा गिन रहा होगा, अन्नू।”

मेरी असहजता उस आगंतुक से छिपी नहीं रही। शायद इसीलिए वे बानी दी से वापस चलने का आग्रह करने लगे। मैंने जान कर कहा, “आप भी बानी दी और जीजा जी के साथ हमारे यहां आइएगा, अभि को भी आपसे मिल कर अच्छा लगेगा।”

“निश्चय ही,” कह कर वे पलट गए। बानी दी भी उनके साथ मोहावस्था में मुड़ कर चल दीं। ये क्षणांश की मुलाकात मुझे कई उलझनों में डाल गयी। बानी दी जैसी प्रबुद्ध स्त्री किसी के मोहजाल में कैसे आ सकती है? उनकी धीरता, गंभीरता उनका चारित्रिक बल मेरे लिए आदर्श थे। कॉलोनी के कितने प्रणयी हृदयों को उन्होंने पलट कर भी नहीं देखा था। फिर उनके चेहरे का लावण्य आंखों में तैरते प्रणय की डोरें, कौन सा सच है?

यह अच्छा था कि मैंने उनका फोन नंबर और पता ले लिया था। शाम भर इस जाल में उलझी रही। अभि को बहुत हुलस कर बानी दी से अप्रत्याशित भेंट की संक्षिप्त सूचना दी। अभि के मन में बानी दी की बड़ी उत्कृष्ट छवि थी। इस बीच अभिलाष से बानी दी के घर चलने का बार-बार आग्रह भी करती रहती।

हमारे फ्लैट्स से कुछ दूरी पर एक से बने बंगलों की कतार थी, जिसको मैं प्रायः प्रशंसनीय दृष्टि से देखती जाती थी। लाल ईंटों से बने ये मकान और इनकी सज्जा नयनाभिराम थी। सामने था बड़ा सा लॉन और अनगिनत फूलों की कतारें।

दो दिन बाद उनको फोन किया, तो उन्होंने कहा, “आज मत आओ अन्नू। जिग्नेश तो हैं नहीं। मैं आजकल शांतनु से एक साधना के लेसन्स ले रही हूं।”

मन नहीं माना तो एक दिन मैंने उनके यहां जाने का मन बना लिया। अभिलाष के लौटने में देरी थी। चैतन्य और निमिषा अपनी पढ़ाई में व्यस्त थे। बंगले में प्रवेश करते ही मुख्य द्वार से धूप, गुग्गुल की भीनी-भीनी सुगंध वातास में प्रसारित हो रही थी। द्वार पर ही तैनात एक वृद्ध सेविका ने बताया कि मेमसाब तो मुखर्जी बंगला गयी हैं। मैं बिना रुके उधर ही मुड़ गयी। उस पूरे बंगले में अजब सा सन्नाटा था। संध्या की कालिमा के बीच सिर्फ एक बल्ब टिमटिमा रहा था। लॉन में पानी देते भृत्य ने बताया, “साहब और मेमसाब तो बच्चों के पास विदेश में हैं। यहां बस दादा हैं, वो संध्या कर रहे हैं, आप यहीं बैठिए।”

मैंने कहा, “मुझे भी संध्या-साधना में शामिल होने बुलाया है।”

दबे पांव उस विशाल बैठक से ऊपर जाती सीढ़ियों पर कदम रखते ही मेरा मन किंचित भयभीत होने लगा। इस विशाल डुप्लेक्स बंगले के ऊपरी टैरेस के कोने में एक कक्ष से अस्पष्ट आवाजें आ रही थीं। अंधकार में मेरी आंखें और सजग हो उठीं। कक्ष के द्वार पर पहुंचते ही अजीब सा दृश्य दिखा। जलती हुई धूनी के पास सफेद धोती में बैठे शांतनु। ऊपरी देह का शरीर सौष्ठव, मुख पर रहस्यात्मक कांति और अस्पष्ट उच्चारण। पार्श्व में बैठी बानी दी का मोहाविष्ट आनन, खुली केशराशि और नशे में मदमस्त यक्षिणी सा चेहरा। दोनों की आंखें बंद थीं। तभी मेरे कानों में भारी कंठ की फुसफुसाहट पड़ी, “लौट जाओ, लौट जाओ, क्या जानना चाहती हो?” दोनों चुप हैं, ये आवाज किसकी है? घबरा कर मैं तेजी से भागी। सीढ़ियां फलांगती घर पहुंची, तब सांस ली। भय से बहुत देर मेरी सांसें धौंकनी की तरह चलती रहीं, वह विचित्र परिवेश, अजीब सी गंध मेरा पीछा कर रही थी।

दूसरे दिन बानी दी का फोन आया। उनकी बातों से किंचित भी नहीं लग रहा था कि उन्हें मेरी उपस्थिति का आभास भी था। आवेश में वे बताने लगीं कि किस तरह वे शांतनु दा के माध्यम से पारलौकिक संसार में झांक पाएंगी और अपने मृतक पिता से बात कर सकेंगी। पूछ सकेंगी कि ईश्वर ने उन्हें पति और संतान सुख से क्यों वंचित रखा। उनकी आवाज में आवेश था। “अनूषा, एक दिन मैं तुम्हें भी बुलाऊंगी, देखना किस तरह तुम्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे।”

मैं विभ्रांत सी उनकी बातें सुन रही थी। उनके प्रति मेरा प्रेम मुझे उनको इस अबूझ पारलौकिक दुनिया में जाने से रोकना चाह रहा था। तंत्र-मंत्र की दुनिया के भयावह सच सामने थे, पर जब इंसान खुद ही कुएं में कूदने को तैयार हो, तब कौन रोक सकता है? उनकी क्या कहूं मेरे मन के किसी कोने में भी उस सत्य को जानने की इच्छा बलवती हो उठी, जिसे वर्षों पहले अम्मा ने विषाद के ढक्कन से दबा रखा था। यह एक ऐसा कटु प्रश्न था, जो वर्षों अम्मां, पापा को मथता रहा था। आखिर एक जीता-जागता इंसान एकाएक घर से कहां गायब हो गया? बिन्नू चाचा पापा के छोटे भाई थे। सब कुछ सामान्य चल रहा था, अचानक कहां लोप हो गए, इस पहेली ने वर्षों तक सब को चेतनाशून्य रखा था। उनको ढूंढ़ने की सभी चेष्टाएं व्यर्थ गयी थीं।

मौसम खुशगवार था। सुबह-सुबह टहलने निकली, तो लाल बंगलों की कतार पर नजर चली गयी। घर की छत पर खड़ी बानी दी जाने किसका आवाह्न कर रही थीं। मुंह नीचा करके मैं आगे बढ़ गयी। दूसरे दिन अखबार ले कर बैठी ही थी कि बानी दी का फोन आया, “अन्नू, आज शाम को मेरे घर पर आना। तुम्हें विश्वास नहीं होता ना? तुम स्वयं चमत्कार देखना। शांतनु बहुत बड़े साधक हैं, पर लेशमात्र भी अहंकार नहीं। आएगी ना मेरी छोटी बहन?”

मैंने बेसाख्ता ‘हां’ कह दिया, पर मन में धुकुर-पुकुर मची थी। अभि को पता चलेगा, तो मेरी जान ही निकाल देंगे। बच्चों को कहां छोड़ूं? पूरे दिन उलझन रही। अंत में बच्चों को बगल में मिसेज पारीक के सुपुर्द करके मैं मन को कड़ा करके निकल गयी। शाम का अंधेरा फैल गया था। निर्जन सड़क पर एक-दो जुगनू चमक उठते। चलते-चलते भय लगता कहीं कोई पदचाप पीछा कर रही है। हनुमान चालीसा पढ़ते-पढ़ते रास्ता पार किया। दरवाजे पर ही बानी दी मिल गयीं, प्रेम से बाहुपाश में ले लिया। बैठक की त्रुटिहीन सज्जा, सभी कुछ बेहद आकर्षक था। उनकी सेविका गुलाब का ठंडा शरबत ले आयी।

बानी दी ने कहा, “चलो ऊपर चलते हैं, वहीं शांतनु आएंगे।” मैं सीढ़ियों पर लगी उदास औरतों की पेंटिंग्स और रेलिंग के साथ लटकी कलात्मक घंटियों को देखती ऊपर चढ़ने लगी। वे अपनी रौ में बोलती जा रहीं थीं, “जानती है, आज जिस सोल को चुना है वह डेनमार्क की एक 14 वर्ष के लड़के की आत्मा है, वही तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देगा।” सुन कर मेरी तो घिघ्घी बंध गयी। एक सम्मोहन था, जिसमें उनके पीछे चलती चली गयी। कक्ष के अंदर मुझे बैठा कर बानी दी ने शांत रहने का संकेत किया।

क्रमशः