Friday 06 December 2024 05:14 PM IST : By Shobha Mathur Brijendra

मां मेरा घर कहां है भाग-2

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प्रेम का रिश्ता निरंतर सींचना होता है, वरना डाल से सूखे पत्तों की तरह हर रिश्ते बिखर जाते हैं। मां हमेशा कहती थीं, ‘सबसे मीठी है मीठी बात और सबसे कड़वी है कड़वी बात। ऐसे शब्द, जो दूसरों का दिल दुखाएं कभी मत बोलना, बेटा।’ इस बात का मैं हमेशा एहतियात बरतती रही। लोग कहते भी थे कि तुम बोलते-बोलते रुक क्यों जाती हो। मैं कहती, इसलिए कि कहीं कुछ गलत ना बोल जाऊं।

लखनऊ पहुंच कर मैं अपनी जिगरी दोस्त नसीमा के बंगले पर पहुंची। मुझे गले लगा कर वह बहुत खुश हुई। जल्दी ही उसकी मदद से मुझे एक कोठी में दो कमरे मिल गए व नौकरी भी उसी के स्कूल में मिल गयी। मां की तसवीर मैंने अपनी मेज पर रख ली। मैं रोज मां से पूछती, ‘मां, बता मेरा घर कहां है?’ दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे। मुझे लड़ना था रोशनी के लिए, मैं भी अपने लिए जीना चाहती थी।

एक दिन तेज हवाएं चल रही थीं। हल्की-हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। मैं गरम-गरम चाय पी रही थी कि मेरे कानों में बहुत ही दर्द भरी सुरीली ध्वनि पहुंची। मैं झटके से उठी और बालकनी में आ गयी। देखा एक युवक सामने वाली बालकनी में खंभे से सिर टिकाए दर्द भरी गजल गा रहा था। बरसों बाद मेरा दिल बेचैन हो गया।

वह वहां नया नया किरायेदार आया था। हर रात उसके दर्द में डूबे नगमे मैं अंधेरे में खड़े हो कर सुनती। वह मुझसे बेखबर देर रात तक दर्द बिखेरता रहता। हमेशा उसकी पीठ ही मेरे सामने होती। धीरे-धीरे मुझे लगने लगा जैसे मैं बेचैनी से रात होने का इंतजार करने लगी हूं। ना जाने यह कैसी कशिश थी।

एक दिन मैं सुबह चाय की प्याली ले कर जैसे ही बालकनी में आयी, मैंने देखा एक खूबसूरत सा बच्चा लिए वही लड़का उसे चम्मच से दूध पिला रहा है। मैं हैरान थी कि मां कहां है, जो यह दूध पिला रहा है। अचानक उस लड़के की निगाह भी मुझ पर पड़ी। हम दोनों ही हैरान थे।

लड़का गठीले बदन का साधारण सा था, मगर उसकी काली बड़ी-बड़ी आंखें बहुत ही उदास थीं। अब मैं अकसर ही उसे कभी बच्चे को कपड़े पहनाते, कभी नहलाते, कभी दूध पिलाते देखा करती। जैसे ही वह बच्चा क्रेच में जाता, वह भी कार से ऑफिस चला जाता। धीरे-धीरे वह बच्चा मुझे देख कर मुस्कराने लगा। मैं भी दोनों को देख कर मुस्करा कर हाथ हिला देती।

एक दिन मैं जैसे ही बालकनी में आयी, मैंने देखा वह बहुत उदास है, ना जाने कौन सी पीड़ा से वह गुजर रहा था ! बच्चा भी 6-7 दिन से दिखा नहीं था। हां, उसकी दर्द भरी नज्में अब भी आधी रात को बदस्तूर जारी थीं। मैं सो नहीं पाती थी। उसकी आवाज के दर्द की लज्जत मेरे सीने में उतर जाती थी।

सुबह चाय ले कर मैं जैसे ही बालकनी में आयी, मैंने देखा वह बच्चे को उठाए तेजी से कार की तरफ बढ़ रहा है। दरवाजा लॉक करके मैं भी वहां पहुंच गयी। उसकी गहरी काली आंखों में वीरानी के सिवा कुछ ना था। वह धीरे से बोला, ‘‘राम को कई दिनों से तेज बुखार आ रहा है, आज बेहोश हो गया। अस्पताल ले जा रहा हूं।’’

ना जाने किस अधिकार से मैं बोली, ‘‘मैं भी चलूंगी।’’

उसने बिना किसी विरोध के गेट खोल दिया, शायद उसे भी सहारे की जरूरत थी। राम को मैंने गोद में ले लिया।

दो दिन दो रात लगे, राम बिलकुल अच्छा हो गया। दोनों रातों में वह उखड़ा-उखड़ा और बेचैन रहा। अब उसके चेहरे पर इतमीमान था।
एक दिन वह शाम को 5 बजे मेरे फ्लैट पर आया और बोला, ‘‘माफ कीजिएगा, आपको एक तकलीफ देने आया हूं। कई दिनों से छुट्टी पर था, मगर कल एक जरूरी मीटिंग है। अगर क्रेच के बाद उनकी आया राम को आपके पास छोड़ दे तो?’’

‘‘तो क्या? यह तो मेरी खुशकिस्मती होगी, मेरी शाम भी अच्छी कट जाएगी। आइए, एक कप चाय पी लीजिए,’’ मैं बोली।

‘‘हां, शायद इसकी मुझे सख्त जरूरत है,’’ उसने कहा।

मैंने चाय ला कर उसे दी तो उसने बहुत ही एहसान से मुझे देखा फिर बोेला, ‘‘अरे, घर में कोई नहीं है?’’

‘‘आपके घर में भी तो कोई नहीं है। शायद हम दोनों ही अकेले हैं,’’ मैं बोली।

‘‘राम की मम्मी कहां हैं?’’ मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रही थी।

उससे एक आह भरी और बताने लगा, ‘‘राम की मां अब इस दुनिया में नहीं है। हम दोनों ने अपनी पसंद की शादी की थी। दोनों के परिवार नाराज थे। सालों से किसी ने खबर नहीं ली। पत्नी को मृत्यु के समाचार पर भी परिवार‌ का कोई सदस्य नहीं आया। पत्नी को ब्रेस्ट कैंसर हो गया था। छः महीने में हमारा परिवार देखते देखते उजड़ गया,’’ कहते-कहते वह सूखे पत्ते की तरह कांपने लगा।

‘‘परिवार जो इंसान की धुरी है, वह इतना कठोर हो सकता है। ना तो हमने चांद-तारे मांगे थे, ना आलीशान महल! ना ही सपनों को जमीन मिली, ना कोई मुराद पूरी हुई, उनकी सबकी बद्दुआओं ने मेरे छोटे से घरौंदे के तिनके-तिनके हवा में उड़ा दिए,’’ कह कर वह छोटे बच्चे के तरह सिसक पड़ा।

मैं घबरा कर उठी और उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। उससे मेरा हाथ अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबा लिया, जैसे यह आखिरी सहारा वह छोड़ना नहीं चाहता था। पुरुष के प्रथम स्पर्श में मैं सिहर गयी।

अचानक वह उठा और अपने घर चला गया। दूसरे दिन मैंने छुट्टी ले ली। सही वक्त पर राम आ गया। उसे खाना खिला कर पार्क में ले गयी। ढेरों खिलौने दिलाए, मगर जब तक आकाश आए, (नाम मैंने उनके नेमप्लेट पर पढ़ लिया था) तब तक राम खा कर सो गया था।

‘‘दीपा जी, राम को दे दीजिए, मुझे माफ कीजिए, कल की हरकत के लिए बहुत शर्मिंदा हूं।’’

‘‘प्लीज, आप बैठिए। कल ऐसा कुछ नहीं हुआ यह लीजिए चाय पीजिए,’’ मैंने आकाश को तसल्ली दी और बोली, ‘‘आज मैंने आपके लिए स्पेशल डिशेज बनायी हैं। रोज तो ब्रेड या दलिया खा कर सो जाती थी।’’

चाय पीते अौर खाना खाते हुए मैंने उसे अपनी सभी बातें बतायीं तो वह बोला, ‘‘सच, हम दोनों के हालात कितने मिलते-जुलते हैं,’’ आकाश ने मेरे दर्द को परत दर परत समझा और मेरा हाथ थाम कर बोला, ‘‘गुजरा अतीत टीस बन कर मुझे रुला रहा था, मगर दीपा अंधेरे में जो चिराग तुमने मेरे लिए जलाया, उसके सहारे मैं अब जी सकूंगा।’’

उसकी मजबूत बांहें मेरे इर्दगिर्द थीं। मायाजाल से मैं बाहर आ गयी थी, मेरे सपनों का राजकुमार मेरे सामने था। उसके सीने में मुंह छिपा कर मैं महफूज थी। दूर कहीं गाना बज रहा था- रेखाओं का खेल है मुकद्दर, रेखाओं से मात खा रहे...