मेरे और भैया के बीच कितनी दूरियां आ गयीं। लगता है कितनी झाड़ियां व कंटीले तार बीच में उग आए हैं। कभी-कभी लगता है हम दोनों के बीच से एक तूफान गुजर गया और छोड़ गया ढेरों सूखे पत्ते और सीलन भरी मिट्टी !
मैं आज खुद को बेहद बेसहारा महसूस कर रही थी। स्कूल में मेरी सहेली अंजलि पूछती रही, ‘‘क्या बात है, क्यों उदास है? कुछ तो बता।’’
मैंने उसे बताया कि जब मैं और मां साथ थे तो एक-दूसरे की परवाह नहीं करते थे, मगर अब जब वे नहीं रहीं तो डाल से टूटे पत्ते की तरह मैं बेसहारा हो गयी हूं। मां तो हर वक्त मुझे सातवें आसमान पर बिठाए रखती थीं, इसमें कितना सच था यह तो पता नहीं, मगर हर वक्त उनका यह कहना कि मुझसे सुंदर कोई लड़की हो ही नहीं सकती और मेरे लायक कोई लड़का होगा ही नहीं, मुझे भरमा गया।
उस कमसिन उम्र में मुझ पर उनकी बातों का अंदर तक असर हो गया था। उस वक्त मुझे हर लड़का अपने से कम नजर आता था। उनका यह कहना कि कोई राजकुमार ही मुझे ब्याहने आएगा, मुझे ऐसे परी देश में ले जाता था, जहां सपनों का खूबसूरत संसार था। धीरे-धीरे मैं अपने को सबसे सुपर समझने लगी ! जब भी कोई रिश्तेदार कोई प्रपोजल ले कर आता, मां खूब चीखतीं, ‘कहां यह कहां मेरी बेटी, जो दस हजार कमा रही है। धीरे-धीरे हर दस हजार वाला लड़का लाख तक पहुंच गया, मैं वहीं की वहीं थम गयी।
कई रिश्तों को मैं खुद ठोकर मार चुकी थी। कई के मैंने इंटरव्यू लिए, फिर उनका खूब मजाक उड़ाया। अपने आगे मुझे कोई रिश्ता जंचता नहीं था। अब तो रिश्ते भी आने बंद हो गए थे। रिश्तेदार भी डरते थे कि अगर हमने कोई लड़का बताया तो ये दोनों हमारा ही मजाक ना उड़ाने लगें ! अब सब तरफ खामोशी थी। हर रिश्तेदार के छोटे से छोटे बच्चे भी ब्याह गए, मगर मैं आज भी उस काल्पनिक राजकुमार का इंतजार कर रही हूं।
मां ने मेरे लिए ऐसे सपनों का महल खड़ा किया था, जो कभी आबाद ही ना हो सका ! वक्त की भी अपनी चाल होती है, पर लगता है वह मेरे दरवाजे पर आ कर टिक गया है। मां के बिना पापा असमय ही बूढ़े नजर आने लगे हैं। मां के बाद घर भी संभालना था, इस वजह से लोगों ने कहा कि बहू आ जाएगी, फिर चाहे कुछ ही दिन बाद तुम बेटी की शादी कर देना।
बहू तो आ गयी, मगर इस घर में फिर मुझे सब भूल गए। वह भैया जो जान छिड़कता था, बात-बात पर झल्लाने लगा। भाभी-भाई हर वक्त खुसुरफुसुर करते नजर आते। अब तो घर ज्यादा पराया नजर आने लगा था। भाई के दो बेटे भी हो गए थे।
मंजिल का पता हो तो यात्रा कहीं से भी शुरू की जाए, मंजिल मिल ही जाती है। मगर मंजिल का पता तो हो ! कुछ शब्द परिवार की मर्यादाओं पर सवालिया निशान लगा देते हैं, मगर भाभी उन सभी शब्दों को आसानी से बोल देती थीं। भाई-भाभी को ले कर क्या-क्या सपने बुने थे, सब रेत के महल की तरह ढह गए।
‘‘अंजलि, तू सोच भी नहीं सकती, उस दिन जब पिकनिक थी मैं जैसे ही घर पहुंची, दोनों बच्चे भूखे बैठे थे। कहने लगे, बुआ दूध दो, मैगी बना दो।’’
खैर, उन दोनों को किसी तरह खिलाया, तभी बच्चे बोले कि मम्मी का फोन आया है, बुआ से कहना डिनर बढ़िया सा तैयार रखें, हम 9 बजे तक पहुंच जाएंगे। एक तो पिकनिक की थकान, ऊपर से घर के काम, मैं थक कर चूर हो गयी थे। घड़ी पर नजर डाली, रात के 11 बज रहे थे। मैं लेटी ही थी कि दोनों बच्चे मेरे ऊपर कूदने लगे, ‘‘बुआ, कहानी सुनाओ, बुआ, कहानी सुनाओ।’’
‘‘आयाओं से बदतर मेरी जिंदगी है। सारे दिन तुम्हारी चाकरी करती रहूं, नौकर बना कर रख लिया है तुम लोगों ने,’’ कह कर मैं जैसे ही मुड़ी, देखा भाभी रौद्र रूप लिए खड़ी हैं। पता नहीं वे कब आ गयी थीं। वे चीखते हुए बोलीं, ‘‘आप अपनी मर्जी से यहां रह रही हैं, हमने आपको यहां जबर्दस्ती थोड़ा रोका हुआ है।’’
‘‘तुम होती कौन हो भाभी मुझे रोकने वाली, यह मेरा घर है, यहां नहीं रहूंगी तो कहां रहूंगी।’’
‘‘ओहो, यह आपका घर है तो मेरा घर कहां है?’’ जिंदगी में यह भी सुनना पड़ेगा, वह भी अपने ही घर में कभी सोचा ना था। जिंदगी सवाल बन कर मेरे आगे खड़ी थी।
अगर मां ने झूठे सपने ना दिखाए होते तो मेरा भी एक घर होता। मेरे आंगन में भी खुशियां डेरा डालतीं, मगर मैं तो रूपगर्विता थी। जिन छोटे-छोटे कजन्स के साथ बैठ कर मैं सबका मजाक उड़ाया करती थी, कुछ ही सालों के अंतराल में वे सब भी ब्याह गए।
मेरी हंसी खोखली थी। मेरी आंखें पढ़ने वाला कोई ना था, जो मेरे अंदर का दर्द जान पाता। खिन्न मन से उठ कर मैंने चेहरा धोया। आईने में चेहरा देखा कोई चमक ना थी, आंखों के नीचे स्याह घेरे हो गए थे। कभी-कभी लगता है, पांवों के नीचे से जमीन खिसक रही है। आज की घटना के बाद मैंने खुद को सबसे अलग कर लिया। पतझड़ के उम्रदराज पत्तों की तरह मैं सोच रही हूं, इस घर के लिए मैंने क्या कुछ नहीं किया, जिंदगी के सुनहरे लमहे इन लोगों पर कुर्बान किए। पूरी-पूरी तनख्वाह मां के हाथ पर रखी, जिससे मां बहू के लिए साड़ी-जेवर बना गयी थीं और आज इसी घर में यह दो दिन की आयी लड़की मुझे पराया बता रही है। मेरा अपने ही घर में सांस लेना भी दूभर हो रहा था। जख्मों पर फाहे रखना, दरारें भरना नयी पीढ़ी ने सीखा ही कहां है। खाली जगह का सन्नाटा मुझे भयानक लग रहा है। मेरे सपनों का राजकुमार ना जाने कौन से देश में बस गया कि आता ही नहीं।
मेरे पैसों से ही घर चल रहा था। शायद मां इस सहारे को खोना नहीं चाहती होंगी, तभी उन्होंने मुझे ऐसे सपने दिखाए, जो खाली नींद में ही आते हैं, हकीकत से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं होता।
‘‘दीपा, तू अब सो जा कल इस समस्या का कोई समाधान ढूंढ़ेंगे,’’ कह कर अंजलि अपने घर चली गयी। सारी रात मैं सो नही पायी। भाभी के शब्द मेरे कानों में सीसा उड़ेल रहे थे, ‘यह आपका घर है तो मेरा कौन सा है?’ जी तो चाहा उसे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दूं, पर यह कर ना सकी। असफलताएं निर्णायक नहीं होतीं, ये वे पड़ाव हैं, जिनसे हो कर जिंदगी आगे बढ़ती है। सघन निराशा में से मुझे अपने लिए रोशनी ढूंढ़नी थी।
मैंने दरवाजा खोला, बाहर गहन अंधकार था। मैंने अपनी अटैची उठायी और आंखों में आंसू भरे चल दी उन रास्तों पर, जो बेगाने थे। टैक्सी करके स्टेशन पर आयी और लखनऊ का टिकट ले कर ट्रेन में बैठ गयी। पापा से बिछड़ने का अफसोस था। गार्ड ने हरी झंडी दी। ट्रेन लोहे की पटरियों पर दौड़ने लगी। धीरे-धीरे स्टेशन पीछे रह गया, पेड़-मकान सब छूटते जा रहे थे ! यहां कभी वापस नहीं आऊंगी, पक्का इरादा कर लिया।
क्रमश: