Monday 18 March 2024 03:26 PM IST : By Rita Kumari

बदलते रिश्ते भाग-2

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( आगे की कहानी... ) कई डाॅक्टर बदले गए, फिर भी लिवर का कैंसर जानलेवा साबित हो रहा था। इलाज के दौरान कभी-कभी पापा के दर्शन हो जाते, पर जल्द ही काम का बहाना बना अपनी जिम्मेदारी मामा पर छोड़ लौट जाते। उनके स्वभाव से पूरी तरह परिचित हो गए मामा उनसे कोई भी उम्मीद ही रखना छोड़ चुके थे। पीली पड़ती मम्मी की आंखों में बस हर समय उसी की चिंता रहती। अपनी आसन्न मृत्यु को देख कर वे एक दिन मामी से बोली थीं, ‘‘मैं सिर्फ विवेक के लिए जीना चाहती थी। पर अब यह नहीं हो सकता। इसलिए मेरी अंतिम इच्छा है कि इसकी जिंदगी में तुम मेरी जगह ले कर इसे अपने बच्चों में शामिल कर लेना।’’

जब मामी ने उन्हें वचन देते हुए कहा था, ‘‘तुम उसकी चिंता मत करो। मैं उसे अपना ही बेटा मानती हूं। वैसे तुमको भी कुछ नहीं होगा।’’

मामी के वचन देते के कुछ देर बाद ही हमेशा के लिए उसकी मम्मी ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं। बहन की असमय मृत्यु से दुखी उसके मामा ने उनके अंतिम संस्कार की भी पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी। उसके पापा तो मूक दर्शक की तरह सिर्फ अंतिम संस्कार में शामिल भर हो लिए। पंडितों द्वारा बताए कुछ विधि-विधान पूरे कर अपना कर्तव्य निबाह दिया। जब विवेक की जिम्मेदारी की बात आयी, उसके पापा ने बड़ी कुशलता से उसे उसके मामा और मामी के सिर पर डाल दिया, ‘‘अभी मैं इसे यहीं छोड़े जा रहा हूं। इसकी पढ़ाई की कुछ व्यवस्था कर लूं, फिर इसे यहां से ले जाऊंगा। तब तक आप लोगों के साथ रह कर यह भी इस हादसे से थोड़ा उबर जाएगा।’’

पापा के उन थोड़े दिनों की अवधि कभी समाप्त नहीं हुई। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि उस छोटे से मासूम बिन मां के बच्चे को उस समय पिता के प्यार और संरक्षण की सबसे ज्यादा जरूरत थी। जल्द ही उन्होंने दूसरी शादी कर ली और विवेक का पिता शब्द से नाता हमेशा के लिए टूट गया। जन्मदाता ने भले ही उसे भुला दिया, पर मामी ने अपनी सखी जैसी ननद को दिए गए वचन को पूरी तरह निभाया। उसकी परवरिश बिलकुल अपने बच्चों जैसे की। प्राइमरी शिक्षा से ले कर अहमदाबाद के एक प्रतिष्ठित काॅलेज से एमबीए कराने तक उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। उसकी हर जरूरत को मामा-मामी खुशी-खुशी पूरा करते। धीरे-धीरे उस परिवार में वह पूरी तरह रच-बस कर उस परिवार का हिस्सा बन गया था।

कालांतर में शांत और गंभीर विवेक के साथ मामी को अपनी बेटियों से भी ज्यादा अपनापन हो गया था। मामी अपनी हर छोटी-बड़ी बात निसंकोच उसके साथ बांटतीं। उनकी दोनों बेटियां वसुधा और नेहा भी उसे अपने छोटे भाई जैसा ही मान और प्यार देतीं। उसकी देखभाल करतीं। विवेक भी कभी दोनों बहनों को भाई की कमी महसूस नहीं होने देता। कभी-कभी विवेक को अपने पापा का उसे पूरी तरह भुला देना शूल की तरह चुभता, कभी अपनी दादी का प्यार विकल कर देता, फिर भी वह इसकी चर्चा किसी से नहीं करता।

समय की रफ्तार को भला कौन रोक सका है? देखते-देखते वे तीनों भी बड़े हो गए। दोनों बहनों की पढ़ाई समाप्त होते ही मामा ने अच्छा घर-वर तलाश कर उनका विवाह कर दिया था। जब उसकी पढ़ाई समाप्त हुई, उसका भी कैंपस सलेक्शन हुअा। कई मल्टीनेशनल कंपनियों से नियुक्ति पत्र मिले। किस कंपनी को जॉइन करे, इसका फैसला अभी कर ही रहा था कि अचानक उसके मामा का दिल का दौड़ा पड़ने से घंटेभर में ही मृत्यु हो गयी। इस अचानक हुए हादसे से पूरा परिवार शोकाकुल हो उठा। मामी तो पूरी तरह टूट गयी थीं। हमेशा दूसरों का खयाल रखनेवाली मामी को जिंदगी की इस संध्या बेला में खुद ही किसी के प्यार और संबल की जरूरत हो गयी थी। दोनों बेटियों की अपने-अपने घर-परिवार की जिम्मेदारियां थीं, जिन्हें छोड़ कर मामी के पास रहना उनके लिए संभव नहीं था।

सबसे बड़ी समस्या थी मामा जी के व्यापार को संभालने की। घर के दामाद चाहते थे कि दोनों व्यापार को आपस में बांट कर चलाएं, पर मामी को यह फैसला कतई मंजूर नहीं था। मामी की इच्छा का आभास होते ही विवेक ने फैसला लिया कि अपने नौकरी करने की इच्छा को तिलांजलि दे अपनी मामी का साथ देगा। बेटा होने का फर्ज निबाहेगा। दुर्भाग्य के उस कठिन समय में विवेक के इस फैसले ने उसकी मामी को अपने टूटे-बिखरे अस्तित्व को संभाल कर विपरीत परिस्थिति का सामना करने का साहस दिया। विवेक का सहारा पा कर उन्होंने तुरंत फैसला लिया, ‘‘मैं अपना सारा कारोबार विवेक के साथ मिल कर खुद संभालूंगी।’’

मानसिक रूप से मामी के थोड़ा संभलते ही कारोबार की सारी जिम्मेदारी विवेक ने अपने कंधे पर उठा ली और मामी से सलाह ले कर वह बखूबी सब कुछ संभालने लगा। उसकी एकाग्रता, मेहनत और लगन ने कुछ ही दिनों में मामा के व्यापार को बुलंदियों पर पहुंचा दिया। जल्द ही उसकी सफलता के चर्चे उसके रिश्तेदारों के माध्यम से होते हुए उसके पिता तक भी पहुंचने लगे। बरसों से अपने बेटे की कोई खोज-खबर नहीं लेनेवाले पिता को अचानक ही अपने कुलदीपक की याद
आ गयी। जल्द पहुंच गए थे, कुछ उपहारों के
पैकेट लिए अपने बेटे को अपना नाम और पहचान देने। लेकिन उनके इस बिन मौसम बरसात का विवेक पर कोई असर नहीं हुआ। उनकी स्वार्थी सोच और अय्याशियों के कारण उसने और उसकी मां ने जो वेदनाएं सही थीं, उसकी तपिश अभी ठंडी नहीं हुई थी।

वैसे भी उनके अचानक उमड़ आए प्रेम में छुपे लालच से वह अनजान नहीं था, क्योंकि वह भी व्यापार की हर खबर से वाकिफ था। अपने किताब के व्यापार में हुए भारी नुकसान की पूर्ति नहीं कर पाने के कारण बरसों पहले त्यागा अपना बेटा और उस पर अपना हक याद आ गया था। उसने साफ-साफ अपने पिता को समझा दिया था कि जिस बाप ने कभी उसे मंझधार में थपेड़े खाने को छाेड़ दिया था और कभी मुड़ कर भी उसकी कोई खोज-खबर नहीं ली, उस पिता से उसका अब कोई संबंध नहीं था। जिसने उसे अपनाया, बेटे का मान-सम्मान और अधिकार दिया, अब उसका संबंध भी सिर्फ उन्हीं लोगों तक था। उसने अपने पिता से उसी बेदर्दी से अपने सारे संबंध तोड़ कर उन्हें अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया, जैसा कभी उन्होंने किया था। हमेशा से अपने बेटे के प्रति गैर जिम्मेदार रहे उसके पिता, उसे बेटे की जिम्मेदारियां समझाते गुस्से से पैर पटकते वहां से चले गए थे। इस घटना से बरसों से पिता के लिए दग्ध उसके मन को जैसे ठंडक पहुंची थी। वह नए आत्मविश्वास से अपने काम में जुट गया था।

उन दिनों गरमी की छुट्टियां चल रही थीं। उसकी दोनों बहनें अपने बच्चों के साथ आयी हुई थीं, जिससे घर में नित्य सैर-सपाटे के प्राेग्राम बनते रहते। एक दिन करीब आधी रात को उसकी नींद खुली, तो वह पानी पीने के लिए अपने कमरे से बाहर निकला। छत की तरफ से आती हल्की आवाजें सुन वह भी छत पर जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ मुड़ गया। दोनों दीदी और दोनों जीजा जी बैठे बातें कर रहे थे। वह भी उनकी बातों में शामिल होने के लिए बढ़ा, तभी बड़े जीजा जी की बातें सुन उसके कदम अंधेरे में ही ठिठक कर रह गए।

‘‘विवेक के प्रति तुम्हारी मम्मी का झुकाव देख कर मुझे कभी-कभी लगता है कि भावना में बह कर कहीं उसे अपने जायदाद का तीसरा हिस्सेदार ना बना लें।’’

‘‘मम्मी का दिल जरूर बड़ा है, पर इतना बड़ा भी नहीं है कि अपनी बेटियों का हक किसी और को दे दें,’’ नेहा दीदी की आवाज थी।

‘‘मम्मी-पापा ने सिर्फ उसकी परवरिश की है, उसे गोद नहीं लिया था, इसलिए वह चाहे भी तो कानूनन उसका कोई हक नहीं बनता। बेईमानी करे तो अलग बात है।’’

वसुधा दी के बोलते ही छोटे जीजा जी बीच में बोल पड़े थे, ‘‘आदमी का कौन ठिकाना, अच्छे-अच्छों की नीयत संपत्ति देख कर डोल जाती है। विवेक तो वैसे भी बचपन से एक-एक पैसे के लिए इस परिवार पर आश्रित रहा है। इसकी नीयत डोलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।’’

जीजा तो खैर गैर थे, पर वसुधा दी की आवाज ने तो उसके कानों में जैसे पिघला सीसा उड़ेल दिया। इससे अधिक वह सुन नहीं पाया। एक झटके में उन लोगों ने उसे इस परिवार के लिए पराया साबित कर दिया था। उल्टे पांव अपने कमरे में आ कर, निढाल हो कर बिस्तर पर गिर पड़ा। अब तक किले की भाति संरक्षण देनेवाले घर ने जैसे एकाएक रेत का ढेर बन कर उसे बेगाना बना दिया था। अचानक वह अपने को काफी थका हुआ और बेबस महसूस करने लगा था। अपनी ही बेचारगी पर उसे रोना आ रहा था।

जल्द ही उसकी बेबसी गुस्से के रूप में फूट पड़ी थी। मामा-मामी के उपकारों से कृतार्थ, उसके दिल में उनके लिए ईश्वर से भी बढ़ कर श्रद्धा और निष्ठा थी। दोनों बहनों को भी निस्वार्थ दिल की गहराइयों से प्यार करता था। मामी जो उसे सैलरी देती थीं, उसके अलावा कभी उनकी धन-संपत्ति के विषय में सोचता भी नहीं था। जरूरत पड़ने पर उन लोगों के लिए वह अपनी जान भी दे सकता था। फिर भी उन लोगों ने उस पर इतना घटिया और बेबुनियाद इल्जाम लगाया था, जिसे सुन कर उसका सर्वांग लहर उठा। तो क्या अब तक जो उन सभी के प्यार को वह अमृत समझ कर तृप्त हो रहा था, वह निरा विष मात्र था? एक छलावा था? लेकिन वह महादेव नहीं था, जो जिंदगी में मिले इस विष को पचा जाता। बातों का जहर सिर पर चढ़ने लगा था। उसने तत्काल फैसला किया। सारे बंधन और मोह-माया को त्याग वह इस घर को छोड़ कर चला जाएगा। दूसरे दिन ही वह बिना किसी को कुछ बताए घर छोड़ कर चला गया था। सिर्फ दो लाइनें लिख कर छोड़ आया थाÑमैं हमेशा के लिए घर छोड़ कर जा रहा हूं। कोई मुझे खोजने की व्यर्थ कोशिश ना करे।

जिंदगी की सारी तपन को भुला वह नए सिरे से अपनी जिंदगी शुरू करना चाहता था। लेकिन पीछे छोड़ आए अपने उस बेगाने परिवार के लिए अकसर उसका मन विकल हो उठता। कुछ दिनों तक यों ही भटकने के बाद मन थोड़ा शांत हुआ, तो ठंडे दिमाग से सोचने पर उसे भयंकर अपराधबोध का अहसास होने लगा। उसके इस तरह से घर छोड़ने पर मामी पर जाने क्या बीत रही होगी? बड़ा विश्वास था ना मामी को उस पर, लेकिन उसी के कारण सारी जिंदगी स्वाभिमान से, अपने उसूलों पर जीनेवाली उसकी मामी को अपनी इच्छा के विरुद्ध कितने ही फैसले लेने पड़ेंगे, जिसके लिए सिर्फ वह जिम्मेदार होगा। उसकी इस हरकत के कारण आसपड़ोस के लोग जाने कैसी-कैसी बातें बना रहे होंगे। ये सारी बातें शिद्दत से उसका पीछा करने लगी थीं। (कहानी का अंतिम भाग पढ़ें मंगलवार को...)