Friday 15 March 2024 05:16 PM IST : By Rita Kumari

बदलते रिश्ते

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सुबह-सुबह अचानक विवेक की मुलाकात अपने बचपन के दोस्त प्रशांत से हो गयी थी। उसी ने बताया था कि उसकी मामी उमा देवी गंभीर रूप से बीमार हैं। साथ ही वह यह भी जोड़ना नहीं भूला था कि सदा से ही कम बोलनेवाली उसकी मामी की मूक निगाहें उसी के इंतजार में दरवाजे पर टिकी रहती हैं। तभी से अपने सारे उपालंभ भूल वह उनसे मिलने के लिए बेचैन हो उठा था। कई बार वह मामी के घर के दरवाजे तक जा कर लौट आया था, पर उसकी हिम्मत नहीं हुई थी घर में दाखिल होने की।

रात के दो बजनेवाले थे, पर अभी तक उसकी आंखों से नींद कोसों दूर थी। जितना ही वह अपनी यादों को झटक कर चैन से सोना चाहता था, उतनी ही क्रूरता से यादों के खंजर उसके दिल में उतर कर रेत में पड़ी मछली की तरह तड़पा रहे थे। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कैसे क्या करे कि अपनी उस अविवेकी भूल को सुधार ले, जिसने उसे गहरे विषाद में डाल कर उसके जीवन के मायने ही बदल दी थी।

बार-बार उसका मन यादों के समुद्र में गोते लगाता, उस प्यार और विश्वास का सूत्र तलाश रहा था, जिसके सहारे वह अब तक महफूज रहा। लेकिन वह अच्छी तरह जानता था कि वह स्वयं विध्वंसी था, इसलिए उस प्यार के सूत्र को थामना अब उसके लिए आसान नहीं था। आज उस घर को छोड़े उसे पूरा एक महीना और दो दिन हो रहे थे। एक-एक दिन का हिसाब उसने अपनी उंगलियों पर जोड़ रखा था। इस दौरान एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा, जब उसे अपनी मां जैसी मामी की याद नहीं आयी हो या घर छोड़ कर आने का पश्चात्ताप नहीं हुआ हो। हालांकि मां जैसी कहना भी मामी का अपमान ही था, वह तो उसकी मां ही थी। जितना कुछ उन्होंने उसके लिए किया, अगर मां भी जिंदा होतीं, तो शायद ही उसके लिए कर पातीं। वह मामी का अतिशय प्रेम ही था, जिसने उसके जेहन से मां की तसवीर भी धुंधली कर दी थी। उसके हर कदम पर ढाल बन कर बचपन से खोए उसके आत्मविश्वास को वापस ला कर जीना सिखाया। उसी मामी को जब उसके मजबूत सहारे और साथ की सबसे ज्यादा जरूरत थी, उन्हें अकेला छोड़ आया था।

आज भी विवेक को याद है जैसे कल की बात हो। जब वह मामी के पास आया था, काफी छोटा था, शायद 4 या 5 वर्ष का था। इससे पहले वह एक भरे-पूरे संयुक्त परिवार में रहता था, फिर भी उसे मम्मी और दादी के प्यार के अलावा किसी और का प्यार नसीब नहीं होता था। अपने पापा को तो वह कभी ठीक से जान ही नहीं पाया। अपने व्यापार में वे इस कदर व्यस्त रहते कि कि सुबह तड़के घर से निकल जाते थे, तब अकसर वह सोया ही रहता। जब देर रात तक लौटते तब भी वह सोया ही रहता।

कभी वे घर पर रहते भी, तो खुश होने के बदले वह उनकी उपस्थिति से सहमा और आतंकित रहता। जब-तब वे अपना खटराग शुरू कर देते। ढूंढ़-ढूंढ़ कर मम्मी की गलतियां निकालते। पतली-दुबली साधारण शक्लो-सूरतवाली उसकी मम्मी उनकी एक-एक जरूरत का खयाल रखतीं, फिर भी उसके तुनकमिजाज और क्रोधी पिता उनकी छोटी-छोटी गलतियों पर भी दहाड़ते रहते। अकसर बिना किसी गलती के ही मम्मी उनसे माफी मांगतीं, शर्मसार होती रहतीं। जब तक पापा घर में रहते, मम्मी की आंखों में खौफ सा समाया रहता। उनके सामने खुल कर कभी अपने बेटे को भी प्यार नहीं कर पातीं। मम्मी के इस तरह समझौता करने के कारण ही उसके पापा की मनमानियां बढ़ती जा रही थीं। तब प्रथम श्रेणी से केमिस्ट्री में एमएससी उसकी मम्मी ने नौकरी करने का मन बना लिया था। हिम्मत जुटा कर उसकी मम्मी अपनी सोच को अपने भैया की मदद से यथार्थ में अंजाम देना चाहती थीं, लेकिन उन्हीं दिनों वे कुछ ज्यादा ही बीमार रहने लगी थीं। उसके पापा उन्हें डाॅक्टर से दिखाने के बदले उनकी बीमारी को उनकी कामचोरी का बहाना बताते। खुद अपने बेटों की मुहताज दादी ही कुछ घरेलू दवाइयों का इंतजाम करतीं। किसी तरह उसके मामा को उसकी मम्मी की बीमारी के विषय में पता चल गया था। सुनते ही दौड़े चले आए थे। आते ही मामा को उसके पापा के उदासीन रुख और रवैए को पहचानने में देर नहीं लगी थी। फिर तो बहन को साथ ले कर ही पटना लौटे थे। मम्मी के साथ वह भी पटना आ गया था, एक नए खुले परिवेश और नए वातावरण में, जो उसके जीवन का एक सुखद अनुभव था।

जल्द ही वह पटना के स्वस्थ और खुले वातावरण में सबके साथ घुलमिल गया। उसके आहत बचपन ने पहली बार राहत महसूस की थी। अपने पास ला कर उसके मामा और मामी ने उसकी मम्मी के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी।(शेष कहानी पढ़ें सोमवार को...)