Tuesday 30 January 2024 04:51 PM IST : By Rinki Verma

साथी भाग- 2

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‘‘अरे मौसी, आप रहने दो ना ! मैं कर लेती हूं, वैसे भी आज छुट्टी है,’’ मुस्कराते हुए अवनि ने कहा।

‘‘रहने दे बेटा ! हफ्तेभर तो तू काम करती रहती है। एक दिन तो मिलता है, थोड़ा आराम कर ले,’’ मौसी की आंखों में वात्सल्य झलक आया। वैसे भी मुझे बैठने की कहां आदत है ! गांव में तो कितने काम होते हैं, पर यहां तो कुछ है ही नहीं। वैसे भी अब तेरे सिवा मेरा है ही कौन? शुरू से तुम्हें ही अपनी बेटी मानती रही, तुम्हें देख कर अपने बेऔलाद होने का दुख भूल जाती हूं। तेरे मौसा थे, तो मैं तेरे पास आ नहीं पाती थी। अब तेरे साथ जीने का मौका मिला है, तो मैं अपनी हर इच्छा पूरी कर लेना चाहती हूं। आज मैंने तेरी पसंद के खाने की तैयारी की है, तू आराम कर खाना मैं बनाती हूं। अवनि मौसी के गले लग गयी। ऐसा महसूस हुआ जैसे वह छोटी बच्ची हो और मां की ममता से निहाल हो। काफी दिनों बाद वह आज बहुत खुश थी।

शाम जब बाबू जी टहलने जाने लगे, तो मौसी भी तैयार हो कर साथ निकल पड़ीं।

‘‘अरे मौसी, आप कहां जा रही हैं?’’ अवनि ने पूछा।

‘‘कहीं नहीं बेटा, मैं भी थोड़ी देर पार्क में टहल लेती हूं, तो मन बहल जाता है इसलिए तेरे बाबू जी के साथ चली जाती हूं।’’

‘‘अच्छा !’’ अवनि अजीब नजरों से दोनों को जाते हुए देख रही थी।

अवनि ने महसूस किया कि मौसी और बाबू जी का ज्यादा समय साथ बीतने लगा। दोनों सुबह-शाम की चाय साथ पीते। सैर करने भी साथ जाते। कभी पुरानी फिल्मों पर तो कभी किसी उपन्यास पर, साहित्य पर बहस करते। धीरे-धीरे उनकी चुप्पियां टूटने लगीं और वे मुखर होने लगे। बाबू जी की हंसी फिर सुनायी पड़ने लगी। उन दोनों में आए इस परिवर्तन को अवनि और अमित दोनों ने महसूस किया।

धीरे-धीरे मौसी बाबू जी की पसंद-नापसंद सब जान गयीं और मौसी किस बात पर खुश होती हैं, यह बाबू जी को पता था।

संदेह के बीज बहुत जल्द अंकुरित होते हैं। अवनि के मन को भी तरह-तरह की शंकाओं ने घेर लिया। हे भगवान ! ये क्या हो रहा है कहीं दोनों इस उम्र में प्यार? नहीं-नहीं, यह प्यार की उम्र थोड़े ही है। अपने विचारों को अवनी झटक देती। फिर दोनों को साथ देख कर तरह-तरह के खयाल मन में आने लगे। अगर ऐसा-वैसा कुछ हो गया तो? समाज में क्या मुंह दिखाएगी? नहीं-नहीं, मैं मौसी को गांव वापस भेज देती हूं, यही ठीक रहेगा। आज ही अमित से बात करती हूं।

रात में अवनि ने अमित से कहा, ‘‘मैं सोच रही हूं मौसी को गांव भेज दूं।’’

‘‘क्यों?’’ अमित ने आश्चर्य से पूछा।

‘‘अब मौसी ठीक हो गयी हैं ना, तो कब तक हमारे यहां रहेंगी।’’

‘‘कैसी बात कर रही हो, अवनि? तुम्हारे सिवा उनका है ही कौन? मौसा जी अब हैं नहीं और अपने बच्चों की जगह वे तुम्हें ही देखती आयी हैं। तुम्हें उन्होंने ही पाला है ना। शादी के वक्त तुम अपनी मां से ज्यादा मौसी से ही लिपट कर रो रही थी ना ! आज जब वे अकेली हैं, तो तुम्हारी जिम्मेदारी है उनका खयाल रखना। वैसे भी इस घर में रह कर उन्होंने तुम्हें घर की जिम्मेदारियों से आजाद रखा है। कितने अच्छे से घर और बच्चों को संभालती हैं। तुम बेफिक्र हो कर आॅफिस जा रही हो, वे घर की सारी जिम्मेदारियां अच्छे से निभा रही हैं। मैं तो चाहूंगा मौसी हमेशा यहीं रहें हमारे साथ।’’

‘‘अरे ! तुमने देखा नहीं वो किस तरह बाबू जी के साथ घुली-मिली रहती हैं।’’

‘‘तो?’’ अमित ने घूर कर अवनि को देखा।

‘‘कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गयी तो?’’ अवनि ने दबी जबान में कहा।
‘‘अवनि...’’ चीख पड़ा अमित। कैसी घटिया और कम पढ़ी-लिखी औरतों की तरह बातें कर रही हो? तुमसे यह उम्मीद ना थी मुझे। जो तुम देख रही हो वह मैं भी देख रहा हूं, पर हम दोनों के देखने का नजरिया अलग है। जो मैं देख पा रहा हूं, तुम वह क्यों नहीं देख पा रही हो?

‘‘पापा और मौसी को एक-दूसरे का साथ मिला, जिससे वे खुश हैं। मतलब इनकी बीमारी शारीरिक ना हो कर मानसिक थी। अपने जीवनसाथी को खोने के बाद ये अपने अकेलेपन से जूझ रहे थे। इन्हें एक साथी की जरूरत थी, जिससे ये अपने मन की बात कर सकें। हम अपने-अपने कामों में व्यस्त रहने के बाद भी इनके शरीर का खयाल तो रख रहे थे, पर मन का क्या? मन अकेला होते ही बीमार हो जाता है। उसकी भी अपनी खुराक होती है, जो हमसे पूरी नहीं हो पा रही थी। जीवनपर्यंत इंसान को एक साथी की जरूरत होती है, फिर वह पत्नी हो या दोस्त। हमउम्र के साथ जीने की बात ही अलग होती है, इसलिए दोनों एक-दूसरे के साथ खुश हैं। उन दोनों ने कितने अच्छे से घर और बच्चों को संभाला है, ताकि हम और तुम निश्चिंत हो कर अपना काम कर सकें। कितना खयाल रखती हैं मौसी तुम्हारा, इतना सगी मां भी नहीं करतीं।

‘‘और उन्हें क्यों भेजना चाहती हो? क्या कसूर है उनका? यही कि वे यहां आ कर खुश हैं? उनकी खुशी की वजह तुम भी तो हो सकती हो। वर्षों वे बेऔलाद होने का दर्द सहती रही हैं, अब तुम्हारे पास आ कर उन्हें खुशी मिली हो? बची हुई जिंदगी तुम्हारे साथ जीना चाहती हों। तुम अपने भीतर झांक कर देखो तुम्हें मौसी की कितनी जरूरत है। अब ये सारी फालतू बातें दिमाग से निकालो और सो जाओ।’’

अवनि के मन में लगातार उथलपुथल मची थी। कभी अपनी देखी बातें, तो कभी अमित की कही बातें असर कर रही थीं। वह जल्दी उठ गयी। उसकी निगाह मां जी की तसवीर पर पड़ी, जो मुस्करा रही थीं। उसके अंदर से आवाज आयी जैसे कह रही हों, ‘‘बेटा, हम सभी अपनी जरूरतों के हिसाब से एक-दूसरे से जुड़े हैं। जरूरी नहीं कि यह जरूरत ऊपर की हो, आंतरिक भी हो सकती है। इसलिए उठो और नयी सुबह का स्वागत करो। जीवन सफर में आगे बढ़ जाना ही बुद्धिमानी है, कभी तुम किसी की तो कभी कोई तुम्हारी जरूरत बन जाता है।

तभी मौसी हाथ में दो कप चाय ले कर आयीं, ‘‘आज मेरी बेटी सुबह जल्दी उठ गयी? आज हम साथ चाय पिएंगे,’’ मौसी का वात्सल्य प्रेम देख कर द्रवित हो उठी अवनी, ‘‘बेटा, तुमसे एक बात कहनी थी।’’

‘‘हां बोलिए ना,’’ मौसी की गोद में सिर रख लेट गयी अवनि। मन बिलकुल शांत था।

‘‘बेटा, मैं गांव जाना चाहती हूं।’’

‘‘पर क्यों?’’ चौंक उठी अवनी।

‘‘अरे ! कितने दिन तेरे घर रहूंगी। अब मैं ठीक हूं। अपना खयाल रख सकती हूं। वैसे भी गांव में तेरे मौसा जी की यादें हैं, मेरी गृहस्थी है। बाकी का जीवन भी वहीं काट लूंगी।’’

‘‘पर मौसी ! मुझे आपकी जरूरत है। बच्चों के एग्जाम हैं... मैं कैसे संभालूंगी?’’

‘‘तू सब कर लेगी जैसे आज तक करती आयी है। मेरी बेटी एकदम परफेक्ट है।’’

‘‘नहीं ! मैं आपको नहीं जाने दूंगी। कितने वक्त के बाद तो हम मां-बेटी को साथ रहने का मौका मिला है और आप हैं कि जाने को कह रही हैं। आप क्यों अपनी बेटी को छोड़ कर जाना चाहती हैं?’’

‘‘और अपने दोस्त को?’’ अचानक बाबू जी की आवाज सुनायी दी। बाबू जी मुस्कराते हुए कमरे में आ गए, ‘‘हां भई ! क्यों जाना चाहती हैं? हम सब का साथ अच्छा नहीं लगा?’’

‘‘नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं। यहां आ कर मैं खुद को ही भूल गयी। आप सबका साथ मेरी भी जीने की उम्मीद है,’’ मौसी की आंखें नम हो गयीं।

‘‘फिर हम साथ-साथ हैं,’’ तभी अमित की आवाज सुनायी दी।

‘‘हम सब साथ रहेंगे,’’ बच्चे भी चिल्लाए। सब की हंसी ठहाकों में बदल गयी।

आज की सुबह बहुत निश्चिंतता वाली थी अवनि के लिए। मुस्कराती हुई अवनि आॅफिस के लिए निकल गयी।