Friday 03 May 2024 03:28 PM IST : By Chhavi Nigam

दिल का क्या कसूर भाग-1

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नाइट बल्ब की रहस्यमयी रोशनी कमरे में पसरी हुई थी। मच्छरों का ऑर्केस्ट्रा बीथोवन से होड़ ले रहा था। 20 साल 2 महीने 2 दिन की उम्र का मैं यानी के दीपक, अपना सबसे पसंदीदा टाइमपास... यानी सपना देख रहा था। सपने में इस वक्त मैं काले रंग की हार्ले डेविडसन पर सवार हो कर बदमाशों का पीछा कर रहा था। ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच...टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में गोलीबारी की शांय... बूम...धांय-धांय... भड़ाम और जेम्स बॉन्ड के टरण्टें... गूंज रही थीं। मेरे पीछे बैठी हसीना के हवा में लहराते बाल मेरे चेहरे से टकरा रहे थे। तभी एक तीखे मोड़ पर मेरी बाइक लहरायी। जोर से मेरे कंधे झिंझोड़ते हुए वो हसीना चिल्लायी, ‘‘अबे... उठ ना !!’’

उसके सख्त मर्दाने लहजे पर मैं चौंक पड़ा, ‘‘अं... क्या हुआ डार्लिंग?’’

तभी मेरे सिर पर जोरदार चपत पड़ी और पापा के गुर्राने की आवाज भी आयी, ‘‘कौन डार्लिंग... कैसी डार्लिंग, हैं? नालायक, जब देखो, पड़ा-पड़ा ऊटपटांग सपने देखा करता है। अब उठता है कि नहीं?’’

आंखें मिचमिचाते हुए मैं मिनमिनाया, ‘‘क्या पापा! अब रात के 2 बजे बंदा सोए भी नहीं क्या?’’

उन्होंने बेदर्दी से मेरा हाथ खींचा और मच्छरदानी के 2 मोटे-मोटे डंडे पकड़ाते हुए बोले, ‘‘ठीक आधा घंटा ही हुआ होगा उस निरंजन को सोए हुए। चल जल्दी से चालू हो जा।’’

मेरा मन तो हुआ इस डंडे को झंडा बना कर पापा की तानाशाही के खिलाफ इंकलाब छेड़ दूं, लेकिन फिर पॉकेटमनी का खयाल आ गया। अपने रूमानी सपने को होल्ड पर रख कर कसमसाते हुए मैं उठा और पापा के कमरे की तरफ चल दिया। अब मुझे उन डंडों से छत को पूरी ताकत से तब तक ठकठकाना था, जब तक ऊपर से निरंजन अंकल की कुछ चुनिंदा गालियां ना सुनायी पड़ने लगें। मैं जुट गया। कमरे में ठक-ठक-ठक-ठक की आवाजें गूंजने लगीं। पीछे से पापा किसी सेनापति की तरह मेरा हौसला बढ़ा रहे थे, ‘‘हां शाब्बाश दीपू... और जोर से !! कसम से, कंधे अकड़ ना रहे होते, तो उस कंबख्त निरंजन की नींद हराम करने के लिए मैं खुद ही काफी था। बड़ा आया रात डेढ़ बजे तक ऊपर धम्म-धम्म करके मुझे परेशान करने के बाद अब चैन से सोने वाला... हुंह...’’

कोई आधे घंटे बाद ऊपर गुस्सेभरा शोरशराबा शुरू हुआ और नीचे हमारा मिशन निरंजन नेस्तनाबूद खत्म हुआ। अब बालकनी से निरंजन अंकल की ‘देख लूंगा... पुलिस बुलाऊंगा... आर्मी भी...छोड़ूंगा नहीं...’ की चिल्लमचिल्ली जारी थी। उबासी लेते हुए मैंने पापा की तरफ देखा। अपने बेतरतीब खिचड़ी बालों को चश्मे से परे करते हुए नीले-सफेद धारियों वाले नाइटसूट का एक बटन गलत लगाए हुए और जल्दबाजी में बस एक चप्पल पहने हुए पापा के चेहरे पर किसी शैतान बच्चे जैसी ही खुशी थी। मेरी पीठ थपथपा कर वे लेटने चले गए।

अपने कमरे में आ कर मैंने भी वापस उसी सपने में जाने की कोशिश की, पर वो हसीना तो गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो चुकी थी। ऊब कर मैं बैठ गया और पापा की निरंजन अंकल से जानी दुश्मनी के बारे में सोचने लगा। दस मंजिला इस अपार्टमेंट में हम नवीं पर आराम से रहते आए थे। लेकिन कोई 6 महीने पहले जबसे निरंजन अंकल सपरिवार हमारे ऊपर यानी दसवें फ्लोर पर रहने आए, तब से सब कुछ बदल गया था। ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा...’ वाली शांतिपूर्ण स्थिति अब ‘टॉम एंड जैरी’ की सिचुएशन में बदल चुकी थी।

उधर ऊपर की खटरपटर अभी भी जारी थी। शुक्र है कि पापा के खर्राटे सुनायी देने लगे थे, वरना क्या भरोसा, वे फिर आ कर मुझे झिंझोड़ने लगते, ‘‘अबे दीपू, उठ ना नालायक ! जरा दीवार से कान चिपका कर सुन तो... क्या खुसरफुसर चल रही है ऊपर?’’ गोया कि मेरे कान... कान ना हों, बलखाती सुंदरियां हों, जिन्हें जब चाहो शेविंग ब्लेड के विज्ञापन पर चेंप दो, जब चाहे किसी नामाकूल गोरेपन की क्रीम पर।

वैसे एकाध बार तो वाकई मैंने भी किसी सीक्रेट एजेंट की तरह ये काम किया भी था। ‘‘अं पापा...अंकल कुछ सेंसर्ड बातों के अलावा... आपके स्कूटर के टायर में कील घुसाने की चिल्ला रहे...शायद,’’ मैंने एक दिन उन्हें बताया था और फिर पापा को निरंजन अंकल की ईगो से ले कर उनके बीन बैग तक को पंक्चर करने की हर योजना बनाते सुनता रहा था। उनकी सांसें तेज चल रही थीं...मुट्ठियां कसी हुई थीं... और चेहरा लाल हो आया था। तब भी मैंने यही सोचा था, और अभी भी लेटे-लेटे वही सोच रहा था कि पापा को हो क्या गया है? पहले तो ऐसे बिलकुल नहीं थे वे। इस अपार्टमेंट के बेताज बादशाह थे वे, और मेहमाननवाजी में तो मम्मी से भी चार कदम आगे। कभी-कभी तो मुझे ऊब होने लग जाती, ‘‘दीपू बेटा... ये मंगौड़े चड्डा साहब के यहां दे आ और गाजर का हलवा दीक्षित के यहां... और हां, फिफ्थ फ्लोर वाली मीना जी की तबीयत भी पूछते आना, अच्छा?’’

6 महीने पहले कितने खुश हुए थे हम सब कि बड़े वक्त बाद ऊपर किराएदार रहने आ रहे हैं। अब रौनक बढ़ जाएगी। हाथों में नमकीन-बिस्किट की प्लेट और चाय का थरमस टांगे हुए मम्मी, पापा और मैं तपाक से उनसे मिलने पहुंच गए थे।

बेल बजाने पर नीले ट्रैक सूट में 18-19 साल की एक लड़की बाहर आयी थी। छोटे बॉयकट बाल उसके गोल चेहरे पर फब रहे थे। पीछे-पीछे उसकी मम्मी भी थीं। मुस्करा कर हमने परिचय दिया, नमस्ते-हाय-हेलो की अदलाबदली हुई। कुछ ही देर में दोनों महिलाएं ‘आओ सखी, चुगली करें’ में मशगूल होने लगीं, और वह लड़की और मैं दबी-छिपी निगाहों से एक-दूसरे को देखने लगे।

तभी अंदर वाले कमरे से उसके पापा ‘आइए-आइए’ कहते हमारी तरफ आए। उनकी और पापा की निगाहें टकरायीं... फिर अचानक पूरा दृश्य बदल गया। उधर अंकल की मुस्कराहट का बल्ब फ्यूज हो गया और इधर पापा ने बाहुबली वाली हुंकार भरी। मानो ओटीटी की किसी सीरीज के भरत-मिलाप वाला एपिसोड अचानक से महाभारत में बदल गया हो। भड़ाम-भड़ाम की दो आवाजें एक साथ गूंज उठीं। पापा ने जमीन पर बिस्किटवाली प्लेट खींच मारी थी और निरंजन अंकल ने वह हथौड़ी, जिससे शायद वे अंदर कोई कील ठोंक रहे होंगे। यह तो ‘हेट एट फर्स्ट साइट’ था। दांत पीसते... भवें चढ़ाए हुए वे दोनों एक-दूसरे को पूरी ताकत से घूर रहे थे। इस भयंकर नापसंदगी और नाराजगी की वजह हम चार दर्शकों को समझ नहीं आ रही थी। जमीन पर लुढ़कते चटपटे बिस्किटों के साथ कुछ अटपटे पल यों ही गुजरे।

फिर ‘‘क्या हुआ? अच्छा... अच्छा, वापस चलिए,’’ कहते हुए मैंने पापा की बांह पकड़ कर खींची और उस लड़की ने अंकल की। हमारी मायूस निगाहें टकरायीं, फिर जुदा हो गयीं। दोनों पापाओं यानी बिना तख्त के सुल्तानों के बीच ऐलान-ए-जंग हो चुका था। फिलहाल सरहद के उस पार वे लोग थे और इस पार हम।

क्रमशः