कुछ दिन पहले फोन पर एक दोस्त से बातचीत हो रही थी। बातों-बातों में उसने कहा कि वर्क फ्रॉम होम ने उसकी कम्युनिकेशन स्किल्स पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। इसकी वजह है कि पति-पत्नी के वर्क फ्रॉम होम और बच्चों की ऑनलाइन क्लासेज के कारण उनका घर रोज लगभग नौ-दस घंटे साइलेंट मोड में रहता है। महानगरों के छोटे-छोटे फ्लैट्स पिछले दो वर्षों से दफ्तर और स्कूल में तब्दील हो चुके हैं। भारतीय परिवारों में घरेलू कार्य पूरी तरह महिलाओं की जिम्मेदारी समझे जाते हैं, ऐसे में वर्क फ्रॉम होम महिलाओं के लिए दबाव ज्यादा पैदा कर रहा है। स्त्री घर से बाहर निकलती है, तो घर वाले अपनी सुविधाओं से थोड़ा-बहुत समझौता कर लेते हैं, लेकिन उसके घर में लगातार रहने से उनकी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं, फिर भले ही वह नौकरीपेशा क्यों ना हो। ऐसे में कई बार सुबह 10 बजे से रात के 10-11 बजे तक लैपटॉप खुला ही रहता है, क्योंकि घर-दफ्तर साथ-साथ चल रहा होता है। दोस्त का कहना था कि कई बार तो जूम मीटिंग के दौरान उसके मुंह में शब्द ही अटक जाते हैं, वह बात कहने का सही तरीका नहीं सोच पाती। यही नहीं, घर में रहने से हफ्ते के सातों दिन दिमाग काम में उलझा रहता है, रिलैक्स नहीं हो पाता। दरअसल, यह फोनकॉल दो लॉकडाउन के बाद और ओमीक्रॉन से ठीक पहले चंद अजीज दोस्तों के साथ छोटी सी मुलाकात के लिए की गई थी। दोस्त ने इतनी परेशानियां गिनाईं कि मन खिन्न हो गया।
दूसरी दोस्त को फोन घुमाया, तो उसने कहा कि उस दिन हसबैंड किसी अर्जेंट मीटिंग में जाने वाले हैं। गाड़ी नहीं होगी, तो वह कैसे आएगी। वह पब्लिक ट्रांस्पोर्ट के इस्तेमाल में सहज नहीं थी। उसकी बातों से बड़ा अचंभा हुआ, क्योंकि वह काम के सिलसिले में देश-दुनिया में अकसर अकेली घूमती रही है लेकिन पिछले दो वर्षों ने उसका दायरा इतना संकुचित कर दिया है कि वह आठ किलोमीटर का सफर तय करने में खुद को लाचार मान रही थी।
सुविधा की दुविधा
क्या वाकई वर्क फ्रॉम होम महिलाओं को जरा सी सुविधा के साथ ढेर सारी दुविधाएं दे रहा है? इकोनॉमिक कंसल्टिंग ग्रुप (ईसीजी) ने शहरी कामकाजी महिलाओं पर पैंडेमिक के प्रभावों के बारे में एक पैन इंडिया सर्वे किया। लगभग 70 फीसदी शहरी घरों में महिलाएं ही घरेलू कार्यों का प्रबंधन करती हैं। भले ही घरेलू सहायक भी मौजूद हों, लेकिन प्रबंधन की जिम्मेदारी महिला पर ही होती है। दोनों लॉकडाउन के बीच लगभग 14 फीसदी महिलाओं को फुल टाइम जॉब से पार्ट टाइम जॉब में आना पड़ा। उनकी सैलरी, वीकेंड और छुट्टियों में खासी कटौती हुई। 32 प्रतिशत महिलाओं ने माना कि घर में रहने से उनकी प्रोडक्टिविटी कम हुई है। 44 फीसदी महिलाओं को सैलरी के अलावा बोनस, अलाउंसेज और वेरिएबेल्स में भी कटौती का सामना करना पड़ा। उनकी आमदनी घटने और घर में रहने का सीधा मतलब होता है उनकी घरेलू जिम्मेदारियों में इजाफा, क्योंकि अमूमन घरों में इस स्थिति में सहायकों का काम भी कम कर दिया जाता है।
फेस टू फेस इंट्रैक्शन में दिक्कत
याद करें, तो पहले लॉकडाउन को लोगों ने लंबे हॉलीडे की तरह लिया था। कुछ महिलाओं ने कुकिंग स्किल्स को दर्शाया, कुछ ने फिटनेस चैलेंज लिया, तो कुछ ने हॉबीज पर ध्यान दिया लेकिन दूसरे लॉकडाउन ने ना जाने कितनों की जिन्दगी छीन ली, रोजगार खत्म कर दिए और सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर बाहरी संपर्क के लिए भी लोग तरस गए। ऐसे में हाउसवाइफ हो या नौकरीपेशा, हर महिला की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक सेहत बिगड़ी। लंबे अरसे तक घर में रहने के बाद वे अब बाहर निकलने में भी घबराने लगी हैं या उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगा है। दरअसल, बाहर निकलकर काम करने से भले ही कम्यूटिंग टाइम बढ़ता हो लेकिन व्यक्ति बहुत कुछ नया सीखता है। ऑफिस में कुलीग्स के साथ डायरेक्ट इंट्रैक्शन से ब्रेनस्टॉर्मिंग होती है, नए विचारों का आदान-प्रदान होता है। लंबी जूम या टीम मीटिंग्स कभी आमने-सामने बैठकर की जाने वाली मीटिंग्स का विकल्प नहीं बन सकतीं।
एक बार फिर से डेल्टा और ओमीक्रॉन के बढ़ते मामलों ने वर्क फ्रॉम होम करने पर मजबूर कर दिया है और ज्यादातर महिलाएं इसमें कंफर्टेबल भी हैं। कई कंपनियां भी रिमोट वर्क कल्चर को बढ़ावा दे रही हैं, लेकिन इसके अपने नुकसान हैं। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में हुई एक ग्लोबल स्टडी के अनुसार नॉर्थ अमेरिका, यूरोप और एशिया में पिछले दो वर्षों में लोगों के आपसी संपर्क कम होने और सोशल डिस्टेंसिंग के कारण डिप्रेशन और एंग्जाइटी के मामले तेजी से बढ़े हैं। यह नतीजा लगभग सवा दो लाख लोगों के निजी अनुभवों से निकाला गया है।
खुश रहने के बहाने तलाशें
अच्छी बात ये है कि वर्क फ्रॉम होम में वे महिलाएं भी काम कर पा रही हैं, जो छोटे बच्चों या परिवार की जिम्मेदारियों के चलते नौकरी छोड़ने पर मजबूर हो जाती थीं। ये भी संभव है कि भविष्य में सभी कर्मचारियों के लिए घर या ऑफिस से काम करने जैसे विकल्प खुले रहें। कई कंपनियों ने इसकी शुरुआत कर दी है यानी काम करने की जगह को लेकर कंपनियां लचीला रुख अख्तियार कर रही हैं। मगर बाहर की दुनिया से पूरी तरह कटना तो ठीक नहीं है। खुद को अपडेट करने, रुचियों और दोस्तों के लिए वक्त निकालने, मन, शरीर और विचारों की फिटनेस के लिए बाहरी दुनिया से जुड़ाव जरूरी है और इसके लिए खुद रास्ते तलाशने होंगे।
तो बोरिंग नहीं होगी जिन्दगी
ये कुछ आजमाए गए नुस्खे हैं, हो सकता है, इनमें से कुछ नुस्खे आपके काम भी आ जाएं-
घर से काम करते हुए सारी घरेलू जिम्मेदारियां अपने सिर पर ना लें। सबके काम बांटें, बच्चों को भी छोटी-छोटी जिम्मेदारियां दें और सबकी फरमाइशें पूरी करने के पीछे ना खपें। याद रखें कि आप घर पर हैं, लेकिन आपकी प्रोफेशनल जिम्मेदारियां भी हैं।
हर चीज परफेक्ट होगी, इस भ्रम में ना रहें। घर अव्यवस्थित हो सकता है, लॉन्ड्री में कपड़े या सिंक में बर्तन भी इंतजार कर सकते हैं। जरूरी नहीं कि स्ट्रेस लेकर सारे काम यथावत पूरे ही किए जाएं। काम को लेकर नजरिया बदलें।
नाश्ते, लंच और डिनर का टाइम फिक्स रखें। खुद भी सही वक्त पर खाना खाएं। अगर कोई सदस्य व्यस्त है, तो वह बाद में अपना खाना गरम करके खा सकता है, इसमें किसी तरह का गिल्ट पालने की आवश्यकता नहीं है। सप्ताह में एकाध बार बाहर से खाना मंगाने में भी कोई बुराई नहीं।
काम के बीच-बीच में फ्रीक्वेंट ब्रेक लेते रहें। बुजुर्गों से गपशप करें, बच्चों के संग खेलें। इससे काम का स्ट्रेस कम होगा, फिटनेस भी बरकरार रहेगी।
रोज कुछ देर के लिए बाहर जरूर निकलें। सोशल डिस्टेंसिंग के साथ पड़ोसियों से छत और बालकनी वाली गपशप करें। कोविड प्रोटोकॉल्स का पालन करते हुए सैर या योग करें।
घर में हमेशा पिनड्रॉप साइलेंस रहे, जरूरी नहीं। जोर से बोलना व हंसना घर को भी जीवंत रखता है और रिश्तों को भी। इसलिए वीकेंड पर इंडोर गेम्स खेलें, बेडटाइम स्टोरीज के लिए वक्त निकालें। किस्से-कहानियां सुनें-सुनाएं। इससे घर के लोगों से बेहतर संवाद कायम रहेगा।
....और हां, कोविड के मामले कम होने लगें और अगली बार कोई दोस्त चाय पर बुलाए, तो असहज होने या डरने के बजाय उसका शुक्रिया अदा करें कि इस बुरे वक्त में भी कोई आपको प्यार से बुला रहा है। छोटी-छोटी मुलाकातों के लिए वक्त निकालें। आसपास कुछ पॉजिटिव दोस्त हों, तो बुरे से बुरा वक्त भी हंसकर गुजारा जा सकता है। अपने प्यारे-खूबसूरत दोस्तों को याद फरमाएं, वरना कहते ही रह जाएंगे कि ना जी भरकर देखा ना कुछ बात की, बड़ी आरजू थी मुलाकात की...।