Friday 29 December 2023 04:06 PM IST : By Indira Rathore

ड्रॉइंग रूम डायरी

drawing-room

मैं ड्रॉइंग रूम हूं, आपके घर का सबसे खास और सुंदर कमरा, जिसे आप हमेशा सजा-धजा कर रखना चाहते हैं, जहां आप अपनों और गैरों से मिलते हैं। आपने मुझे हमेशा सिर आंखों पर बिठाए रखा, जिसके लिए मैं हमेशा आपका शुक्रगुजार हूं। आप सोचेंगे कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि आज मुझे इस तरह अपने ही घर वालों के नाम खुली चिट्ठी लिखनी पड़ रही है, उन लोगों के नाम, जिनके साथ मैं दिन-रात रहता हूं। जिनके हर एक पल की खबर रखता हूं, जिनके हर सुख-दुख, ऊंच-नीच का साझीदार रहा हूं और जिनके आने पर मैंने पलक-पांवड़े बिछाए हैं, तो जाने पर मन भर आंसू भी बहाए हैं।

मेरे प्रिय परिवार, मैं आपके घर में तब भी मौजूद था, जब शायद आपमें से कुछ पैदा भी नहीं हुए। बेशक आप या आपके पूर्वजों ने समय-समय पर मुझे भुला दिया हो, लेकिन मैंने सभी को याद रखा। मैंने पीढ़ियों को बदलते, संवरते, आगे बढ़ते देखा, परिवार के मूल्यों को बदलते देखा, कभी प्यार तो कभी झगड़ों का साक्षी बना। मैंने नए रिश्ते बनते देखे, चाय पर लगने वाले कहकहों के साथ मैं भी अकसर खिलखिलाया हूं। कई बार बच्चों की उछलकूद में मेरा नक्शा बिगड़ते-बिगड़ते बचा, लेकिन उनके प्यार ने मुझे हर पीड़ा को सहने का हौसला दिया।

...तो डियर फैमिली, मैंने एक लंबा सफर तय किया है। मैंने बड़े आंगनों, दालान, छतों और बरामदों को गुलजार होते देखा, तो आज छोटी बालकनियों में सिमट चुकी हरियाली को भी हसरत भरी निगाह से देखता हूं। मैंने लोगों के मन की मिठास देखी है, तो कई बार उनके बीच घुली कड़वाहट का भी गवाह रहा हूं।

शायद अाप मेरी कहानी धैर्य से सुन सकें, जो कुछ मैं कहना चाहता हूं-समझ सकें। मेरे पास लंबी कहानी है सुनाने को। पीढ़ियों की दास्तानें दर्ज हैं मेरे भीतर। यह भी सच है कि घर के लोगों के साथ मेरी तरक्की भी हुई। जैसे-जैसे वे आगे बढ़े, मेरा कायाकल्प हो गया, लेकिन मैं मन से वहीं रहा, जब लिविंग रूम, ड्रॉइंग रूम जैसा नामकरण नहीं हुआ था मेरा। लोग बैठक कह देते तो भी काम चल जाता था। पहले बेशक उतना साफ-सुथरा, सजा-संवरा भले ही ना रहा हूं, ये लग्जरी अवतार तो मेरा हाल-हाल में ही हुआ है। मैं तो इस घर की पुरानी पीढ़ियों जितना ही सिंपल रहा हमेशा।

पीढ़ियों के संग बहुत कुछ बदल गया। पहले घर के बच्चे फर्श पर कुलांचे भरते, घुटनों चलना सीखते, मेरी दीवारों पर आड़ी-तिरछी रेखाएं बनाते, मम्मी-दादी-नानी बेशक बच्चों पर नाराज होतीं, मगर मेरा दिल खुश होता कि इन बच्चों की अठखेलियों से। ज्यादा नहीं, बस दो-तीन पीढ़ियों पहले की ही तो बात है ये। बच्चे आज भी हैं यहां, मगर अब वे नटखट नहीं रहे, उनकी शैतानी भी अलग ही तरह की हो गयी है। घर व्यस्त मगर बेजान सा हो गया है और मैं सजा-संवरा एक कोने में उपेक्षित सा पड़ा रहता हूं। आवाजें अब लोगों की नहीं, टीवी या मोबाइल स्क्रीनों से आ रही होती हैं। मम्मी-पापा, दादा-दादी और बच्चे सब एक ही चीज में उलझे हैं, सबके हाथों में यही छोटी सी चीज है, जिसमें नजरें गड़ाए वे घंटों गुजार देते हैं। पहले छुट्टी में कितना जुटान होता था इस घर में। पता नहीं कहां-कहां के कजंस और दोस्त-रिश्तेदार आते थे। एक मिनट भी कोई मुझे अकेले नहीं छोड़ता था। जन्मदिन हो या रिजल्ट का दिन, मिठाइयों से ट्रे सजी रहा करती थीं। मैं घर वालों के साथ बहुत व्यस्त हो जाता था, मगर अब तो मैं हमेशा सजा-संवरा रहता हूं, मॉडर्न चीजों से अटा रहता हूं, फिर भी बेतरह उदास सा अपने ही भीतर सिमटा रहता हूं।

मेरे पास बहुत सी प्यारी स्मृतियां हैं। मैंने यहां कई जन्मदिन, नामकरण देखे, तो हारी-बीमारी और मौत को भी करीब से देखा। त्योहारों-शािदयों की खुशियां समेटीं, तो विदाई पर आंखें नम कीं। कई प्रेम कहानियों को शुरू होते अपनी आंखों से देखा, तो दिल टूटने का असर भी देखा। लड़का-लड़की की मुंहदिखाई हो या मिलनी, सगाई हो या गोद भराई, हर सफर मुझसे ही तो शुरू होता। नयी-नवेली दुलहन की पायल की झनकार से झंकृत हुआ, तो बुजुर्गों के जीवन दर्शन से जिंदगी के कई सबक मैंने भी सीखे।

...साल दर साल बीतते गए, होली-दीवाली, शादी-ब्याह की रस्में छोटी होती चली गयीं। धीरे-धीरे घर का रंग-रूप, आकार-प्रकार सब बदल गया। छत और फर्श चमचमाने लगे, फर्नीचर बदल गए। किचन आधुनिक बन गया, मुझे ठोक-पीट कर मॉडर्न रंग में ढल जाने को विवश कर दिया गया, मगर बदलाव की इस तेज आंधी में मेरे भीतर कुछ किरच सा गया। ऐसा नहीं कि मैं नए बदलावों का स्वागत करने के लिए तैयार ना था, बस कुछ था जो लगातार मुझे खटक रहा था। जैसे कहीं अपनापन खो रहा था। इसकी आहट पहली बार तब महसूस हुई, जब परिवार की एक युवा लड़की की शादी घर में नहीं होटल में तय की गयी। मैं तब भी उदास ना हुआ, सोचा सगाई और शादी में गाऊंगा-नाचूंगा, लेकिन मेरा सोचा आगे कुछ भी नहीं हुआ। शादी भी बाहर ही किसी बारात घर में हो गयी। घर में तो कोई आया ही नहीं, सभी बाहर से ही अपने-अपने घरों को लौट गए। सजावट के नाम पर घर में चंद बिजली की लड़ियां लगायी गयी थीं। जिस बच्ची को मैंने घुटनों के बल चलते देखा, उसे दुलहन बनता देखने की हसरत दिल में ही रह गयी। शादी वाला घर था, लोगों की आवाजाही भी थी, मगर वो मुस्कराहटें नदारद थीं। मानो सब मशीनी तरीके से रस्में निभा रहे थे। पहली बार मुझे अपनी कमतरी का अहसास हुआ। लगा कि इस घर में अब मेरा महत्व कम होने लगा है। मेरे भीतर का उत्साह खत्म हो रहा है।

मैं भी चाहता हूं कि कभी घर के लोग मुझे प्यार से छुएं, सहलाएं, कहें-तुम कितने सुंदर दिख रहे हो। मैं अकसर साथ वाली बालकनी से अपनी तुलना करने लगता हूं, जहां कम से कम थोड़ी हरियाली नजर आती है। मैं तो जैसे महंगे सामानों के बीच पिस सा गया हूं।

हर साल दीपावली के दिन का इंतजार करता हूं। ये कुछ दिन होते हैं, जब मेरे अपने मेरे बारे में सोचते हैं। मेरी पुरानी खुरदुरी सी दीवारों को नए रंग मिलते हैं, छतों पर रोशनी की तारें झिलमिलाने लगती हैं, सामान की धुलाई-पुछाई होती है, घर में बहुत कुछ नया आता है, फर्श चमकने लगता है और फिर से किचन में बनते पकवानों की खुशबू मुझ तक भी पहुंचने लगती है। सजे-संवरे घरवाले मेरे कोने-कोने को रोशन करते हैं। मैं खुश हो जाता हूं, मुझे रोशनी भाती है। जब सब प्यार से मुझे सजाते हैं, तो मैं बिना नखरा किए सब कुछ पहन-ओढ़ लेता हूं। कई बार कुछ रंग या सामान मुझे नहीं भाते, मगर मैं अपनों के प्यार में हर चीज दिल से स्वीकार कर लेता हूं। इसके बाद इंतजार करता हूं कि पकवानों से भरे थाल अड़ोस-पड़ोस में भेजे जाएंगे और दरवाजों से लोग आते-जाते रहेंगे, लेकिन शायद अब यह चलन ही बदल चुका है। बिस्किट, नमकीन, चॉकलेट्स, जूस और भी ना जाने किस-किस चीज के बढ़िया पैकिंग वाले डिब्बे घर में आते हैं, वैसे ही बाहर भी जाते हैं। दिनभर मोबाइल पर संदेश आते हैं, लोग मुंडी घुसाए संदेशों को आगे बढ़ाते रहते हैं। पर ना जाने क्यों अब वो लोग नहीं आते, जिनके कहकहे सुन-सुन कर मैंने कई दशक इस घर में बिताए हैं। इक्का-दुक्का पड़ोसी थोड़ी औपचारिकता निभा कर चले जाते हैं। पहले जैसा हंसी-ठठ्ठा और त्योहारी माहौल कहां !

हमारा घर पहले उस पेड़ की तरह था, जिसकी हर शाख पर पत्तों का बसेरा था। हवा बहती तो पत्ते उड़ते, मगर जैसे एक डोर में बंधे वे घूम-फिर कर पेड़ की जड़ में ही आ जमा होते। पर आज तो बदलाव की हवा नहीं, आंधी बह रही है, पत्ते जो एक बार उड़ते हैं-उड़ते चले जाते हैं, पता नहीं कहां जा कर ठहरेंगे ये।

एक आस बाकी है मगर....

कहते हैं ना कि उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए। मैं भी यही आस लगाए बैठा हूं कि पुराने दिन लौटेंगे। घर से बाहर गए लोग फिर लौटेंगे। घर वाकई घर बनेगा, लोगों से भरा-पूरा। मेहमानों का स्वागत होगा, फिर से कहकहे गूंजेंगे और ये कहकहे घर की सीमाएं लांघ कर आसपास के घरों तक पहुंचेंगे। वहां से और आगे-आगे बढ़ते जाएंगे, गली के आखिरी घर और शहर के आखिरी कोने तक ठहाकों की आवाज सुनायी देगी।

प्रियजनो, बस इतना ही कहना है कि जिंदगी में बेशक सब कुछ मिले, मगर रिश्ते ना मिलें तो सब बेकार है। मैंने रिश्तों के गाढ़े सुर्ख रंग देखे हैं और मेरी छोटी सी यही चाह है कि हर घर में प्रेम-स्नेह के सुर्ख रंग बने रहें हमेशा-हमेशा। आमीन....।