Wednesday 03 May 2023 04:12 PM IST : By Indira Rathore

मिले मुझे भी अगर कोई शाम फुरसत की...

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क्या आपकी पत्नी रोज घर से बाहर निकलती हैं? मैंने यह सवाल पुरुष साथियों, सहकर्मियों और संबंधियों से पूछा। ये वे लोग थे, जिनकी पत्नियां या तो घर में रह कर कोई व्यवसाय कर रही हैं, या फिर पूरी तरह परिवार की देखभाल कर रही हैं। ज्यादातर पुरुषों का जवाब ना में था। कारण है समय की कमी। महिलाओं के पास बाहर निकलने का वक्त नहीं होता और फिर उन्हें ऐसा करने के लिए ठोस वजह की जरूरत होती है। मसलन बच्चों को स्कूल बस स्टॉप तक छोड़ना या लाना, उनकी पेरेंट्स मीटिंग अटेंड करना, पास की सब्जी मार्केट तक जाना, कोई विशेष अवसर या जरूरी शॉपिंग।

इकबाल साजिद लिखते हैं, मिले मुझे भी अगर कोई शाम फुरसत की, मैं क्या हूं कौन हूं सोचूंगा अपने बारे में...। अपने बारे में सोचने की फुरसत महिलाओं को मिलती कहां है ! कम ही महिलाएं हैं, जो नियमित वॉक, वर्कआउट, योगा या हॉबी क्लासेज के लिए समय निकालती हैं। अगर वे नौकरीपेशा नहीं हैं, तो उनका ज्यादातर वक्त घर-बच्चों की जिम्मेदारियों में गुजर जाता है। जबकि पुरुष अकारण भी बाहर निकलते हैं। बहुत कम घर में रहनेवाले पुरुष ऐसे हैं, जो रोज घर से बाहर ना निकलते हों।

बाहरी दुनिया से दूरी

कुछ समय पहले साइंस डाइरेक्ट की पत्रिका ट्रेवल बिहेवियर एंड सोसाइटी में प्रकाशित एक रिसर्च जेंडर गैप इन मोबिलिटी आउटसाइट होम इन अर्बन इंडिया के मुताबिक शहरी भारत की लगभग आधी महिलाएं मानती हैं कि वे पूरे दिन में एक बार भी घर के बाहर कदम नहीं निकालतीं। यह अध्ययन 2019 के टाइम यूज सर्वे (टीयूएस) के नतीजों पर आधारित है। इसमें कहा गया कि सामान्य दिनों में आधी से भी कम महिलाएं घर से बाहर निकल पाती हैं। इसके विपरीत 87 फीसदी पुरुष दिन में कम से कम एक बार बाहर निकलते हैं। स्कूल-कॉलेज या नौकरी के अलावा महिलाएं कम ही बाहर निकल पाती हैं। नौकरीपेशा महिलाओं की स्थिति भी अलग नहीं है। वे नौकरी के लिए घर से निकलने और फिर लौटने के अलावा कुछ और नहीं कर पातीं। अब जरा सोचें कि बहुत सी महिलाएं ना तो स्कूल-कॉलेज जाती हैं, ना नौकरी करती हैं, तो वे कैसे बाहर निकलती होंगी। सचाई है कि 70 फीसदी स्त्रियां दिन में एक बार भी घर से बाहर नहीं निकलतीं।

घरेलू कार्यों की जकड़न

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, अहमदाबाद के शोध में कहा गया कि 15 से 60 की उम्रवाली ज्यादातर महिलाएं लगभग 7 घंटे अवैतनिक घरेलू कार्य करती हैं, जबकि पुरुष 2 घंटे घरेलू कामों में बिताते हैं। शोध में इसे ‘टाइम पोवर्टी’ कहा गया। टीयूएस के सर्वेक्षण में कहा गया कि आधी से ज्यादा महिलाओं ने कहा कि घरेलू कार्यों में उनके 6-7 घंटे व्यतीत होते हैं। यह बड़ी वजह है फुरसत ना मिल पाने की। परंपरागत परिवारों में महिलाओं के बाहर ना निकलने को कई बार महिमामंडित भी किया जाता है। उनके घरेलू कार्यों या बच्चों की जिम्मेदारियों का बढ़ा-चढ़ा कर बखान किया जाता है। घर की धुरी, अन्नपूर्णा... जैसे तमाम संबोधन उन्हें त्याग की देवी बनने के लिए दिए जाते हैं।

दो एक्स्ट्रीम छोर

दो अतिवादी छोर हैं। एक तरफ घरेलू कामों का दबाव है, तो दूसरी ओर कामकाजी महिलाओं पर बढ़ती जा रही दोहरी जिम्मेदारियां। ये काम किस तरह महिलाओं से खुश व स्वस्थ होने का हक छीन रहे हैं, इसे दो रियल लाइफ उदाहरणों से समझें।

युवा दोस्त अंजली कुछ साल पहले तक अपनी जिंदादिली, डांस-मस्ती के लिए दोस्तों के बीच पॉपुलर थीं। शादी हुई। फिर प्रेगनेंसी के दौरान कुछ जटिलताएं हो गयीं। बच्चे के जन्म के कुछ समय बाद एकाएक वजन बढ़ा, सुस्ती और हारमोनल असंतुलन के लक्षण पैदा हुए। जांच में थाइरॉयड और पीसीओडी की समस्या का पता चला। डॉक्टर हर बार दवाओं की लंबी सूची के साथ वजन कम करने, वर्कआउट करने जैसी हिदायतें भी देते। खासी तैयारी के बाद उन्होंने योगा क्लासेज शुरू भी कीं। एक महीना ही बीता कि बुजुर्ग सास-ससुर उनके पास रहने आ गए और उनकी दिनचर्या व्यस्त होती गयी। नतीजा यह रहा कि कुछ समय बाद सेहत ने जवाब दे दिया। डॉक्टर ने नुसखे में शारीरिक मर्ज की दवाओं के साथ एंटी डिप्रेसेंट्स भी जोड़ दिए।

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एक पड़ोसी हैं, चुस्त व फिट। बच्चा उच्च शिक्षा के लिए बाहर निकला, तो खाली समय में पति के बिजनेस में हाथ बंटाना शुरू किया। धीरे-धीरे दफ्तर में काम बढ़ता गया, पति तसल्ली से फील्ड के काम देखने लगे। सुबह निकलती हैं, तो देर शाम तक घर लौटती हैं। तबियत ठीक ना हो, तो भी ऑफिस जाना पड़ता है, क्योंकि वहां का काम उन पर निर्भर करता है। पति फिटनेस फ्रीक हैं, वॉक-वर्कआउट कभी नहीं छोड़ते, लेकिन पत्नी की जिम्मेदारियां बढ़ती जा रही हैं, घर-दफ्तर संभालते हुए कई बार बुरी तरह थक जाती हैं, अपने लिए जरा भी वक्त नहीं। काम की दोहरी मार झेल रही हैं।

कहां खो रहा है लेजर टाइम

पुरुषों की तुलना में महिलाओं के पास लेजर टाइम की बेहद कमी होती है। ऐसा वक्त, जो हम अपनी सेहत, उत्पादकता, रचनात्मकता, ऊर्जा और खुशी के क्षणों में बिताएं, महिलाओं को कम ही नसीब होता है। टाइम यूज सर्वे के आंकड़ों को देखें, तो शहरी भारत में बेशक नौकरीपेशा युवा पुरुष अपने रोजगार को 8 घंटे से ज्यादा वक्त देते हैं और स्त्रियां उनसे थोड़ा कम, लेकिन घर में नौकरीपेशा महिलाएं न्यूनतम 5 घंटे काम करती हैं। दूसरी ओर नौकरीपेशा पुरुष दो-ढाई घंटे ही घर के काम संभालते हैं। शादीशुदा-गैर शादीशुदा पुरुषों में इस आधार पर खास फर्क नहीं दिखता। अविवाहित पुरुष 25 मिनट घरेलू कार्यों में खर्च करता है, तो विवाहित पुरुष लगभग 47 मिनट। लेकिन शादी के बाद नौकरीपेशा स्त्री का लेजर टाइम लगातार कम होता जाता है। उनके पास कामों की इतनी लंबी सूची होती है कि ना तो वे पसंदीदा टीवी प्रोग्राम देख पाती हैं, ना किताबें पढ़ सकती हैं, ना फिटनेस के लिए वक्त निकाल पाती हैं। अगर आप सोच रहे हैं कि मशीनों ने घरेलू कार्य आसान बना दिए हैं, तो कुछ सर्वे यहां तक कहते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी स्त्रियों के पास लेजर टाइम कम होता गया है।

सेहत पर पड़ते दूरगामी प्रभाव

एक्सपर्ट्स बताते हैं कि महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम से कम 20 मिनट तक ज्यादा सोना चाहिए, लेकिन हकीकत यह है कि रेस्टलेसनेस, स्लीप एप्निया, इन्सोम्निया की शिकायत स्त्रियों में ज्यादा देखी जाती है। इसकी कई वजहों में एक बड़ी वजह उनकी जिम्मेदारियां भी हैं। सर्वे के मुताबिक शहरी कामकाजी महिलाओं के पास सोने और सेल्फ केअर के लिए महज 11 घंटे का समय होता है। अनपेड काम महिलाओं की शारीरिक-मानसिक सेहत को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। कोविड के बाद से तो स्थितियां बदतर होती गयी हैं। अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों में डोमेस्टिक हेल्प की व्यवस्था होती है, लेकिन लोअर इनकम ग्रुप्स में महिलाएं हर मोर्चे पर अकेले लड़ती हैं। हाल के वर्षों में महिलाओं में डिप्रेशन-एंग्जाइटी जैसी समस्याएं क्यों बढ़ी हैं, इस पर डब्लूएचओ का कहना है कि जेंडर गैप, सैलरी गैप, पारिवारिक-सामाजिक दबाव, लो सोशल स्टेटस, सुपर वुमन बनने की होड़ और दोहरी जिम्मेदारियां इसके लिए जिम्मेदार हैं।