Thursday 13 April 2023 05:13 PM IST : By Indira Rathore

अनचाहा हो जो उसे कैसे चाहें

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सुख दिन है, दुख है रात घनी काली, है दर्द दीया में बाती का जलना... गोपाल सिंह नेपाली की इस एक पंक्ति में सुख-दुख-दर्द, तीनों को एक साथ समझा जा सकता है। बुद्ध ने कहा था- यह संसार दुख-दर्द से भरा हुआ है और यह दुख हमारे अस्तित्व से जुड़ा है, हमारी इच्छाओं, हमारे मोह-प्रेम और अपेक्षाओं से जन्मा है।

दुख के पांच चरण

मशहूर स्विस-अमेरिकन मनोचिकित्सक एलिजाबेथ कुबलर रॉस ने मृत्यु और उससे जुड़े दुख को ले कर कई अध्ययन किए। अपनी बेस्ट सेलिंग किताब ऑन डेथ एंड डाइंग में उन्होंने दुख के 5 चरणों के बारे में लिखा है। इन चरणों को कुबलर रॉस मॉडल कहा जाता है। ये चरण हैं- अस्वीकृति, क्रोध, बार्गेनिंग, डिप्रेशन और स्वीकृति। जब हम किसी तल्ख सचाई का सामना कर रहे होते हैं, तो ऐसे ही 5 चरणों से हो कर गुजरते हैं। हालांकि हर इंसान के लिए दुखी होने की प्रक्रिया थोड़ी अलग हो सकती है। जब दुख के साथ स्ट्रेस और ट्रॉमा भी जुड़ा होता है, तो स्थिति गंभीर हो जाती है, जिससे मेंटल-फिजिकल हेल्थ प्रभावित होती है। दबाव का असर शरीर और मन दोनों पर पड़ता है, जिससे कार्टिसोल और एड्रेनलाइन जैसे स्ट्रेस हारमोन्स रिलीज होते हैं और भूख और नींद का चक्र बिगाड़ देते हैं। लंबे समय तक ऐसा चलता रहे तो व्यक्ति की रोजमर्रा की जिंदगी पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उसके कामकाज से ले कर निजी जीवन तक सब कुछ अस्तव्यस्त हो सकता है। दुख की स्थिति में व्यक्ति कई तरह के मनोभावों से हो कर गुजरता है, लेकिन जब इसमें ट्रॉमा भी जुड़ जाता है, तो उसकी स्थिति बिगड़ने लगती है।

क्या होता है इन स्थितियों में

कुबलर रॉस मॉडल के अनुसार दुख के इन सभी 5 चरणों में अलग-अलग लक्षण दिखायी देते हैं। हर स्टेज पर इन लक्षणों के आधार पर व्यक्ति का व्यवहार भी अलग-अलग होता है।

स्टेज 1. अस्वीकार्यता: इस स्तर पर बाहरी तौर पर व्यक्ति भूलने, ध्यान भटकने, अजीबोगरीब बर्ताव करने, हमेशा व्यस्त दिखते रहने या जबरन खुद को ठीक दर्शाने की कोशिश करता है। कई बार वह शॉक में होता है, उसे अपने आसपास शून्य सा नजर आता है, भ्रमित रहता है या हर तरफ से खुद को घिरा हुआ पाता है। वह किसी भी निर्णय तक पहुंचने में खुद को समर्थ नहीं पाता।

स्टेज 2. क्रोध: इस चरण में व्यक्ति में नकारात्मकता, चिड़चिड़ाहट, आक्रामकता पैदा होती है। वह आवेश में आ कर किसी से झगड़ सकता है, यहां तक कि हाथापाई भी कर सकता है। कई बार वह ड्रग्स या नशे की गिरफ्त में आ सकता है। उसके मन में कुंठा, अवसाद, अधैर्य, शर्मिंदगी और बदले की भावना पैदा हो सकती है।

स्टेज 3. बार्गेनिंग: अतीत या भविष्य की किसी संभावित घटना को ले कर ओवरथिंकिंग, दूसरों के साथ अपनी तुलना, भविष्य में कुछ अत्यधिक बुरा घटने की कल्पना, अपने या दूसरों के प्रति जजमेंटल हो जाना... ये सारे लक्षण इस स्तर पर नजर आते हैं। इसमें व्यक्ति के भीतर अपराध-बोध, भय, बेचैनी और असुरक्षा पैदा होती है और वह दूसरों पर अकारण दोषारोपण भी कर सकता है।

स्टेज 4. डिप्रेशन: इस स्थिति में भूख व नींद का साइकिल बिगड़ता है, व्यक्ति सुस्त और ऊर्जाहीन दिखता है, रोने लगता है, उसे मोटिवेशन की कमी महसूस होती है, नशा कर सकता है और समाज से कट जाता है। वह हर वक्त दुख, निराशा, हताशा और अकेलेपन से घिरा रहता है।

स्टेज 5. स्वीकार्यता: अंतिम चरण है दुख को स्वीकारना। यहां तक पहुंचते-पहुंचते व्यक्ति का व्यवहार संयत होने लगता है। वह यथार्थ से जुड़ने लगता है, वर्तमान में जीने लगता है, अपनी भावनाओं को सहन करने लगता है, स्थितियों को स्वीकारने लगता है और पीड़ा से उबरने के रास्ते तलाशता है। उसकी मनोस्थिति बदलने लगती है। वह अपने भीतर दुख का सामना करने की शक्ति महसूस करता है, जो हुआ उसे भूल जाने जैसी भावना उसके भीतर पैदा होने लगती है। इस स्तर पर आ कर एकाएक वह अपने प्रति जागरूक होने लगता है। दुख के चारों चरण पार करने के बाद प्राप्त हुए ज्ञान से उसके मन पर छायी धुंध धीरे-धीरे छंटने लगती है।

स्वीकारना आसां नहीं

स्वीकार्यता का अर्थ यह नहीं होता कि व्यक्ति दुख में नहीं है। इसका मतलब है कि व्यक्ति में वह समझ पैदा हो रही है कि वह किन स्थितियों से घिरा है, किससे संघर्ष कर रहा है। वह यथार्थ से जूझने की क्षमता अपने भीतर पैदा कर रहा है। जैसे किसी लंबी बीमारी के बाद व्यक्ति अपना चेहरा आईने में देखे, तो लगता है कि अरे कितने दिन हो गए उसे अपनी केअर किए ! बीमारी से उपजी पीड़ा के कारण अपने शरीर, चेहरे और बालों के प्रति वह उदासीन हो चुका था। बीमारी थोड़ी कम हुई, तो वह कमजोरी के बावजूद खुद को व्यवस्थित और संतुलित रखने की कोशिश करने लगता है। यह इलहाम ही स्वीकार्यता है। हालांकि इस स्टेज पर भी कभी-कभी पिछले 4 चरणों के कुछ लक्षण नजर आ सकते हैं। व्यक्ति बीच-बीच में परेशान, व्यथित और उदास हो सकता है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। दुख की मियाद होती है, लेकिन यह मियाद भी घटना, परिस्थिति, परिवेश, उम्र और अन्य तमाम कारणों पर निर्भर करती है। किसी अपने को खोने की स्थिति में दुख लंबा खिंचता है और अगर उस व्यक्ति के साथ आर्थिक-सामाजिक-पारिवारिक स्थिति भी जुड़ी है, तो दुख अधिक लंबा हो सकता है, क्योंकि दुख के साथ शॉक, असुरक्षा और भय भी जुड़ा है।

ये कोशिशें करके देखें

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जब कोई अपना जीवन से चला जाता है, तो बहुत सी भावनाओं का ज्वार मन में उतरता-चढ़ता रहता है। अलग-अलग स्टडीज और एक्सपर्ट्स के सुझावों के आधार पर दुख से उबरने के कुछ आजमाए गए तरीके ये हो सकते हैं-

भावनाओं को महसूस करना: अपने विचारों-भावनाओं को महसूस करना बहुत जरूरी है। स्थितियों से भागने या जबरन मन को इधर-उधर करने के बजाय उन स्थितियों के बारे में ध्यान केंद्रित करें, जिनमें घिरे हैं, क्योंकि महसूस करने के बाद ही आगे की राह सुलझेगी।

शेअर करना: कई बार लोग अपने दुख को खुद तक ही सीमित रखना चाहते हैं, लेकिन एक्सपर्ट कहते हैं कि अगर बुरा महसूस हो रहा है, तो किसी ऐसे व्यक्ति से बात करें, जिस पर भरोसा हो। उसके सामने अपनी भावनाएं व्यक्त करें। जो भी बात दिल में आ रही है, उसे बाहर निकाल कर देखें। जरूरी नहीं कि इससे समस्या सुलझ ही जाए, लेकिन अपनी बात को शेअर करने से दिल का बोझ थोड़ा हलका जरूर होगा।

सेल्फ केअर: दुख को स्वीकार करने के बाद दूसरा कदम है अपने प्रति जागरूक होना। खाने-पीने, सोने और अन्य आदतों या व्यवहार के प्रति सजग रहें। कहीं आप ज्यादा मीठा तो नहीं खा रहे, स्मोकिंग तो नहीं कर रहे, बिलकुल नहीं सो रहे या बहुत देर तक सो रहे हों, बिलकुल नहीं खा रहे या फिर खाते चले जा रहे हों, अपनी साफ-सफाई के प्रति लापरवाह और रिश्तों के प्रति उदासीन तो नहीं हो रहे...। अगर ये सारे लक्षण दिखायी दें, तो एक बार काउंसलर से अवश्य मिलें।

खुद को थोड़ा वक्त दें: एक दिन या चंद लमहों में स्थितियां नहीं बदल सकतीं। इसलिए खुद को यह मौका दें कि अपनी फीलिंग्स को समझ सकें, रोएं, सोचें, शेअर करें, काउंसलर से मिलें, लेकिन साथ ही इस पीड़ा को कम होने के लिए कुछ वक्त भी दें। इस बात को समझें कि समय के साथ चीजें सुधरने लगेंगी। अपने प्रति अच्छे बनें, अपनों के साथ वक्त बिताएं- चाहे मन ना भी हो। ऐसे कार्य करें, जिनसे मन खुश होता हो, ब्रेक लें, कहीं घूमने निकल जाएं, मजेदार गतिविधियों में समय बिताएं। दिन को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटें, ताकि थोड़ी देर सही, दुख को भूल सकें।

बुरा सुनने-देखने से बचें: जब मन की स्थिति बुरी हो तो टीवी, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित-प्रसारित नकारात्मक खबरों से दूर रहें। खुद परेशान हों, तो ऐसी कोई सूचना ना प्राप्त करें, जो अधिक परेशान कर दे। अच्छी खबरें पढ़ें, अच्छी फिल्में देखें, सुगम और मधुर संगीत सुनें, बच्चों, प्रकृति और पेट्स के साथ वक्त बिताएं। कोई अच्छी प्रेरणादायक कहानी या मोटिवेशनल लेखकों की किताबें पढ़ें। कहीं घूमने जाएं, दोस्तों-सिब्लिंग्स से बात करते रहें। वर्कआउट और योगा-ध्यान करें, कोई मजेदार डांस करें, मतलब कि कुछ पल अपनी मौजूदा हालत से दूर हो जाएं।

कब मदद जरूरी

समय के साथ दुख धीरे-धीरे कम होने लगता है, या फिर कई बार ऐसा नहीं हो पाता। अगर लग रहा हो कि चीजें सही दिशा में नहीं जा रहीं, या घर के किसी सदस्य या दोस्त के बारे में ऐसा महसूस होता है, तो देर ना करते हुए तुरंत काउंसलर से मिलें, क्योंकि जितनी देर करेंगे, व्यक्ति की मानसिक हालत उतनी ही बिगड़ेगी।