Tuesday 25 April 2023 12:10 PM IST : By Indira Rathore

निर्भया कांड के 10 साल बाद कहां खड़े हैं हम

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एक दशक से ज्यादा हो गया है निर्भया कांड को। ऐसी घटना, जिसने पूरे देश को झकझोर दिया था। आज भी लोगों के जेहन में उसकी यादें ताजा हैं। हर नागरिक इस घटना के प्रति शरम और गुस्से से भरा था। लोग महिला सुरक्षा व अस्मिता के सवालों पर सड़कों पर उतरे थे। विदेशों में भी प्रदर्शन हुए, जुलूस निकाले गए। हमारी पीढ़ी ने शायद पहली बार ऐसा स्वतःस्फूर्त जन आंदोलन देखा था, जब घर-घर से लोग अपनी आत्मा की आवाज पर उठ खड़े हुए थे, किसी ने उन्हें संगठित नहीं किया था। नारों की गूंज हर घर से होकर राजनीति के गलियारों और हुक्मरानों तक पहुंची। शायद यही वजह है कि कानूनों में जरूरी बदलाव किए गए। आखिरकार 7 वर्ष बाद घटना में संलिप्त सभी जीवित आरोपियों (नाबालिग को छोड़ कर) को फांसी की सजा मिली। 2013 में जस्टिस वर्मा कमेटी गठित की गयी, जिसने एक महीने में ही अपनी रिपोर्ट पेश कर दी। इसमें यौन उत्पीड़न विधेयक को नाकाफी और असंतोषजनक मानते हुए कहा गया था कि इससे विशाखा दिशानिर्देशों की भावना प्रतिबिंबित नहीं होती।

दस साल बाद...

यह किसी भी देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि इस भयानक कांड के 10 साल बाद आज भी निर्भया की मां आशा देवी को लगता है कि महिला सुरक्षा को ले कर कहीं कुछ नहीं बदला। आज भी एसिड अटैक, जघन्य यौन हिंसा हो रही है, सिस्टम में बहुत लूपहोल्स हैं। दिल्ली महिला आयोग के सूत्रों के मुताबिक पिछले 5-6 सालों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के एक लाख से भी ज्यादा मामले आए। लेकिन पुलिस स्टेशनों में कर्मियों व संसाधनों की कमी के कारण सुनवाई और न्याय में देरी होती है।

आंकड़े बताते हैं कि कोरोना महामारी के दौरान महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामले कम हुए हालांकि घरेलू हिंसा में तेजी आयी। शायद सड़कों पर होनेवाले मामले इसलिए कम थे, क्योंकि देश में लॉकडाउन था, लोग घरों से बाहर कम निकले। नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का डेटा बताता है कि पिछले 10 वर्षों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 70 फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी देखी गयी है और इनमें यौन अपराध 25 फीसदी से अधिक हैं। थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की 2018 की रिपोर्ट में कहा गया था कि यौन हिंसा, मानव तस्करी और सांस्कृतिक-धार्मिक कारणों की वजह से भारत स्त्रियों के लिए सबसे असुरक्षित देश है।

दिल्ली पुलिस की सब इंस्पेक्टर किरन सेठी कहती हैं कि पुलिस की ओर से सकारात्मक दिशा में कार्य हुए हैं। जस्टिस वर्मा कमेटी की कई अनुशंसाओं का क्रियान्वयन हुआ है। कानूनों में संशोधन हुए, महिला सुरक्षा को ले कर इस दौरान ढेरों कार्यक्रम हुए, महिलाओं और बच्चों को सेल्फ डिफेंस ट्रेनिंग दी गयीं। पिंक बूथ बने, हिम्मत प्लस एप लॉन्च हुआ और क्राइम अगेंस्ट वुमन सेल बनाए गए। पुलिस महकमे में अभी 10 हजार से भी ऊपर महिला पुलिस फील्ड में हैं। स्थितियां धीरे-धीरे सही दिशा में बदल रही हैं।

पिंक बूथ कितने प्रभावी

महिला सुरक्षा के मद्देनजर गृह मंत्रालय ने पिंक बूथ योजना बनायी थी। ये महिलाओं के लिए हेल्प डेस्क की तरह हैं। सेफ सिटी प्रोजेक्ट के तहत इन्हें बनाया गया। दिल्ली पुलिस ने लगभग 140 बूथ बनाए हैं। इनमें ज्यादातर महिला कॉलेजों के आसपास बनाए गए या ऐसी जगहों पर, जहां महिलाओं की आवाजाही अधिक होती है। बूथ पर महिला पुलिसकर्मियों की तैनाती की गयी है। महिला पुलिस गश्ती दल (वीरा दस्ता) सुनसान जगहों और गलियों में गश्त करता है। कहा यही गया था कि पिंक बूथ के बनने के बाद काफी हद तक महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित होगी। लेकिन सच यह है कि कई जगहों पर ये बूथ खाली पड़े नजर आते हैं। स्टाफ की कमी बड़ा मसला है। कई बूथ बंद भी दिखते हैं। वैसे स्कूल-कॉलेजों के आसपास लगभग 500 अॉल वुमन पीसीआर वैन तैनात हैं। ज्यादातर पीसीआर वैन में ड्राइवर सहित दो ही महिलाएं दिखती हैं। आईटीओ स्थित माता सुंदरी कॉलेज के पास तैनात ऐसी ही पीसीआर वैन से बात करने पर हमने पाया कि यहां सबसे ज्यादा मामले महिलाओं से छीना-झपटी और घरेलू हिंसा के आते हैं। यहां पिंक बूथ भी है। सीसीटीवी कैमरों की भी व्यवस्था है। व्यवस्था के साथ यह देखना भी जरूरी है कि इनका क्रियान्वयन कितना हो पा रहा है।

ट्रैक पर नहीं हैं फास्ट ट्रैक कोर्ट्स

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निर्भया मामले में त्वरित सुनवायी फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट में हुई थी। रेप और पॉक्सो एक्ट से जुड़े मामलों में त्वरित जांच के लिए इनका गठन हुआ था। इसके बाद तेलंगाना रेप केस और ज्ञानवापी केस के लिए भी इनका गठन हुआ था। फास्ट ट्रैक कोर्ट हमारे देश में पिछले 20-21 वर्षों से चल रहे हैं। इन्हें बनाने का मकसद था- निचली अदालतों में रुके हुए मुकदमों का जल्द निपटारा। लेकिन ये फास्ट ट्रैक कोर्ट ही स्लो सिस्टम की भेंट चढ़ गए। आंकड़े बताते हैं कि आज भी भारत में पांच करोड़ से ज्यादा ऐसे मामले हैं, जिनका कोई हल नहीं निकल सका। कुछ समय पहले संसद में कानून मंत्री ने कहा था कि इन अदालतों में अभी लगभग 14 लाख मामले लंबित हैं। बात तो यह हुई थी कि 1800 फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित किए जाएंगे, लेकिन दिसंबर 2022 तक देश में सिर्फ 848 कोर्ट बने। फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट की बात करें, तो ऐसी 1023 अदालतों के गठन का सुझाव दिया गया था, लेकिन सरकार की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार अभी 28 राज्यों में 768 स्पेशल कोर्ट हैं, जिनमें 418 खासतौर पर पॉक्सो कोर्ट्स हैं।

एक शोध के मुताबिक हाई कोर्ट्स और निचली अदालतों में जजों की नियुक्तियां बहुत कम हुई हैं। पिछले 10 वर्षों में हर स्तर की अदालतों में वेकेंसी 18 से 21 प्रतिशत तक बढ़ी। सुप्रीम कोर्ट में 6 से 12 फीसदी, हाई कोर्ट्स में 33 से 38 प्रतिशत और निचली अदालतों में 18 से 20 फीसदी तक पद खाली रहे।

महिला सुरक्षा तब होगी पुख्ता

महिलाओं के खिलाफ अपराध क्यों नहीं थम रहे, इसके पीछे कारण साफ हैं। न्याय में देरी, सजा का खौफ ना होना, अश्लीलता परोसते माध्यमों पर रोक ना होना, सुरक्षा के पुख्ता उपाय ना हो पाना, पितृसत्तात्मक सोच, प्रशासनिक स्तर पर लापरवाही व उदासीनता। स्त्रियों को सुरक्षित महसूस कराने के लिए कुछ बातें जरूरी हैंÑपुरुषों के लिए जेंडर इक्वैलिटी की ट्रेनिंग, स्त्रियों की अधिकाधिक आर्थिक-सामाजिक भागीदारी, सशक्तीकरण, निशुल्क सेल्फ डिफेंस व स्किल ट्रेनिंग, कानूनों का सख्ती से पालन करवाना, खासतौर पर यौन हिंसा संबंधी अपराधों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करना। यह तभी संभव होगा, जब सत्ता-प्रशासन-न्यायपालिका के एजेंडे में यह टॉप पर हो। आम लोगों सहित तमाम सामाजिक संस्थाएं अपने कर्तव्य निभाएं और सरकारों पर दबाव बनाएं। सुनसान जगहों पर लाइटिंग, महिला पुलिस और पीसीआर वैन की तैनाती हो, सीसीटीवी कैमरे ठीक से काम करें, पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम सुगम हो, इन विभागों में अधिकाधिक महिलाओं की भर्ती हो, राजनीति, पुलिस, कानून और सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की नियुक्ति व आवाजाही सरल हो, कार्यस्थलों पर यौन अपराधों व घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों पर तुरंत एक्शन हो, पेरेंटिंग के तौर-तरीके बदले जाएं, स्कूलों में सेक्स एजुकेशन अनिवार्य हो, कार्यस्थलों में जेंडर सेंसेटिविटी वर्कशॉप हों। संस्थानों में महिला सुरक्षा से जुड़े नियमों का कड़ाई से पालन हो... बदलाव की जरूरत हर स्तर पर है, तभी देश में महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस कर सकेंगी।

वर्मा कमेटी की सिफारिशें-

लंबी-चौड़ी रिपोर्ट में अहम बातें थीं-

1. महिलाओं को घूरने, उनका पीछा करने और जानबूझ कर उन्हें टच करने जैसे मामलों में सजा का प्रावधान हो। एसिड अटैक के लिए अलग सेक्शन बनें।

2. रेप कानूनों में संशोधन किए जाएं। नाबालिग से रेप में कम से कम 10 साल और गैंग रेप में 20 साल तक की जेल हो। मैरिटल रेप को अपराध माना जाए।

3. गैरकानूनी पितृसत्तात्मक संगठनों जैसे खाप पंचायतों की मॉनिटरिंग की जाए, जो अॉनर किलिंग और लड़कियों के मोबाइल फोन इस्तेमाल करने या जींस पहनने पर रोक लगाते हैं।

4. रेप विक्टिम्स के मेडिकल एग्जामिनेशन का रिव्यू हो। तथाकथित टू फिंगर टेस्ट को बंद किया जाए। कुछ ही महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कृत्य को कदाचार की श्रेणी में रखने का आदेश दिया है।

5. पुलिस में सुधार हों। अगर अधिकारी जेंडर क्राइम की शिकायत रजिस्टर नहीं करते, जांच नहीं करते तो उनके लिए सजा का प्रावधान हो। हर पुलिस स्टेशन में सीसीटीवी कैमरों की व्यवस्था हो और पुलिस को यौन अपराधों की जांच करने के लिए सभी जरूरी संसाधन, ट्रेनिंग और टेक्निकल इक्विपमेंट्स प्रदान किए जाएं। पुलिस स्टेशनों और पेट्रोलिंग में महिला पुलिस की संख्या बढ़ायी जाए।

6. सत्ता, कानून, न्यायपालिका व संस्थानों के लिए भी कानून सख्त हों। सांसद, नेता, न्यायपालिका में बैठे लोग यौन अपराधों या दहेज संबंधी मामलों में लिप्त पाए जाएं, तो उनकी सदस्यता तत्काल निरस्त की जाए।