Thursday 28 September 2023 03:27 PM IST : By Shreeprakash Shrivastava

प्रतिफल

story-oct-22

आज आनंद की बरसी है। पूरे 2 साल हो गए उनको गुजरे हुए। ऐसा कोई भी दिन नहीं होगा, जब उनकी याद ना आयी हो। बेटा-बेटी की अपनी जिंदगी है, तनहाई में आनंद की कमी खलती। कभी-कभी जी घबराने लगता, तो बेटियों को फोन लगा कर अपने दिल का हाल कह कर खुद को बहलाने की कोशिश करती। वे हमेशा यही नसीहत देतीं, ‘‘मम्मी, पापा नहीं रहे। आप बेकार उनके बारे में सोच-सोच कर अपना मन खराब करती हैं। बेहतर होगा हालात से समझौता करें और बेटे-बहू में दिल लगाएं।’’

‘‘भगवान ने पहले मुझे क्यों नहीं उठा लिया?’’ रुंधे कंठ से बोली।

‘‘फिर वही बेतुका तर्क? इसमें कोई क्या कर सकता है?’’ बेटी सुकन्या चिढ़ती। जैसी ही फोन कटता, मैं फिर से आनंद के खयालों में डूब जाती।

मैं 32 की थी, जब मेरी आनंद से शादी हुई थी। पापा ने अनगिनत जगहों पर मेरे रिश्ते की बात चलायी, मगर हर जगह मेरे उभरे हुए दांतों की वजह से फोटो तक ही बात सीमित हो कर रह जाती। पढ़ने-लिखने में काफी होशियार थी। अच्छे अंकों के साथ एमएड कर रखा था। परंतु आज के नुमाइशी जमाने में मेरी एकेडेमिक योग्यता खास मायने नहीं रखती। सबको सुंदर लड़की की तलाश थी। मम्मी-पापा लगभग निराश हो चले थे। मम्मी ने तो मान भी लिया था कि अब शायद ही मेरे हाथ पीले हों। ऐसे में आनंद के यहां रिश्ते का पक्का होना अंधेरे में रोशनी की तरह था। आनंद एक साधारण परिवार से थे। पिता की जगह सरकारी नौकरी लगी थी। दो छोटे भाइयों के अलावा विवाह योग्य बहन की जिम्मेदारी थी, जिसे उन्होंने मेरे पिता द्वारा दी गयी दहेज की रकम से पूरा कर लिया। मुझे कोई एतराज नहीं था। शादी के 2 साल बाद मैं जुड़वां बेटियों की मां बनी। जान कर सबका मुंह लटक गया। मम्मी तो इस कदर निराश थीं, मानो उन्हीं को इनकी शादी के लिए जूझना होगा। जब भी मेरे घर आतीं, उनका चेहरा मुरझाया रहता। एक दिन मुझसे रहा ना गया। बोली, ‘‘मम्मी, आपको देखती हूं, तो मेरा भी दिल डूबने लगता है। लगता है जैसे मुझसे कोई अपराध हो गया है।’’

‘‘अपराध ही हुआ है, वरना भगवान इतना बडा दंड ना देते?’’

‘‘हो सकता है ये मेरे लिए वरदान हों?’’ कहने के लिए मैंने कह तो दिया, मगर अंदर ही अंदर दिल में कसक थी ही कि काश एक लड़का होता, तो क्या बुरा था। इस बीच आनंद मेरी नौकरी के लिए फॉर्म भरते रहते। एक दिन मुझे आयोग से साक्षात्कार के लिए बुलाया आया और मैं अध्यापिका के लिए चुन ली गयी। मेरी नियुक्ति आनंद के ही शहर में हुई। यह खुशी का विषय था। आमदनी बढ़ी, तो घर का आर्थिक असंतुलन सुधर गया। आनंद घर का खर्च उठाते, वहीं मैं दूसरे खर्चे उठाती। साथ ही बैंक में भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए रुपए भी जमा करने लगी। आनंद की बचत कम ही हो पाती। छह महीने हंसी-खुशी बीते। एक रविवार आनंद कहने लगे, ‘‘मेरी कमाई ज्यादा बचती नहीं। मैं चाहता हूं कि मकान का भाड़ा तुम दे दिया करो।’’

‘‘बचती नहीं? यह तो मैं पहली बार सुन रही हूं। अभी तक आप ही तो देते आ रहे थे। हां, कम बचता होगा। तो क्या हुआ मैं तो बचा रही हूं,’’ मैं बोली।

‘‘अब नहीं दे पाऊंगा...’’

‘‘क्यों? कौन से खर्च बढ़ गए हैं आपके। बच्चों की फीस, बिजली का बिल, कपड़े, किताब-कॉपी मैं ही खरीदती हूं। आप सिर्फ खाने का सामान और मकान का किराया देते हैं।’’

‘‘इतना कम है क्या?’’ आनंद चिढ़े।

‘‘ठीक है, मैं दे दिया करूंगी,’’ कह कर मैंने विवाद टालना चाहा। मगर यह कहना नहीं भूली कि ‘‘आपकी नजर मेरी तनख्वाह पर है, जो गलत है। मैं और आप अलग थोड़े ही हैं।’’

‘‘कुछ गलत नहीं है,’’ आनंद तैश में आ गए, ‘‘आज जो भी तुम हो मेरी वजह से हो। ना मैं फॉर्म भरवाता, ना ही तुम नौकरी पातीं। तुम्हारी तनख्वाह पर मेरा हक है।’’

‘‘अजीब कुतर्क है। योग्यता कोई मायने नहीं रखती? माना कि आप मेरे लिए प्रयासरत थे, किसी गैर के लिए तो नहीं। मैं कमा रही हूं, तो किसके लिए? परिवार के लिए।’’

योग्यता के सवाल पर आनंद चिढ़ गए। उन्हें लगा इस बहाने मैं उन्हें अंडरइस्टीमेट कर रही हूं। सवाल उठाना लाजमी था। इसमें शक नहीं कि मैंने अपनी मेरिट के बल पर यह नौकरी पायी, जबकि आनंद को पिता की जगह जॉब मिली। वे मात्र स्नातक थे। इसके बावजूद मैंने आनंद से सामंजस्य बना कर रहना चाहा। परंतु जबसे मेरी नौकरी लगी वे कुछ बदले-बदले से लगे। घर खर्च में कंजूसी करने लगे। आहिस्ता-आहिस्ता वे आर्थिक रूप से मुझ पर निर्भर रहने लगे। मुझे एतराज ना था। यह सोच कर कि क्या फर्क पड़ता है चाहे उनकी तनख्वाह से खर्च हो या मेरे। इसके विपरीत जब उनकी बचत बढ़ी, तो वे अपने छोटे भाइयों के लिए पैसे भेजने लगे। दोनों भाई शादीशुदा थे। गांव में पैतृक जमीन थी। वे उसी से अपनी जीविका चलाते थे। मुझे लगा जब खेती से काम नहीं चल रहा है, तो कोई और काम करें। मगर नहीं, वे दोनों हाथ पर हाथ धरे आनंद की खैरात पर निर्भर हो गए।

‘‘मुझे 50 हजार रुपए चाहिए। भाइयों को खाद की दुकान खुलवानी है,’’ एक दिन आनंद बोले।

‘‘मैं क्यों दूं? आपके भाई हैं अाप दीजिए।’’

‘‘यह मत भूलो कि जिस कमाई पर तुम इतरा रही हो, वह मेरी वजह से है।’’

आनंद की बात से मैं जलभुन गयी।

‘‘बार-बार एक ही ताना। मैं आजिज आ चुकी हूं आपके तानों से,’’ मैं बिफरी, ‘‘आपको लगता है कि मैं इतरा रही हूं, तो ऐसा ही समझ लीजिए। मेरी कमाई मेरे बच्चों के लिए है।’’

कुछ सोच कर आनंद बोले, ‘‘मैं रुपए लौटा दूंगा।’’ मैंने उन पर भरोसा करके रुपए दे दिए।
दो साल गुजर गए। मुझे एक सोने की सिकड़ी खरीदनी थी। इसी बहाने रुपए मांगे, तो उखड़ गए, ‘‘क्या जरूरत है सोने में रुपया फंसाने की? बेचो तो कुछ मिलता भी नहीं।’’

‘‘कमा रही हूं, तो क्या अपने शौक भी पूरे नहीं करूं? आपसे तो मांग नहीं रही हूं। आप बस मेरे 50 हजार दे दें।’’

‘‘यह फिजूलखर्ची है।’’

‘‘अपने भाइयों पर रुपया लुटाते हैं, वह क्या है?’’

‘‘मेरे भाइयों का नाम मत लो। मैं एक धेला भी देने वाला नहीं,’’ आनंद ढिठाई पर उतर आए, ‘‘तुम्हारी तनख्वाह पर मेरा हक है।’’

‘‘आपकी तनख्वाह पर भी मेरा हक है। बताइए, कहां-कहां खर्च करते हैं?’’

‘‘तुम मेरा हिसाब लोगी?’’

‘‘क्यों नहीं ले सकती। आप मेरा हिसाब ले सकते हैं, तो मैं आपका क्यों नहीं ले सकती?’’

‘‘मैं क्या अय्याशी में पैसे लुटाता हूं?’’

‘‘तो क्या मैं कूड़े में फेंकती हूं? परिवार पर ही तो खर्च करती हूं। मेरे पास पाई-पाई का हिसाब है। आपकी कमाई कहां जाती है, पता ही नहीं चलता। पहले तो बिना नानुकर के खर्च करते थे। परंतु जबसे मैं कमाने लगी हूं, आप रोते ही रहते हैं।’’

‘‘मेरी जिम्मेदारी हैं मेरे भाई।’’

‘‘आप उन्हें काहिल बना रहे हैं। जब वे अपनी जिम्मेदारी उठाने में समक्ष नहीं थे, तो क्या जरूरत थी उनकी शादी करने की? क्या उनके पत्नी-बच्चे आपकी जिम्मेदारी हैं? क्या यही सोच कर मुझे लाए थे कि मेरी कमाई से मेरा घर चलेगा और आपकी कमाई से आपके काहिल भाइयों का घर।’’

‘‘जबान संभाल कर बात करो,’’ आनंद तैश में आ गए।

‘‘संभाल ही रही हूं, वरना कब की छोड़ चुकी होती।’’

‘‘चली जाओ। रोका किसने है?’’

‘‘चली जाऊंगी। इस मनहूस मकान में मेरा मन नहीं लगता। एक जमीन तक तो खरीद नहीं सके?’’

‘‘अपनी कमाई से खरीद लेना।’’

‘‘खरीद लूंगी। आपका वश चले, तो जिंदगीभर किराए के ही मकान में सड़ना पड़ेगा।’’

उस दिन की बहस से एक बात साफ हो गयी कि आनंद के मन में क्या है? मुझे रातभर नींद नहीं आयी। यही सोचती रही कि कैसे आदमी से पाला पड़ा है, जो अपनी पत्नी के प्रति गैर जैसा नजरिया रखता है। हमारी कमाई उसकी कमाई। इसके आगे कुछ नहीं होता? पति पत्नी का संबल होता है। यहां तो दूसरा ही रूप देखने को मिल रहा है? अपने बच्चों की फिक्र नहीं, भाइयों के लिए कर रहे हैं। करें, मैंने कौन सा मना किया है। परंतु मेरी कमाई पर नजर रखने का उनको क्या हक है? मेरी आंखें भर आयीं।

ना उन्होंने मुझे रुपए लौटाए, ना ही मैंने तकाजा किया। तीज आने वाली थी। मेरी छोटी बहन ने लखनऊ से कुछ साडि़यों की फोटो भेजी थीं। साडि़यां सुंदर और महंगी थीं। ख्वाहिश ही रही ऐसी साड़ी पहनने की। आनंद से कहना ही बेकार था ऐसी साड़ी खरीदने के लिए। वे पति कैसे होते होंगे, जो खुद पहल करते हैं अपनी पत्नियों के लिए कि वे सुंदर दिखें। आनंद ने तो भूले से भी मुझसे नहीं कहा कि किसी तीज में तुम अपनी पसंद की साड़ी ले लो, रुपए मैं दे दूंगा। हिम्मत करके मैंने दो साडि़यों का आॅर्डर दिया। आनंद से बताना मुनासिब नहीं समझा। साडि़यां अलमारी में छुपा कर रख दीं। उनकी नजर पडे़गी, तो हजार सवाल पूछेंगे। खुद को नहीं बदला, तो मुझे क्या बदलेंगे। वही गिनेचुने पैंट-शर्ट। कितना कहा कि नए बनवा लीजिए। लोग देख कर यही कहते होंगे कि कैसी पत्नी है, जो अपने पति का खयाल नहीं रखती। आनंद बोलते, ‘‘मैं तुम्हारी तरह रईस खानदान का नहीं हूं। मै जैसा हूं उसी में खुश हूं।’’ सोचती कम से कम मुझे ही पहनने देते। यहां भी अड़ंगा लगा देते। क्या जरूरत है फिजूलखर्ची की? बहरहाल मैंने इन साडि़यों को तब पहनने का मन बनाया, जब इनकी नजर ना पडे़। ऐसे ही ख्वाहिश के साथ 2 साल गुजर गए।

मेरे छोटे भाई की शादी थी। यही अवसर था उन साडि़यों के पहनने का। कब और कैसे पहनूं, इसी उधेड़बुन में थी। पहन लिया, तो जरूर पूछेंगे कि साड़ी कब खरीदी? कितने में खरीदी? खरीदी तो बताया क्यों नहीं? बिना चोरी के मैं अपराधिनी हो जाती। कभी-कभी मन यह सोच कर खराब हो जाता कि मैंने नौकरी की ही क्यों? घर बैठती तो ज्यादा अच्छा होता। कम से कम बच्चों की ढंग से देखभाल तो कर पाती? आज हालत यह है कि ना बच्चों की परवरिश ही ठीक से हो पायी, ना ही कमाने के बावजूद अपने ढंग से जी पा रही हूं। रोज 10 किलोमीटर स्कूल के लिए सुबह से निकलो, तो आते-आते शाम हो जाती। इतना खटने के बाद आ कर खाना बनाओ। नौकरानी के भरोसे छोटे बेटे को छोड़ कर जाती। फल-दूध सब पर्याप्त मात्रा में होता, तो भी बेटे के स्वास्थ्य में खास फर्क नहीं दिखता। वह दुबला-पतला ही रहा। नौकरानी का क्या भरेासा, खुद की फल खा जाती होगी। कौन देख रहा है। जितनी देर स्कूल रहती, ध्यान बच्चे पर ही लगा रहता। दोनों बेटियां समझदार हो गयी थीं। तीन बजे तक घर आ जातीं। उनके आने के बाद नौकरानी अपने घर जाती। इस बीच बेटे की चिंता बनी रहती। इतनी शारीरिक-मानसिक परेशानियों के बाद आनंद का रवैया मेरे प्रति नहीं बदला था।

छोटे भाई की शादी निपट गयी, मगर उस साड़ी को पहनने की नौबत नहीं आयी। बहनों ने सलाह दी कि पहन लो, कह देना मैंने गिफ्ट दी है। परंतु मेरे मन को गवारा ना था। साध धरी की धरी रह गयी। समय गुजरता रहा। बेटा आईएएस की तैयारी के लिए दिल्ली चला गया। वहीं दाेनों बेटियों में से एक बैंक तो दूसरी सरकारी स्कूल में अध्यापिका हो गयी।

मेरी शादी का पच्चीसवां साल था। बेटियों ने जिद करके आनंद को सालगिरह मनाने के लिए तैयार कर लिया। उस रोज मैंने निश्चय किया कि उस साड़ी को पहनूंगी। कम से कम उस दिन तो ये मना नहीं करेंगे। सबको खबर दे दी। सब आने के लिए तैयार थे। आनंद के लिए नए कपड़ों का इंतजाम मेरी दोनों बेटियों ने किया। वर्षों बाद इस घर में खुशियों ने दस्तक दी।

सिर्फ 4 दिन बाकी थे कि एक दिन आनंद दुर्घटना के शिकार हो गए। सड़क पर बड़ा सा गड्ढा था। उसमें पानी भरा था। वे भांप ना पाए अौर गड्ढे में स्कूटी चला दी। गनीमत थी सिर पर चोट नहीं आयी। पैर और हाथ में फैक्चर हो गया था। अचानक हमारी खुशियों को ग्रहण लग गया। डॉक्टर ने एक हफ्ते उन्हें अस्पताल में रहने के लिए कहा। कितनी हसरत से बच्चों ने शादी की सालगिरह मनाने की तैयारी की थी। वे उदास हो गए। मन तो मेरा भी उदास था, मगर यह सोच कर तसल्ली कर ली कि जान है तो जहान है। आनंद जब ठीक हो कर आएंगे, तो धूमधाम से मनाएंगे।

आनंद की भर्ती का चौथा दिन था। आज ही के दिन हमारी शादी हुई थी। कभी आनंद बारात ले कर हमारे घर आए थे। मैं दुलहन बन नए युग में प्रवेश लेने की ख्वाहिश लिए अपने जीवनसाथी का इंतजार कर रही थी। कितना मधुर पल था। अचानक मेरा मन अतीत के पन्नों में सिमट गया। चारों तरफ कितनी चहलपहल थी। शाम की आने वाली बारात को ले कर सब उत्साहित थे। सजने-संवरने का क्रम जारी था। एक तरफ नए जीवनसाथी से मिलने की जिज्ञासा थी, वहीं दूसरी तरफ मां-बाप से बिछड़ने की पीड़ा। मम्मी-पापा का खयाल आते ही आंखें नम हो जातीं। बेटी परायी हो रही थी। पापा की नजर जब भी मुझ पर पड़ती, वे भावुक हुए बिना ना रह पाते। तभी बारात आने का शोर उभरा। सबसे नजरें छुपा कर मैं छत पर चढ़ गयी। मुंडेर की ओट से मैंने आनंद को देखने का प्रयास किया। तभी मौसी जी की नजर मुझ पर पड़ी, ‘‘तुम यहां?’’ मैं लजा गयी, ‘‘नीचे जा कर अपने कपड़े ठीक करो। जयमाल होने वाली है।’’

मैं जीने से उतर कर अपने कमरे में आयी। लहंगे को दूसरों की मदद से दुरुस्त किया। जैसे ही बुलावा आया, मैं धीमे कदमों से चल कर स्टेज तक आयी। जैसे ही हम दोनों ने एक-दूसरे के गले में जयमाला डाली, वातावरण में खुशी की लहर दौड़ पड़ी।

‘‘मम्मी, क्या सोचने लग गयीं?’’ मेरी बेटी ने मेरी तंद्रा तोड़ी। मैं अतीत से वर्तमान में आयी। बेटी बोली, ‘‘मम्मी, क्यों ना आज हम केक मंगा कर पापा के साथ शादी की सालगिरह का जश्न मनाएं?’’

पहले मुझे अटपटा लगा। आनंद की स्थिति देख कर मन विचलित था। जबसे आनंद अस्पताल में थे, मैं लगातार उनकी सेवा में थी। एक दिन चैन से नहीं सोयी। ऐसी स्थिति में क्या उचित होगा? अच्छा होता यदि आनंद भी स्वस्थ होते। बेटियों ने जिद की, ‘‘प्राइवेट वार्ड है। एक कमरे में केक काट कर पापा को विश करेंगे।’’ अंततः मुझे हथियार डालने पडे़। मैंने अलमारी से वही साड़ी निकाली, जिसे बड़ी हसरत से खरीदा था। आज ना जाने कहां से इतना साहस आ गया कि मैंने खुद से किया वादा तोड़ दिया। जो होगा देखा जाएगा। अब नहीं पहनूंगी, तो कब पहनूंगी। पहन कर आईने के सामने खुद को निहारा, तो आत्ममुग्ध हुए बिना ना रह सकी। बच्चों ने समवेत स्वर में मुझे बधाई दी। जैसे ही केक ले कर हम सबने आनंद के कमरे में प्रवेश किया, उनकी नजर मेरी साड़ी पर गयी। इससे पहले वे कुछ पूछें, बच्चों ने याद दिलाया कि आज आप दोनों की शादी की सालगिरह है। केक काटिए। बच्चों का हौसला देख कर उनकी आंखें नम हो गयीं। उठ पाना उनके लिए संभव नहीं था, लिहाजा मैंने ही केक काट कर उनका मुंह मीठा करवाया। मौका देख कर आनंद ने धीरे से कहा, ‘‘साड़ी तो बहुत सुंदर है। कब ली?’’

‘‘दस साल पहले।’’ वे चौंक गए, ‘‘अब पहन रही हो?’’

‘‘डरती थी आप नाराज हो जाएंगे।’’

‘‘क्यों नाराज हूंगा?’’आनंद ने अपराधबोध से निकलने की कोशिश की।

‘‘क्यों नही होंगे। मैंने अपनी पसंद से पहली बार महंगी साड़ी खरीदी थी।’’ बच्चों का मनुहार था या मेरी सेवाओं का प्रतिफल, आनंद को अपनी गलती का अहसास था। यह मेरे लिए राहत की बात थी। उनकी आंखों के दोनों कोर भीगे हुए थे।