Wednesday 26 April 2023 04:04 PM IST : By Dr. Ranjana Jaiswal

कैसा यह इश्क है

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गाड़ी में बैठते ही पूर्वी ने कार की खिड़कियां खोल दीं, हवा के तेज झोंके से बालों की गिरहें खुलने लगीं और शायद पूर्वी के मन की भी... महिमा मयंक की सिर्फ पत्नी नहीं थी, उसकी बहू भी थी। मयंक उसकी इकलौती संतान थी, हर मां की तरह अपने बेटे के लिए उसके भी कुछ अरमान थे पर... मयंक ने पूर्वी को उसके लिए बहू ढूंढ़ने का मौका तक नहीं दिया। इस बात के लिए कहीं ना कहीं वे महिमा को ही दोषी मानती थीं, ‘‘महिमा ने ही उसे अपने रूप जाल में फंसा लिया होगा, मेरा मयंक तो गऊ है।’’

मयंक और महिमा के प्यार की डगर भी कहां आसान थी। मयंक की बेरोजगारी और दोनों परिवार की असहमति, कुछ भी तो नहीं था उनके पास... था तो बस एक-दूसरे पर विश्वास। वह दिन था और आज का दिन... कार के आगे की सीट पर मयंक और महिमा बैठे हुए थे। प्रखर ने जबर्दस्ती उसे मयंक के साथ आगे बैठा दिया था।

‘‘मयंक ! आज तुम गाड़ी चलाओ, मैं पीछे आराम से तुम्हारी मम्मी के साथ बैठूंगा।’’

महिमा की आंखों में संकोच उभर आया, पर प्रखर की जिद के आगे उसकी एक ना चली। शादी के बाद उसका रंग कितना निखर आया था। लाल साड़ी में सिमटी महिमा की काया उसके गोरे रंग में घुल-मिल गयी थी। मयंक की आंखों और चेहरे के भावों से महिमा के लिए प्यार बार-बार छलक आता था।

पूर्वी का मायका बगल वाले शहर में ही था, मुश्किल से डेढ़ घंटे का रास्ता था। पूर्वी की मां का स्वास्थ्य कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रहा था। वे बार-बार मयंक और महिमा को देखने की जिद कर रही थीं। प्रखर को तो ससुराल जाने का बहाना चाहिए होता था। एक हफ्ते पहले उन्होंने फरमान जारी कर दिया, ‘‘अगले हफ्ते शनिवार और रविवार को छुट्टी है। सुबह ही निकल जाएंगे और दो दिन रह कर वापस आ जाएंगे। महिमा को आसपास घुमा भी देंगे, इसका शादी के बाद घर से बाहर निकलना ही नहीं हुआ।’’

वे लोग बड़े सवेरे ही निकल लिए थे। मौसम खुशगवार था, हल्की-हल्की धूप निकल आयी थी। प्रखर बड़े उत्साह से रास्ते में पड़नेवाली चीजों को महिमा को दिखा रहे थे।

‘‘मयंक, आगे मोड़ पर गाड़ी रोकना।’’

‘‘क्या हुआ पापा?’’

‘‘वो जो ढाबा है ना बस वहीं, वहां की चाय और प्याज की पकौड़ियां बड़ी लजीज होती हैं। महिमा को भी तो पता चले तेरी ननिहाल किसी से कम नहीं।’’ प्रखर ने पूर्वी को शरारत से देखा, प्रखर पूर्वी को छेड़ने से कभी बाज नहीं आते, कहीं भी शुरू हो जाते थे। सब गाड़ी से उतर गए।

ढाबा वाकई बहुत सुंदर था। बांस की लकड़ियों को बीच से काट कर बाड़ बनी थी, जिसे लाल और हरे रंग के पेंट से करीने से पोता गया था। गेरू से पुते हुए ईंटों की बनी क्यारियों में पीले और नारंगी रंग के गेंदे के फूल खिले हुए थे। एक लड़का लोटे में पानी भर कर उसके मुंह को हाथ से दबाए मिट्टी पर पानी का छिड़काव कर रहा था।

मिट्टी की सोंधी खुशबू मन को तरोताजा कर रही थी। पूर्वी सोच रही थी, महंगे से महंगा परफ्यूम भी इस खुशबू का मुकाबला नहीं कर सकता। ढाबे के बाहर एक तरफ चारपाई बिछी हुई थी और दूसरी तरफ गोल मेज के चारों ओर कुछ कुर्सियां रखी हुई थीं। धूप में पड़े-पड़े कुरसियों के रंग फीके पड़ चुके थे।

खालिस सरसों के तेल में तलती पकौड़ियों की खुशबू ढाबे के बाहर तक आ रही थी। पकौड़ियां बनाने वाला व्यक्ति शायद ढाबे का मालिक था। उसके हाथ तेजी से बेसन को फेंट रहे थे। कितना नपा-तुला हाथ था, ना किसी चम्मच की जरूरत थी और ना ही तराजू की। लकड़ी के खांचे में रंगबिरंगे मसाले भरे हुए थे। वह एक हाथ से बेसन फेंटता जाता और दूसरे हाथ से बीच-बीच में मसाले डालता जाता। हल्दी, लाल मिर्च, नमक, अजवाइन और शायद चाट मसाला...।

‘‘ये क्या है?’’ महिमा ने उत्सुकता से ढाबेवाले से पूछा था।

‘‘हमारे ढाबे का खास मसाला है, इसे हम घर में बनाते हैं।’’

महिमा निराश हो गयी, उसका चेहरा उतर गया। पूर्वी के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। जब वे भी नयी-नवेली थीं, तब उनकी आंखें भी इसी तरह नए मसाले और स्वाद ढूंढ़ा करती थीं। बगल में खड़ा लड़का ग्राहक को आता देख आरी जैसे चाकू से तेजी से प्याज काटने लगा। ढाबे का मालिक अपने सधे हाथों से प्याज को बेसन में घोलता और उनकी एक समान गोलियों को गरम तेल में सरका देता।

‘‘साहब, कहां बैठना पसंद करेंगे?’’

‘‘कहीं भी बैठा दो भाई... बस जगह साफ-सुथरी हो। हमें यहां कोई बसना थोड़ी है,’’ प्रखर ने मुस्कराते हुए कहा।

‘‘साहब, अंदर एसी रूम भी और फैमिली के लिए भी अलग से बैठने का हिसाब है। आप कहें, तो वहीं लगा दूं।’’

‘‘एसी इस मौसम में? तुम तो भाई बस यहीं गरमागरम पकौड़ियां और अदरक वाली चाय पिलाओ,’’ प्रखर आज बहुत ही हल्के मूड में थे। पूर्वी और महिमा वहीं चारपाई पर बैठ गयीं।

एक 17-18 साल का लड़का हाथ में कुल्हड़ और चाय की केतली लिए हाजिर था। उसके पीछे-पीछे ढाबे का मालिक जो पकौड़ियां तल रहा था, एक हाथ में प्याज की पकौड़ी और दूसरे हाथ में धनिया और हरी मिर्च की अधकचरी चटनी लिए खड़ा था। पकौड़ियों के साथ धनिया-मिर्च की चटनी सोने पर सुहागा का काम कर रही थी। प्रखर, मयंक और महिमा उसके स्वाद में डूब गए। पूर्वी चुपचाप चाय की चुस्कियां लेती रहीं। पकौड़े के हर टुकड़े के साथ प्रखर के मुंह से वाह-वाह निकलती। प्रखर खाने के बहुत शौकीन थे, शहर का कोई भी ठेला, ढाबा और होटल नहीं था, जो उनकी नजर से बच जाए। पूर्वी प्रखर का ठीक उल्टा थीं, उन्हें सीधा-साधा घर का खाना ही पसंद था। तभी महिमा की नजर दूर किसी आकृति पर पड़ी।

‘‘पापा, वह क्या है?’’

‘‘अरे वो ! बहुत पुराना किला है। किसी राजा ने बनवाया था, इतिहास मेरा शुरू से बहुत खराब है। तेरी मम्मी ही बता सकती हैं। तेरी मम्मी का मायका है भाई, सुना है इनके रिश्तेदारों ने बनवाया था,’’ प्रखर ने पूर्वी को फिर छेड़ा।

‘‘आप भी ना कहीं भी शुरू हो जाते हैं। महिमा क्या सोचेगी आपके बारे में... अब आप ससुर बन चुके हैं।’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ प्रखर उसी तरह हंसते रहे।

‘‘आओ महिमा, तुम्हें यह किला भी दिखाते हैं।’’

पूर्वी कुछ कहना चाहती थीं, पर उनके शब्द मौन हो गए थे। किस हक से रोकतीं और क्यों...वे उन परछाइयों से जितना दूर भागतीं, वे उतना ही उनकी देह, उनके जीवन से चिपक जाते थे। गाड़ी तेजी से किले की तरफ बढ़ती जा रही थी और पूर्वी का मन ना जाने क्यों टूटता जा रहा था। शादी के बाद एक-दो बार वे प्रखर के साथ किले पर आयी थीं, पर कोई ना कोई बहाना करके वे वहां से जल्दी चली आतीं जैसे भाग जाना चाहती थीं वे उन यादों से...

सुबह का समय था, किले में भीड़ अभी कम ही थी। मयंक अपने मोबाइल से महिमा और किले की तसवीरें ले रहा था। पूर्वी और प्रखर नव युगल को छोड़ आगे बढ़ गए, वे दोनों कबाब में हड्डी नहीं बनना चाहते थे। किले की चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते पूर्वी थक गयी थीं। पूर्वी और प्रखर चलते-चलते किले के भीतरी भाग तक पहुंच गए। पूर्वी की आंखें तेजी से कुछ ढूंढ़ रही थीं। लाल गुलमोहर से लदा पेड़ और पेड़ के नीचे वह लकड़ी की बेंच आज भी वहां वैसे ही पड़े थे, कुछ भी तो नहीं बदला था। आज भी बेंच पर गुलमोहर की सुर्ख लाल पंखुड़ियां वैसे ही बिखरी हुई थीं। वर्षों हो गए थे यहां आए। हमेशा सोचती थीं वे, उनकी मुहब्बत को मुकम्मल जहान ना मिल सका, तो शायद किसी को भी ना मिलता होगा। गुलमोहर के फूलों के बीच झांकती रेशमी किरणें क्या फिर किसी प्रेमी युगल जोड़े पर वैसे ही बिखर सकी होंगी? क्या फिर कभी गुलमोहर के तले पड़ी यह बेंच पहले की तरह आबाद हो सकी होगी। कितने अरमानों और दर्द में लिपटी सिसकियों की गवाह थी ये बेंच... क्या कभी फिर किसी प्रेम युगल की मासूम हंसी से वह खिलखिलायी होगी या फिर सिर्फ यात्रा की थकान से चूर राहगीरों को पलभर के लिए फुरसत से सांस लेने के लिए सिर्फ एक बेंच बन कर ही रह गयी होगी। क्या बेंच की उन उखड़े पेंट के बीच दबी-दबी सिसकियों को कोई सुन पाया होगा। शायद नहीं...

पूर्वी थक चुकी थीं। थकान से उनकी सांसें जोर-जोर से चल रही थीं, जिसकी आवाज प्रखर ने भी महसूस की। यह थकान शायद तन से ज्यादा मन की थी। ना जाने क्यों फागुन बेरंग सा लग रहा था। एक पल को लगा गुलमोहर और वो बेंच उदास नजरों से उसे देख रहे थे। आखिर वे ही तो गवाह थे उनकी उस अनकही दास्तां के... एक ऐसी कहानी, जो मुकम्मल ना हो सकी।
गुंबद के दाहिने हाथ पर संकरे से गलियारे में सूखी पत्तियां बिखरी पड़ी थीं। ना जाने क्यों पूर्वी के कदम उस गलियारे की तरफ बढ़ गए। पूर्वी ने दबे पांव गलियारे में प्रवेश किया, पर सूखी पत्तियों ने उनके आगमन की चुगली कर दी। पूर्वी के चेहरे पर मुस्कान तैर गयी। यह पेड़ महज पेड़ नहीं, उनके खूबसूरत अतीत और यादों का गवाह भी था। जो दीवारें उन्हें अपरिचितों की तरह देख रही थीं, उनके हल्के से स्पर्श को पा कर मानो जी उठीं। उनकी उंगलियों की खुशबू उन दीवारों में फैल गयी। गलियारे के अंतिम छोर पर झरोखे के नीचे हाथ फेरते पूर्वी के हाथ उन खुरदरे शब्दों से टकरा गए- पूर्वी संग पीयूष उन्नीस सौ पच्चासी... उन्हें लगा मानो उन्होंने बिजली के नंगी तारों को छू लिया हो। आज भी... इतने वर्षों बाद भी वह नाम यहां खुदा था। होता भी क्यों ना, उन्होंने अपने दुपट्टे से सेफ्टी पिन निकाल कर किले के इस संकरे गलियारे में दुनिया से छुपा कर जो उकेरा था।

कहते हैं मरते-मरते एक दिन इच्छाएं भी मर जाती हैं, पर क्या प्यार भी...। मौसम खुशनुमा हो रहा रहा था, फरवरी की गुलाबी ठंड और हल्की धूप में गुलमोहर खिलखिला रहा था। अचानक ना जाने कैसे आसमान में काले बादल छा गए थे। इस मौसम में काले बादल... पूर्वी को लगा ये महज बादल नहीं उनके हृदय का प्रतिरूप हैं। आंखें ना जाने क्यों सजल हो आयीं, सिर्फ बारिश ही नहीं भिगोती मन को, जब आर्द्रता बढ़ जाए, तो मन यों भी बरस जाता है। वे यादों के गलियारे में 30 साल पीछे खड़ी थीं।

‘‘किसी ने देख लिया तो...’’

‘‘तो? तुम और मैं एक ही तो हैं,’’ कितने आत्मविश्वास से पीयूष ने उस दिन उनसे कहा था। आज भी वह नाम उन बीते हुए लमहों की याद दिला रहा था। बंद दरवाजों पर भी प्रेम जरा बाकी है। सब कुछ सूख गया फिर भी हरा बाकी है। किसी की लिखी ये पंक्तियां अनायास ही याद आ गयीं। पूर्वी ने नजर उठा कर देखा पूरा किला प्रेमी-प्रेमिकाओं के प्यार का गवाह बना हुआ था। किले की दीवारों, झरोखों यहां तक कि छतों पर भी प्यार की निशानियां चॉक, लाल ईंट या फिर किसी नुकीली चीज से उकेरी हुई थीं। पूर्वी सोच रही थीं इसमें से कितनों की मुहब्बत अपनी मंजिल को पा पाती है या फिर बस यों ही इबारत बन कर ही रह जाती है।

प्रखर पूर्वी को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते उस गलियारे तक पहुंच गए थे।

‘‘तुम यहां ! कहां-कहां नहीं ढूंढ़ा तुम्हें।’’

पूर्वी ने कोई जवाब नहीं दिया और वे दीवारों का सहारा ले कर गलियारे से निकलने लगीं, तो प्रखर ने अपना हाथ बढ़ा दिया। पूर्वी की आंखें मुस्करा दीं, उन मजबूत हाथों के सहारे ही तो जीवन के 30 वसंत पार कर चुकी थीं। उन्हें हमेशा लगता था कि प्यार उनसे रूठा हुआ है, प्रखर का साथ सर्द गुलाबी रातों में पश्मीने की तरह ही तो था। प्रखर ने हमेशा की तरह पूर्वी की साड़ी के आंचल से अपने चश्मे को साफ किया और गुंबद की नक्काशी को देखने लगे।

‘‘अरे पूर्वी देखो तुम्हारा नाम पूर्वी संग पीयूष उन्नीस सौ पच्चासी। वैसे ये पीयूष कौन है?’’

प्रखर की बात सुन पूर्वी का चेहरा लाल और कान गरम हो गए, ‘‘आप भी ना कुछ भी बोलते हैं, सारी दुनिया में एक मैं ही पूर्वी रह गयी हूं। सास-ससुर बन गए हम... कुछ सालों में दादा-दादी भी बन जाएंगे और आप...’’

पूर्वी प्रखर का हाथ छुड़ा कर आगे बढ़ गयीं। एक अनजाने डर ने उन्हें जकड़ लिया, कहीं प्रखर को कुछ... नहीं-नहीं वो दास्तां उनके दिल में कब की दफन हो चुकी है। उस मरी हुई मोहब्बत, उन अरमानों ने आज वर्षों बाद एक बार करवट ली थी। क्या प्रखर ने उनकी चोरी पकड़ ली थी।

‘‘अरे यार, तुम तो नाराज हो गयीं। मैं तो मजाक कर रहा था। अब मान भी जाओ।’’

पूर्वी ने राहत की सांस ली, सामने से महिमा और मयंक चले आ रहे थे। एक साथ दोनों कितने अच्छे लगते थे। बेटियां ही बहुएं बनती हैं। बदलती देहरिया हैं... प्यार लेते-देते कब चुपके से बहुएं बेटियां बन जाती हैं, पता भी नहीं चलता।

नयी नवेली बहू महिमा ने लाड़ से पूर्वी का हाथ पकड़ा, ‘‘मां ! आइए आपको एक चीज दिखाऊं।’’

उस अल्हड़ सी लड़की में ना जाने क्या जादू था, सब बिना सोचे उसके पीछे चलते चले गए। महिमा के हर कदम के साथ पूर्वी के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। महिमा उसी गुंबद के सामने खड़ी थीं, जिससे उनकी यादें जुड़ी थीं। गुंबद के दोनों तरफ संकरा सा गलियारा था, जो झरोखे पर आ कर मिलता था। उन गलियारों को देख ऐसा लगता मानो वे गुंबद से गलबहियां कर रहे हों। महिमा ने पूर्वी का हाथ पकड़ा और गुंबद के बायीं तरफ संकरे गलियारे की तरफ मुड़ गयी। महिमा संग मयंक और एक बड़ा सा दिल दो हजार इक्कीस...

पूर्वी का दिल धक से कर गया।

‘‘मां ! कॉलेज से निकलने के बाद मयंक तो आपके पास वापस आ गए और मैं दिल्ली अपने मम्मी-पापा के पास चली गयी। महीने में एक शनिवार को मैं उससे ऑफिस के बहाने दिल्ली से मिलने आती थी। शादी के पहले एक-दो बार हम यहां आए थे। उस वक्त मयंक ने मुझसे कहा था कि शादी के बाद तुम्हें यहां जरूर ले कर आऊंगा। आप सुबह पापा से कह रही थीं ना कि मयंक से ज्यादा महिमा मां से मिलने को इच्छुक हैं। मैं सिर्फ नानी जी से मिलने नहीं, इस वजह से भी यहां आना चाहती थी।’’

महिमा ने शर्माते हुए मयंक की ओर देखा। मयंक अपनी पोल खुलते देख झेंप सा गया। प्रखर खिलखिला कर हंस पड़े, ‘‘अब समझ आया मयंक हफ्ते में तीन दिन कौन सा ओवरटाइम कर रहा था।’’

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प्रखर की बात सुन सबके चेहरे पर सहज मुस्कान खेल गयी। पूर्वी और प्रखर उसी बेंच पर बैठ गए, जहां वर्षों पहले दुनिया से छिप कर पूर्वी और पीयूष बैठ कर घंटों बातें किया करते थे। पूर्वी ने गुलमोहर की ओर देखा, सूरज की किरणें छन कर आ रही थीं। बेंच पर गुलमोहर के फूल बिखरे हुए थे। उन्हें लगा मानो वे कह रहे हों, ‘देखो, यहां लिखे नाम सिर्फ इबारत बन कर नहीं रह जाते। प्यार समंदर की तरह है। जितना ले कर जाता है, उतना ही वापस भी कर देता है। यह बात अलग है वह प्यार भी हो सकता या फिर सिर्फ इंतजार...’

पीयूष ना सही प्रखर उन्हें प्यार के रूप में मिला था। आज महिमा और मयंक को देख कर उन्हें अपनी प्रेम कहानी याद आ गयी। उन्होंने पीयूष को कभी माफ नहीं किया। पहले प्यार का गम ऐसा ही होता है, जिसे याद कर हमेशा उनकी आंखें पनीली हो जाती थीं, पर आज पीयूष को याद कर उनकी आंखें मुस्करा रही थीं। आज उन्होंने पीयूष को माफ कर दिया था और मन ही मन भगवान से प्रार्थना की कि पीयूष भी उन्हें माफ कर दे, क्योंकि यह लड़ाई उनके अकेली की नहीं थी। उन्होंने भी तो पीयूष से प्यार किया था, फिर अकेला वही दोषी क्यों? पूर्वी मां-बाप की इकलौती बेटी थीं। दो भाइयों की अकेली बहन... सब चाहते थे उनकी शादी पहले हो। पीयूष सबसे बड़ा बेटा था, पिता बचपन में ही गुजर चुके थे। घर की सारी जिम्मेदारी उसके ऊपर थी, दो छोटी बहनें थीं उसकी, अपनी जिम्मेदारियों को पूरा किए बिना वह खुद कैसे शादी कर सकता था। दोनों ही मजबूर थे अपनी परिस्थितियों के आगे... ना पीयूष पूर्वी से कह सका और ना पूर्वी उसे समझ पायीं। पीयूष उनसे समय मांगता रहा और पूर्वी पीयूष से अपना भविष्य, पर...

‘‘मां, चलिए नानी जी इंतजार कर रही होंगी, काफी देर हो गयी है।’’

महिमा ने पूर्वी की तरफ हाथ बढ़ाया। पूर्वी ने महिमा को नजर भर कर देखा, आज वह पहले से ज्यादा सुंदर लग रही थी। आश्चर्य होता था उसे देख कर, दुबली-पतली सी उस लड़की में कितना आत्मविश्वास भरा था। तीन साल तक उसने मयंक की नौकरी लगने का इंतजार किया... क्या उस पर दबाव नहीं था अपने परिवार का, पर वह डटी रही अपने प्यार के लिए, संबल बन कर खड़ी रही अपने प्यार के लिए, इंतज़ार करती रही अपने प्यार के लिए। मयंक टूट रहा था अपनी परिस्थितियों के आगे पर... एक बार तो उसने खुद मयंक को फोन पर रोते हुए देखा था, ‘‘महिमा, तुम शादी कर लो, मेरा क्या पता कब नौकरी लगे... लगेगी भी या नहीं।’’ उधर से महिमा ने क्या कहा वो सुन नहीं पायीं, पर इतना तो जरूर था उसके बाद उन्होंने मयंक को हमेशा मजबूती से खड़े होते देखा। यह उसका विश्वास ही तो था, जो आज उन्हें उनकी मोहब्बत को मंजिल मिल गयी। पूर्वी सोच रही थीं, काश उन्होंने थोड़ी सी हिम्मत दिखायी होती, काश उन्होंने भी थोड़ा इंतजार कर लिया होता, काश उन्होंने भी परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके होते। पूर्वी के दिल का बोझ आज हल्का हो गया था। आज उन्होंने पीयूष को माफ कर दिया था, पर क्या पीयूष ने भी उन्हें माफ कर दिया होगा।