Thursday 25 January 2024 12:09 PM IST : By Vibha Rani

पीली पुस्तक – भाग 2

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संझा दीदी करवट बदल-बदल कर जगी रहतीं। अम्मा कुछ दिनों तक उसके साथ सोयी थीं। फिर संझा दीदी ने ही मना कर दिया था। अम्मा ने भी जोर नहीं दिया। ससुराल वाले दोबारा नहीं आए। जब नाथ ही चला गया, तब उसका पगहा लेने कौन आए और जाए? संझा दीदी घर की परमानेंट मेंबर हो गयीं। उदासी भी उनके चेहरे का परमानेंट भाव हो गया।

नीलाभ पढ़ने के लिए दरभंगा से दिल्ली चला गया। वे हर बार फोन करता, ‘‘दीदिया, तोरा लागी कथी लेले अइयऊ?’’

‘‘कुछो न।’’

‘‘तबो।’’

‘‘कहलियऊ न जे कुछो न चाहीं।’’

घर लौटते, तब नीलाभ जबरन संझा दीदी की गोद में लेट जाते, ‘‘दीदिया ! ऊ सोहर गाबी न?’’

बहुत जिद करने पर संझा दीदी सोहर गा देतीं सपाट स्वर में। गाते समय आंखों से टपटप मेघ झरते रहते। धीरे-धीरे नीलाभ ने गाने की फरमाइश बंद कर दी।

संझा दीदी ने किसी को भी अपने कमरे में घुसने से मना कर दिया था। यहां तक कि वे उसकी साफ-सफाई भी खुद ही करती थीं। उनका बक्सा साड़ियों से अटा पड़ा था। लेकिन वे केवल 3-4 साड़ियां बदल-बदल कर पहनती रहतीं।

फिर संझा दीदी बीमार रहने लगीं। माहवारी में खून तो बहता ही, बीच-बीच में भी स्राव शुरू हो जाता। स्राव के बीच का अंतर कम होने लगा। स्राव की मात्रा बढ़ने लगी। शहर की लेडी डॉक्टर को दिखाया गया। उन्होंने आगे के डॉक्टर को रेफर कर दिया और आने वाली रिपोर्ट से सभी स्तब्ध रह गए।

डॉक्टर ने पूछा, ‘‘इनकी उम्र?’’ फिर खुद ही प्रेसक्रिप्शन पर लिखा देख कर चुप हो गए। बोले, ‘‘आमतौर पर यूटरस का कैंसर मेनोपॉज के बाद या 50 साल की उम्र से शुरू होता है। इतनी कम एज का यह पहला केस मेरे पास आया है। वह भी फोर्थ स्टेज। बेटे, तुम्हें पता कैसे नहीं चला?’’

संझा दीदी चुप ही रहीं। डॉक्टर ने अम्मा से पूछा, ‘‘आपको भी नहीं पता चला? इन्होंने आपको कुछ भी नहीं बताया?’’ आंसू बहाती अम्मा ‘ना’ में सिर डुलाती रहीं।

घर में मातम छा गया। खून बहाते-बहाते संझा दीदी एक दिन रक्त और देह की परिभाषा से अलग हो कर कहीं चली गयीं। नीलाम हतप्रभ रह गया। इतनी जल्दी? ना तो संझा दीदी की उम्र थी जाने की और ना ही नीलाभ की इतना सब कुछ समझ पाने की। एक बार जब सुनील जी के साथ संझा दीदी सिनेमा देखने गयी थीं, जाने क्यों नीलाभ उनके कमरे में चले गए थे। उनके बिस्तर पर लेट गए थे। सिरहाने कुछ चुभा, तो उसे देखने के लिए तकिया उठाया। और तकिए के नीचे जो निकला, उसे देख कर उनकी अपनी ही सांसें ऊपर-नीचे होने लगीं। भले उम्र कम थी, फिर भी इतनी समझदारी तो आ ही गयी थी कि यह किताब सामान्य किताब नहीं है कि उसे सभी के सामने ले कर जाया जा सके, पढ़ा जा सके। नीलाभ की समझ में सब आने लगा। तो इसीलिए संझा दीदी और सुनील जीजा जी अंदर कमरे में बंद हो कर ही-ही, खी-खी करते रहते हैं।

संझा दीदी जिस दिन गयीं, उस दिन उनके कमरे में जाने का किसी को होश नहीं रहा। दूसरे दिन उस कमरे में दिया जलाने के लिए जब अम्मा को उठाया गया, तब जाने क्यों नीलाभ एकदम चौंक पड़ा। जल्दी से कहा, ‘‘अम्मा ! तू हमरा दीया दे दे। हम दीदी के कमरे में रख आते हैं।’’

दीया ले कर नीलाभ कमरे में गए और उसे भीतर से बंद कर लिया। संझा दीदी के 2-3 बक्से थे। उन्होंने एक-एक कर सभी बक्से खोले। सभी में शादी की साड़ियां भरी हुईं। नीलाभ पागलों की तरह सभी साड़ियां बाहर निकालने लगा। हर दूसरी-तीसरी साड़ी के बीच एक किताब रखी हुई थी। लगभग तीस-पैंतीस किताबें ! इन सभी किताबों को देख कर नीलाभ हैरान रह गए। एक बक्से में एक थैला था, जिसमें सुनील जीजा जी की चिट्ठियां भरी हुई थीं। जाने किस चुंबकीय आकर्षण से वे उन सभी चिट्ठियों को निकाल-निकाल कर पढ़ने लगे। प्रेम रस में सराबोर इमरती-जलेबी होती चिट्ठियां ! प्रेम के सभी शास्त्र को धता बताती चिट्ठियां ! दो-चार चिट्ठियों को पढ़ने के बाद नीलाभ ने उन सभी को उसी थैले में फिर से बंद कर दिया। बिस्तर के नीचे भी कई किताबें थीं। एक किताब के भीतर का एक पन्ना मोड़ा हुआ था। मतलब, संझा दीदी इन सबको पढ़ते हुए ही विदा हुई थीं। नीलाभ की आंखों से आंसू बहने लगे। आंसू किताब के खुले पन्ने पर बेतहाशा गिरते रहे। पन्ने गीले हो गए। नीलाभ ने गीले हो आए पन्ने का मोड़ा कोना सीधा किया। लंबी सांस ले कर उसे सूंघा। उसमें संझा दीदी के साथ-साथ सुनील जीजा जी की भी खुशबू भरी हुई थी। फिर सारी किताबें सावधानी से एक जगह समेटीं। चिट्ठियों और किताबों को एक कार्टन में संभाल कर रख दिया और ब्राउन सेलो टेप से उसे खूब अच्छे से पैक कर दिया। दूसरे तकिए के नीचे चॉकलेट के कुछ खाली रैपर थे। एक चॉकलेट नया था। नीलाभ ने उसे खोल लिया और खाने लगा। उन्हें सुनील जीजा जी का मजाक याद आया, ‘‘आरे हमर नन्हकू सरऊ ! जब तुम्हरा बियाह होगा ना तब तुम्हरी स्वीट हार्ट को तुम्हरी दीदी के पास सुलावेंगे और तब पूछेंगे, आब कहो, मन कैसा लग रहा है?’’

किताबों वाले पैक कार्टन को एक बार फिर से अच्छे से देखते हुए नीलाभ ने भीतर से दरवाजा खोला। बाहर की हवा और सूरज की रोशनी दोनों एक साथ अंदर आए। लेकिन उस हवा और रोशनी से नीलाभ का तन-मन नहीं खिला। वे हिलक-हिलक कर रो रहा था। सभी को मालूम था नीलाभ और संझा दीदी का प्रेम ! एक तरह से संझा दीदी ही तो उसकी मां थीं। अम्मा ने तो उन्हें केवल जन्म दिया था। कितना प्यार करती थीं संझा दीदी उन्हें ! हर राखी और भाई दूज में उसके लिए बड़े मन से थाली सजाती थीं। छुटपन में संझा दीदी उसे गुदगुदी करती हुई कहतीं-

अत्ता पत्ता, नीलाभ के पांच गो बेटा,

एगो हाथी पर, एगो घोड़ा पर, एगो साइकल पर,

एगो फटफटिया पर, एगो मोटर पर...

खरवा खाते पनिया पीते, खरवा खाते पनिया पीते,

गुदुर गोइयां, गुदुर गोइयां...

संझा दीदी यह फकरा पढ़ते हुए नीलाभ की कांख में गुदगुदी लगाने लगतीं। नीलाभ को मालूम हो गया था कि कब संझा दीदी कौन सा शब्द उचारेंगी और कब उनके हाथ की दो उंगलियां उनकी कांख तक पहुंचेंगी और कब उनकी उंगलियां उन्हें गुदगुदाना शुरू करेंगी और कब वे खिलखिलाना शुरू करेंगे। दोनों भाई-बहन हंस-हंस कर लोटपोट होते जाते। नीलाभ को इतनी गुदगुदी लगती कि अंत में वे कहने लगते, ‘‘आब नय गे दीदिया, आब नय !’’

नीलाभ कमरे के दरवाजे से बाहर नहीं आ सके। वहीं बैठ गए और फूट-फूट कर रोने लगे। इतना कि अम्मा डर गयीं। बाबू जी बाहर से आए। नीलाभ को जमीन पर से उठाया और कुर्सी पर बिठा दिया। बाबू जी ने सांत्वना का हाथ नीलाभ के माथे पर रखा। नीलाभ फूट पड़े, ‘‘बोले थे आपको कि दीदी की शादी करवा दीजिए। शादी हो गयी रहती, तो आज हमरी संझा दीदी हमरे पास होतीं।’’

बहुत उम्र तो नहीं थी नीलाभ की, लेकिन चुपके से संझा दीदी का इलाज कर रहे डॉक्टर से मिल आए थे। पूछ आए थे, ‘‘क्या-क्या हो सकते हैं कैंसर होने के कारण?’’

‘‘मोटापा, जेनेटिक, मन में कोई गांठ, लाइफ स्टाइल, कोई चिंता या...!’’

‘‘या...?’’

‘‘कई बार...’’

‘‘प्लीज डॉक्टर !’’

डॉक्टर ने नीलाभ की ओर देखा। मूंछों की रेघ आने लगी थी। चेहरे पर किशोर वय के भाव थे, जो वक्त की नजाकत के कारण एक वयस्क के भाव लेने लगे थे। डॉक्टर ने अपनी हिचकिचाहट पर काबू रखते हुए कहा, ‘‘समटाइम्स लैक ऑफ फिजिकल रिलेशनशिप। तुम्हारी दीदी शादीशुदा थीं ना?’’

‘‘जी। विडो।’’

‘‘यस ! आई कैन अंडरस्टैंड।’’ डॉक्टर तो समझ गए थे। घर के लोग नहीं समझ पाए थे।
समय को बीतना होता है, बीत जाता है। नीलाभ अब बड़ा पत्रकार हो गया था। शादी भी हो गयी थी। अब वे दूसरे शहर में रहते थे। उस घर से जाते समय अपने सामान के साथ-साथ संझा दीदी की किताबों और चिट्ठियों वाला कार्टन भी लेते गए थे। किसी को भी उस कार्टन को खोलने की इजाजत नहीं थी। पढ़ाई के लिए जाते समय नीलाभ ने घर में सभी को ताकीद कर दी थी। अब इस घर में भी ब्राउन टेप से पैक वह कार्टन उतनी ही हिफाजत से रहता था। केवल एक बार अनपैक किया था संझा दीदी की कहानी अपनी पत्नी दिशा को सुनाते समय। दिशा ने सारी किताबें देखीं। कुछ चिट्ठियां पढ़ीं भी। नीलाभ के सामने वह शरम से लाल होती रही।

नीलाभ गंभीर बैठे रहे। बोले, ‘‘यह शरम का नहीं, सोच का विषय है। किसी के मन की कामना को समाज की तथाकथित मान्यताओं के ऊपर बलि चढ़ा देना ! यह हत्या है, समाज द्वारा की जाने वाली हत्या, अपने लोगों द्वारा की जाने वाली हत्या ! क्या होता अगर संझा दीदी का ब्याह फिर से करवा दिया जाता? तब शायद उन्हें कैंसर नहीं हुआ होता ! शायद वे बच गयी होतीं। तब शायद वे खुद इन किताबों और चिट्ठियों को नष्ट कर गयी होतीं या शायद इन किताबों से वे अपने जीवन में प्रेम की फूंही बरसाती होतीं। देखो तो दिशा ! सुनील जीजा जी और संझा दीदी का प्रेम अपने लाल-गुलाबी रंगों को छोड़ता हुआ पीले रंग में पहुंच गया था। गौर से देखो इनकी ये चिट्ठियां ! तुम्हें इन पर प्रेम के पीले अक्षत दिखायी देंगे। और ये किताबें तुम्हें पीली पुस्तक नहीं, हल्दी से रंगी दिखेंगी। हल्दी तो शुभ और सेहतमंद होती है ना !’’

नीलाभ ने कार्टन फिर से उसी तरह से पैक कर दिया। दिशा चुपचाप नीलाभ को देख-सुन रही थी। पति को समझने की कोशिश कर रही थी। कुछ समय पहले आयी शर्मिंदगी की लहर अब विचारों के प्रवाह में घुल गयी थी। नीलाभ बोले, ‘‘तुम इन तथाकथित मान्यताओं की बेड़ियों में मत बंधना। कल को अगर मुझे कुछ हो जाए, तो दूसरा ब्याह जरूर कर लेना। और जो हम साथ-साथ रहे और हमारे बच्चे हुए, तो उन्हें शरीर के बाहरी और भीतरी हर अंग-प्रत्यंग की समुचित शिक्षा और सलाह हम दोनों मिल कर देंगे। खुली बातचीत का ऐसा माहौल रखने की कोशिश करेंगे, जहां ना कोई संझा दीदी बने और ना इन पुस्तकों की जरूरत पड़े।’’

बहुत दिनों बाद एक बार फिर से नीलाभ फूट-फूट कर रोया था। दिशा ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया था। नीलाभ को लगा जैसे वे संझा दीदी की गोद में हैं। उसके मुंह से निकला, ‘‘फिर से ऊ सोहर सुनाव न, दीदिया !’’

नीलाभ किसी गहरी झील में चला गया था। झील में एक नाव थी। नाव में संझा दीदी और नीलाभ बैठे हुए थे। नीलाभ के बाल सहलाती संझा दीदी सोहर गा रही थीं- जुग जुग जियसु नीलभवा...

नीलाभ ने आंखें खोलीं। पत्नी के खुले बाल उसके चेहरे पर झूल रहे थे। वह बोले, ‘‘हमारे जब बच्चे होंगे, तब हम यह सोहर गाएंगे अपने बच्चे के लिए। भले मेरा स्वर सुर के बदले रेंकने लगे।’’

दिशा थोड़ा इतरायी, ‘‘तब की तब देखेंगे। अभी तो...! वह गुनगुनाने लगी- तू केयर नी करदां, टाइम स्पेयर न करदां...

नीलाभ के सोहर जुग-जुग जियसु नीलभवा... और दिशा के तू केयर नी करदां... एक-दूसरे के ऊपर ओवरलैप होने लगे और ओवरलैप होने लगे दोनों की सांसों के सुर और सरगम !