Monday 22 January 2024 04:40 PM IST : By Vibha Rani

पीली पुस्तक- भाग 1

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संझा फूल जैसी गुलाबी संझा दीदी किसी रंगहीन, गंधहीन पुष्प की तरह सफेद हो गयी थीं। रंग बदलने में उनका कोई दोष नहीं था। गुलाबी रंग का आलता, गुलाबी रंग की चूड़ी, गुलाबी रंग की ओढ़नी से गुजरते हुए गुलाबी रंग की साड़ी, गुलाबी रंग की लिपस्टिक, गुलाबी रंग की बिंदी- संझा दीदी को अपने हाथों की लंबी, पतली उंगलियों की तरह ही बेहद पसंद थे। उनकी अपनी दुनिया ही गुलाबी थी।

साहित्य में पढ़ा था कि प्रेम होने पर आंखों में गुलाबी डोरे तैरने लगते हैं। बीए पास संझा दीदी अपनी आंखों में भी गुलाबी डोरे खोजने की कोशिश करतीं। और जब कभी कुछ डोरे उन्हें मिल जाते, वे खुशी से गुलाबी गुलाल हो जातीं।

यह संझा दीदी के घर और इस दुनिया की बीसवीं सदी के उत्तरार्ध का जमाना था, जब लड़कियों की पढ़ाई का मतलब अच्छे घर में उनका ब्याह दिया जाना होता था, क्योंकि ये लड़के अब ऊंचे दहेज के संग पढ़ी-लिखी लड़कियों की मांग करने लगे थे।

उनकी अम्मा के समय नदिया के पार से ले कर निकाह, प्रेम रोग, चांदनी फिल्म आदि का जमाना था। अम्मा को फिल्मों से बड़ा लगाव था और इसके लिए वे बाबू जी से लड़ कर भी फिल्म देखने चली जाती थीं। बाबू जी के मना करने पर उनको धमका भी देतीं, ‘बेसी रोकिएगा तो बंबई चले जाएंगे और खुदे माला सिन्हा, मुमताज आ माधुरी दीक्षित बन जाएंगे।’ बाबू जी मुसका कर चले जाते और अम्मा गाने लगतीं, ‘मेरे दर्जी से आज मेरी जंग हो गयी, कल चोली सिलाई आज तंग हो गयी...’

बाबू जी को धमकाने वाली अम्मा दर्जी से सिलाए अनमेल, बेडौल, झोलझाल वाले कपड़े में ही संतुष्ट रहती थीं। ‘एक-दो धुलाई के बाद सब ठीक हो जाता है,’ यह अम्मा का सनातन वाक्य था, जिसे उन्होंने सनातन सच की तरह आत्मसात कर लिया था। अम्मा गजब की संतोषी थीं।

संझा अलग थीं। वे अपने मन की करती थीं। इसीलिए उन्होंने अपना नाम भी बदल कर संध्या से संझा कर लिया था। अम्मा ने कहा, ‘‘शहरी नाम के देहाती कर रहल हते?’’ वे बोलीं, ‘‘पूरा घर त देहातिए रीति-रेवाज से भरल हऊ। पहिले ओकरा खतम कर न !’’

संझा को फिट और चुस्त कपड़े पसंद आते। दर्जी के सिले बेडौल, झोलझाल वाले कपड़े वे गुड़ी-मुड़ी करके फेंक देतीं। अम्मा डांटतीं, तो फिर उसे वे अपने हाथों से सूई-धागा ले कर उसकी मरम्मत या अबकी भाषा में आल्टरेशन करती रहती, तब तक, जब तक कि वे अपनी देह को उसमें फिट कर पा लेने का संतोष ना पा लें। सात झंझट से एक निजात उन्हें यही लगा कि अब वे अपने कपड़े खुद ही सीना सीख लें। दर्जी को कपड़े ना देने से सिलाई के पैसे बच जाते। हालांकि दर्जी को दिए जाने वाले सिलाई के पैसे वे अम्मा से लड़-झगड़ कर ले लेतीं, उसके कभी गोलगप्पे खातीं, तो कभी हॉल में जा कर सिनेमा देख लेतीं। सिनेमा उनकी जिंदगी का एक और गुलाबी पन्ना था, जिसमें श्रीदेवी और माधुरी दीक्षित धक-धक करने लगतीं और वे खुद ‘मैं नागिन तू सपेरा’ की बीन पर अपने आंगन में मां को लोट-लोट कर नागिन डांस दिखाने लगतीं। मां, दीदी, दादी, चाची सब हंसते-हंसते गुलाबी-गुलाबी हो जातीं। संझा दीदी भी गुलाबी होने लगती और अम्मा के हाथ पकड़-पकड़ कर पुराने जमाने के गीत गाने लगतीं, गुलाबी आंखें जो तेरी देखी शराबी यह दिल हो गया, संभालो मुझको ओ मेरे यारों संभलना मुश्किल हो गया...

संभलना सभी के लिए मुश्किल हो गया था। संझा दीदी संग पूरे घर के लिए। लेकिन उसके पहले संझा दीदी के श्याम सलोने सुनील जी के लिए। पता नहीं क्या संयोग था कि सुनील जी को भी गुलाबी रंग बेहद पसंद था और वे भी संझा दीदी के प्रेम के गुलाबी रंग में डूब गए थे।

अब चिट्ठी लिखने का जमाना नहीं था। फिर भी, संझा दीदी ने सुनील जी से गुलाबी और नीले रंग के कागज और लिफाफे मंगवाए थे। आधे सुनील जी ने अपने पास रख लिए थे- ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर कि तुम नाराज न होना... लौटते समय सुनील जी ने गुलाबी और नीले रंग के कागज और लिफाफों के साथ ढेर सारी किताबें भी ला कर दे दी थीं। उस रात कानों में सरगोशी करते हुए सुनील जी बोले थे, ‘‘सुन रानी मेरी रानी..! जब मैं वहां पहुंच जाऊंगा ना, तब हम दोनों रोज एक चिट्ठी एक-दूसरे को लिखेंगे और रोज रात में इस किताब का पाठ करेंगे।’’

‘‘माने?’’

‘‘तुमसे दूर रहेंगे, तो तुम्हारी कमी ऐसे ही पूरा करेंगे ना?’’

संझा दीदी ने किताबें देखनी चाही थीं। सुनील जी ने मना कर दिया था, ‘‘अभी नहीं। मेरे जाने के बाद। और हां, किसी के हाथ में ना पड़नी चाहिए। ना हमारी-तुम्हारी चिट्ठी और ना ही किताब सब ! सावधानी से !’’ सुनील जी की आंखों में शरारत थी और होंठों पर हरसिंगार की खुशबू।

रातभर संझा दीदी सुनील जी की मेरे सपनों की रानी... बनी बौराई फिरी थी। फिर सुनील जी चले गए थे। संझा दी कई दिनों तक उदास, कुम्हलायी फिरती रही थीं। सुनील जी फोन करते, संझा दी का कलेजा मुंह को आ जाता। वे सुबकने लगतीं, फोन पर बतियातीं कम, सुबक-सुबक कर मनुहार करने लगतीं, ‘‘आ जाइए,’’ या ‘‘मुझे भी ले चलिए।’’

‘‘फोन कर रहे हैं। चिट्ठी लिख रहे हैं। समय आने दो। ले कर भी जाएंगे। आखिर तुम हमरी रानी हो, दिल की रानी..!’’ सुनील जी समझाते। संझा दीदी नासमझ बनी रहती।

नीलाभ उस समय छोटा था, लेकिन अपनी संझा दीदी पर दिन-रात मर मिटने वाला। दोनों की उम्र में लगभग 12-13 साल का फासला था। नीलाभ को याद है, उसके गांव की दादी और चाची के भी साथ-साथ बच्चे हुए थे। तब, शायद उम्र का कम होना एक वजह रहती होगी। कम उम्र में मां-बाप की शादी। कम उम्र में ही उनके भी बाल-बच्चों की शादी। इधर उम्र है तो कामना है। कामना है तो प्यार की बयार है, अठखेलियों की फुहार है। यह शायद उस समय की परिपाटी में चल भी जाता था और बधाई हो जैसी फिल्में बनने से बच जाती थीं। भाई-बहनों में बारह, चौदह, सोलह साल का अंतर तब बहुत आम बात थी और इसके लिए ना तो भाई-बहन शरम से डूबते थे और ना ही मां-बाप को कोई संकोच होता था। नीलाभ का परिवार शहर में आ गया था। सोफे-फ्रिज, टीवी बदल गए थे, बात-व्यवहार में कोई खास अंतर ना आया था, अन्यथा संझा दीदी का ब्याह भी बीस की उम्र में ना हो जाता, वह भी आज के जमाने में, शहर में !’’

उम्र के इस फासले पर भाई के बदले अगर बहन बड़ी हो, तो मां का काम बड़ा आसान ! मां का सरोकार सिर्फ बच्चे को दूध पिलाने से रह जाता था। नीलाभ के साथ भी ऐसा ही था। उसकी सारी देखरेख संझा दीदी ही करती थीं। संझा दीदी तो नीलाभ को पा कर जैसे गोधूलि की आभा से भर गयी थीं। वे नीलाभ को नहलाने-धुलाने से ले कर उसके सारे काम करती रहतीं। बचपन में मोहल्ले में सुने हुए सोहर को उन्होंने अपने लिए बदल दिया था- जुग जुग जियसु नीलभवा कि घरवा के भाग जागल हो, मैया गोदिया मे अइल, भैया कि दीदिया के आस जागल हो...

नीलाभ काफी दिनों तक संझा दीदी को ही अपनी मां समझते रहा था। संझा दीदी के ब्याह के समय वे प्रसन्नता के बदले सदमाग्रस्त था कि उसकी दीदी घर छोड़ कर चली जाएगी। वह खूब रोया। दूल्हे के रूप में सुनील जी को देख कर वह उसे विलेन समझने लगा था। सुनील जी ने जब मजाक में नीलाभ को अपनी गोद में खींच लिया था, ‘‘अरे हमरे बाल गोपाल सार, तनी हमरे लग भी आइए।’’ तब भी नीलाभ के चेहरे से क्रोध की ललई नहीं उतरी थी। ढेर सारी आइसक्रीम और चॉकलेट के बाद ही नीलाभ के चेहरे से क्रोध की ललई प्यार की गुलाबी ललई में बदली थी।

शहर में आने के बावजूद गांव से ही प्रेरित रस्मोरिवाज के तहत नीलाभ संझा दीदी की विदाई के बाद एक हफ्ते बाद ही कलेवा ले कर गया था और दीदी को विदा करवा लाया था। संझा दीदी के गुलाबी संझा फूल जैसे चेहरे पर भर मांग पीला सिंदूर लगाए देख उसे बहुत अच्छा लगा था। सुनील जीजा जी ने ढेर सारी चॉकलेट से नीलाभ का बक्सा भर दिया था।

गौने से पहले सुनील जी का संझा दीदी के पास आना-जाना लगा रहा। संझा दीदी और सुनील जी को कमरे में बंद पा नीलाभ गुस्सा जाता। दरवाजा खोलने पर उन दोनों के चेहरे जहां आपसी मेल-मिलाप के पटाखे-फुलझड़ियों से खिले रहते, नीलाभ का चेहरा गेंद की तरह सूजा हुआ रहता, सिर्फ इस बात से कि जीजा जी तो उनके हिस्से की दीदी को अपने साथ बंद किए रहते हैं। फिर तो जीजा जी के आइसक्रीम या चॉकलेट भी उस सूजन को कम नहीं कर पाते थे। सिर्फ संझा दीदी ही उन्हें जब अपने पास बिठातीं, उनके बालों को सोहराते हुए जुग-जुग जियसु... गुनगुनातीं, तब जा कर धीरे-धीरे नीलाभ का गुस्सा कम होता। फिर दोनों मिल कर चॉकलेट खाते और प्लान बनाते कि इसमें से एक टुकड़ा भी जीजा जी को नहीं दिया जाएगा।

सामने जो घट रहा था, उससे इतर कहीं कुछ और घट रहा था, जिसके कारण संझा दीदी के चेहरे की सूरजमुखी चमक घनी अमावस में गुम हो गयी। पूरा घर तूफानी ओले और बादल फाड़ कर बहती धार में डूब गया। कैसे हुआ और क्या हुआ, यह किसी की समझ में नहीं आया, क्योंकि मोटर बाइक एक्सीडेंट ने सुनील जी के पूरे शरीर को पांच फीट दस इंच की लंबाई-चौड़ाई से लोथड़े में बादल दिया था। ट्रक ने पता नहीं किस एंगल से टक्कर मारी थी।

संझा दीदी दरो-दीवार से सिर टकरा-टकरा कर बेहोश हो जा रही थीं। सुबह उनके ताजा खिले गेंदा-गुलाब जैसे चेहरे पर जैसे सदियों के सूखे पड़े फूलों की पत्तियों का पतझड़ आ गया था। बसंत उनके जीवन से गायब हो गया था और उनके कमरे में गुमसुम गंध फैल गयी थी। संझा, अड़हुल, गुलाब सभी रंग उससे रूठ गए थे। संझा दीदी घुटने में सिर घुसाए सारे समय अपने कमरे में बैठी रहतीं- सुबह से शाम तक, शाम से भोर तक।

नीलाभ भी अब शादी और वैधव्य का मतलब समझने लगा था। संझा दीदी को देख उसका कलेजा रोता रहता। एक दिन उसने अम्मा से कहा, ‘‘अम्मा ! संझा दीदी की दूसरी शादी करवा दो ना !’’

अम्मा वहां से चुपचाप लंबी सांस ले कर उठ गयी थीं। अपने कमरे के दरवाजे से बाहर निकलते हुए संझा दीदी ने नीलाभ की बात सुन ली थी। वे चुपचाप अपने कमरे में उल्टे पांव लौट गयी थीं। कमरे की सभी दीवारें दरकने लगी थीं संझा दीदी की हिलती देह और आंसुओं से भीगे चेहरे से।

संझा दीदी अब नीलाभ को अपने साथ नहीं सुलाती थीं। वे अपने कमरे में अकेले सोतीं। नीलाभ बाबू जी के साथ सोने लगा था। एक रात हिम्मत करके बाबू जी से बोले, ‘‘बाबू जी, एक बात कहें?’’

‘‘बोलो,’’ नींद में जाते हुए बाबू जी बोले।

‘‘संझा दीदी की दूसरी शादी कर दीजिए ना !’’

नींद की गोद में जाते हुए बाबू जी जैसे जलते तवे पर बिठा दिए गए थे। वे छटपटा कर उठ बैठे। बत्ती जलायी। नीलाभ का चेहरा देखा, जिस पर अपनी दीदी के वर्तमान और भविष्य की चिंतित रेखाएं दिखायी दे रही थीं।

बाबू जी ने पूछा, ‘‘किसने तुमसे यह कहा?’’

‘‘किसी ने नहीं।’’

‘‘संझा बोली है क्या?’’

‘‘नहीं बाबू जी।’’

‘‘फिर तुम्हारे दिमाग में यह बात कहां से आयी?’’

‘‘संझा दीदी को देख कर। वे सारे समय रोती रहती हैं। उदास रहती हैं। पहले वे कितना हंसती-बोलती थीं। हमरे साथ खेलती-बोलती थीं।’’

‘‘भाग्य ने उसकी हंसी छीन ली, तो हम क्या कर सकते हैं?’’

‘‘दीदी की शादी फिर से करके उनकी हंसी लौटा सकते हैं।’’

‘‘हम लोगों में यह नहीं होता है। आगे से फिर ऐसा मत कहना,’’ बाबू जी करवट बदल कर सो गए। सोए क्या ! जागते रहे। नीलाभ भी दूसरी करवट जाने कब तक जागता रहा।

जारी...