Tuesday 19 November 2024 04:25 PM IST : By Sarojini Nautiyal

बंद दीवारें

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वह आदमी बड़ी देर से दरवाजे पर खड़ा है। उसके हाथ कम से कम दो बार घंटी बजा चुके हैं। खड़े-खड़े वह थकने लगा है। कभी इस पैर पर खड़ा होता, कभी उस पैर पर। आषाढ़ का महीना, उमस से बदन ही नहीं, जी भी हलकान हुआ जा रहा है। इतनी देर में तो कोई भी लौट सकता है। आधा घंटा हो गया होगा, अभी तक खड़ा है। या तो विवशता इतनी बड़ी है या धीरज इतना बलशाली! लेकिन कमलनयन जी अधीर हो उठे। बैठक की खिड़की से रह-रह कर दृष्टि उधर ही चली जा रही है। आखिर कमलनयन जी से रहा नहीं गया। वे बैठक से उठ कर बरामदे में आ गए। आशा की क्षीण से क्षीणतर होती किरणों में ऊर्जा का संचार हुआ। लगभग लपकता हुआ बीच की क्यारी को फांदता वह उन तक आ पहुंचा।

“नमस्कार जी, डॉक्टर साहब होंगे घर में?” कहते हुए भी उसकी नजरें उधर ही देख रही हैं।

“घंटी तो बजायी है तुमने !” कमलनयन जी ने बात उसी पर डाल दी। दरअसल वे आजिज आ गए हैं ऐसे दृश्यों की आवृत्ति से। अपने मकान से लगे हुए छोटे भाई के मकान में फरियादियों की पूछताछ का अनवरत सिलसिला है। पत्नी तो बातों-बातों में देवर को कह चुकी हैं कि देवर जी, आपने अपने तीन-तीन बोर्ड लगाए हैं, एक हमारे मकान के ऊपर भी लगा देना था- पूछताछ केंद्र।

“जी, दो-तीन बार बजा चुका हूं... बस इतना बता दीजिए कि डॉक्टर साहब घर पर हैं ? बड़ी दूर से आया हूं,” कहते-कहते उसका स्वर कातर हो उठा।

कमलनयन जी ने भाई को फोन लगाया, “भई, कहां हो तुम लोग? मरीज कब से दरवाजे पर खड़ा राह देख रहा है।”

“भाई साहब, मैं और सुनीता यहां डॉ. पुनीत के घर में हैं... उनकी माता जी सुबह गुजर गयीं।”

“घर में कोई नहीं है ? मोना भी तुम्हारे साथ है?”

“केवल मोना है घर में।”

अजीब बात है ! तीस वर्षीया कैट की तैयारी कर रही बेटी कॉलबेल को अटेंड नहीं कर पा रही ! बाहर आदमी पसीने-पसीने हुआ जा रहा है। हैरान-परेशान हो कर इधर-उधर देख रहा है। कोई नजर नहीं आ रहा। कोई नोटिस बोर्ड नहीं... बैठने की भी कोई व्यवस्था नहीं। कमलनयन जी मन ही मन झुंझला उठे।

“भई, डॉक्टर साहब घर पर नहीं हैं। आने का भी कुछ निश्चित नहीं... बड़ी देर से धूप में खड़े हो, पानी पी जाओ,” कह कर कमलनयन जी ने आगंतुक से परिचित बने उस आदमी से कहा। नैराश्य से बुझी आंखों में जो आशा की चमक झलकी थी, वह तुरंत तिरोहित हो गयी।

कमलनयन जी का मन खिन्न हो जाता है, अपने छोटे डॉक्टर भाई के दरवाजे से फरियादियों, जिनमें अधिकतर हारी-बीमारी से कुम्हलाए मरीज होते हैं, के यों अनुत्तरित लौट जाने से। लेकिन आज उनकी चिंता का कारण भाई का अपने पेशे, कर्तव्य कहना अधिक सही होगा, को ले कर ऐसा ढीला-ढाला रवैया नहीं है, बल्कि उसकी एमबीए की तैयारी कर रही बेटी मोना की घर में ही गुमशुदगी है।

बगल में रह रहे कमलनयन जी नहीं जान पाते वह कहां है, क्या कर रही है। पूछने पर इतना ही पता चलता है कि कॉम्पीटिशन की तैयारी कर रही है। पिछले कुछ वर्षों से यही सुनने में आ रहा है कि मोना कैट की परीक्षा में बैठ रही है। इससे पहले आईएएस भी आजमा चुकी है। दिल्ली गयी थी कोचिंग लेने। दिल्ली विश्वविद्यालय से एमकॉम करने वाली मोना पढ़ने में इतनी गयी-गुजरी नहीं है कि किसी सम्मानजनक नौकरी का सपना ना पाल सके। लेकिन उसकी महत्वाकांक्षा उसकी अपनी योग्यता को पहचानना ही नहीं चाहती। उसे आईएएस, आईपीएस से नीचे देखने ही नहीं दे रही। एक बार कमलनयन जी ने उसे बीएड करने का मशविरा दे दिया था। वह तो बुरा मान गयी। ताऊ जी ने उसका अपमान कर दिया हो जैसे। मोना का चेहरा देख कर ताई जी ने भी ताऊ जी को झिड़क दिया था। ताई जी ने आननफानन में ताऊ जी की खबर ले ली, ‘‘क्या बात करते हैं आप भी? आपको तो लड़कियों के लिए बीटीसी-बीएड को छोड़ कुछ सूझता ही नहीं। आज लड़कियां कहां नहीं हैं... हमारी मोना आईएएस में निकलेगी। बच्चों का हौसला नहीं तोड़ना चाहिए।’’

कमलनयन जी अपनी श्रीमती जी की मजबूरी समझ रहे थे। वे खिसिया गए। बस इतना कह पाए, “भई, मैं प्रयास छोड़ने को नहीं कह रहा। मैं तो अपने पंखों की कूवत को जांच-परख कर उड़ान भरने को कह रहा हूं।”

उस मौके पर सम्मानजनक तो यह भी ना था। पर ताऊ जी तो बोल चुके थे। यह कोई नयी बात नहीं थी। सुख-सुविधाओं के बढ़ते ग्राफ और परिवार के सिकुड़ते आकार के वर्तमान परिदृश्य में आजकल के बच्चों के तेवरों के सामने घर के बड़े भीगी बिल्ली बने रहते हैं। वे परसा हुआ खा लें, अहोभाग्य। लाया हुआ उपहार स्वीकार कर लें, धन्यभाग। मेज पर धरी प्लेट के कटे फल घंटों प्रतीक्षा के उपरांत अंततः डस्टबिन में जाते हैं या फिर मां के उदर में।

लेकिन ताऊ जी स्वयं को परिवार का मुखिया मानते हैं। उन्होंने जरा भी नरमी नहीं बरती। कहने की जरूरत समझी और मोना को बता दिया। इसका कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ा, ऐसा कहना मुश्किल है। लेकिन, तब से मोना ने ताऊ जी के सामने पड़ना कम कर दिया। ताऊ जी ने भी इस विषय पर बोलना कम कर दिया। यह नहीं कि झिझक गए, बल्कि इसलिए कि इतनी गंभीर प्रतियोगी परीक्षाओं के परिप्रेक्ष्य में बच्चे या मां-बाप को बार-बार कुरेदना शोभा नहीं देता। जब निकलेगी तो सारे शहर को पता चलेगा। कमलनयन जी ने भी चुपचाप प्रतीक्षा करना उचित समझा। साल दर साल गुजरते गए। अखबार में टॉपर्स की रैंक और अंक देख कर वे जरूर विचलित होते, मगर घर-परिसर में पसरे सन्नाटे से पूछने को कुछ रहता नहीं उनके पास।
ढाई-तीन साल गुजर गए। बात आईएएस से कैट पर आ गयी। मोना क्या कर रही है, इस प्रश्न का जवाब सिविल सर्विसेज की तैयारी से कैट की तैयारी हो गया। खैर, यह सवाल नाते-रिश्तेदार या जान-पहचान वाले जो छठी-छमाही मिल पाते हैं, पूछते हैं। घरवालों ने तो खुद पर सेंसर लगाया हुआ है। वे तो भूल कर भी होंठों पर तो दूर, आंखों पर भी नहीं आने देते इस सवाल को। मिलने पर सब किस्म की बात होती हैं, मगर मोना क्या कर रही है, मजाल है इस पर कोई चूं कर दे। ताऊ जी को ताई जी कंट्रोल करके रखतीं। ताई जी ने तो फुसफुसा कर यह भी कह दिया था कि मोना को बीएड की सलाह देना, मोना तो मोना, सूरज और सुनीता को भी अच्छा नहीं लगा था।

लेकिन एक दिन भाई के साथ बैठे सूरज ने जब यह कहा, “भाई साहब, मोना के लिए कमरा देख रहा हूं। नजदीक ही मिल जाता तो ठीक था,” तो कमलनयन जी चौंक गए।

पहले तो कमलनयन जी समझे नहीं। उनके मुंह से बस इतना निकला, “क्या?”

“भाई साहब, यहां घर में मोना की ढंग से तैयारी नहीं हो पा रही। वह तो बहुत पहले से कह रही है। मगर अब मुझे भी लगता है कि उसके लिए कहीं कमरा देख लूं... एक-दो जगह देखा भी है, लेकिन जंचा नहीं...।”

“क्या? कमरा? इतने बड़े भवन में उसके लिए कमरों की क्या कोई कमी है ! कैसी बातें करते हो... दिमाग फिर गया...!” कमलनयन जी वे इससे पहले भी छोटे भाई को दो-एक मौकों पर ‘दिमाग फिर गया है क्या’ कह चुके हैं।
डॉक्टरी पेशे को देखते हुए पिता जी की इच्छानुसार मकान सूरज को दे दिया गया। जमीन बराबर बंटी। पिता को अपने सारे बच्चे समान रूप से प्रिय होते हैं। लेकिन, अवदान के समय तराजू का पलड़ा कमजोर संतान की ओर झुक जाता है। सूरज को कमजोर मानने का वैसे तो कोई आधार नहीं था। वह मेडिकल की कठिन परीक्षा में तब निकला था, जब आज की तरह कुकरमुत्तों के समान कोचिंग सेंटर नहीं खुले थे। उसने मेहनत की और दूसरे प्रयास में निकल गया। मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिला। कोर्स पूरा किया और सरकारी सेवा में आ गया। लेकिन जाने क्यों पिता जी को यह लगता रहा कि वे अपने होनहार पुत्र को डॉक्टरी की आगे की पढ़ाई के लिए उसके दोस्त की तरह लंदन नहीं भेज पाए।

समय बड़ी तेजी से बदल रहा था। उत्तराखंड बनने से देहरादून राजधानी क्या बनी, यहां स्कूल और नर्सिंग होम पैसा उगलने वाले उद्योग बन गए। जमीन के दाम आसमान छूने लगे। सूरज के कुछ दोस्तों को बाप-दादा के धनाढ्य होने का फायदा मिला। उनके भी नर्सिंग होम खुल गए। पिता जी को फिर लगने लगा कि काश हम में भी ऐसा दम होता, तो सूरज का नर्सिंग होम खुलवा देते। ‘मैंने भी समय रहते पांच-दस बीघा जमीन खरीद ली होती, तो आज मेरे सूरज का भी नर्सिंग होम होता,’ अकसर वे कहा करते। इन्हीं बातों से उनका यह मनोविज्ञान बन गया कि सूरज कमजोर है। और इसके लिए दोषी वे हैं। अपने साधनों में सूरज को जितना मजबूत बना सकते थे, वह सब उन्होंने किया। शादी भी डॉक्टर लड़की से कराना चाहते थे। लेकिन, सूरज ने अपने बचपन के प्रेम को तरजीह दी और पहले वाले पड़ोस की सुनीता बहू बन कर हमारे घर आ गयी। तब से पिता जी ने नर्सिंग होम का राग अलापना बंद कर दिया और मरने से पहले अपनी डेढ़ बीघा जमीन अपने दोनों बेटों में आधा-आधा बांट दी।

रिटायरमेंट के बाद कमलनयन जी ने अपने हिस्से की जमीन पर तबियत से नए ढंग के नाजो-नखरे वाला एक खूबसूरत मकान बनाया। बच्चों की जिम्मेदारी से लगभग निवृत्त सुख-चैन से जीवन की नयी पारी खेलने लगे। शहर में सक्रिय दो-एक सांस्कृतिक संगठनों के सदस्य बन गए। बाकी घर में बागवानी का जिम्मा उन्होंने ही उठा रखा है। इन्हीं कामों के इर्दगिर्द घूमती कमलनयन जी की दिनचर्या से उनके स्वस्थ तन-मन का पता चल जाता है। वे संतुष्ट हैं, प्रसन्नचित्त हैं। बस बगल में भाई की कई बातों से उनकी सहमति नहीं बन पाती। अब यही बात देख लो कि 5 कमरों के मकान में बेटी के पढ़ने के लिए कोई कमरा नहीं है ! उसके लिए बाहर हॉस्टल में कमरे की खोज करनी पड़ रही है। गोया हॉस्टल में होने पर ही सफलता की गारंटी है।

मकान दुमंजिला है। सभी ने यही सोचा कि जब तक सूरज शहर में कहीं नर्सिंग होम खोलेगा, तब तक यहीं प्रैक्टिस करके हिम्मत जुटा ले। उसने खोला भी। नीचे क्लीनिक खुली, परिवार ऊपर शिफ्ट हो गया। दो-तीन बोर्ड लग गए। दो अटेंडेंटों की भी तैनाती हो गयी। मगर धीरे-धीरे सब पूर्ववत हो गया। यानी क्लीनिक का हिस्सा फिर से रिहायश बन गया। क्लीनिक का सामान इधर-उधर नर्सिंग होमों में रख दिया गया। अटेंडेंटों को भी विदा कर दिया गया। क्लीनिक बंद होने का कारण मरीजों की दुर्लभता या न्यूनता नहीं थी। हाईवे का मकान है। चलती सड़क। खूब मरीज आते थे। बात यह थी कि डॉक्टर साहब बंधना नहीं चाहते। उनको इधर-उधर जाना होता है। सो वे जाते रहते हैं। मरीज इंतजार करते। फिर थक-हार कर चले जाते। अब तो दो साल हो गए क्लीनिक बंद हुए, मरीज अभी भी टपक जाते हैं।

पांच कमरों के मकान में मोना के लिए पढ़ने का कमरा नहीं निकल पा रहा ! कमलनयन जी चौंक गए। उनको तो पिछली दफे के आईएएस टॉपर की अखबार में छपी उस भेंटवार्ता के अंश स्मरण हो आए, जिसमें उसने बताया था कि किस प्रकार उसने बिना प्लास्टर के एक कमरे के मकान में पढ़ाई की।

“कमरों की क्या कमी है। कमरे ही कमरे हैं,” प्रकट रूप से तो कमलनयन जी ने यही कहा पर मन कर रहा था, बोल दें- नाच ना जाने आंगन टेढ़ा।

“भाई, जब वह कह रही है, तो कोई बात तो होगी। एक तो मेहमानों का कुछ ज्यादा ही आना-जाना है हमारे यहां,” सूरज ने सफाई दी।

आए दिन मेहमानों की होने वाली गहमागहमी से बगल में रहने वाले कमलनयन जी कैसे अनजान हो सकते हैं ! देर रात तक चलती पार्टियों से उनको कितनी कोफ्त होती है, वे अपनी श्रीमती जी पर जाहिर करते रहते हैं। अब भाई से क्या कहें ! प्रौढ़ हो गया है। फिर, छोटा भाई है, छोटा बच्चा नहीं। श्रीमती जी ने भी आचार संहिता लगा रखी हैÑखबरदार, कुछ कहा। उसकी जिंदगी है। समझाने की उम्र नहीं उसकी... जितनी इज्जत मिलती, वह भी गवां दोगे। बड़बड़ाते-बड़बड़ाते श्रीमती जी जब यह कह देती हैं, ‘सुनीता आपके लिए चिकन रख गयी है, गरम है, खा लीजिए...’’ तब तो रोष की फड़कती ज्वाला बेदम हो जाती और रौद्र रस करुण रस में परिवर्तित हो जाता। ‘ये बेटी को पढ़ने नहीं देंगे,’ स्वयं से कहते हुए वे हाथ धोने चले जाते हैं।

“ठीक है। खाने की व्यवस्था क्या होगी?” कमलनयन जी ने हथियार डाल दिए।

“वीमेंस हॉस्टल है, मेस है। खुद बनाना चाहो तो इसकी भी व्यवस्था है।”

कमलनयन जी को केवल मोना की पढ़ाई की फिक्र हो रही थी, ऐसा नहीं था। पिछले जन्मदिन पर मोना मम्मी-पापा के बहुत कहने पर कुछ मिनटों के लिए प्रकट हुई। बस केक काटा और अदृश्य हो गयी। मौके पर घर के 4 प्राणी ही थे, लिहाजा उन्होंने पूछ लिया, “कितने साल की हो गयी मोना?” सुनीता ने तो गोलमोल जवाब दिया था। लेकिन सूरज ने बता दिया- 30 कंप्लीट कर लिए। तबसे उन्हें उसके विवाह की भी चिंता होने लगी है।

“अरे भई, कोई अच्छा घर-वर देखो,” कहा था उन्होंने।

“भाई साहब, जरा हल्के बोलिए, वह सुनेगी तो गुस्सा हो जाएगी। फिर दरवाजा नहीं खोलेगी,” सुनीता दबे स्वर में बोली।

“हर बात का एक समय होता है,” कह कर कमलनयन जी ने अपनी बात पर विराम लगा दिया। हालांकि वे जानते थे कि इस प्रसंग का अंतिम दृश्य बाकी है। अभी घर में श्रीमती जी खबर लेंगी उनकी।

बहरहाल मोना अपना बोरिया-बिस्तर ले कर शहर के एक नामचीन हॉस्टल में चली गयी। सूई से सब्बल तक सब छोटी-बड़ी चीजें उसके सामान में रखी गयीं। सिक्योरिटी सहित दो माह का किराया, कुल 50 हजार रुपए सूरज ने जमा कर दिए। बाकी 12 हजार महीने-महीने जमा करना होगा, एडवांस। वैसे तो सब ठीक है, मगर रूम शेअर करना है एक लड़की के साथ। यही बात तो कमलनयन जी हजम नहीं कर पा रहे हैं। जो मोना घर में किसी को अपने कमरे में झांकने नहीं देती, उसके टॉयलेट में कोई जा नहीं सकता, वह वहां हॉस्टल में किसी से रूम शेअर कैसे कर लेगी !

“भाई, अब उसकी यही मर्जी है, हम क्या कर सकते हैं। वैसे भाई, बच्चे अकेले में ज्यादा अच्छा कर लेते हैं। जहां तक रूम शेअर करने की बात है, वह तो मेडिकल में मैंने भी किया,” सूरज ने औचित्य बताने का प्रयास किया। कमलनयन जी को जाने क्यों लगने लगा कि मर्जी केवल बेटी की है, ऐसा नहीं है। माता-पिता भी इसी में उसका हित देख रहे हैं। अरे, जो मर्जी है, वो करो। मगर मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल की तुलना इन प्राइवेट हॉस्टलों से तो मत करो ! वे भड़क गए, “अरे, अपनी बात छोड़ दे सूरज। तू तो ढाई कमरों के किराए के मकान में 5 भाई-बहनों के बीच पढ़ कर फर्स्ट आ जाता था। कॉम्पीटिशन की तैयारी भी तूने छत में बैठ कर ली। तू अपनी बात तो मत कर। यह बता, उसके खाने-पीने का इंतजाम तो ठीक है ना। यहां तो मां खाने की प्लेट ले कर उसको आवाज देती रहती है...।”

“हां, इंतजाम तो सब ठीक है। मेस है, लेकिन अधिकतर लड़कियां वहां अपना खाना खुद बनाती हैं।”

सूरज का हर अगला खुलासा ताऊ जी को और असहज कर रहा था। उनके लिए कठिन हो रहा था इस बात को स्वीकार करना कि अपने बड़े से मकान में इतने नखरों के साथ परीक्षा की तैयारी करने वाली मोना हॉस्टल के नियम-कायदों में बेहतर कर पाएगी!

“चलो, ठीक है। आजकल बच्चे शायद ऐसा ही सोचते हैं। शहर में ही है, परेशानी की बात भी क्या है !” कमलनयन जी भाई से ज्यादा खुद को समझा रहे थे।

कुछ दिनों तक सूरज और सुनीता की भागमभाग रही। हॉस्टल से जब-तब मोना का किसी ना किसी चीज के लिए फोन आ जाता। होता ही है। कितनी ही तैयारी से जाओ, पर नयी जगह में रहने पर ही पता चलता है कि आटे-दाल का भाव क्या है !

खैर, बीच-बीच में मोना का घर का चक्कर लग जाता। पिछली दफे वह गंदे कपड़ों का ढेर ले कर आयी थी, मशीन में धोने। जब भी आती, सुनीता एक-दो टाइम का खाना पका कर थमा देती। जो मोना घर में इतनी बार पुकार लगने पर भी मुश्किल से डाइनिंग टेबल पर आती थी, खाना पड़ा ही रह जाता था मेज पर, वह 5 किलोमीटर दूर से आ कर दो-तीन वक्त का खाना ढो कर ले जा रही है। कभी-कभी सुनीता को भी जाना पड़ता है, कभी खाना ले कर, कभी धुले प्रेस हुए कपड़ों का गट्ठर ले कर। ताऊ जी का असंतोष बढ़ता जा रहा था। एक दिन उनसे नहीं रहा गया। सूरज से पूछ लिया एक दिन, “क्या कुछ दिक्कत है हॉस्टल में? मोना की तो भागदौड़ ही है तब से।”

“भाई, छोटा है हॉस्टल। हर कमरे में दो लड़कियां। छोटी सी एक यूटिलिटी और एक अदद टॉयलेट। छह जनों के बीच एक वॉशिंग मशीन और चार जनों के लिए एक फ्रिज। पानी की भी किल्लत है। मोना तो कभी-कभी नहाने भी घर आती है...।”

“अरे, इतनी दिक्कत है तो घर आ जाए। इससे तो उस पर प्रेशर पड़ रहा है। आजकल कमजोर लग रही है...।”

“मैंने तो उसे हॉस्टल बदलने को कह दिया, जहां सेपरेट रूम हो, पूरा सेटअप अपना नो शेअरिंग। दरअसल, मोना को तो बहुत सफाई से रहने की आदत है। साथ वाली लड़की बड़ी क्लमजी है। किचन गंदा छोड़ देती है। दो-एक बार तो मोना की लड़ाई भी हो गयी है उससे... ।”

‘भई, जरूरत क्या है ऐसे में हॉस्टल में रहने की,” कमलनयन जी बौखला गए।

‘भाई, मैंने दूसरा हॉस्टल देख लिया है। थोड़ा महंगा जरूर है, मगर अच्छा है। बस थोड़ा दूर है। पर कोई बात नहीं। लोग तो कहां-कहां से आते हैं ! अगले महीने मोना वहां शिफ्ट हो जाएगी। नोटिस तो दे दिया है। छोड़ने का नोटिस देना पड़ता है, नहीं तो सिक्योरिटी अमाउंट वापस नहीं मिलता,” कह कर सूरज ने सब समझा दिया।

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कमलनयन जी कुछ नहीं बोले। उनको सब कुछ धारा के विपरीत जाता दिखायी दे रहा था। एकाएक उन्हें एक बहुत पुरानी घटना स्मरण हो आयी। बनारस के घाट की बात है। तब वे बमुश्किल तेरह-चौदह साल के रहे होंगे। बाकी तीन उनसे छोटे और छुटकी तो तब तक पैदा ही नहीं हुई थी। शायद कोई पर्व था। मां सब बच्चों को गंगा स्नान के लिए गंगा तट पर ले गयी। सबने स्नान किया। बच्चों को किनारे एक चबूतरे पर बैठा कर मां अपनी धोती छालने नदी में गयी। जैसे ही मां ने छींट की वह धोती पानी में फैलायी, मां के हाथ से धोती छूट गयी। फैली धोती वेग के साथ आगे बहने लगी। मां पकड़ने के लिए पानी में आगे-आगे बढ़ने लगी। मां के हाथ की उंगलियों में धोती का सिरा आते-आते रह जाता। मां और आगे बढ़ जाती। लेकिन मां के हाथ और धोती के छोर के बीच का अंतर बढ़ता गया। इधर पानी मां की कमर से छाती तक आ गया। किनारे पर खड़े वे चारों चिल्लाने लगे। ऐन वक्त पर एक युवक ने छलांग लगा कर मां को रोका। धोती चली गयी।

यहां भी वे जितना बात को पकड़ने की कोशिश करते, बात आगे निकल जाती। उनके और सूरज की समझ का फर्क बढ़ता जाता। बहरहाल, महीना पूरा होते-होते मोना दूसरे हॉस्टल में चली गयी। हफ्ता-एक दिन सूरज और सुनीता की फिर भागदौड़ हुई। इस बार कमलनयन जी का मन इतना खिन्न था कि उन्होंने मोना से ढंग से बात भी नहीं की। समय बीतता गया, हलचल भी कम हो गयी। फिर सब थम गया। तब से मोना दिखायी नहीं दी। हॉस्टल दूर भी है।

‘मैं ख्वाहमख्वाह घबरा रहा था... मोना को कम आंक रहा था। हो तो गयी वह एडजस्ट अपने नए माहौल में। असल में हम, पुराने जमाने के लोग, आजकल के बच्चों को समझते ही नहीं,’ सोच-सोच कर कमलनयन जी आत्मविश्लेषण से आत्मालोचना पर उतर आते। मोना भले ही बहुत अधिक दिखायी नहीं देती थी, फिर भी ‘ताऊ जी-ताऊ जी’ कहते कभी-कभी अपने कोटर से बाहर फुदक ही जाती थी। ताऊ जी को दुनिया-जहान की कई नयी बातें मोना से ही पता चलतीं। मोबाइल का ट्यूशन तो उन्होंने एक तरह से मोना से ही लिया। जब भी वे अटकते, मोना की जादुई उंगलियां बिना देर किए हर गड़बड़ी को ठीक कर देतीं। मोबाइल के प्रयोग में ताऊ जी के अनाड़ीपन से वह तंग नहीं होती, मजे लेती और ठीक कर के ‘ये लीजिए ताऊ जी, अब नहीं होगी आपको दिक्कत,’ कहती मोबाइल ताऊ जी को पकड़ा देती। मगर, अब तो सन्नाटा व्याप्त हो गया है। कमलनयन जी को ऐसा लगने लगा जैसे मोना नहीं गयी, घर की आत्मा निकल गयी। चारदीवारी के अंदर चार वरिष्ठ नागरिक रह गए। उनको घर से ज्यादा वृद्धाश्रम लगने लगा अपना परिसर।

जैसे-जैसे दिन और आगे खिसके, ताऊ जी की आत्मालोचना आत्मप्रताड़ना में रूपांतरित हो गयी। “कहां है उसका हॉस्टल? चलते हैं जरा मोना से मिल लेते हैं। देख आते हैं उसकी तैयारी। ऐसा करना, थोड़ा कुछ रख लेना... जो उसे पसंद हो,” आखिर एक दिन वे श्रीमती जी से कह उठे।

“कहीं जाने की जरूरत नहीं, जो देना चाहते हो, यहीं दे दो।”

“अरे नहीं, इतनी बेरुखी अच्छी बात नहीं। सोचती होगी, ताऊ जी उसकी किसी बात को एप्रीशिएट नहीं करते। जिस दिन जा रही थी, उस दिन भी मैंने कोई बहुत अच्छे शब्द नहीं कहे थे...।’’

“हां, आपने कहा था, चल, इसे भी आजमा ले,” श्रीमती जी ने जले पर नमक छिड़का।

“हां, मैंने उसके दिल को ठेस पहुंचायी। मैं सॉरी कहूंगा मिलने पर,” कमलनयन जी को पश्चात्ताप होने लगा।

“आजमा लिया उसने... अब सॉरी कहने के लिए किसी हॉस्टल जाने की जरूरत नहीं है। यहीं चले जाओ, सूरज के घर...।”

“क्या, मोना कहां है?”

“घर में। अब तो हफ्ता दिन हो गए।”

कमलनयन जी को धक्का लगा। हॉस्टल से मोना का एकाएक घर आ जाना भी उनको कोई अच्छी बात नहीं लगी। एक दर्द के साथ उनके मुख से निकला, “ऐसी अस्थिरता में क्या तैयारी होगी !”

“आसान है कोई अपने बूते पर रहना। फिर, बाहर का माहौल... कुछ लड़कियां नशा करती हैं... ड्रग का भी चक्कर है... कुछ ऐसा कह रही थी। अच्छा है जल्दी समझ में आ गया।”

“हां... समझ में आ गया... डेढ़ लाख खर्च करके...”

कमलनयन जी हतप्रभ थे। इसलिए नहीं कि हफ्ता गुजर गया, मोना ने शक्ल नहीं दिखायी, ताऊ जी को प्रणाम करने नहीं आयी। बल्कि इसलिए कि क्या उसका मन इतना मायूस हो गया कि वह कुछ भी साझा नहीं करना चाहती। कहीं आकांक्षा योग्यता से बहुत ज्यादा तो नहीं हो गयी ! उसके अपने उसे राह दिखाने में चूक तो नहीं गए ! वह आ गयी और ताऊ जी को पता तक नहीं चला ! वह बंद दीवारों में गुम हो गयी !