Wednesday 06 October 2021 12:21 PM IST : By Dr. Neerja Srivastava Neeru

मुंसिफ अनुजा

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‘‘सुनायी नहीं दे रहा था, बहरी हो क्या...खोलो पूरा खोल दरवाजा... अरे इतने में ये शो केस घुसेगा क्या... पूरा खोलो अकल की औंधी...’’ आलोक दरवाजे पर पत्नी अनुजा को देख कर जोरों से चीखा था। इससे पहले पत्नी अनुजा कुछ करती, उसने उसे कोहनी से परे धकेला और दूसरी तरफ से भार उठाए दांत दिखाते हुए टैंपो ड्राइवर और एक मजदूर के साथ अंदर घुसने लगा। अनुजा दरवाजे के पीछे हो ली थी। 

ड्रॉइंगरूम में फिर वही एक तीसरी अलमारी कट ग्लास सजाने के लिए, वही महंगे डिजाइनर बरतन, परफ्यूम, वही गणेश-राम-कृष्ण-बुद्ध की ग्लास, स्टोन व ब्रास की महंगी-महंगी मूर्तियां, दूसरी ओर सजे शराब के ग्लासेस... घर की और जरूरतें दरकिनार... ये अजीब खब्त, फितूर है आलोक की, हर साल नयी बड़ी गाड़ी खरीदने के अलावा... कुछ बोलभर दूं, तो आसमान सिर पर उठा लेगा कि मेरी मर्जी, मेरे शौक, सब क्या तुम लोगों पर ही लुटा दूं? फ्यूचर की जरूरतों की इतनी ही परवाह है, तो खुद क्यों नहीं रुपयों के लिए कुछ ढंग का काम कर लेतीं...। उसके पचासों बार बोले ये शब्द अपने आप ही मस्तिष्क में गूंजने लगे...। 

‘‘समय पर तुमने भी क्यों नहीं मुझे मेरी न्यायसेवा करने दी, साफ मना कर दिया। जब पढ़ाई ताजा थी और मेरा उत्साह, क्षमता अपने शिखर पर थे, अच्छा-खासा पीसीएसजे में सलेक्शन हो गया था, तब तुमने फैमिली बढ़ाना, पालना क्यों अनिवार्य कर दिया। बड़ों के बहाने अपनी भी इच्छा थोप दी। और अब किस मुंह से ताने मारते हो...।’’

सारा कमरा उलट-पलट करके उस लंबे-चौड़े शो केस की स्पेस बनायी जा रही थी। बेटी चेरी को पिछले वर्ष सालगिरह पर अपने हाथों से बना कर दी गयी सुनहरे बालों वाली बड़ी सी गुडि़या, लैंडस्केप पेंटिंग दीवार से उतार कर एक ओर फेंक दी गयीं। 

‘‘अक्ल के अंधे हो क्या पापा, मेरी प्यारी गुडि़या यहां पटक दी,’’ 10-11 साल की चेरी सोते से उठ कर जाने कब वहां आ पहुंची थी। आलोक की तरह ही उसने चीखते हुए कहा और रूठ कर बैठ गयी।

‘‘ऐसे नहीं बोलते किसी को... एटिकेट्स नहीं है? कितनी बार मना किया है बदतमीजी से बोलने को...’’ अनुजा ने डांटा था। 

‘‘फिर पापा को क्यों नहीं बोलतीं आप,’’ चेरी जवाब के लिए आश्चर्य से उसका चेहरा पढ़ने लगी। क्या बताए अनुजा उसे कि उसके दादा-दादी की अकेली संतान थे तेरे पापा, उनके लाड़-प्यार ने बिगाड़ डाला होगा शायद।

‘‘मेरी डॉल रूठेगी मुझसे, वह भी इस सस्ती सी डॉल के लिए? ये ले पकड़ 500 रुपए, मम्मी के साथ जा कर अच्छी वाली ले आना।’’ 

यही सब बातें तो अनुजा को गले के नीचे उतारनी कठिन होतीं, ‘प्यार की कोई कद्र ही नहीं है यहां पर... सब कुछ वापस ठीक से लगाने के बजाय... और ये 3 जोड़ी जूतों के साथ आयी मिट्टी-कीचड़ से कार्पेट पर पड़े निशान... जूते बाहर झाड़े, उतारे जा सकते थे... कुछ बोलो तो कार्पेट ही नयी आ जाएगी, पर साफ नहीं रखी जा सकती।’ 

‘जब छोटी सी थी तब से ही किसी को गंदगी फैलाते देखती उसी से साफ करवा कर दम लेती। कुछ भी सामने गलत होता देखती, झट सजा या इनाम का फैसला सुना देती। जज और मुजरिम का खेल खेलना बचपन से ही उसे बहुत पसंद था। लोग मुस्करा कर मान भी लेते। पापा-मां के सभी दोस्त, जान-पहचान वाले उसे मुंसिफ अनुजा कह कर छेड़ते और यहां समर्पित हाउसवाइफ होने के कारण मुलजिम के कटघरे ही में रहती, सारी सजाएं तो जैसे उसके लिए ही थीं।

‘‘अब खड़ी-खड़ी मुंह क्या ताक रही हो, बहुत कानून पढ़ा है, पर अकल है तुम्हारे पास... थक कर दूर से कब से आया हूं। दो-तीन कप चाय बना कर लाओ ... समझ नहीं आ रहा अपने से,’’ आलोक अनुजा की ओर झिड़की से मुखातिब हुआ। अनुजा से बात करने का उसका यही तरीका था। 

अनुजा का कलेजा नश्तर सा आज फिर छिल गया... यह कोई तरीका है बात करने का, वह भी औरों के सामने। पर ऐसा पहली बार थोड़े ही हुआ है, आलोक के साथ रहते हुए उसे 15 साल हो चुके हैं। उसकी ऊंची पढ़ाई को ले कर हमेशा ताने मारता रहता है। शान में पढ़ी-लिखी बीवी ले तो आया, पर अब बीवी की पढ़ाई-लिखाई ही खटकती है। जबकि चौबीसों घंटे समर्पिता ही बनी हुई है फिर भी... बेकार ही सोच रही है। अब तक तो मुझे ऐसी बातों का आदी हो जाना चाहिए था। 

‘‘वाओ पापा कितना सुंदर है...’’ बैट एक ओर फेंकता 12-13 साल का बेटा सनी प्लेग्राउंड से सीधा उसी कमरे में आ कर सोफे पर पसर गया। अनुजा बिस्किट-चाय ले आयी थी। वह झट बिस्किट उठाने ही वाला था कि हाथ पर हल्की सी चपत लगाते हुए अनुजा ने टोका, ‘‘बिना हाथ धोए खाने को मना किया है ना, चल अंदर पहले हाथ-मुंह धो... और गंदा बैट सोफे पर से उठा।’’ 

‘‘कैसी मां है, बच्चे के हाथ से खाना छीन लिया देखा तुम सबने... कोई नहीं सनी तू खा ले, मैं बाद में देखता हूं इसे...’’ तीनों कप उठा कर एक-दूसरे को देख मुस्कराने लगे थे। अनुजा ने सनी को आंख तरेरी, तो वह चुपचाप बैट उठा कर जाने लगा। 

‘‘ये ले जा अपनी पसंद का पिज्जा ऑर्डर कर ले...’’ आलोक ने सनी से कहा और जेब से दो हजार के नोट निकाल कर उसे थमा दिए।

और जो अनुजा ने मेहनत, प्यार और सफाई से बना उसके लिए मनपसंद सेहतमंद खाना सजा रखा है उसका क्या? बहुत सोच चुकी उन्हें बासी क्या खिलाऊंगी, अब से ऐसा होगा, तो दूसरे दिन वही गरम करके सबको खाना पड़ेगा। मैं सबका कितना अकेले खत्म करूं, मेड को दूं या फेंकूं? क्यों नहीं सोच पाता आलोक...  पहले से ही बाजार से खाने का प्रोग्राम बता दें, तो वह भी एक िदन आराम से रहे... और फिर हर दूसरे-तीसरे दिन पिज्जा-बर्गर सेहत को नुकसान ही तो कर रहा है। कितना बेडौल शरीर हुआ जा रहा है इसका अभी से... आलोक को कुछ दिखता क्यों नहीं। खुद तो फैल ही रहा है, बच्चों को भी उसी लाइन पर धकेल रहा है...’’

‘‘कैप्सिकम चिकन टॉपिंग विद सुपर एक्स्ट्रा चीज...’’ पापा के दिए स्मार्टफोन पर जोश से भरे पिज्जा का ऑर्डर दे रहे सनी की आवाज आने लगी थी। 

अनुजा ने बेमन से किचन में जा कर मनोयोग से बनाया, सनी और चेरी की पसंद का खाना फ्रिज में डाल दिया। आलोक से तो पूछना भी गुनाह है, ढक कर टाइम से रख देने का ऑर्डर है। सासू मां ने बताया था बचपन से ही ऐसा है, उसका जब खाए तब खाए, ना खाए उसकी मर्जी... पर खाना है, तो तुरंत लगा मिलना चाहिए, वरना ताव दिखाने लगता। अनुजा को उसकी इस आदत पर बहुत क्रोध आता। आने से पहले फोन भी नहीं करता और थाली में रखा खाना गरम भी रहे। एक मिनट का भी सब्र नहीं कि 5 मिनट में ताजी रोटियां तो उसी समय सिंक जाएं, पर नहीं... और फिर बाहर कहता फिरेगा, ‘ठंडा खाना नौकरों की तरह ढक कर रख दिया जाता है मेरा।’ कभी बिना बताए बाहर खा कर आ जाता, तो कोई सॉरी फील नहीं होता उसे... सासू मां के हिसाब से वह असली मर्द है... ये सब मर्दानगी के लक्षण हैं... शायद जितनी नेक बातें मालूम थीं, उन्हें बेटे के दिमाग में भर कर वे परलोक सिधार गयीं। सोच कर अनुजा क्रोध में भी मुस्करा उठी। 

घड़ी रात के 11 बजा रही थी। चेरी, सनी सो चुके थे, आलोक का कोई पता नहीं था। दो बार खाना गरम कर चुकी थी। उधेड़बुन में थी कि फिर गरम करे या फ्रिज में ही डाल दे... क्या पता खा कर ही आएं... पूछने के लिए फोन भी करने की भी सख्त मनाही है। क्या करूं...’’तभी घंटी बजी। 

आलोक ने अपना बैग, मोबाइल बेड पर फेंका, जूते निकाले और झट किचन जा पहुंचा...

‘‘गरम नहीं कर सकती थीं। तेरे हाथ घिस रहे थे।’’ हमेशा की तरह वह किचन के विम बार से ही फटाफट हाथ धो कर वहीं खाने भी लगा था। चार-पांच कौर खाने के बाद थाली उठा कर वह उसी हाथ से न्यूज चैनल लगा टीवी के सामने बैठ गया। खाना खत्म करके वहीं थाली छाेड़ फिर बिस्तर में जा कर थोड़ी देर में ही खर्राटे भरने लगा।

‘‘छि... क्या तरीका है’’ एक बार मुंह से निकला फिर टेबल साफ करके अनुजा ने जूते, बैग सब जगह पर रखे। पैरों में फंसे मोजों से आ रही दुर्गंध से जी मिचला उठा, ‘‘फिर इन्हें नहीं उतार कर पैर धो सका...’’ लाख कहने के बाद भी वह जानबूझ कर ऐसा करता शायद। 

सुबह उसे बच्चों को स्कूल भेजने 5 बजे ही उठना होता है, यहां तो ऐसी गंध से सिर ही घूमता रहेगा। पत्नियां प्यार में सब करती चली जाती हैं, तो पति को प्यार नहीं होता क्या? प्यार में ही उससे उसका घर, मात्र 6 घंटे की मस्त अफसरी का कैरिअर छुड़वा कर, 18 घंटे की ड्यूटी बिना सम्मान, प्यार, वेतन के थमा दी गयी, जिसका कोई मोल नहीं। उस पर सबका मुंह ही जोहते रहो कि किसी को कोई चीज बुरी ना लग जाए। अधिकतर औरतों की यही कहानी है...’’

‘‘औरतों के प्रति कितना अन्यायपूर्ण है हमारा समाज, जैसे आदमी और जानवर के बीच कहीं स्थापित कर दिया गया है औरत का वजूद... बस खूंटा और रस्सी नहीं दिखते। 

‘अब बस बहुत हो गया। बड़ों के साथ उनके अच्छे-बुरे संस्कार गए, अब उन्हें नए संस्कारों में बदलने का समय है। एक यही निष्कर्ष पर पहुंच कर अब मुझे अपने ढंग के ही फैसले लेने, सुनाने होंगे, क्योंकि मुझे भी समाज में अपना इज्जतदार वजूद चाहिए,’ उसने तय कर लिया। 

लॉ ग्रेजुएट अनुजा ने पीसीएसजे की परीक्षा निकाल ली थी कि तभी शादी तय कर दी गयी। माता-पिता के बहुत करीबी रिश्तेदारों ने ‘ऊंचे खानदानी बड़े भले लोग हैं’ कह कर रिश्ता करवाया था... ‘‘बड़े भाग्य से ऐसा लड़का मिलता है। इकलौता लड़का है, गोरा-चिट्टा खूबसूरत, एमबीए, बड़ा बिजनेसमैन है। हर साल नयी गाड़ी ले आता है पैसों की कोई कमी नहीं, लड़की राज करेगी... बस नौकरी करनेवाली लड़की नहीं चाहिए। हमारी अनुजा जैसे वह मांस-मच्छी भी नहीं खाता।’’

‘मुझे जज बनना है पापा, ये देखिए मेरे हाथ में रिंग ऑफ सोलोमन, ज्यूपिटर की लाइन अब और गहरी हो गयी है। आप देखिए ना इंडेक्स फिंगर पर चमकता यह एकदम क्लियर घेरा पापा... मुंसिफ तो मैं बाई बर्थ हूं आप ही तो कहते थे ना...’’ वह मुस्करायी।

‘‘हां-हां छोटी थी, तो तू खेल भी तो ऐसे ही खेलती। साथियों में किसी को चोर, किसी को वकील बना मी लॉर्ड-मी लॉर्ड कहलवाती खुद चेअर पर बैठ फैसले दिया करती। अपनी सही बात मनवा कर ही दम लेती। तुम्हारे सक्सेना अंकल तो तुम्हें भूलते नहीं थे, जिस दिन तुमने उनकी वॉल क्लॉक पर टंगी माला को उतरवा दिया था, ‘ये कोई भगवान जी हैं आपको इत्ता भी नहीं पता अंकल... घड़ी पर थोड़े ही माला टांगते हैं।’ बहुत झेंपे थे, खूब हंसे। ‘महीनों से टंगी है, पर किसी का दिमाग ही नहीं गया। भई, मुंसिफ अनुजा छुटकी ने तो फैसला सुना दिया अपना।’ उन्होंने माला तुरंत उतार दी और तभी से वे तुझे मुंसिफ अनुजा कहते, फिर सभी कहने लगे।’’ 

‘‘इसीलिए तो पापा, मुझे मुंसिफ बन जाने दीजिए। शादी फिलहाल नहीं करनी अभी मुंसिफी जॉइन करने के लिए बाकी फॉर्मेलिटीज पूरी करने दीजिए। कोई इसी फील्ड का मिल गया, तो कर लूंगी शादी भी।’’

‘‘खूब कही, उसका ट्रांसफर अलग जगह, तेरा अलग...’’ पापा हंसे थे, ‘‘नहीं हो सकता इसी से तो कहता हूं तू अभी भी बच्ची है, अपनी पढ़ाई के अलावा कुछ नहीं जानती। कहीं अकेली गयी है। अकेले मार्केट तक तो नहीं जाती। तुझे कोई संभालनेवाला चाहिए ही...’’

‘‘ऐसा क्या है पापा, जो मैं अकेले नहीं रह पाऊंगी...’’ अनुजा रूठते हुए बोली।

‘‘सही तो कह रहे हैं पापा, पढ़ाई में ही सारा दिमाग लगाए रखा, दुनियादारी की समझ, दुनिया की चालाकी कुछ नहीं जानती। अभी तू बच्ची ही है। कौन तेरे साथ तबादले में यहां-वहां घूमता रहेगा। यहां दादा जी को कौन देखेगा। पापा ने रिटायर होने के बाद यहां दादा जी के घर से फिर से वकालत शुरू कर ली है। वैसे भी ये अस्थमा के पेशेंट हैं। मैं भी इन्हें छोड़ कर नहीं जा सकती... समर्थ के जैसे तूने भी यूपी कैडर में परीक्षा निकाल कर अपनी अक्ल जांच ली ना... नौकरी का चक्कर छोड़। रानी बन कर हुक्म चलाने का वक्त है तेरा... आराम से अपने नए अच्छे घर-परिवार में रह...’’

‘‘सही कह रही है मां आप... मुंसिफ को 2-2 अर्दली भी मिलते हैं, बड़ा सा क्वॉर्टर, रोब से रहूंगी महारानी बन कर...’’

‘‘चल हट बातें ना बना, जमाना कितना खराब है, कितने सेवक भी रहे, कोई अपना भला आदमी साथ होना बहुत जरूरी है। जीजी की जानकारी में है, तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है। यहीं की यहीं रहेगी। हमसे जब चाहे तब मिलती भी रहेगी। आलोक के माता-पिता से मैं भी मिल चुकी हूं हरि कीर्तन सत्संग में। बड़ा ही सज्जन लड़का है। कायस्थ है, पर बिलकुल मारवाड़ी जैसा। तेरी तरह नॉनवेज क्या अंडा भी नहीं खाता, उन्होंने बताया था। इतना बड़ा कारोबार है, पर जरा भी घमंड नहीं उसमें। अच्छे संस्कार दिए हैं उन्होंने। उन्हें लेने आया था। मुझे अकेला जान कर अपनी बड़ी सी गाड़ी से घर तक छोड़ गया। हाथ पकड़ कर गेट के अंदर तक पहुंचाया।’’ और ना जाने क्या-क्या लड़के के अच्छे लक्षण दिखा कर, मां उससे शादी की पुरजोर वकालत कर रही थीं।
बस, मां-पापा की जिद के आगे वह भी आदर्श बेटियों जैसी बेबस हो गयी, आज के संस्कार ना थे... विद्रोह ना कर सकी। फिर सब खत्म... बन गयी चौबीसों घंटे की सेवा में समर्पिता, अच्छे संस्कारों वाली हाउसवाइफ... जिसकी कीमत आज लोगों की नजरों में क्या रह गयी है,वह देख ही रही है... श्रीमान बनने के बाद आलोक के सारे संस्कार उलट निकले। हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और थे। 

बच्चों को भी इसी उम्र से हर वक्त की रोकटोक, संस्कारों की सीख, किसी भी दखलअंदाजी से चिढ़ मचने लगी है। उन्हें बस दो ही चीज चाहिए... पैसा और आजादी। बाकी सब तो जैसे वे मैनेज ही कर लेंगे। अनुजा के शांत मन में मुंसिफ विचारों के ज्वारभाटे आज भी हलचल मचा रहे थे।

‘प्रतियोगी परीक्षाअों की तो शायद अब उम्र भी नहीं बची। ना पढ़ा-लिखा सही से याद ही रहा है। पर किताबें फिर से देखूंगी, तो शायद याद आ जाएगा। क्यों ना पढ़ कर उनका हिंदी में अनुवाद ही करती चलूं... अच्छा आइडिया है। बाद में बुक्स छपवाने की भी कोशिश करती हूं, यही सही रहेगा... मां-पापा जीवित होते, तो क्या पता आज भी गृहस्थी से अलग कुछ सोचने, करने को स्वीकारते या नहीं। समर्थ भैया से पूछती हूं, अब वे वहां एडिशनल डीजे हो गए हैं, उस वक्त उन्होंने भी मेरा साथ नहीं दिया शायद पापा के अदब-लिहाज में, पर अब तो मेरी मदद करेंगे... कोई तो यहां भी उनकी पहचान का होगा, जिससे मदद मिल सके,’ बच्चों, पति, घर से बिलकुल अलग वह आज अपने बारे में सोचे जा रही थी। 

सुबह के 11 बजे चुके थे, पर अभी तक आलोक सो कर नहीं उठा था। वह घर का काम खत्म करके नहा-धो चुकी थी। आलोक के कपड़े भी निकाल कर रख दिए, ‘‘ऐसे तो सबके इंतजार में सारा टाइम ही निकल जाता है... बच्चे साढ़े 3 तक लौटते हैं। मेरे पास थोड़ा समय है इस बीच, अपने काम के विषय में पता कर सकती हूं। पर सवाल आलोक को जागते ही बेड टी मिलने का है... वह भी बना कर रख देती हूं बेड के बगल में...’’

सही-गलत तौलते हुए अनुजा का मुंसिफ मन आज अपने लिए भी फैसला लेने को तैयार था। उसने चिट लिख कर कप से दबा दी कि वह बच्चों के आने से पहले आ जाएगी। वह समर्थ के बताए वकील दोस्त इम्तियाज अली के एड्रेस की ओ र चल पड़ी, जो घर से बहुत अधिक दूर ना था। समर्थ भैया ने बताया इम्तियाज भाई ने कानून पर काफी किताबें लिख रखी हैं। आजकल वे अपने कैंसर ट्रीटमेंट की वजह से घर पर ही रहते हैं। शायद वे मेरी कुछ मदद कर सकें। किसी जमाने में वह इम्तियाज भाई को बेहद पसंद करने लगी थी, जाने कब उनको ले कर भविष्य के सतरंगी ख्वाब बुनने लगी थी। मगर जल्दी ही उसके किशोर मन को समझ आ गया यह सब उसका निरा बचपना है। उससे उम्र में भैया की तरह 10-11 साल बड़े, उस पर से एक मुस्लिम, घर में रिश्ते के लिए कोई राजी ना होगा। बता दिया, तो उनका घर आना भी बंद कर दिया जाएगा और उसकी चॉकलेट भी रह जाएगी। उसे याद आया इम्तियाज समर्थ भैया के साथ कभी घर आते, तो उसके लिए बड़ी सी चॉकलेट जरूर लाते। पता नहीं उनसे या केवल उनकी चॉकलेट से इश्क था। एक साल बाद ही वे कहीं और मूव कर गए थे। क्या मालूम था यहां...’’ सोच कर वह मुस्करा उठी। ख्यालों में गुम कब ऑटोवाला उनके घर पहुंच गया, पता ही नहीं चला।

इम्तियाज भाई के यहां उसका जाना सार्थक रहा। समर्थ के दोस्त थे छोटी बहन जैसा ही मान दिया और काफी मदद की। हिंदी में अनुवाद करने लायक ‘इन डिमांड’ 2-3 किताबें भी दीं और उनसे संबंधित किताबें ढूंढ़ लाने के लिए अपना लाइब्रेरी कार्ड भी दिया। कुछ अपनी लिखी किताबें भी दिखायीं और कहा कि चाहे तो वह इनका भी अनुवाद कर ले। उन्होंने कुछ पब्लिशर के नंबर भी उसे दे दिए थे। अनुजा बेहद खुश थी। 

आलोक के अपने शौक थे। हर वक्त बिजनेस और पैसा कमाने की बातें करते रहना, कॉकटेल पार्टियाें, ताश की बाजियों में मसरूफ रहना... फिर देर रात तक घर लौटना। बच्चों को उसने खुली छूट और पैसा दोनों ही दे रखे थे। उसकी समझ से इससे उनकी सारी जरूरतें और उनके प्रति उसके कर्तव्य पूरे हो जाते हैं। वह बच्चों पर कोई कंट्राेल ना रखता। उसे मालूम नहीं होता कि बच्चों को ढंग का बनाने 
के लिए अनुजा को कितनी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। कोई भी बात मनवाने के लिए उसे भी उन्हें पैसे का प्रलोभन देना पड़े, तो यह कदापि उचित नहीं। पर अब वे पैसे बिना कोई बात सुनने को तैयार नहीं थे। 

‘‘पापा तो कुछ नहीं कहते, हम जो भी करें जैसे भी रहें उन्हें फर्क नहीं पड़ता है। आपको ही पता नहीं क्यों...।’’

‘‘कभी नहाने का राग तो कभी कूड़े का, मत फैलाओ कपड़े, समेटो सब, जूठे बरतन सिंक में रख कर आओ ,’’ बच्चे बुरा सा मुंह बना नकल उतारते।

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‘‘कमरे-खिड़की सब बंद करके रखा है, उस पर कई दिन नहाना नहीं, जीन्स तो कभी धुलने नहीं देनी... पता है घुसो तो कितनी सड़ांध सी आती है तुम्हारे कमरों से। कितना काम बढ़ाते हो तुम लोग...’’ वह खिड़कियां खोलने, बिस्तर झाड़ कर ठीक करने लगती, ‘‘मोबाइल पर घंटों मत बैठो नेट बंद करो सनी, आंखें खराब हो जाएंगी...’’ अनुजा एक के बाद एक निर्देश दिए जा रही थी। फिर सनी के रूम में चली आयी थी, ‘‘उफ क्या गंदगी मचा रखी है...’’ 

‘‘आप मेरे रूम में आती ही क्यों हैं, कौन कहता है आपसे साफ करने को। हमें ऐसे ही रहना अच्छा लगता है... छुट्टी है हम चाहे जो करें अपने रूम में, आपको क्या। आप अपने पापा के घर क्यों नहीं चली जातीं, जहां सब कुछ साफ-सुथरा रहता है...’’

‘‘आपको कोई बात करने को मिलता नहीं, पापा से आपकी बनती नहीं, तो हम क्या करें... अपने दोस्त बनाइए, हमें अपने दोस्तों के साथ रहने दीजिए, फालतू की टोकाटाकी बंद कीजिए। अब हम बड़े हो गए हैं,’’ आज 16 की हो रही चेरी ने झुंझला कर अनुजा को कहा था। 

अनुजा हतप्रभ खड़ी जैसे जड़ हो गयी, ‘कितने अलग ढंग के बच्चे होते जा रहे हैं, डबल स्टैंडर्ड में यही होता है, मां कुछ कहे और बाप कुछ और... बस बहुत हो चुका, अब 2-3 साल बिलकुल छोड़ देती हूं इन्हें... नो टोकाटोकी। उसने अपना फैसला उन्हें भी सुना दिया, ‘‘खुश हो जाओ तुम लोग। तुम समझते हो अब अपनी लाइफ में मुझे कुछ करने को नहीं रह गया सिवाय गॉसिप के, तो तुम सब गलत सोचते हो। मेरे पास आज भी बहुत कुछ करने को 
है, जो मैं करना चाहती हूं। तुम सब कुछ मैनेज तो कर ही लोगे। अब कुछ साल बाद ही मुझसे कुछ कहना। बाकी मैं वैसे ही जितनी जरूरी समझूंगी ड्यूटी करती रहूंगी, तुमसे कुछ करने के लिए नहीं कहूंगी खुश...।’’

अनुजा अपने रूम में आ गयी। खिड़की के पास रखी टेबल को उसने अपना स्टडी टेबल बना लिया था। एक ओ र दीवार से सटी अलमारी में सारी लॉ बुक्स, जो पास थीं या जाे नयी मिलती गयीं, सजा रखी थीं। गमकती कानून की किताबें और बाहर झूमती हरीभरी झाडि़यों पर लरजती जंगली बेल के फूलों को छू कर आती भीनी सोंधी सी हवा उसे पहले जैसे रोमांच से भर देती, जब वह पिता के सरकारी आवास के कंपाउंड में इधर-उधर बेफिक्र तितली सी उड़ा करती थी। वहां बैठ कर उसे बड़ी ही शांति और कुछ अलग ही काम करने का उत्साह मिलता। अच्छा है सब अपने में तल्लीन हैं, नो डिस्टर्बेंस... वह खुशी से अपने अनुवाद की अधूरी किताब को पूरा करने में जुट गयी।

2-3 साल की अनुजा की जीतोड़ मेहनत रंग लायी। मार्केट में उसकी 6-7 किताबें आ गयीं। अच्छा रेस्पॉन्स मिल रहा था। विशेषकर कानून के नए छात्रों में अपनी सरल और ग्राह्य भाषा के लिए उसकी किताबें काफी प्रचलित हो रही थीं। इम्तियाज भाई उसकी बढ़ रही लोकप्रियता से काफी खुश थे।

‘‘तुम्हारी पकड़ बहुत अच्छी है, अनुजा। किताबों में कई जगह तुमने मिसालों में कई बेहतरीन नुक्ते, दलीलें ढूंढ़ निकाली हैं। अमेजिंग ! तुम्हें तो वकालत करनी चाहिए। नाहक जॉइन नहीं की मुंसिफी, बहुत अच्छी जज बन सकती थीं।’’

‘‘हूं भाई, चाहती तो मैं भी थी, पर देखिए इतना गहरी रिंग ऑफ सोलोमोन इंडेक्स फिंगर के नीचे होने पर भी नहीं बन सकी। अब तो कोई उम्र भी नहीं...’’ अपनी हथेली दिखा कर वह हंसी थी। 

‘‘अरे वाह वाकई यह तो बहुत गहरी है... इसी से तुम न्याय पसंद हो... पर खुद के साथ अन्याय कैसे कर गयीं। अब भी क्या बिगड़ा है, तुम्हारे पास वक्त ही वक्त है... जबर्दस्ती सबके पीछे लगना छोड़ो। अपने लिए कुछ करो, तभी उनकी नजरों में भी इज्जत होगी कसम से। कोर्ट में एनरोल हो जाओ , प्रैक्टिस करो और साथ ही पीसीएसजे की भी तैयारी करो। मैं श्योर हूं तुम आसानी से यह परीक्षा निकाल लोगी। यहां 40 साल तक परीक्षा दी जा सकती है। लेडीज के लिए उम्र में और छूट मिल जाती है... यह भी खूब रहीÑया तो पहले साल बैठी या आखिरी साल,’’ कह कर इम्तियाज भाई मुस्कराए थे। 

अनुजा ने आलोक को बताया, तो वह बेरूखी से बोला, ‘‘इस उम्र में एग्जाम,’’ वह मखौल बनाते हुए हंसा, ‘‘फालतू की किताबें लिखो या एग्जाम दो जो चाहे सो करो। वैसे तुम करती ही क्या हो। मेड अपना काम करके चली जाती है। बच्चे ज्यादातर बाहर का खाना ही पसंद करते हैं, मैं भी बाहर ही ज्यादा खुश रहता हूं,’’ कह कर वह चला गया। अनुजा के टूटे दिल को हर बार उससे ऐसी ही उम्मीद थी, नाहक ही आलोक से कहा।

आज 5 साल बीत गए। इन सालों में बहुत कुछ बदल गया था। इम्तियाज भाई का ट्रीटमेंट पूरा हो चुका था। वे फिर से कोर्ट जाने लगे थे। अनुजा ने इम्तियाज भाई की मदद और अपनी लगन से पीसीएसजे की परीक्षा निकाल ली थी। वह दिल्ली की दीवानी अदालत में आज सिविल जज नियुक्त थी, जिसकी समर्थ भैया से ज्यादा खुशी इम्तियाज भाई को थी। 

इधर सनी ओबेसिटी का, तो चेरी प्यार में किसी लड़के से धोखा खा कर डिप्रेशन का शिकार हो गयी थी। दोनों को काफी इलाज कराना पड़ा। साथ ही अनुजा के बताए रास्तों पर चल कर सनी को डाइट भी कंट्रोल करनी पड़ी। उसने नियम से जिम जाना, बैलेंस्ड नरिशिंग,खाना खाना और पढ़ना शुरू कर दिया था। चेरी मोबाइल, पार्लर में कम कोर्स की किताबों पर अधिक ध्यान देने लगी थी। आलोक ने भी अपना जो वजन बढ़ाया था, उसका नतीजा भुगत रहा था। उसका बीपी, शुगर, कोलस्ट्रॉल यों कहें सेहत, बिजनेस, इज्जत सब खतरे के निशान से ऊपर चल रहे थे। वह हांफने लगा था। तो ऐसे में घर की व्यवस्था, घर के खाने और समर्पिता पत्नी की सुध आयी। जितना पैसा बनाया, पानी की तरह बहाना पड़ा, तब किसी तरह उसकी जान बची। 

आलोक, सनी और चेरी तीनों अनुजा से किए अपने व्यवहार के प्रति मन ही मन लज्जित थे। यह तीनों की आंखों में अनुजा साफ देख पा रही थी। एक दिन बच्चों ने स्वीकार भी लिया, ‘‘सॉरी मां, हम गलत थे। हमने आपका दिल दुखाया।’’

जब सेहत गयी, तो आलोक की रोब गांठने वाली मर्दानगी भी हवा हो गयी। उसे भी अनुजा से माफी मांगने में देर ना लगी। आज लोगों में अनुजा के कारण अपनी बढ़ी हुई इज्जत देख कर उन्हें उस पर बहुत गर्व होने लगा था, तो अनुजा को भी कम गर्व ना था आज अपने मुंसिफ होने पर। आज वह अपने लिए भी सुनाए अपने फैसले पर खरी जो उतरी थी। उसने खुश हो हथेली को देखा, लगा कि उसका रिंग ऑफ सोलोमोन, वह न्याय वलय रेखा और भी गहरी हो कर चमकने लगी है।