Monday 21 February 2022 12:05 PM IST : By Lucky Rajeev

मिठास

mithas

अम्मा की आवाज तेज से और तेज होते हुए, कमरे के बाहर बने बरामदे को चीरते हुए, कमरे का दरवाजा पार करते हुए मेरे कानों तक आ पहुंची थी ! मैंने कंबल के एक कोने से दाएं कान ढकते हुए, बाएं कान को तकिए में दबाने की कोशिश तो की, हालांकि कुछ फायदा नहीं हुआ।

‘‘ये जगा नहीं अब तक, मुन्ना... ओ मुन्ना, जगो बेटा, ये पीला कुरता दे देना इसको पहनने को,’’ मां की आवाज ठीक मेरे बिस्तर के बगल से आ रही थी, मैं एकदम सांस साधे लेटा रहा, ‘‘अच्छा लग रहा ये रंग तुमपे ! चूड़ियों के बीच में वो दो मोटे वाले कंगन भी पहन लेती, खैर! जैसी तुम्हारी इच्छा... इसको जगा के बैठक में भेजो तुरंत।’’

मां के जाते ही मैंने धीरे से एक आंख खोल कर कंबल की खिड़की से देखा, मेरी नयी-नवेली पत्नी वसुधा ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी पूरे मन से तैयार होने में लगी हुई थी। मैंने बड़ी मुश्किल से हंसी रोकी, अब तैयार होने में बचा क्या था? चटक पीली साड़ी लाल बॉर्डर वाली,बालों में अनगिनत पिनों के सहयोग से बना भारी-भरकम जूड़ा, नेकलेस, चूड़ी... हालांकि चेहरा मुझे दिख नहीं रहा था, मेहनत तो वहां भी हुई होगी... लेकिन आज है क्या? शादी के बाद वाली सारी रस्में, पूजा-पाठ सब तो हो चुका ! 

‘‘सुनिए नीरज ! आप जाग रहे हैं, मुझे पता है,’’ वसुधा ने गरदन घुमायी, ‘‘ये कुरता मां जी दे गयी हैं, आपको तैयार हो कर बैठक में आने को बोला है, तुरंत !’’

मैं गलत नहीं था, चेहरे पर भी बहुत कुछ किया गया था... ठीक भी है, इतने बड़े मेकअप किट में मायके से आए किसी भी सामान के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए।

‘‘आज कोई पूजा है क्या?’’ मैंने जम्हाई रोकते हुए पूछा।

‘‘नहीं... वैसे तो परसों लेने आते पापा, लेकिन आज का मुहूर्त निकला पैर फेरने का, तो अभी पापा और भइया आ रहे हैं मुझे लेने...’’आखिरी दो शब्दों पर वह भी रुकी और मैं भी ! उसके बाद मैं और देर तक उससे आंखें नहीं मिला पाया। परसों ही हमारी शादी हुई थी और कल विदा हो कर वसुधा मेरे घर, मेरे जीवन में आ चुकी थी... लेकिन दो-चार शब्दों से ज्यादा हमारी बातचीत नहीं हुई थी।

मैं क्या कर रहा था, मुझे खुद भी नहीं पता था। यह शादी मेरी मर्जी से नहीं हुई थी... ना मुझे वसुधा पसंद आयी थी, ना बात-बात पर धन-दौलत गिनाते उसके पिता जी ! मुझे कोई मतलब नहीं था उनके एकड़ों तक फैले खेतों से, ना उनके बंगले से, ना उनके दरवाजे पर खड़ी गाड़ियों की कतारों से, ना उनके घर की सोने से लदी गुड़ियों से... जिनमें से एक गुड़िया मां मेरे लिए पसंद कर आयी थीं।

‘‘आप लेने आएंगे ना?’’

वसुधा मां के कहे अनुसार कंगन पहनते हुए पूछ रही थी, ‘‘आप नहीं आएंगे, तो मैं वापस नहीं आऊंगी।’’

मन के एक कोने से आवाज आयी, ‘मुझे कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा !’

वसुधा अपने मायके कानपुर जा चुकी थी और मैं अपराधबोध के दलदल में... जहां मैं सांस भी नहीं ले पा रहा था, लेकिन वहां से निकलना भी नहीं चाह रहा था। शाम को अपने दोस्त विनय को घर बुला लिया था, लेकिन वह बजाय मुझे समझने के मुझे और उलझा रहा था।

‘‘हालत देखो अपनी, कौन कहेगा दो दिन पहले शादी हुई है तुम्हारी? मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा गुरु ! कोई जबरन सिर पर तलवार लटका कर या बेहोश करके तो शादी करायी नहीं गयी तुम्हारी, अब यह सब क्या नाटक है?’’

‘‘बात वो नहीं है यार... खैर तुम नहीं समझ पाओगे,’’ मैं अपनी ही घुटन से आजाद होना चाह रहा था, वह घुटन जो मुझे हर पल और तेजी से अपनी गिरफ्त में लेती जा रही थी।

‘‘सब ठीक है ना?’’ विनय चाय पीते हुए मुझे अजीब तरह से देख रहा था।

‘‘हां... सब ठीक है, कुछ बताना है,’’ मैंने एक लंबी सांस ले कर बोलना शुरू किया, ‘‘तुमको मालूम है, मैं इस शादी के लिए तैयार नहीं था। मां-पापा को सब कुछ बहुत पसंद आ गया था, मुझे हां करनी पड़ी...’’

‘‘हां, पता है... आगे बोलो।’’

‘‘दरअसल बात यह है कि मैंने शादी को ले कर यह सब सोचा ही नहीं था। जो सोचा था... वह हुआ ही नहीं !’’ चाय की आखिरी घूंट गटकने के साथ ही मन में रखी असली बात बाहर आ गयी !

विनय ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘मतलब? तुम्हारा कहीं चक्कर चल रहा था?... भनक तक नहीं लगने दी यार।’’

‘‘चक्कर भी नहीं कह सकते, बस कुछ शुरू हुआ ही था या पता नहीं शुरू भी हुआ था या नहीं...’’ विनय को सब बताने के लिए मुझे भी उस बीते समय में जाना पड़ा, जहां मैं जाने से कतरा रहा था।
करीब एक साल पहले की बात थी, हमारी कंपनी की मीटिंग महाबलेश्वर में थी। कई शहरों से लोग वहां आ कर इकट्ठा हुए थे, अलग-अलग जगहों से, अलग-अलग तरह के लोग। दिनभर चली उबाऊ मीटिंग्स के बाद करीब 4 बजे हमारा ग्रुप घूमने निकला, तो पांव ठिठक गए, कैसा माहौल था... सजे-संवरे घूमते पर्यटक, नीचे तक उतर आए बादल, उबलते स्वीटकार्न की हवा में घुली हुई महक और हर थोड़ी दूर पर लाल-लाल स्ट्राॅबेरी के ढेर !

‘‘आप भुट्टा भून कर नहीं देते?’’ एक आवाज, जिस पर मैं चौंक कर पलटा था, यह शब्द ‘भुट्टा', यह तो यूपी में बोलते हैं ! देखा, तो एक बेफिक्र सी लड़की, बेतरतीब फैले बालों को एक हाथ से चेहरे पर से हटाती हुई, दूसरे हाथ से पर्स से रुपए निकाल रही थी... यह वो पल था, जहां मैं ठहर गया था। अगले आधे घंटे में मैंने पता लगा लिया था कि वो यानी नमिता हमारी कंपनी की बनारस ब्रांच से थी और हमारे साथ ट्रेनिंग के लिए आयी थी, मुझे महाबलेश्वर थोड़ा और अच्छा लगने लगा था।

वे 5 दिन सपनों जैसे थे। एकदम खिला-खिला मौसम, हमउम्र लोग, सपने, खिलखिलाहट... सब कुछ जैसे एक सा था। ट्रेनिंग के घंटे कैसे बीतते थे, पता नहीं चलता था... उसके बाद आती थी शाम, वैसी ही धुंधली सी, जादू जैसी शाम, जैसी शाम में मैंने नमिता को पहली बार देखा था।

जब हम सब साथ बैठते थे, नमिता की खिलखिलाहट सुन कर मैं मुस्करा देता था और सबसे बचते-बचाते उसको देखता रहता था। मैंने जिंदगी से यही तो मांगा था, एक मनपसंद नौकरी और एक ऐसी जिंदादिल जीवनसंगिनी... लेकिन बात तो वहीं की वहीं अटकी थी, कुछ कहने के लिए हिम्मत बटोरना, कहीं जल्दबाजी तो नहीं हो जाएगी?

‘‘कल आखिरी दिन है ट्रेनिंग का, आज शाम को हम लोग यहां पर एक झील है, वेण्णा लेक, वहां चलेंगे,’’ नमिता ने एक दिन डिनर पर ऐलान किया। मैंने गौर से देखा उसे... कितनी चंचल, खुशमिजाज, आत्मनिर्भर, आत्मविश्वास से भरी हुई, मेरी किस्मत मुझ पर मेहरबान होगी भी या नहीं? मुझे इंतजार था अगले दिन का...

‘‘मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूं, नमिता,’’ मैंने अगले दिन उसी झील के किनारे धीरे से कहा, बाकी सारे लोग फोटो खींचने में व्यस्त थे।

‘‘क्या हुआ? बोलो ! अच्छा सुनो, पहले बोटिंग कर लेते हैं... वो देखो, जनता हल्ला मचा रही है,’’ वह मेरी बात को जैसे अनसुनी करती हुई नाव की तरफ भागी, मैं कट कर रह गया !

‘‘तो तुमने कुछ भी नहीं कहा?’’ विनय के पूछते ही मैं आज में वापस आया, वह आज, जिसमें मैं एक शादीशुदा आदमी हूं।

‘‘नहीं ! मैंने कुछ नहीं कहा, मुझे लगा... थोड़ी जल्दबाजी हो जाएगी।’’

‘‘फिर?’’ विनय ने उत्सुकता से पूछा।

‘‘फिर क्या? ट्रेनिंग खत्म... हम लोग अपने-अपने शहर वापस लौट गए। मुंबई आ कर भी मेरी सबसे बात होती रही, नमिता से भी... मैं थोड़ा और वक्त देना चाहता था इस रिश्ते को, थोड़ा और समझना चाहता था... फिर एक दिन नमिता का फोन आया,’’ मैं बताते हुए थोड़ा परेशान होने लगा था, इतनी ठंड में भी एक बेचैनी सी होने लगी थी, ‘‘मैंने एक थकी हुई आवाज में बात पूरी की, ‘‘उस दिन जब नमिता का फोन आया, खुशी उसकी आवाज से साफ झलक रही थी... उसने बताया, करीब एक साल से वह अपने पापा को मना रही थी, अब जा कर वे माने, उसके बाॅयफ्रेंड को अपना दामाद बनाने के लिए ! नमिता अपनी शादी को ले कर और भी बहुत कुछ बताती जा रही थी, शायद मुझे कुछ सुनायी ही नहीं दे रहा था... बस, उस दिन से कुछ बुझ गया है अंदर... हर लड़की में मैंने नमिता को ही ढूंढ़ा, मैंने सोच लिया कि एक दूसरी नमिता ही वह खालीपन भर पाएगी। मै इसीलिए शादी टालता भी रहा, लेकिन फिर मां भी जिद पर आ गयीं और वसुधा से शादी‌ करनी पड़ी।’’

थोड़ी देर मेरे और विनय के बीच सन्नाटा 
पसरा रहा, फिर विनय ने बोलना शुरू किया, ‘‘देखो नीरज ! तुमको पता है ना कि तुमको क्या करना है... सब ठीक करना है और सब ठीक हो भी जाएगा। पता है, शादी ना गुड़ की मिठास होती है... धीरे-धीरे घुलती है।’’

घर आ कर मन अजीब सा रहा। जेब से मोबाइल निकाल कर देखने लगा, वसुधा की बहन ने वॉट्सएप के एक ग्रुप ‘हमारा परिवार’ में मुझे जोड़ लिया था और ‘वेलकम जीजू’ के नाम से एक संदेश भी भेज दिया था, मन थोड़ा और कसैला हो गया था... ये सब नाटक जरूरी होते हैं क्या?

फोटोग्राफर ने शादी की फोटो भेज दी थीं, मैंने लैपटॉप पर थोड़ी-बहुत देखीं, फिर बंद कर दिया। फेसबुक खोला, बहुत देर तक नमिता के प्रोफाइल पर भटक रहा था कि तब तक मां आ गयीं, ‘‘तुम्हें आज वसुधा को लेने उसके मायके जाना है ना... वही फोन आया था उसके मायके से,’’ मैं मां की बात सुन कर चिढ़ सा गया ! लखनऊ से कानपुर ड्राइव करके जाओ लेने... हां नीरज बाबू जाओ, पति हो आखिर !

विचारों के ज्वार भाटा से गुजरते हुए ठीक 2 बजे मैं अपनी ससुराल के दरवाजे पर खड़ा था ! स्वागत और चुहल के साथ मुझे सब लोग अंदर ले गए,  परिवार के बाकी लोगों के साथ वसुधा ड्राॅइंगरूम में बैठी हुई थी ! एकदम साधारण सूट, बिना मेकअप, नाम मात्र के गहने... इससे पहले मैंने उसे इस तरह नहीं देखा था, हमेशा अपने वजन से ज्यादा गहनों और भारी-भरकम कपड़ों से लदा हुआ ही देखा था। हमने धीरे से एक-दूसरे की ओर देखा, वह धीरे से मुस्करा दी... मेरे मन की कोई गांठ जैसे धीरे से खुली।

‘‘जीजू... आप लोग हनीमून पर कहां घूमने जा रहे हैं? वसुधा दी ने तो कुछ नहीं बताया, सीक्रेट है आप लोगों का?’’ साले-सालियों का झुंड मुझे घेर कर हमला कर चुका था, मैंने हड़बड़ा कर वसुधा की ओर देखा, ऐसा लगा जैसे उन खाली आंखों में भी यही सवाल तैर रहा था ! 

वापस लौटते समय कार में मैंने वसुधा को सफाई देने की कोशिश की, ‘‘ऑफिस में बहुत काम है, अभी तो कहीं जाना नहीं हो पाएगा... बाद में देखते हैं।’’

वह बस ‘हूं’ करके रह गयी, मैं अपनी नजरों में थोड़ा और नीचे गिर गया। लड़ लेती, झगड़ लेती या कुछ और पूछती कि ऐसा भी क्या काम है ऑफिस में? मगर नहीं, वह शांत थी... और यही शांति मुझे बेचैन कर रही थी, वसुधा कोई शिकायत क्यों नहीं करती? 

वसुधा को मायके से यहां आए लगभग 15 दिन हो चुके थे और मैं ईमानदारी से कहूं, तो इन 15 दिनों में एक बार भी मुझे वो क्या कहते हैं... हां, स्पार्क ! वह हम दोनों के बीच महसूस नहीं हुआ 
था ! दूर खड़े हो कर देखें, तो सब कुछ अच्छा था... वसुधा घर में सबसे घुलने-मिलने लगी थी, मां-पापा के साथ उसकी बातें, हंसी-मजाक,घर का माहौल यों तो खुशनुमा रहता था, लेकिन हम दोनों? एक रस्म जैसी निभा रहे थे वह जिंदगी, जो त्योहार जैसी बीतनी चाहिए थी !

‘‘ये वाला दुपट्टा ऑनलाइन लिया... डर लग रहा था, कटा-फटा ना आ जाए,’’ वसुधा ने बड़े मन से मुझे दिखाया और उतनी ही बेरुखी से मैंने ‘हूं’ कह कर बात खत्म कर दी। उस समय मैं फेसबुक पर नमिता की फोटो देख रहा था।

‘‘आप इस तरह क्यों रहते हैं... लैपटॉप बंद कीजिए, मैं आपसे बात कर रही हूं,’’ वसुधा ठीक मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी थी, मैंने एक नजर नमिता की फोटो पर डाली, फिर उस स्क्रीन के पीछे खड़ी वसुधा को देखा, ‘‘बोलो, क्या बात है? ऑफिस का काम कर रहा हूं... नहीं करूं?’’ मैं झुंझला कर बोला।

‘‘मैं वह नहीं कह रही हूं... छोड़िए, कुछ नहीं,’’ वसुधा वह पैकेट उठा कर बाहर चली गयी। ये ऐसे पल होते थे, जब मैं अपने को बहुत कमजोर महसूस करने लगता था, मैं नमिता को क्यों नहीं भूल पा रहा हूं? मैं वसुधा को उसकी जगह क्यों नहीं दे पा रहा हूं? मेरे और वसुधा के खास नजदीकी पलों में भी नमिता ही रहती थी क्या मेरे आसपास? 

इतनी उलझनों के बीच भी जिंदगी मंथर गति से बढ़ी जा‌ रही थी। कभी जी में आता सब कुछ छोड़ कर कहीं भाग जाऊं, कभी जी में आता कितना गलत कर रहा हूं वसुधा के साथ ! 

‘‘इस मंदिर के बारे में मैंने बहुत सुना था, सच में बहुत अच्छा है,’’ उस शाम चंद्रिका देवी के मंदिर में आते ही वसुधा बोली, ‘‘एक सेल्फी लेते हैं, इधर देखिए।’’

मैं जबरन मुस्कराया, वह कुछ बोलते-बोलते रह गयी ! 

‘‘अब घर चलें?’’ मैंने मोबाइल फोन में टाइम देखते हुए पूछा। वसुधा ने ‘ना’ में गरदन हिलायी और वहीं सीढ़ियों पर बैठ गयी। माहौल में एक सम्मोहन घुला हुआ था, सामने दूर तक फैली गोमती नदी, फूलों से सजी दुकानें और मंदिर से आती आरती की आवाज ! 

‘‘आपसे उस दिन भी पूछा था, आप मुझसे गुस्सा क्यों रहते हैं?’’ वसुधा ने सीधे मेरी आंखों में झांक कर पूछा। 

‘‘ऐसा कुछ नहीं है,’’ मैंने नजरें घुमा लीं,  आसमान में सूरज ढलते-ढलते एक दिन अपने साथ लेता जा रहा था। 

‘‘मैं पढ़ाई पूरी करना चाहती हूं, एमए में एडमिशन लेना चाहती हूं,’’ वसुधा ने भी अस्त होते सूरज की ओर देखते हुए कहा। 

‘‘अच्छी बात है,’’ मैंने वसुधा की ओर देखते हुए कहा ! उसकी आंखें अचानक सूनी हो गयी थीं, होंठ कांपे और धीमी सी आवाज आयी, ‘‘मैं अपने मायके जा कर... कानपुर से एमए करना चाहती हूं... आपके पापा-मम्मी से भी बात कर ली है इस बारे में, वे तैयार हैं...’’

मैंने चौंक कर उसकी ओर देखा, चेहरा सपाट था... जैसे बहुत कुछ सोच कर उसने बोला हो। मैंने और गौर से उसका चेहरा देखा, उस सपाट चेहरे पर दर्द की कुछ लकीरें खिंची हुई थीं।

मैं घर आ कर बेकल हो गया था, पूरी रात ढंग से सो नहीं पाया ! एक बेचैनी मेरे ऊपर हावी रही... अजीब-अजीब से सपने आते रहे, कभी देखता कि वसुधा और मैं खाना खा रहे हैं, कभी देखता कि कार चलाते समय मैंने उससे कहा ‘सीट बेल्ट लगाओ’, फिर देखा कि वह उसी मंदिर वाली सीढ़ी पर बैठ कर कह रही है, ‘अब मैं कभी वापस नहीं आऊंगी...’ एकदम से हड़बड़ा कर आंख खुली, देखा वसुधा बगल में सो रही थी, मन को सुकून मिला... यह सपना था ! यह मेरे साथ क्या हो रहा था? मां-पापा भी इस बात पर तैयार हो गए कि वह कानपुर से एमए करेगी, यानी वसुधा सचमुच चली जाएगी? मैं तो गलत था ही, शायद इसीलिए वसुधा भी नहीं जुड़ पायी और इतने आराम से कह दिया कि कानपुर से पढ़ना है। क्या कहा था विनय ने उस दिन, शादी गुड़ की मिठास है... उंह ! कैसी मिठास? कहीं भी तो नहीं घुली, किसी के भी मन में !

सुबह उठा तो सिर भारी था। वसुधा का फोन बेड पर रखा था, लगातार मैसेज की ‘टुंग-टुंग’ हो रही थी ! मैंने खुद को समझाया कि किसी का फोन चुपचाप देखना गलत है, लेकिन रुक नहीं पाया। फोन में देखा, कई मैसेज में से एक वसुधा की भाभी का मैसेज था, ‘‘तुम कल इतना रोयी, मेरा भी जी दुख गया वसुधा।’’

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था, जा तो रही है इनकी वसुधा इनके पास, फिर किस बात पर जी दुखा जा रहा है? स्क्राॅल करके ऊपरवाले मैसेज पढ़े, वसुधा के भेजे एक मैसेज पर आंखें रुक गयीं, ‘मैंने कह दिया भाभी कि मैं कानपुर से एमए करूंगी, इनको तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा... वैसा ही मुंह बना रहा, जैसा हमेशा रहता है... ये तो रह लेंगे आराम से मेरे बिना...’

यह क्या लिखा है? मैं अपना सिर पकड़ कर बैठ गया ! वह समझ नहीं पा रही है कि मैं अलग नहीं रहना चाहता ! मैं खुद कितना बड़ा बेवकूफ हूं... उससे कह क्यों नहीं देता कि मैं नहीं चाहता अलग रहना? मैं फैसला ले चुका था, बस ! बहुत हुआ, अब मैं सब ठीक करके ही रहूंगा। 

‘‘मेरा फोन यहां है क्या?’’ वसुधा ने कमरे में आते हुए पूछा, मैंने एक लंबी सांस ले कर वसुधा को पास बैठने का इशारा किया। 

‘‘मुझसे गुस्सा हो वसुधा?’’ इतने दिनों में पहली बार इस तरह मैंने उससे बात की थी, पलभर में उसकी आंखें भर आयीं। 

‘‘नहीं...’’

mithas

‘‘तो फिर कानपुर क्यों जा रही हो?... यहां से भी तो एमए कर सकती हो,’’ मैंने धीरे से उसका हाथ पकड़ा, आंसू उसके गाल भिगोने लगे थे। 

‘‘कहीं से भी करूं, क्या फर्क पड़ेगा...’’ वह रुंधे गले से बोली।

‘‘मुझे फर्क पड़ेगा वसुधा... प्लीज जाना नहीं,’’ मुझे यकीन नहीं हो रहा था, लेकिन मेरी भी आवाज भीग चुकी थी, वह मेरा हाथ पकड़ कर फफक कर रो पड़ी ! मैंने अपने पास उसको खींच लिया, मन की सारी शिकायतें आंसुओं के साथ निकल रही थीं, हम दोनों रो रहे थे, मुस्करा भी रहे थे... हमारी शादी सचमुच गुड़ की मिठास थी, जो धीरे-धीरे घुल रही थी।