Friday 08 March 2024 03:18 PM IST : By Vineeta Shukla

एक ढका छुपा सच

story-sach

सोमेश चौधरी के हाथ कांप रहे थे। वकील का नोटिस थाम कर रखना मुश्किल हो गया। सरकारी आदेश था। रितेश भैया के निधन के बाद भैया की चल-अचल संपत्ति कानूनन उन्हें मिल जानी थी। उनकी पत्नी सुनीति ने पति को विचलित अवस्था में देखा, तो फौरन पास आ कर पूछा, ‘‘क्या हुआ, सब ठीक तो है?’’

इस पर वे कुछ नहीं बोले और चुपचाप नोटिस को पत्नी की तरफ बढ़ा दिया। सुनीति ने सरसरी निगाह उन कागजों पर डाली और करुण भाव से सोमेश को निहारा। कुछ देर मौन पसरा रहा। चुप्पी सुनीति ने ही तोड़ी, ‘‘सोमेश... विवाह से ले कर अब तक भूले से भी रितेश भैया का नाम आपकी जबान पर नहीं आया... पापा ने उनके बारे में पूछा, तो आप कड़ाई से टाल गए। मेरी भी कभी हिम्मत नहीं हुई पूछने की... और अब?’’

सोमेश फिर भी चुप ही रहे। वह रहस्यमय चुप्पी खिजाने वाली थी। सुनीति फट पड़ीं, ‘‘ऐसा नहीं कि मुझे कुछ मालूम ना हो... इधर-उधर से पता चला कि किसी लड़की का चक्कर था। मैं इतने सालों तक जब्त किए रही, पर...!’’

‘‘पर और ज्यादा जब्त नहीं कर पाओगी,’’ बात को सोमेश ने ही पूरा किया। एक हल्की सी मुस्कान सजा कर वे बोले, ‘‘तुम्हें सब कुछ बताने का समय आ गया है... कुछ अंदाजा तो तुमको भी होगा। रिश्तेदारी में कोई शुभ कार्य होता या फिर दुख मनाया जाता... तब रितेश भाई की झलक मिल ही जाती, लेकिन मैं...! मैं उन्हें देखते ही मुंह घुमा लेता। निसंतान भैया कभी हमारे बच्चों के सिर पर स्नेह से हाथ भी ना फिरा पाए... जब भाभी का देहांत हुआ, तो भी उनसे मिलने नहीं गया था। उनकी गिरती सेहत के बारे में पता था... लेकिन उन्हें देखने नहीं गया। वे दोस्तों और नौकरों के रहमोकरम पर चलते रहे...जबकि उनका छोटा भाई जीवित था...’’ कहते-कहते सोमेश बहुत गंभीर और भावुक हो गए।

पत्नी एकटक अपने पति को ही देख रही थी। सुनीति के प्रश्नों का समाधान सोमेश को करना ही था। वे आगे बोले, ‘‘मैं उसूलों का पक्का हूं। रितेश भाई की जायदाद का एक पैसा भी नहीं रखूंगा...सब गरीबों में दान कर दूंगा।’’ उन्होंने पाया कि पत्नी की आंखों में इस बात को ले कर कोई आपत्ति ना थी। उसे तो बस वह सब कुछ जानना था, जो वे सालों तक उससे छिपाते रहे ! उन्होंने मेज से पानी का गिलास उठाया और एक ही सांस में खाली कर दिया। उनकी आंखें शून्य में टिकी थीं। वे धीरे-धीरे पुराने समय को जीने लगे। यादें शब्दों का बाना पहन कर जीवंत हो उठीं, ‘‘तब मेरी बैंक में नयी-नयी नौकरी लगी थी। श्रुति भी मेरी ब्रांच में थी... हमारी नियुक्ति साथ ही हुई थी।’’

कहानी आरंभ होते ही उसकी संभावित नायिका ‘तथाकथित’ श्रुति अस्तित्व में आ गयी थी ! सुनीति की मुखमुद्रा कठोर हो चली। फिर भी जाने क्यों... सोमेश की व्यग्रता उन्हें उग्र होने से रोक रही थी। सोमेश बोलते रहे, ‘‘अपने संग काम करने वालों से मेरी अच्छी पहचान हो गयी, लेकिन श्रुति सबसे खिंची-खिंची रहती। उसने खुद को किसी अदृश्य लक्ष्मण रेखा से बांध रखा था। उसका गहन गंभीर व्यक्तित्व मेरे लिए एक पहेली था, जो मुझे जिज्ञासा से भर देता। ऑफिस में अलग-थलग पड़ जाने के कारण वह अकसर ‘गॉसिप’ के निशाने पर आ जाती,’’ इतना कहने के बाद उन्होंने निश्वास लेते हुए पत्नी को देखा।

वह आगे की बात सुनने को आतुर जान पड़ती थी। सोमेश की आंखों में एक विचित्र सी चमक आ गयी। घटनाक्रम सहज रूप में आकार ले रहा था, ‘‘विशेष तौर पर महिलाएं उसे संदिग्ध पाती थीं। वहां एक शेफाली नाम की असिस्टेंट थी, जो बताती रहती कि श्रुति के घर में उसकी पागल बहन है... और श्रुति भी कुछ-कुछ वैसी ही...!’’

सुनीति ने पति पर गहरी दृष्टि डाली, पर वे तो कहीं और देख रहे थे... कुछ अन्यमनस्क से, खोए-खोए से, कथा का प्रवाह फिर भी अविछिन्न रहा... अतीत की बंद परतें खुलती चली गयीं, ‘‘मेरा और उसका काउंटर पास-पास था। मेरा काम पैसे निकलवाने के लिए फॉर्म भरवाना और उसका खाताधारियों को पैसे चुकता करना। वह मुझसे व्यक्तिगत दूरी बना कर रखती, लेकिन साथ-साथ चाय पीते हुए औपचारिक बातें करते हुए कब हम एक-दूजे के करीब आ गए... पता ही ना चला !’’

सुनीति ने सायास स्वयं को नियंत्रित किया। सोमेश की चोर निगाहें उन्हें ही घूर रही थीं। पत्नी की तरफ से आश्वस्त हो कर पति ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘बात शादी तक पहुंच गयी... श्रुति माता-पिता से मिलाने मुझे अपने घर ले गयी...’’ बोलते हुए उन्होंने सहम कर सुनीति को पुनः देखा। वह विकल दिखी, किंतु आक्रामक नहीं। सोमेश आगे बढ़े, ‘‘बैठक में अभिशप्त सी नीरवता थी। मंद रोशनी वाले वॉल लैंप पर क्रोशियानुमा कवर... उससे छितराता हुआ परछाइयों का जाल... बेमतलब ही चल रहा टीवी और... डाइनिंग व ड्राॅइंगरूम के बीच एक पारदर्शी परदा, परदे के दूसरी तरफ कोई बुत बनी स्त्री !’’

मंत्रचालित सी श्रीमती सोमेश चौधरी पति के विवाहपूर्व प्रणय प्रसंग में उलझती जा रही थीं ! प्रसंग अपने आप में श्रोता को उलझाने वाला था, ‘‘हम लिविंग रूम के गद्देदार कोच पर आसीन हो गए। श्रुति के इशारे पर नौकर उसके पिता नंदन वर्मा को बुला लाया। वर्मा अंकल प्रथम दृष्टया मृदुभाषी और व्यावहारिक इंसान लगे। हम बातचीत कर ही रहे थे कि परदे के पीछेवाले बुत में हलचल सी हुई। क्षणांश में वह अस्तव्यस्त सी स्त्री हमारे सामने आ खड़ी हुई... मुझ पर उंगली तानते हुए बोली, ‘‘तुम...कौ...न? जाओ...य... हां से जा...ओ !’’ उसके वाक्य टूटेफूटे थे और वह मुश्किल से अपनी बात कह पा रही थी।

‘‘मालिनी... जरा इधर आइए... बड़की मेहमान को परेशान कर रही है !’’ नंदन जी ने आवाज को थोड़ा ऊंचा करके सहधर्मिणी को बुलाया। बौखलायी हुई सी मालिनी आंटी वहां आयीं और बड़की को खींच कर ले जाने लगीं। मेरे अभिवादन करने पर वे पानी-पानी हो गयीं। बड़ी बेटी की विक्षिप्तता ने उन्हें भी अछूता नहीं छोड़ा था। उनके व्यक्तित्व में टूटने के चिह्न स्पष्ट देखे जा सकते थे। बड़की की ही भांति आंखों के नीचे काले घेरे... मुचे हुए पल्लू को कमर में खोंसे... नित्य ही वह जीवन से नया युद्ध लड़ती रही होंगी। वर्मा अंकल ने मुझे आश्वस्त करने का प्रयास किया... यह कि धीरे-धीरे उनकी बड़ी बेटी मुझे जानने लगेगी और फिर... बेअदबी नहीं करेगी !
‘‘बाद में श्रुति से पता चला कि बड़की लगभग पत्थर बन चुकी है। कोई भी संवेदना, कोई भी अनुभूति... उसे छू नहीं पाती...। उसकी मुस्कान से जुगुप्सा ही छलकती है और अनुभूति के नाम पर शेष है- मात्र हिंसा की भावना...! जब आंटी उसे नहलाने, धुलाने, कपड़े पहनाने और खाना खिलाने के उपक्रम करती हैं, उसके हाथों धुन दी जाती हैं ! उसकी थमी हुई बदनुमा जिंदगी में कुछ हलचल बनी रहे, इस वास्ते उसे ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम की बेंच पर परदे के पीछे बैठा दिया जाता। टीवी भी चलता ही रहता। उधर से वह यदाकदा परिचितों को आते-जाते
देखती और उचटती हुई नजर टेलीविजन पर भी डाल लिया करती।

‘‘वह किसी भी अपरिचित, विशेषकर पुरुष को देख कर भड़क उठती है। अपने पिता, घर के पुराने नौकर मंगल काका और जान-पहचान वाले पुरुषों के अलावा कोई भी दूसरा उसे दुश्मन जान पड़ता है। कभी यही बड़की बहुत वाचाल और चंचल थी, स्मार्ट और फैशनपरस्त भी। पढ़ाई में अव्वल...देखने-सुनने में आकर्षक और स्कूली गतिविधियों में भी आगे ! अपने सहपाठियों और अध्यापकों के बीच खासी लोकप्रिय...!’’ तेजी से बोलते हुए सोमेश जी की सांस उखड़ने लगी। सुनीति ने जग ले कर पानी का गिलास भरा और चुपचाप उनकी तरफ बढ़ा दिया।

सुनीति ने कहा, ‘‘कोई जल्दी नहीं है... हम इस बारे में फिर कभी बात करेंगे। लगता है आप अपनी बीपी की दवा लेना भूल गए हैं। मैं ले आती हूं,’’ बोल कर वे उठने लगीं, तो पति ने हाथ पकड़ कर उन्हें रोक लिया और इशारे से जता दिया कि वे दवाई ले चुके थे। कुछ देर दोनों चुप रहे, फिर श्रीमती चौधरी बेटे की वॉट्सएप चैट से मिली तसवीरें पति को दिखाने लगीं। उन तसवीरों में उनके पोता-पोती वॉटर पार्क में मस्ती कर रहे थे। बेटी ने भी अपने पति संग आउटिंग के स्नैप्स भेजे थे। लॉन्ग ड्राइव के दौरान उन्होंने प्राकृतिक नजारों को अपने कैमरे में कैद किया था, लेकिन चौधरी जी का दिल किसी ‘फोटो-शोटो’ में नहीं लग रहा था ! थोड़ी देर बाद वे अखबार में डूब गए और श्रीमती जी घरेलू क्रियाकलापों में।

शाम की चाय के समय वे फिर आमने-सामने थे। सोमेश ने कहा, ‘‘सुनीति, आज रात का खाना बाहर से आॅर्डर कर देते हैं।’’

‘‘लेकिन क्यों सोमेश...? मैंने पनीर को मेरीनेट भी कर लिया है... आज के मेनू में पनीर की सब्जी है ना !’’

सोमेश फीकी हंसी हंसे और बोल उठे, ‘‘हां बाबा याद है... लेकिन तुमसे जो कहना था, वह अभी भी अधूरा है। कुलबुलाहट तुम्हारे अंदर है... और मेरे अंदर भी, तो क्यों ना कह-सुन कर प्रकरण को यहीं खत्म किया जाए। रसोई में जाओगी, तो कुछ बता भी ना सकूंगा।’’ पत्नी से अविलंब मूक सहमति मिल गयी। उन्होंने ऑनलाइन निर्देश दे कर भोजन मंगवा लिया।

वे उठे। खिड़की की चिक को बंद किया और बल्ब जला दिया। यों लगा, मन के किसी वर्जित क्षेत्र में प्रवेश के पहले... किसी अप्रिय बात को छेड़ने से पहले... उसकी भूमिका गढ़ रहे हों, ‘‘हां, तो मैं कहां था...’’ वे अभी भी अनमने ही जान पड़ते थे, ‘‘मैंने बताया था कि कैसे श्रुति से मेरा संपर्क हुआ और हमारा संबंध प्रगाढ़ बना...’’ कहते-कहते वे झेंप गए, किंतु इस बार पत्नी के चेहरे को पढ़ने की चेष्टा नहीं की। कथा संभवतः नए पड़ाव से हो कर गुजरने वाली थी, ‘‘मैं लखनऊ में था... रितेश भाई और शीतल भाभी कानपुर में। उन दिनों भाई ही मेरे आदर्श थे... रितेश चौधरी एडवोकेट- अपने समय के नामी वकील ! बाऊ जी के देहांत के बाद उन्होंने ही मुझे और मां को संभाला था... मां के जाने के बाद तो... मैं पूरी तरह उन्हीं के भरोसे था,’’ सोमेश मुस्करा उठे, किंतु उस स्मित में निहित दर्द और विद्रूपता छुपे ना रह सके !
सुनीति, सोमेश संग अनकही सी पीड़ा में डूब-उतरा रही थीं, ‘‘श्रुति के साथ विवाह की सहमति लेने मैं कानपुर गया... वैसे भी भैया और भाभी से मिले हफ्तों बीत गए थे। कानपुर जाने वाली बस में सवार हो कर मैं मानो
हवा की सवारी कर रहा था... मन बल्लियों उछल रहा था, किंतु भीतर एक संग्राम छिड़ा था... अनेक प्रश्न और प्रति प्रश्न उभर आए थे- कैसे वे लोग श्रुति के बारे में पूछेंगे और मैं कैसे उनको जवाब दूंगा। उन्हें कैसे बताऊंगा कि मेरी प्रेयसी पर एक पगली बहन का दायित्व भी है... इस बात को ले कर भैया-भाभी ने आनाकानी की, तो श्रुति को क्या मुंह दिखाऊंगा !

‘‘वह तो आंख मूंद कर मुझ पर विश्वास करती थी... अपने परिवार की गोपनीय बातें मुझसे साझा करने लगी थी, इसी से उसने बड़की उर्फ रीनू के बारे में और भी बहुत कुछ बताया था... यह कि वह बहुत खिलंदड़ी थी, अपने को किसी भांति लड़कों से कम नहीं आंकती थी। दादी उसको समझातीं कि वह लड़की की तरह शील-संकोच ओढ़े रहे, यह भी कि जींस-पैंट और टीशर्ट लड़कियों के लिए नहीं बने थे... लेकिन...!’’

‘‘लेकिन...?’’ सुनीति की बेचैनी चरम पर थी। पत्नी की आकुलता ने पति को उकसा दिया था। वे जल्द से जल्द दिल को हल्का कर देना चाहते थे।

इसी से कहते चले गए, ‘‘उसका मेलजोल लड़कों से था। उनके साथ उठना-बैठना... पढ़ाई और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेना और यदाकदा टिफिन शेअर करना... उसकी सहेलियां भी थीं, किंतु वह उनकी सोच को संकुचित पाती... एक दिन वह स्कूल से नहीं लौटी। परिवार वाले हैरान थे और पुलिस में रिपोर्ट लिखाने ही वाले थे कि वह बदहवास सी घर पहुंची... उसकी कमीज की बांह फटी थी, सिर से खून निकल रहा था... और घुटने छिले हुए...!’’ एक अल्प विराम के बाद सोमेश पुनः बोलने लगे, ‘‘दादी ने अनहोनी के निशान देख लिए थे और वे उसे रह-रह कर कोसने लगीं... यह कि मां-बाप से मिली छूट का नतीजा, रीनू का सर्वनाश बन कर सामने आया था, यह भी कि लड़कों से दोस्ती कभी फलती नहीं।

‘‘माता-पिता को आशंका थी कि किसी ने उनकी भोली बेटी के विश्वास को छला था। वह अपने साथियों, अध्यापकों और स्कूल के स्टाफ पर पूरा भरोसा करती थी। पहले से ही दादी की शिकायत रही कि वह कक्षा के बाद भी एकांत में किसी साथी या शिक्षक के साथ पाठ्यक्रम के सवाल सुलझाती रहती। इस बात का संकेत उन्हें उसकी बातों से कई बार मिल चुका था... उन्होंने चेतावनी भी दी...किंतु...!’’

पत्नी की आंखों में झांकते हुए चौधरी जी पुनः बोलने लगे, ‘‘क्या पता स्कूल में या फिर रास्ते में... कुछ ऐसा-वैसा घटा हो। रीनू की सहेलियों से पूछा, तो पता चला, कक्षा के बाद वह उनके संग नहीं आयी। उन्होंने भी सोचा कि वह अकेले ही घर चली गयी होगी। उसकी साइकिल भी नदारद थी। परोक्ष रूप से पूछताछ के बाद नंदन वर्मा शांत पड़ गए। मामले को ज्यादा खोदते, तो बेटी की बदनामी होती। इधर दादी के आरोपों और परिस्थितियों की क्रूरता के बीच रीनू गुम होती चली गयी। ग्लानि इतनी रही कि उसका बोलना-चालना, अध्ययन और खेलकूद सब पीछे छूटता गया और वह इंसान से एक बेजान मूरत बन गयी।’’

‘‘उसकी मनोचिकित्सा?’’ पूछते हुए श्रीमती चौधरी हकलाने सी लगीं। चौधरी जी ने खुद को संभाला और उत्तर दिया, ‘‘रीनू का परिवार साधारण आय वर्ग में आता था। उन लोगों को मानसिक चिकित्सा और महंगे आधुनिक इलाज की जानकारी ना थी, ना ही वे रोगिणी के आत्मविश्लेषण का महत्व समझते थे। सरकारी अस्पताल के मनोरोग विभाग में डॉक्टर संग उन्होंने बेटी की 4-5 बैठकें करायीं... किंतु रीनू अपनी मानसिक शिथिलता से उबर नहीं सकी। दादी के ताने उसके अपराधबोध को और भी गहरा रहे थे। मन का चक्रव्यूह महाभारत के चक्रव्यूह से भी अधिक जटिल होता है। बरसों बाद किसी शुभचिंतक मनोविज्ञानी ने दादी को इस बात के लिए कटघरे में खड़ा किया, किंतु तब तक तीर कमान से निकल चुका था। बड़की की हालत बेकाबू हो चुकी थी।

बड़की के परिवार ने तो पहले ही इस मर्ज को लाइलाज मान लिया... बेटी का हश्र कुछ भगवान पर और कुछ समय पर छोड़ दिया था... कहते भी हैं, ‘वक्त सबसे बड़ा मरहम होता है’ और फिर रीनू के इलाज को ले कर लोग तरह-तरह की बातें बना रहे थे सो अलग ! इधर बड़की अपने नाम से ही नफरत करने लगी। इस कारण घरवालों ने उसे रीनू कह कर बुलाना बंद कर दिया,’’ इतना बता कर चौधरी जी शांत हो गए।

‘‘श्रुति का क्या हुआ सोमेश?’’ सुनीति पूछे बिना रह नहीं पायीं। ‘सौत रह चुकी स्त्री के लिए इतनी चिंता...!’ सोमेश ने विचार किया और कहानी का छूटा हुआ सिरा फिर से पकड़ लिया, ‘‘हां, तो मैं बता चुका था कि कानपुर जाते समय मेरा मन उत्साह से भरा था। मैंने श्रुति और उसके माता-पिता को बोला कि अपने प्रिय भैया आरके चौधरी अधिवक्ता को साथ ले कर ही लौटूंगा।

रितेश भाई के बारे में खोल कर कुछ नहीं कहा। सोचा था कि वे अपने भव्य व्यक्तित्व का स्वतः परिचय देंगे... मेरे भावी ससुरालियों के लिए वह एक सुखद आश्चर्य होगा कि उसका अलग ही प्रभाव पड़ेगा !’’ पत्नी अपने पति के मुख पर चढ़ते-उतरते रंगों को देख रही थी। पति इससे बेखबर अतीत की धारा में बहते रहे, ‘‘शीतल भाभी ने श्रुति को ले कर मेरी खूब खिंचाई की। वहां मेरे चचेरे भाई सौमित्र भी मौजूद थे। जैसे ही भाभी खाना पकाने गयीं, सौमित्र भैया रितेश भाई की टांग खींचने लगे। उन्होंने खुलासा किया कि रितेश भाई भी प्रेम के पक्के खिलाड़ी रह चुके थे... कि वे बचपन से ही रसिक स्वभाव के थे... उनकी एक नहीं, बल्कि कई सारी ‘चाइल्डहुड स्वीटहार्ट्स’ थीं ! मिसाल के तौर पर उन्होंने अपने मोबाइल पर रितेश भाई की कई तसवीरें दिखायीं।

वे अधिकतर स्कूल और कॉलेज के ग्रुप फोटोग्राफ थे। एक में रितेश चौधरी की डिबेट पार्टनर, तो दूसरी में उनकी क्विज पार्टनर... एक तीसरी फोटो में वे हेडबॉय के रूप में सुशोभित थे और बगल में उनकी दोस्त हेडगर्ल के तौर पर आधिकारिक पोज दे रही थी। लंबे अरसे तक सौमित्र भैया के क्लासफेलो रहे... इसलिए उनकी रग-रग से वाकिफ थे... अचानक भाभी के आने से महफिल में खलबली मच गयी। आननफानन में मोबाइल छिपा दिया गया। दोनों बड़े भाइयों ने एक-दूसरे को आंख मारी। हास्य का गुंजार कहीं ना था, तो भी वातावरण में उसकी मूक स्वरलहरी ध्वनित हो रही थी। जाने क्यों, मैं उस शरारत में शामिल नहीं हो पाया, एक भारीपन सा महसूस हुआ... शायद अपने प्यार के अनिश्चित भविष्य को ले कर...!’’

कथा का इंद्रजाल सुनीति को अपने लपेटे में ले चुका था। सोमेश भी विगत की यात्रा में आगे बढ़ चले, ‘‘भाई मेरी प्रेम कहानी में सहयोग देने को राजी हो गए। मैंने उन्हें बता दिया कि बड़की से सावधान रहना होगा। वह कभी भी हमला कर सकती है। इस पर उन्होंने मुझे परेशान ना होने को कहा। मैं स्वयं चाहता था कि भाई उस पगली को ना देखें। स्त्रीसुलभ लज्जा छोड़ वह पैर खोल कर बैठती...सलवार का ऊपरी भाग बहुधा उघड़ा ही रहता। मालिनी आंटी उसके कुरते को खींचतीं... फिर कमर और घुटने के बीच फैला कर उस खुलेपन को ढांप देतीं... दुपट्टा ठीक कर बेटी की गरिमा बनाए रखने का जतन करतीं। यह जरूर था कि इस हिमाकत के लिए उससे अकसर मार खा जातीं!

‘‘खैर... हम श्रुति की ड्योढ़ी तक पहुंच गए। भाई ‘हीरो वाले’ अंदाज में अपना परिचय दे ही रहे थे कि काली मैया जैसे बाल बिखेरे बड़की प्रकट हुई। उसने आव देखा ना ताव, भाई का कॉलर पकड़ लिया... और...!!’’

‘‘और...?’’

‘‘और वह चिल्लायी, ‘रितेश... रितेश चौधरी ही हो ना तुम !’ उसकी आंखों से अंगारे बरस रहे थे। उसका वाक्य बिलकुल स्पष्ट था... ना कहीं शब्द अटके और ना ही स्वर बाधित हुआ... मुझे 440 वोल्ट का झटका लगा था... स्मृति में भाई के स्कूल वाली हेडगर्ल कौंध गयी- रिनी वर्मा... रिनी वर्मा और रीनू अदभुत साम्य... मुझे तसवीर देखते ही लगा था...!’’ सुनीति विस्फारित नेत्रों से सोमेश को देख रही थी।

बोलते समय वे हांफ से रहे थे, मानो आवाज उनके मुंह से नहीं... पृथ्वी के दूसरे किसी छोर से आ रही हो, ‘‘भाई औचक ही बोल पड़े, ‘रिनी!!’... और अपना कॉलर छुड़ा कर तीर की तरह वहां से निकल गए... रीनू सोफे में धंस गयी और दहाड़ें मार कर रोने लगी। रुलाई के स्वर बरसों बाद उसके अंतस से फूटे थे। उसने सदा की तरह दोनों पैरों को खोल नहीं रखा था, बल्कि आपस में सटा लिया था... जिस दुपट्टे को वह बारंबार फेंक देती थी, उसे कस कर देह से चिपका लिया था... वह कांप रही थी !’’ चौधरी जी जो कहना था कह चुके थे। पत्नी का सांत्वनाभरा हाथ उनके कंधे पर था। डिलीवरी बॉय खाना ले आया और कॉलबेल बजा-बजा कर थक गया, किंतु पति-पत्नी में से किसी ने भी वह घंटी नहीं सुनी... वे दूसरी ही दुनिया में थे !!