Tuesday 29 June 2021 02:54 PM IST : By Sonali Garg

बानो बेगम

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मेजर सुलेमान हैदर कंट्रोल रूम में बैठ कर पिछले दिनों मिली सरहद पार की सरगर्मियों की स्टडी कर रहे थे। कई सालों के युद्ध के बाद भी पाकिस्तान से होनेवाली घुसपैठ में कोई कमी ना आयी थी। तमाम कागजात मेज पर फैलाए मेजर के माथे की शिकनें गहरी होती जा रही थीं। तभी उनके मातहत कैप्टन रफीक की आमद हुई।

‘‘सर !’’

‘‘कहो रफीक, क्या नयी खबर?’’

‘‘खबर तो नहीं सर, इस बार तो जीते जागते सुबूत हैं।’’

‘‘मतलब?’’

‘‘कच्छ के मुहाने पर से पूरी की पूरी बारात पकड़ी है। दूल्हे की नहीं, दुलहन की। कहते हैं, हमारी जाति के लोग वहीं निकाह करते हैं। करीब 40-50 लोग हैं। अब निकाह करते हैं या कुछ और, खुदा जाने।’’

मेजर उठ खड़े हुए। जैसी उम्मीद थी, सबके सब, रोते-पीटते, सरहद पार जाने की भीख मांगते हुए। मर्द ज्यादा, औरतें कम। बच्चे ना के बराबर।

‘‘क्या करें हुजूर?’’ रफीक आगे आया।

‘‘कुछ नहीं। बस प्रोसीजर फॉलो करो। सरहद पार का तो सवाल नहीं। कागज देखो, कच्छ में कहां के हैं। फिर देखते हैं,’’ कहते हुए मेजर अपने टेंट की तरफ लौट गए।

पर थोड़ी देर बाद रफीक दोबारा हाजिर हुआ।

‘‘एक दिक्कत है सर।’’

‘‘कैसी दिक्कत?’’

‘‘इन लोगों के साथ जो दुलहन है, मतलब वह लड़की जिसका निकाह पढ़ा जाना है, उसके कागज नहीं हैं। उसका चाचा है, वही उसकी शादी करवा रहा था। मां जिंदा नहीं है। कस्टडी में रखना ठीक रहेगा हुजूर?’’

‘‘चलो, देखते हैं।’’

मेजर के सामने लड़की को बुलाया गया। दुलहन तो वह कहीं से ना मालूम होती थी। बस हाथों पर मेंहदी और चूडि़यों ने ही उसे भीड़ से अलग कर रखा था। मेजर ने हस्बेमामूल जो सवाल पूछे, उनका कोई जवाब ना आया। बस, सिसकियां गहरी होती चली गयीं।

हार कर मेजर ने कहा, ‘‘अगर कुछ भी पता ना चला, तो तुम्हें यहीं रहना पड़ेगा, कस्टडी में।’’

जवाब में काले बुर्के से ढकी सूरत को उसने अपनी हथेलियों से और जोर से ढांप लिया। अचानक से मेजर को लगा, बुर्के के काले कपड़े पर गोरी उंगलियों की चांदनी छा गयी।

‘‘रफीक...’’

‘‘जी सर।’’

‘‘यह बहुत यंग है, यहां अनसेफ रहेगी।’’

‘‘तो फिर सर?’’

‘‘थोड़े वक्त के लिए मेरे यहां भिजवा दो, अम्मी जान के साथ महफूज रहेगी। कुछ सोचते हैं आगे के लिए।’’

‘‘बहुत बेहतर सर।’’

सुलेमान हैदर को मेजर बने 15 वर्ष बीत चुके थे। अलीगढ़ के अदबी खानदान से निकल, गोला-बारूद की जंग में उतरना आसान ना था। पर इकलौते बेटे के जनून के आगे उनकी अम्मी की जिद हार गयी, और मेजर हर जंग पर एक मेडल सीने में बांध उनका सीना चौड़ा करने लगा।
फैमिली स्टेशन मिलता, तो जेबुन्निसा साथ हो लेतीं। हाथ के पके खाने खिलातीं और दुआओं के साये में घेरे रहतीं।

रफीक ने जब उस लड़की को उनके हवाले किया, तो उन्हें कोई खास अचरज ना हुआ। पहले कई मर्तबा मेजर के आशियाने पर मुफलिस और जरूरतमंद पनाह ले चुके थे। हां, एक औरत का वजूद पहली बार नमूदार हुआ था।

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

कोई जवाब नहीं। जेबुन्निसा समझ गयीं कि जमाने की गर्दिशों ने जबान पर ताले लगा दिए हैं।

‘‘अच्छा कोई बात नहीं, घबराओ नहीं, यहां तुमसे कोई कुछ नहीं कहेगा। हां, बात करने को मन हो, तो बेझिझक हमसे कर सकती हो।’’

मेजर घर आए, तो रस्मी तौर पर मां को समझा दिया। घर बड़ा था, रहनेवाले दो, जिसमें एक की आवाजाही का ना पता चलता था, ना आहट होती थी। किसी कोने में, किसी गोशे में, बानो कैसे समा गयी, उसे खुद भी पता ना चला। हां, बोलचाल के लिए जेबुन्निसा ने यही नाम रख दिया था उसका। नाम और आदत से मुसलमान थी ही। रोजेदार और पर्देदार होने की आदत से मेजर की अम्मी के दिल में भी जगह पा गयी।
मेजर की जिंदगी बंजारों की सी थी। बानो को घर में रखवा कर उसकी खोज-खबर लेना उसे याद ना रहा। एक इमरजेंसी एक्सरसाइज पर वह तिब्बत की तरफ निकल गया। दो महीने बाद घर लौटा, तो देखा कि घर की फ़िज़ां बदली-बदली सी थी। अम्मी के हाथ के आलू गोश्त की जगह हलीम और कबाब मेज पर सजे थे।

‘‘इतना एहतेमाम, अम्मीजान?’’

मेजर पूछे बिना ना रह सका, हालाकि एक कौर चखते ही जान गया था कि यह एहतेमाम अम्मी ने नहीं, किसी और ने किया है।

जेबुन्निसा मुस्करायीं।

‘‘तुम बस खाओ बरखुरदार। अभी थके हो। कल बात करेंगे।’’

बात तो कल होनी थी। पर रात को मेजर के कमरे में बादाम का दूध आया, तो मेजर की रगें भीतर तक भीग गयीं। वह उठ कर अम्मी के कमरे तक जा पहुंचा।

‘‘अम्मी, वह लड़की अभी तक यहीं है?’’

‘‘और कहां जाएगी बेटा?’’

‘‘पर मैंने तो रफीक से कहा था कि...’’

‘‘देखो हैदर। तुम उठ कर आ ही गए हो, तो आराम से बैठ कर मेरी बात सुनो।’’

मेजर के पास बैठने के सिवा कोई चारा ना था।

‘‘इन 2 महीनों में मैंने बानो को खंगालने की बहुत कोशिश की। लेकिन घर या घरवालों के नाम पर उसके पास सिवा आंसुओं के कुछ भी नहीं। मुझे नहीं लगता, उसके पास घर जैसी कोई चीज है।’’

मेजर चुप था। जेबुन्निसा कहती रहीं।

‘‘असमां के इंतकाल के बाद मैंने कभी तुमसे दूसरी शादी की बात नहीं की। सिर्फ अल्लाह से तुम्हारी खुशी मांगी। बानो को देख कर लगता है, ऊपरवाले ने मेरी सुन ली।’’

‘‘पर अम्मी...’’

‘‘देखो हैदर, लड़की छोटी उम्र की जरूर है, पर बेहद समझदार और सब्रदार। तुम्हें खुश रखेगी। आगे ऊपर वाला मालिक है।’’

‘‘अम्मी, आप...’’

जेबुन्निसा ने उसके होंठों पर हाथ रख दिया, ‘‘इसे मेरी ख्वाहिश ही समझ कर कुबूल कर लो।’’

उस जमाने की हवा कुछ और थी। बेटे मांओं की ख्वाहिश पर कुर्बानी के लिए भी सिर झुका दिया करते थे। फिर यहां सिर जिबह के लिए नहीं, सेहरा बांधने के लिए ही झुकना था। सो मेजर सुलेमान हैदर ने मां को ही कह कर मुतमईन कर दिया कि बानो उन्हें कुबूल है।
पर मां की हुक्मपरस्ती का सवाब इस कदर उन्हें मालामाल करेगा, मेजर ने ख्वाब में भी नहीं सोचा था। बानो तन की मीठी, मन की मीठी और जबान की तो इतनी मीठी थी कि मेजर की जिंदगी में सिर से पैर तक शीर खुरमे की मिठास भर गयी। काले बुर्के में से जब बुर्के वाली निकली, तो उसके रूप की चमक से मेजर के दरोदीवार चुंधिया गए। बानो तो बानो, मेजर तक भूल गया कि कभी किसी गुमशुदा बारात की गुमशुदा दुलहन उसके घर में पनाह लेने आयी थी। आज वही बानो उसके सिर की ताज थी, ‘हैदर हाउस’ की मलिका, उसके दो कद्दावर जवान बेटों की मां। फौज की मरहलें तय करके अब मेजर भी मेजर ना रहा था। ब्रिगेडियर सुलेमान हैदर जब फौजी पार्टियों में बेगम हैदर के साथ शिरकत करते, तो मातहतों से ले कर उनके सीनियर्स के कलेजे भी फुंक कर राख हो जाते। घर और बाहर, दोनों मोर्चों पर फतह पायी थी ब्रिगेडियर ने, और वे मन ही मन बानो को इस जीत में शरीक करते ना थकते थे।

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आज फिर एक जलसे से लौट कर बानो अपने जेवर संभाल रही थी। हैदर प्यार से उन्हें तक रहे थे। बढ़ती उम्र के साथ कुछ बढ़ा था, तो बेगम का हुस्न।

‘‘क्या बात है मेजर साहब,’’ तरक्की के बावजूद बानो उन्हें मेजर ही कहा करती थी, उनकी जिंदगी का मसीहा इसी रूप में उन्हें मिला था।

‘‘कुछ नहीं बेगम, बस सोच रहा हूं आप बेहद खूबसूरत लग रही हैं।’’

‘‘यह आज मालूम हुआ आपको?’’

‘‘नहीं, महसूस हुआ। नए सिरे से।’’

‘‘वह क्यों?’’

मेजर ने कोई जवाब ना दे कर उन्हें अपने पास बिठा लिया। कुदरत जब उम्मीद से ज्यादा नवाज दे, तो उसकी दरियादिली पर शक होने लगता है। वही हैदर के साथ हो रहा था।

‘‘आपका मेरी जिंदगी में आना, यों रस-बस जाना...आपको नहीं लगता कि खुदा बहुत ज्यादा मेहरबान है?’’

‘‘बेशक। उसके हुजूर में जितने भी सजदे किए जाएं, कम हैं।’’

‘‘फिर भी, कभी-कभी लगता है, कुछ अनदेखा, अनछुआ सा है हमारे बीच, वह मैं कभी जान नहीं पाया।’’

बानो बेगम ने अपने शौहर को ध्यान से देखा। नहीं, यह मेजर नहीं, ब्रिगेडियर सुलेमान हैदर की रूह थी, जो जानना चाहती थी उनके बारे में। जबकि उनकी रूह का रेशा-रेशा तो कब से मेजर की रूह से मिल चुका था।

‘‘क्या जानना चाहते हैं आप?’’

‘‘बेगम यों ही कभी-कभी सोचता हूं, ऐसा मैंने क्या किया था, जो तुम्हें पाया। पता है, पिछले दिनों बड़े चर्चे थे एक फिल्म के। एक हिंदुस्तानी लड़की पाकिस्तानी जनरल के घर में ब्याह दी जाती है। 71 की लड़ाई की खबरें पहुंचाती है। एक जासूस की तरह...’’

बानो बेगम के चेहरे का लहू सूखा जा रहा था। मेजर बात क्या पूरी करता, उनके सीने पर गोली दाग रहा था। अचानक उसे भी लगा कि गोलियां मिसफायर हो गयीं।

‘‘अरे बेगम तुम भी, मैं तो छेड़ रहा था। ओफ्फोह, मजाक भी नहीं समझतीं तुम।’’

खुदा जाने बानो क्या समझी, पर मेजर इतना तो समझ गया कि मजाक बेगम के गले नहीं उतरा। बेगम के साथ किया मजाक घर की खुशनुमा हवा में घुन की तरह चिपट जाएगा, उसे मालूम ना था। बानो ऊपर से तो वही नजर आती, पर उसके भीतर कहीं कुछ चटक गया था।

उसने सोचने की बहुत कोशिश की, पर जिंदगी का कोई सिर हाथ ना लगा। बीते सालों में उसने अपनी सारी ताकत मेजर का चमन सींचने में लगा दी थी। अपने गुजरे हुए कल को भुला कर हर उस शह को अपना लिया था, जो उसके आनेवाले वक्त से मंसूब था। फिर कहां झोल रह गया? कहां से मेजर के दिल में उसके वजूद को ले कर ये दरारें पैदा हो गयीं? वह सोचती जाती और सोच-सोच कर हलकान होती जाती। जो बात अभी तक बानो के पल्ले ना पड़ी थी, वह दरअसल उसकी हस्ती के बहुत ऊपर की चीज थी। वह ना समझ सकी थी कि पाकिस्तान से हो कर हिंदुस्तान में घुल-मिल जाना उसने जिस जज्बे के तहत किया था, वह मोहब्बत के सिवा कुछ और भी हो सकता है। उसके लिए सुलेमान हैदर सिर्फ नाम का मेजर था, उसके फौजी रुतबे या मकाम से उसे कुछ खास लेना-देना नहीं था। मेजर अपने आगे उसके रिश्ते को किसी फौजी निगाह से भी जांच सकता है, यह दूर-दूर तक उसके वहमो-गुमान में भी ना था। वह समझ ना पायी कि इंसानों की दुनिया में सतही चीज के दो पहलू हैं- एक जो नजर आता है, और दूसरा जो सतह के नीचे छिपा होता है। और तुर्रा यह कि कई बार जब नजर सोच ले कि सच सतह के नीचे ही छिपा है, तो सतह के ऊपर का सच अनदेखा ही रह जाता है। बानो चाह कर भी अपनी सचाई के सुबूत नहीं ला सकती थी, ना ही कोई गवाह था, जो उसकी शराफत की कसम खाता। मेजर तो उस शराफत की हंसी उड़ा कर भूल गया। बानो की हंसी उस गुबार में ऐसी खोयी कि उसके लबों पर सदियों के ताले लग गए।
अनवर और असलम जब छुट्टियों में घर आए, तो मां की तबीयत में फर्क उन्हें भी महसूस हुआ। पर मेजर की खुशगप्पियां बढ़ी हुई मालूम होती थीं। वह चाह रहा था सब झाड़-झूड़ कर बेगम के दिल से साफ कर डाले, पर बेगम के दिल पर लगा जाला था कि बढ़ता ही जाता था। मेजर की जी जान की मेहनत पर पानी फेरती बेगम भीतर ही भीतर सूखने लगी। घर यों ही बेला-मोगरा से महकता, पर बेगम के बाल गजरों से महरूम रहते। ईद-बकरीद पर पकवान बनते, पर बेगम एक लुकमा भी ठीक से ना खा पातीं। और खुद को सभी से ढकते-बचाते एक दिन तार-तार हो ही गयीं।

आज चौबीस दिन से बानो बेगम का बुखार ना उतरा था। हैदर अब ना मेजर रहा था, ना ब्रिगेडियर। फौज की वर्दी से रिटायर होते ही इंसानी जज्बों ने जोर मारा था। उसके दिन-रात अब बानो के नाम थे, पर बानो थी कि किसी और ही सफर पर सवार।

‘‘मेरे छोटे से मजाक ने तुम्हें इतना जख्मी किया बानो, उसे भूल नहीं सकतीं?’’

बानो फीकी सी हंसी हंस दी।

‘‘मेजर साहब, आपके कानून में जासूस की क्या सजा तजवीज है?’’

मेजर चुप।

‘‘कहिए ना।’’

‘‘बेशक सजाए मौत।’’

‘‘तो बस, खुदा ने भी मुझे वही सजा सुना दी है। मैं जासूस तो नहीं, आपके घर में घुसपैठिया तो जरूर हूं।’’

‘‘बानो, मुझे बख्श दो।’’

‘‘नहीं मेजर साहब, बख्शनेवाला सिर्फ रसूले पाक है। पर आपसे गुजारिश है मेरा पोस्टमार्टम जरूर करवाइएगा।’’

‘‘बानो...’’

‘‘मुझे कहने दीजिए। डॉक्टर की छुरी जब मेरे सीने पर चले, तो कहिएगा कि रिपोर्ट में मेरे लहू का रंग जरूर लिखे। वहां क्या लिखा जाएगा, यह भी बताती हूं।’’

‘‘क्या...’’ मेजर के मुंह से फूटा।

‘‘यही कि लहू का रंग मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं।’’

और बानो ने आंखें मूंद लीं। मेजर हार गया मोहब्बत की जंग, गोकि इसे जीतना उसे कभी सिखाया ही नहीं गया।