Tuesday 23 March 2021 11:20 AM IST : By Sangeeta Mathur

पल्लू पुराण

pallu-puran

बृजेश जी टेबल पर ऑनलाइन आए सामान का ढेर देख ठिठक गए। एक-दो-तीन... दस टिशू के पैकेट। गलती से तो नहीं आ गए !

अखबार समेटता रोहन वहीं आ गया, ‘‘अपने ही हैं पापा, कोई गलती से नहीं आए हैं। निया को हर चीज टिशू से ही साफ करने की आदत है। चाहे आरव का मुंह पोंछना हो या खाने की प्लेट।’’

‘‘कमाल है, तुम्हारी मां तो यह सब अपने पल्लू से ही कर लेती थीं, जमाना सचमुच कितना बदल गया है।’’ सारा वार्तालाप सुन रही निया सोच में पड़ गयी। तभी रसोई से वृंदा जी अपने पल्लू से हाथ पोंछती बाहर निकलीं। टिशू का ढेर देख वे भी चौंक गयीं।

‘‘मम्मी, अभी कोरोना की वजह से घर में टिशू की खपत बढ़ गयी है। वैसे आप लोग मुंह पोंछने, डस्टिंग आदि के लिए क्या यूज करते हैं? पापा ‘पल्लू’ का जिक्र कर रहे थे। क्या होता है यह? मैं आॅर्डर कर दूं?’’ निया ने भोलेपन से पूछा, तो वृंदा जी की हंसी छूट गयी, ‘‘हा... हा... पल्लू ऑर्डर पर नहीं मिलता निया रानी। यह होता है पल्लू,’’ वृंदा जी ने अदा से अपनी साड़ी का पल्लू लहराया, तो निया हैरत से देखती रह गयी। प्यार से उसके गाल पर थपकी दे कर वृंदा जी अपने कमरे में चली गयीं। विदेश में पली-बढ़ी अपनी बहू के नादान सवालों पर उन्हें अकसर ऐसे ही प्यार उमड़ आता है।

‘‘आप फ्री हो गयी हों, तो नीचे टहल आते हैं,’’ बृजेश जी के टोकने पर वृंदा जी की विचार शृंखला को विराम लगा। सवेरे की गुनगुनी धूप में नीचे कंपाउंड में घूमना दोनों का प्रिय शगल था। मास्क लगा कर दोनों नीचे आ गए।

‘कैसी विडंबना है। हवा एकदम शुद्ध हो गयी है, पर मास्क लगाना जरूरी है। सड़कें खाली पड़ी हैं, पर लॉन्ग ड्राइव पर नहीं जा सकते। हाथ एकदम साफ सैनिटाइज्ड हैं, पर हैंड शेक नहीं कर सकते। सब दोस्त खाली हैं, पर गेट-टुगेदर नहीं कर सकते। अंदर का कुक बाहर आने को मचल रहा है, पर किसी को खाने पर नहीं बुला सकते,’’ वृंदा जी ने अपनी पीड़ा शेअर की।

‘‘लेकिन यह अच्छा हुअा कि पहली बार सबने घर पर इतना वक्त एक साथ गुजारा है। आरव भी अब बोलने लगा है, तो दिन कैसे गुजर जाता है पता ही नहीं लगता। निया भी हमसे कितना हिलमिल गयी है। बहुत प्यारी बच्ची है। विदेश में पली-बढ़ी है, पर बेहद विनम्र, सरल और स्नेही है,’’ बातें करते दोनों घर में दाखिल हुए, तो पाया बेटा-बहू किसी वाद-विवाद में उलझे हैं। उन्हें देखते ही रोहन ने चैन की सांस ली, ‘‘किस चक्रव्यूह में फंसा कर छोड़ गए थे आप दोनों मुझे? घंटेभर से पल्लू को ले कर सवाल-जवाब किए जा रही है। लगता है पल्लू पर शोध ग्रंथ लिख कर ही मानेगी। मैं चला अपनी ऑनलाइन मीटिंग अटेंड करने। आप जानो और आपका पल्लू।’’

‘‘चल, उधर बैठ कर बात करते हैं,’’ वृंदा जी स्नेह से निया का हाथ थाम कर सोफे पर बैठ गयीं। बृजेश जी भी आराम कुर्सी पर पसर गए।

‘‘बेटी, यह तो तुम जानती ही हो कि साड़ी प्रत्येक भारतीय नारी के लिए एक आदर्श पहनावा है। उसका पल्लू उसे एक गरिमामयी छवि प्रदान करता है। पल्लू शब्द के उच्चारण मात्र से ही आंखों के सामने भारतीय नारी की विविध छवियां अंकित हो जाती हैं। पल्लू के सहारे चूल्हे से गरम बरतन को उतारती, पल्लू से बच्चे का पसीना, नाक-कान पोंछती, पल्लू का गोला बना कर फूंक मार कर दुखती आंख पर लगाती...’’

‘‘एक मिनट वृंदा, उसे एक-एक चीज दिखा कर समझाओ। उसने यह सब ना देखा है, ना सुना है।’’

वृंदा जी ने अपने पल्लू से गोला बना कर, फूंक मार कर आंख पर लगा कर दिखाया, तो निया हैरान रह गयी, ‘‘इससे आंख ठीक हो जाती थी? यह फर्स्ट एड था?’’

‘‘यही फर्स्ट और लास्ट एड होता था। आंख का दर्द इससे छूमंतर हो जाता था और 2 मिनट में बच्चा वापस खेलने लग जाता था,’’ बृजेश जी ने समझाया, तो निया ने अगली आशंका जता दी, ‘‘पल्लू से हाथ, मुंह, नाक, कान पोंछना अनहाइजीनिक नहीं होता?’’

‘‘बिलकुल होता है। आज के संदर्भ में तो ऐसा बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन बेटी, उस जमाने में सब कुछ बहुत शुद्ध और पवित्र होता था। वातावरण भी शुद्ध, खानपान भी शुद्ध, पानी भी शुद्ध। बैक्टीरिया-वायरस का तो हमने नाम भी नहीं सुना था। और जब सब कुछ शुद्ध था, तो लोगों की इम्युनिटी भी बहुत अच्छी होती थी। बच्चे मिट्टी में खेलते रहते। मिट्टी खाते रहते, लेकिन मजाल है कि बीमार पड़ जाएं। इसलिए उस समय स्वच्छता को ले कर आज जितनी सावधानियां नहीं बरती जाती थीं। यह सब कुछ सहज ही हो जाता था। इसे प्यार, अपनत्व माना जाता था। मैं स्वयं हाथ धो कर इनके पल्लू से पोंछ लेता था।’’

‘‘और मैं इनका ऐसा प्यार पा कर निहाल हो जाती थी। तब प्यार ऐसे ही जताया जाता था। यह अखबार खोल कर बैठते, तो मैं सब काम छोड़ कर पहले चाय चढ़ा देती। यह मेरा इनके प्रति प्यार था।’’

परस्पर प्यार के इस अनूठे प्रदर्शन से निया भावविभोर थी।

‘‘मां की गोद में सोने वाले बच्चों के लिए गोद गद्दा और पल्लू ओढ़ने की चादर का काम करता था। किसी आत्मीय या बच्चे के चोट लग जाती, तो घबरायी मां के लिए अपना पल्लू फाड़ कर उसकी तुरतफुरत मरहम-पट्टी कर देना आम बात थी।’’

‘‘बिलकुल,’’ बृजेश जी ने सहमति जतायी।

‘‘जब कोई अनजान घर पर आता, तो बच्चे मां के पल्लू की ओट ले कर उसे देखते थे। जब भी बच्चे को शरम आती, वह मां के पल्लू से अपना मुंह ढांप कर छिप जाता था। रोहन ऐसा ही करता था। हम भी अपने सास-ससुर और बड़ों से पल्लू की ओट लेते थे। तब उनके प्रति ऐसे ही सम्मान दर्शाया जाता था। मैंने बताया ना समय, उम्र, परिस्थिति, स्थान आदि के अनुसार जीवन के ढंग और मायने बदल जाते हैं...’’

‘‘और बदलते मायनों के अनुसार स्वयं को बदलना आपकी ताकत दर्शाता है, कमजोरी नहीं। बेटी, जब पूरा परिवार मेले या भीड़भाड़वाली जगह पर जाता था, तो मां का पल्लू बच्चों के लिए मार्गदर्शक का काम करता था। जब तक बच्चे ने मां का पल्लू थाम रखा होता था, उसे लगता कायनात उसकी मुट्ठी में है। आज भले ही मां का पल्लू पकड़ने वाले पुत्र को ममाज बॉय कह कर उपहास उड़ाया जाता है, पर तब ऐसे पुत्रों को श्रवण कुमार कह कर उनका उदाहरण दिया जाता था। अकसर लौटने में जब ठंड बढ़ जाती, तो वृंदा रोहन को अपने पल्लू से ढांप कर ठंड से बचाने का प्रयास करती। भले ही इस प्रयास में अगले दिन खुद ठंड से जकड़ जाती।’’

निया की आंखों के कोर नम हो उठे थे। लेकिन इससे अनभिज्ञ वृंदा जी और बृजेश जी का पल्लू पुराण जारी था, ‘‘तब एप्रन नहीं होते थे। पल्लू ही एप्रन का काम करता था। रसोई में घुसते ही कमर पर पल्लू लपेट कर खोंसा और लग गए काम पर।’’

‘‘आप तो अभी भी ऐसे ही करती हैं,’’ निया ने शिकायती लहजे में कहा ।

‘‘अब बरसों की आदत जाते समय तो लगेगा ही। हम तो पल्लू से ही घर में रखे सामान की धूल आदि भी झाड़ लेते थे। पल्लू में गांठ लगा कर रुपए-पैसे, छोटा-मोटा गहना तक सुरक्षित रख लेते थे। घर की महत्वपूर्ण चाबियां हम अपने पल्लू में बांध कर रखती थीं। भंडार घर, रसोईघर सबकी चाबियों का गुच्छा अपने पल्लू में बांध कर घूमती हमें राजरानी की सी अनुभूति होती थी,’’ वृंदा जी का चेहरा दर्प से दिपदिपा उठा था।

‘‘सच, विज्ञान इतनी तरक्की के बाद भी पल्लू का विकल्प नहीं ढूंढ़ पाया है। बेटी, पल्लू की महिमा का कहां तक गुणगान करें। यह एक जादुई अहसास है। मां के प्यार और स्नेह को महसूस करने का जरिया है। पुरानी पीढ़ी, पुरानी यादों से जुड़े रहने का माध्यम है, जो आज की पीढ़ी की समझ से परे है।’’

‘‘अब से मैं साड़ी ही पहनूंगी,’’ बृजेश जी का वाक्य समाप्त ही हुआ था कि निया ने जोश में उद्घोषणा कर दी।

‘‘नहीं बेटी, तुम्हारी भागदौड़भरी लाइफस्टाइल के लिए साड़ी उपयुक्त पोशाक नहीं है। खुद मैं भी बढ़ती उम्र में सलवार-कुरता पसंद करने लगी हूं।’’

मीटिंग समाप्त कर कमरे से बाहर आते रोहन ने अंतिम वार्तालाप सुन लिया था। ‘‘सूट का दुपट्टा तो तुमसे संभलता नहीं और साड़ी संभालोगी? मां, यह कुछ भी पहन ले, इसकी चाल तो जींस वाली ही रहेगी।’’

‘‘बस-बस, इस जन्मदिन पर अपनी प्यारी बहू को मैं एक प्यारी सी बनारसी साड़ी गिफ्ट करूंगी। रोहन, तू देखना निया उसे कितने अच्छे से कैरी करेगी?’’ सासू मां की बातें सुन कर निया पल्लू के ख्यालों में खो गयी।