डा.कंचन का फोन आया था, ‘‘आज हमारे कारावास में कान्हा ने जन्म लिया है सुमि।’’ उस समय मैं अपने घर में जन्माष्टमी की झांकी सजा रही थी। डॉ. कंचन इस शहर में मेरी प्रिय सखियों में से एक थी। जिला जेल की यह डॉक्टर अनायास ही मेरे संपर्क में आ गयी थी। उस दिन पोस्ट ऑफिस से लौटते समय सचिवालय के सामने कुछ प्रदर्शनकारियों ने उपद्रव कर दिया था। पुलिस लाठीचार्ज करने लगी। सड़क के किनारे हैरान, परेशान सी मैं बस की प्रतीक्षा कर रही थी कि अनायास ही एक भद्र महिला ने अपनी कार ठीक मेरे बगल में रोक दी, ‘‘कहां जाना है आपको। आइए, मैं छोड़ देती हूं। यह बवाल तो अभी 2 घंटे तक थमने वाला नहीं है।’’ उसने बैठे-बैठे ही अपनी कार का दरवाजा मेरे लिए खोल दिया। मैं कुछ झिझक रही थी।
‘‘क्या हुआ, डर रही हैं क्या?’’ वह हंस पड़ी, ‘‘घबराइए मत, मैं यहीं जिला जेल में डॉक्टर हूं, डॉ. कंचन। सरकारी नौकरी वाली हूं। धोखा नहीं दूंगी आपको।’’
उस महिला की स्निग्ध हंसी देख कर मेरी सारी हिचक, सारा डर जाता रहा और मैं आराम से उसकी कार में जा कर बैठ गयी।
‘‘पता नहीं क्यों, आपको देख कर मुझे लगा कि मैं आपको पहले से जानती हूं। हालांकि ऐसा नहीं है, लेकिन कुछ चेहरे बेहद परिचित लगते हैं। इतने लोगों की भीड़ में आपसे बात करने का, आपकी मदद करने का मन चाहा, तो कुछ बुरा तो नहीं किया मैंने,’’ जब वह पुनः हंसी, तो मेरा रहा-सहा संकोच भी जाता रहा। पास में ही घर था मेरा। अपने घर का पता बता कर मैं आराम से बातें कर रही थी डॉ. कंचन से। सही कह रही थी वह। थोड़ी ही देर में ऐसा लगा कि हम दोनों जाने कब से एक-दूसरे को जानते हैं। प्रदर्शनकारियों का वह बवाल तो हम लोगों को मिलाने का एक बहाना मात्र था।
धीरे-धीरे हम लोगों का यह परिचय अटूट मित्रता की डोर से बंध गया। डॉ. कंचन के पति नहीं थे। कम उम्र की इस डॉक्टर ने नियति के इस विधान को बेहद धैर्य के साथ स्वीकार कर लिया था। बड़ों की सहमति से हुए उसके ब्याह में पति भले-चंगे, सुदर्शन और अच्छी नौकरी वाले थे, किंतु उनके तन के भीतर का रोग कोई ना देख सका था। उनके दिल का एक वॉल्व कुछ गड़बड़ था। इलाज बराबर चल रहा था। धोखे से ब्याह हुआ था कंचन का। यह बात पति और ससुराल वाले दोनों ही छिपा ले गए। कंचन जब तक कुछ समझ पाती तब तक ब्याह के कुछ महीने बाद ही नयी ब्याहता पत्नी, मां-बाप, परिवार को छोड़ कर उसके पति चल बसे। सास ने सोचा था ब्याह कर देने से पत्नी के भाग्य से शायद उनके बेटे की आयु बढ़ जाए या शायद बहू की कोख में खानदान का वंशबीज ही पनप जाए, किंतु इन दोनों ही आशाअों को कंचन पूरा नहीं कर सकी सो पढ़ी-लिखी डॉ. कंचन ससुराल से खोटे सिक्के की तरह फेर दी गयी। कंचन ने दोबारा ब्याह नहीं किया। अपने जीवन से वह असंतुष्ट भी ना थी।
‘‘सुमि, हर तरह के लोग मिलते हैं इस पेशे में। मेरा प्रयास यही रहता है कि मैं इन बंदिनियों के शारीरिक ही नहीं, मानसिक कष्ट भी दूर कर सकूं। अचानक किसी आवेश में किए गए पाप का प्रतिफल तो ये लोग पल-पल भुगत ही रही हैं। इनका मानसिक कष्ट तो रात-दिन ईश्वर भजन से भी दूर नहीं हो पाता,’’ कंचन अकसर कहती।
आज तो जेल में सुंदर झांकी सजी होगी, मैं सोच रही थी कि रात में देखने जाऊंगी। इसी बीच डॉ. कंचन का फोन आ गया। जिस समय जेल के द्वार पर मैं पहुंची, तो संभवतः सिपाहियों को मेरे आने की सूचना पहले ही मिल चुकी थी। कार का नंबर पहचान कर उन दोनों वर्दीधारियों ने लोहे का मोटा द्वार मेरे लिए खोल दिया। अंदर जाते हुए मैं उस बंदीगृह का वातावरण देख रही थी। जेल में आने का मेरा यह प्रथम अनुभव था। थोड़ी ही दूर पर डॉ. कंचन दिख गयी और मैं कार को किनारे रुकवा कर उतर ली।
‘‘सुमि, झांकी देखने का मन है या आज ही अवतरित हुए कान्हा को देखोगी,’’ कंचन अपनी चिरपरिचित हंसी के साथ बोली, ‘‘बेहद प्यारा बच्चा है। इसे तो राजमहल में जन्म लेना चाहिए था, लेकिन इसके भाग्य में कालकोठरी बदी थी।’’
सच में कंचन ने मेरे मन की बात जान ली थी। उसी ने मुझे बताया कि बच्चे की मां हत्या की सजा भुुगत रही है। झांकी देखने का विचार तो मन से कब का निकल चुका था। उसकी जगह मेरा जिज्ञासु मन लगातार इस बंदीगृह की बंदिनियों के विषय में सोच रहा था। मैं सोच रही थी कि क्या कोमल हृदया नारी भी समय पड़ने पर हत्या जैसा जघन्य अपराध कर सकती है। चोरी, डकैती, ठगी तो एक तरफ, हत्या करते समय भी क्या उसका मन नहीं कांपता।
‘‘झांकी तो फिर कभी देख लूंगी कंचन, अभी तो देवकी से मिलवा दो।’’
‘‘देवकी!’’ कंचन चौंकी।
‘‘क्यों कान्हा की मां का नाम देवकी ही तो था,’’ मैं बोली, तो जेल के सन्नाटेदार वातावरण में हम दोनों की सम्मिलित हंसी गूंज उठी।
कंचन मुझे जेल के तथाकथित सौरीगृह में ले गयी। मोटी दीवारों से घिरा जेल का वह कमरा बेहद शांत था कि सहसा नन्हे बच्चे का रुदन गूंज गया, ‘‘उहां-उहां।’’
मैंने देखा कि करवट ले कर वह बंदिनी बच्चे को चिपका कर दूध पिलाने लगी। उस बंदिनी के इर्दगिर्द 2-3 महिला कैदी और भी खड़ी थीं। हमें देख कर वे किनारे सरक लीं। वे भावहीन रूखे चेहरे जीवन की व्यथा झेल कर इतने निरर्थक हो गए थे अथवा जेल की चारदीवारी के भीतर उनका रस सूख गया था, पता नहीं। किंतु उन रस माधुर्य रहित चेहरों पर भी उस समय क्षणभर को आयी मातृत्व की मीठी हिलोर मैंने देख ली थी।
‘‘इसका प्रसव समय पूर्व हो गया। अचानक और बिना किसी कॉिम्प्लकेशन के,’’ कंचन ने बताया, ‘‘मैं तो बस फॉर्मेलिटी के लिए आ गयी थी।’’
‘‘अमिता, देखो तुमसे मिलने कौन आया है,’’ कंचन ने पुकारा। जैसे ही वह बंदिनी मेरी तरफ घूमी तो मैं भीतर तक काठ हो गयी, ‘अमिता, अमिता, तुम्हें इतने बरस बाद देखूंगी और वह भी इस रूप में मैंने सोचा भी ना था।’ मन में जैसे आंधियां चल रही थीं। हमारी आंखें मिलीं और आंसुअों की गंगा-जमुना से धुल कर 2 जोड़ी आंखें मानो एकरस हो गयीं। हमारे पास बोलने को शब्द ना थे। हम एक-दूसरे से लिपट कर निशब्द रो रहे थे कि सहसा अमिता बेहोश हो गयी। कंचन ने आहिस्ता से हमें अलग किया और अमिता का चेकअप करने लगी।
‘‘अभी प्रसव के बाद की कमजोरी है थोड़ी, सिस्टर इनका ध्यान रखना,’’ कहते हुए कंचन मेरा हाथ पकड़ कर बाहर आ गयी।
‘‘तुझे कुछ कंफ्यूजन तो नहीं हुआ है, सुमि। एनी वे, इस लेडी ने अभी-अभी हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि ली है। कोई अनपढ़, गंवार होती, तो शायद मैं तुम्हें यहां लाती भी नहीं। लेकिन अमिता जैसी सौम्य महिला को इस स्थिति में देखना मुझे भी अच्छा नहीं लगा। इस हादसे के बाद से यह बिलकुल चुप सी हो गयी है,’’ कंचन बता रही थी और मेरी सिसकियां थम ही नहीं रही थीं। कंचन मुझे अपने कमरे में ले आयी।
पानी पी कर मैं थोड़ी संतुलित हुई, ‘‘नहीं कंचन, कोई कंफ्यूजन नहीं हुआ है मुझे। कभी मैं और अमिता एक ही थे। घर, बाहर, स्कूल एक-एक पल हमारा साझे का था। इस चेहरे को मैं कैसे भूल सकती हूं,’’ मैंने भर्राए कंठ से कहा, ‘‘मुझे नहीं पता कि अमिता आज इस कालकोठरी में कैसे आ पहुंची, लेकिन उसका अतीत उतना ही अल्हड़, मासूम और बचकाना है जितना किसी आम लड़की का हुआ करता है।’’
कंचन मेरी असामान्यता देख कर स्तब्ध थी। वह संवेदनशील महिला थी। मेरे आंसू देख कर उसकी आंखें भी नम थीं।
‘‘अच्छा किया सुमि, जो तुम यहां आयी, अमिता से मिली। उसके मन की गुत्थी जो कोई ना खुलवा सका, उसे खुलवाने के लिए शायद विधाता ने तुम्हें यहां भेजा है। फांसी की सजा हुई थी इसे। अपने रिसर्च गाइड की पत्नी का मर्डर किया है इसने। सजा कम्यूट कर दी गयी इसकी फुल टाइम प्रेगनेंसी देख कर। बचाव पक्ष का वकील भी क्या करता जब इसने अपना अपराध स्वयं ही स्वीकार कर लिया।’’
सहसा मैं चौंकी, ‘‘लेकिन अमिता का तो पढ़ने-लिखने में जरा भी मन नहीं लगता था। उसकी पढ़ाई तो 12वीं के बाद रोक दी गयी थी। उसका ब्याह तय हो गया था,’’ कहते-कहते मैं रुक सी गयी, ‘‘कई बरस बीत गए कंचन, वे स्कूल के दिन, घर-आंगन के खेल और गरमी की छुटि्टयां। कुछ भी तो नहीं भूलता। उस अल्हड़ उम्र में भी अमिता हिंदी साहित्य की बेहद दीवानी थी। शिवानी, बच्चन, गुलजार, शरतचंद्र ये सभी उसके प्रिय लेखक थे। गुनाहों का देवता उसने कितनी ही बार पढ़ी। इम्तहानों के भय के कारण जब हम कोर्स रट रहे होते, उस समय अमिता किसी उपन्यास में डूबी होती। हिंदी उसका प्रिय विषय हुआ करता था। बाकी विषयों में पता नहीं कैसे पास होती थी। दिवास्वप्नों में खोयी रहने वाली, फिल्मों और उपन्यासों के नायकों को असल जिंदगी में ढूंढ़ने वाली, ऐसी थी अमिता। स्वयं को कभी शिवानी की अहल्या समझती तो कभी चंदर की सुधा। देवानंद, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र उसके प्रिय नायक थे।
‘‘स्कूल के वार्षिकोत्सव पर हमने एक नाटक खेला था तेरा मेरा प्यार अमर। उस नाटक की हीरो मैं थी और नायिका थी अमिता। नाटक का एक दृश्य था, जिसमें नायक नायिका को आलिंगन में ले कर उसका माथा चूमता है। रिहर्सल के समय वह कुछ न कुछ गड़बड़ कर देती और कहती, ‘‘लेट अस रिपीट।’’ मैं तंग आ गयी थी उसकी इस हरकत से। लेकिन अमिता कहती, ‘‘आई लव दिस सीन। कितना रोमांटिक होता है ना यह सब। हमारे घरों में तो किसी लड़के का आना भी पाप समझा जाता है। सोचा नाटक के रिहर्सल तक तो तुझसे ही काम चला लूं,’’ वह दुष्टता से हंसती।
‘‘उसके घर में वाकई कड़ा अनुशासन था। मां किसी स्कूल की प्रिंसिपल थीं। पिता कई बरस पहले स्वर्ग सिधार चुके थे। उसकी मां के कठोर अनुशासन की धाक थी। हम लोग तो स्कूल की छुट्टी के बाद स्वतंत्र हो जाते थे, किंतु अमिता तो दोबारा घर की जेल में बंद हो जाती। वह तो उसकी मां को मुझ पर भरोसा था और मेरे घर आ जाने पर उसे अपने घर पर बिना बताए पिक्चर देखने की स्वतंत्रता मिल जाती थी।
‘‘अमिता स्वच्छंद उड़ना चाहती थी। मां के घर से दूर खुली हवा में सांस लेना चाहती थी। हमारे नाटक की रिहर्सल कई दिनों तक चली। उस समय वार्षिकोत्सव के लिए फोटोग्राफर का इंतजाम करना था। हमारे कॉलेज से कुछ ही दूर पर माधव स्टूडियो था। हम लोग बोर्ड परीक्षाअों की फोटो वहीं पर खिंचवाने जाते थे। अमिता ने फोटोग्राफर का जिम्मा स्वयं लिया था। हमारा नाटक बेहद सफल रहा। मुझे और अमिता को उच्च कोटि के अभिनय के लिए पुरस्कार भी मिला। दूसरे ही दिन तसवीरें भी आ गयीं। अमिता हर तसवीर में सुंदर और मोहक लग रही थी। फिर उस दिन के बाद से अमिता अकसर पोस्टकार्ड साइज की नयी-नयी तसवीरें खिंचवाती। हर बार फैशनेबल नयी और फैंसी ड्रेस में। उसके घर में फैशन करने पर पाबंदी थी। मैंने एक बार मजाक में पूछा था, ‘‘ये नयी-नयी पोशाकें पहन कर कहां जाती हो, अमिता? वैसे तो सीधी-सादी रहती हो।’’
‘‘मैं केवल फैशनेबल ड्रेसेज पहनने का अपना शौक पूरा करती हूं, सुमि। यह उम्र लौट कर आने वाली नहीं। इन्हें पहन कर मैं बस फोटो खिंचवाती हूं,’’ उसने तसवीरें लिफाफे में डालते हुए कहा था।
‘‘अच्छा, कौन खींचता है ये तस्वीरें?’’
‘‘यही माधव स्टूडियो वाला राकेश,’’ वह शैतानी से कहती, ‘‘मेरे जैसी फिगर और चेहरा है किसी के पास।’’
‘‘अमिता, तू ब्याह कर ले, वरना पागल हो जाएगी,’’ मेरे इतना कहने पर वह ढीढता से बोली, ‘‘मैं तो राकेश से ही ब्याह कर लेती सुमि, पर वह शादीशुदा है।’’
‘‘कालेज की फेअरवेल के दिन वह बेहद सुंदर लग रही थी। पूरा दिन हल्लागुल्ला करते ही बीता। कार्यक्रम बीत जाने पर अपने ब्याह की सूचना दे कर अमिता ने मुझे हैरान कर दिया। लेकिन वह उदास थी, ‘‘पैसा तो बहुत है वहां सुमि, लेकिन जितना पैसा उतनी बड़ी तोंद। मुझे उस मोटे बदसूरत लड़के से ब्याह नहीं करना। मुझे तो राजेश खन्ना या धर्मेंद्र जैसा पति चाहिए,’’ वह शून्य में ताकते हुए बोली थी। इसी तरह सुख-दुख बांटते, हंसते-खेलते, लिखते-पढ़ते 12वीं की परीक्षाएं निपट गयीं।
‘‘फिर एक दिन घर आ कर अमिता अपने ब्याह का कार्ड दे गयी। पापा का ट्रांसफर ऑर्डर आ गया था। हम लोग पैकिंग में व्यस्त थे कि एक दिन शाम के धुंधलके में अमिता की गाड़ी हमारे दरवाजे पर आ कर रुकी। मैं भागी-भागी गेट खोलने गयी, तो देखा कि गाड़ी में सिर्फ ड्राइवर था, ‘‘बेबी आज सुबह आपके घर आयी थी क्या। यहीं छोड़ गया था मैं तो। वापस नहीं लौटी। घर पर मैडम जी परेशान हैं।’’
‘‘मेरे घर तो अमिता आयी नहीं,’’ मैं चकरा गयी थी। कई जगह फोन किया। अमिता नहीं मिली। सहसा मस्तिष्क में बिजली सी कौंधी। कहीं राकेश के साथ भाग तो नहीं गयी अमिता। मैं कांप गयी। वही हुआ, जिसका भय था। अमिता की प्रिंसिपल मां ने अपने विश्वस्त सूत्रों से बिना किसी को कानोंकान खबर किए चटपट सब पता कर लिया। इसके बाद की कहानी केवल यंत्रणा की ही कहानी थी। भयंकर अनुशासन की डोर छुड़ा कर अमिता जिस व्यक्ति के साथ भागी थी वह कायर था। अमिता, नासमझ किशोरी, उसे ही अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य समझ बैठी थी। कितने ही दिवास्वप्न दिखाता हुआ 2 बच्चों का पिता राकेश, उसे भोग कर चंद घंटे के भीतर ही उसी के घर के दरवाजे पर आधी रात को छोड़ कर चला गया। पैसे और रुतबे के जोर पर बात वहीं दब गयी।
क्रमशः