Thursday 09 July 2020 11:34 AM IST : By Vandana Aggrawal

शहर अपना सा

छोटे शहरों में घर अौर दिल बड़े हुअा करते हैं, जबकि बड़े शहरों में कुछ भी बड़ा नहीं होता। ना दिल ना मकान। लक्ष्मी नगर की गली नंबर चार में जब मुझे प्रॉपर्टी डीलर ने मकान दिखाया, तो लगा या तो इसका सिर फोड़ दूं या अपना फोड़ लूं। ‘मकान है कि दड़बा’ यह कहते हुए मैं बस चीखी नहीं। मैंने जब यह बात थोड़ी विनम्रता के साथ उस तक पहुंचायी तो उसने कहा, ‘‘ग्रेटर कैलाश में मेरा भाई का काम है वहां दिला दूं। किराया डेढ़ लाख के अासपास होगा। कल सुबह अा जाइएगा अलकनंदा मार्केट, ले चलूंगा,’’ उसने बुरा सा मुंह बना कर मेरी तरफ देखा कि लेना है तो लो वरना चलती बनो, तुम्हारे जैसे बहुत अाते हैं। पिछले 15 दिन से जिन लोगों के साथ थी, उनके चेहरों पर भी दिख रहा था, ‘बहन जी, अपना सामान समेट लो।’

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पटपड़गंज सोसाइटी में चार लड़कियाें के साथ मेरे रहने का शुरुअाती इंतजाम हुअा था। पांचवीं के लिए जगह बन सकती थी, पर मेरा कुल मिला कर जितना बजट है उससे ज्यादा तो वहां मुझे किराया देना पड़ता। पैसों की दिक्कत ना होती, तो मैं भी उस 4 खुले कमरे, 3 बड़ी बालकनीवाले फ्लैट में, व्यवस्थित सोसाइटी में रहना चाहती थी। मैं पहली बार दिल्ली अायी थी अौर पहली ही बार मैं उस सोसाइटी में पहुंच गयी, तो मुझे लगा कि दिल्ली इतनी ही शानदार है। यह मेरी सहेली की सहेली का रेफरेंस था इसलिए मुझे एक हफ्ते की मोहलत मिल गयी थी, जब तक मैं अपने लिए कोई सेफ मकान ना खोज लूं। लेकिन अब मुझे महीने से ऊपर हो रहा था अौर मेरे पास अपने बजट में मकान लेने के सिवाय कोई चारा नहीं था। सुबह जब शुभांगी एंड कंपनी अपने महीने का हिसाब बना रही थी, तो उसने बहुत ब्लंटली कहा था, ‘‘तुम अपना फिफ्टीन डेज का ही शेअर दो। हम अागे के लिए तुम्हें काउंट नहीं कर रहे हैं। अब तो तुम शिफ्ट ही कर जाअोगी ना।’’
मैं क्या कहती कि अभी तक तो मैं मकान ही देख रही हूं। मैंने सिर्फ इतना कहा, ‘‘मैं चली जाऊंगी दो-चार दिन में।’’ इस मुर्गी के दड़बे में बस एक ही बात सबसे अच्छी है, किराया मेरे बजट में है। मन हुअा प्रॉपर्टी डीलर को कहूं कि कुछ अौर दिखाए। लेकिन मैंने बस इतना ही पूछा, ‘‘कब िशफ्ट कर सकती हूं।’’ मैं ना पटपड़गंज में रहने का िरस्क ले सकती थी, ना दफ्तर से रोज-रोज जल्दी निकलने का। वे चारों लड़कियां मुझे धकेलने पर अामादा थीं अौर मेरी बॉस को लगता था कि मैं मकान की अाड़ में दफ्तर से गोल मारने के चक्कर में पड़ी रहती हूं। जितनी अच्छी फीलिंग दिल्ली अा कर पहले हफ्ते में हुई थी वह धीरे-धीरे पता नहीं कहां गुम हो रही थी। शिफ्ट करने की बात पर प्रॉपर्टी डीलर का चेहरा बल्ब की तरह चमका अौर उसने कहा, ‘‘परसों।’’
शनिवार पूरा दिन लग कर मैंने उस डेढ़ कमरे की रगड़-रगड़ कर सफाई की। हर कोना इतना चमका अौर निखरा हुअा लग रहा था कि मुझे वह कमरा उतना भी बुरा नहीं लगा। यह कमरा मेरा था। यहां मैं जैसे चाहूं बैठ सकती थी, पैर पसार सकती थी, जब तक मर्जी हो सो सकती थी, जैसे चाहूं रह सकती थी। घर से पहली बार निकली थी। अकेली ! ऐसे शहर में, जिसमें किसी को नहीं पहचानती थी। रात में थोड़ा डर लगा अकेले सोने में, लेकिन फिर नींद गहरी हो गयी। यह मेरे अपने इकलौते स्वीट होम का पहला दिन था। सुबह जब उठी, तो पता चला कि मैं पड़ोसियों की हजारों निगाहों के बीच फंस गयी हूं। इतनी पास एक-दूसरे में झांकते मकान मैंने इससे पहले कभी नहीं देखे थे। जब मैं अपना टूथब्रश-पेस्ट लिए पीछे की संकरी बालकनी में बने 10 इंची सिंक पर पहुंची, तो पाया कि पड़ोसी की बालकनी इतनी पास है कि मूढ़े पर पैर रख कर उस पार जा सकती हूं। बाप रे ! बाथरूम से बाहर निकलना है, तो जेनिफर लोपेज की तरह बाहर नहीं अा सकते। ठीक से कपड़े पहन कर बाहर निकलना पड़ेगा। अौर जो खिड़की कल रात मैंने नहीं खोली थी वह खोल कर देखी, तो रहासहा उत्साह भी चला गया। यदि मैं उस खिड़की को खोल दूं, तो लगता ही नहीं था कि 2 अलग-अलग घर हैं। इतनी सटी हुई खिड़कियां जैसे एक घर के दो हिस्से। कल तक अाजादी का जोश जो मुझ पर चढ़ा था अाज ठंडा पड़ गया। मेरा मुंह उदास इमोटीकॉन की तरह लटक गया अौर मन मार कर मैं नाश्ता बनाने में जुट गयी।
मुंबई में किसी को किसी से बात करने की फुरसत नहीं होती, ऐसा मैंने सुना था। लेकिन दिल्ली बिलकुल इसके उलट है। अब तक इस बिल्डिंग के चार अलग-अलग लोग मुझसे जानने की कोशिश कर चुके हैं कि मुझे कोई तकलीफ तो नहीं है। यानी चिंता से ज्यादा पंचायत का जज्बा दिल्ली में कायम है। एक हफ्ता गुजर जाने के बाद बगलवाली अांटी को मेरे अाने-जाने का समय पता चल गया है, दूधवाले भैया को पता है कि मैं शाम को ही दूध लेने अाऊंगी, दो दिन सब्जी लेने ना जाऊं, तो बूढ़ी अम्मा  टोक देती हैं कि अाजकल खाना नहीं बना रही हूं क्या? अौर तो अौर मेडिकल स्टोरवाले ने मुझसे कहा कि छुट्टे नहीं हैं, तो कल दे जाना अाप यहीं तीसरी बिल्डिंग में रहने अायी हैं ना। कई लोगों से मेरी बात होने लगी है। कुछ लोगों से मन से, तो कुछ लोगों से बेमन से। बस बात नहीं होती तो उससे जो अाजकल मेरे साथ ही फुर्ती से सीढ़ियां उतरता है अौर पता नहीं कहां गुम हो जाता है। पता नहीं क्यों अनजानाें के बीच उसका चेहरा बड़ा अपना लगता है। मैं जब भी उसको देख लेती हूं मुझे इस शहर की तल्खियों के बीच राहत मिलती है। ऐसा क्यों है, मन से कई बार पूछा, पर जवाब नहीं मिलता।
उस रंग उड़ी इमारत में जहां मैं अब तक बेमन से रह रही थी, पिछले कुछ दिनों से बड़ा अच्छा लगने लगा है। टाइमिंग तो मेरी भी परफेक्ट है, नाश्ता भले ही छोड़ दूं, लेकिन ठीक 10 बजे सीढ़ियां उतरना नहीं छोड़ती। कहते हैं प्यार में इंसान बेवकूफ हो जाता है, लेकिन मुझे तो लगा मैं समझदार हो गयी हूं। वह चौथी या शायद पांचवीं मंिजल से धड़धड़ाता हुअा उतरता है अौर मैं उसके परफ्यूम से जान जाती हूं कि वह नीचे उतर रहा है। उसी की मेहरबानी है कि मैं अभी तक दफ्तर में देर से नहीं पहुंची हूं। उसके लिए मुझे यहीं समय पर सीढ़ियों पर रहना ही होता है। सीढ़ियों से उसकी खुशबू उससे पहले नीचे उतरती है अौर मैं हमले के लिए जैसे मुस्तैद रहते हैं, वैसे तैयार रहती हूं। वह मेरी मंजिल तक पहुंचे अौर मैं तुरंत ताला लगा कर ठीक उसके पीछे धड़धड़ाते हुए उतरने लगती हूं। अाखिर उसी को तो देर नहीं हो रही ना। दफ्तर तो मुझे भी जाना है।
एक महीने की मेरी तपस्या का ही फल है कि अब वह थोड़ा धीमे उतरता है अौर उसके कदम तीसरी मंजिल पर ठिठक जाते हैं। वह अब गुम नहीं होता अौर मैं ठीक उसके पीछे चलते हुए मेट्रो तक अाती हूं। अब उसे पता चल जाता है कि मैं उसके पीछे हूं। जाने का यह क्रम हमने यानी मैंने बहुत नापतौल कर उसके साथ तय कर लिया है। मैं लेडीज कोच में सफर करती हूं, पर लगभग एक किलोमीटर हम साथ चलते हैं। कहें कुछ नहीं पर हमें पता है कि हम साथ चल रहे हैं। अब मुझे पक्का यकीन हो चला है कि मैं उसे देखती हूं। वह भी कई बार कनखियों से मुझे देख लेता है। मैं कई बार सोचती हूं कि उससे बात करूं, पर मुझे पता है इससे लड़कियों की इज्जत में इजाफा नहीं होता। मौके की तलाश करना मुझे कम पसंद है, पर मैं पता नहीं क्यों इस बार मौके का इंतजार कर रही हूं। उसकी निगाहें अब कई बार चलते हुए मुझ पर जम जाती हैं। वैसे मैं उसे देखते हुए चलती हूं लेकिन जैसे ही उसकी निगाहें मुझे तलाशती हैं, मैं लापरवाही से इधर-उधर देखने लगती हूं। शायद उसे पता चल जाता होगा कि मैं स्टाइल मार रही हूं। मुझे डर भी रहता है कि कहीं किसी दिन ऐसा करते हुए मुझे जोर से हंसी ना अा जाए। अाज तो बस मेरा दिन बन गया। मैं दौड़ती हुई मेट्रो प्लेटफॉर्म तक अायी कि मेट्रो जाने के लिए तैयार थी। मैं लेडीज कोच तक नहीं पहुंच पाती सो सामनेवाले डिब्बे में ही चढ़ गयी। वह पीछे से उसी डिब्बे में चढ़ा। बला की भीड़ में उसने अपनी दोनों बांहें कोने में टिका दीं। मैं उस घेरे में खड़ी रही। जब स्टेशन पर गेट खुलता वह अपनी बांहें हौले से हटाता, ताकि मुझसे छू ना जाए। दरवाजा बंद होते ही मैं भी उस मजबूत घेरे में अा जाती। धक्कामुक्की उसकी पीठ सहती रही अौर मैं सुरक्षित खड़ी रही। राजीव चौक पर जब हम तेज समुद्र की लहर की तरह बाहर फेंके गए, तो मैंने ‘थैंक्स’ कहा। उसने अपने सीने पर हाथ रखा अौर मुस्कराता हुअा दूसरी तरफ चला गया।
 वह एक सुनहरा दिन था जब मैं अलसायी सी पड़ी थी। रविवार को बिस्तर में अलसाने से अच्छा कुछ नहीं होता। दिल्ली के हिस्से में सुहाने दिन वैसे भी कम ही होते हैं। या तो यहां मौसम तपता है या फिर बला की ठंड हो जाती है। ऐसे ही एक सुहाने रविवार को जब सरदी बस जाने की जिद कर रही थी  दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने दो दस्तक तक कोई ध्यान नहीं दिया। बगलवाली अांटी होंगी। लेकिन इस बार थाप थोड़ी जोर से थी। मैं कंबल फेंक कर भुनभुनाते हुए दरवाजे पर पहुंची, तो देखा हाथ में एक पतीली लिए शॉल से खुद को ढके हीरो सामने खड़ा है। उसकी अांखें लाल थीं अौर उसने बुदबुदाहट में सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘कल रात से बुखार है। गैस खत्म हो गयी है। दवा लेनी है, चाय उबाल देंगी प्लीज।’’ उसने यह सब इतनी जल्दी कहा कि मैं समझ ही नहीं पायी कि यह मेरी नींद की खुमारी है या मैं सच में उसे अपने सामने देख रही हंू।
‘‘अाइए,’’ मेरे मुंह से सिर्फ इतना ही निकला।
‘‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं। अाप बस चाय उबाल दीजिए।’’
‘‘प्लीज, अंदर अा जाइए। बाहर हवा ठंडी है,’’ मैंने दरवाजा छोड़ा, तो वह बिना नानुकुर अंदर अा गया। उसने खुद को शॉल से कस कर लपेट लिया। उसे देख कर लग रहा था कि बुखार तेज है, ‘‘मैं यहां किसी अौर को पहचानता भी नहीं। अापका ध्यान अाया, तो अापके यहां चला अाया।’’
मेरा मन किया पूछूं पहचानते तो मुझे भी नहीं बस जानते हो। पर मैंने बस इतना ही कहा, ‘‘अाप ये सब क्याें लाए। अाप ऐसे ही अा जाते मैं चाय बना देती।’’
मैंने बड़ा गिलास भर कर उसे चाय दी, तो उसने मुस्करा कर कहा, ‘‘अाधी अापकी है, मैं अापके हिसाब से लाया था।’’ मैं लगभग हंस दी। उसने जेब से एक गोली निकाल ली। वह निगलने ही वाला था िक मैंने उससे पूछ लिया, ‘‘कुछ खाया?’’ उसने सिर्फ इंकार में सिर हिला दिया। ‘‘रुको। खाली पेट दवा नहीं खानी चाहिए,’’ मैं उठी अौर उसके लिए ब्रेड स्लाइस सेंक दिए। उसने ब्रेड पीस बड़े अाराम से खाए अौर चाय पी कर उठ गया।
‘‘अगर कुछ जरूरत हो, तो बता देना। अौर हां उस दिन मेट्रो के लिए बहुत धन्यवाद।’’
‘‘धन्यवाद की क्या बात है। अब जरूरत नहीं पड़ेगी। दवा ले ली है बुखार उतर जाएगा। वैसे भी अब हिम्मत नहीं है नीचे अाने की। अभी भी बहुत मुश्किल से अाया हूं,’’ वह थके स्वर में बोला।
मैंने अपने पाजामे की जेब से मोबाइल निकाला अौर अधिकार से बोली, ‘‘नंबर बोलिए।’’ यकीन से कह सकती हूं यदि उसकी तबीयत ठीक होती, तो वह मारे खुशी के बालकनी से छलांग लगा देता। लेकिन वह भी कम नहीं था। जाते-जाते बोला, ‘‘अाप उस दिन बहुत अच्छी लग रही थीं।’’ अब मेरा मन किया कि मैं छलांग लगा दूं।
अब सुबह जब तक मेरे मोबाइल के स्क्रीन पर गुड मॉर्निंग ना चमके मैं उठती नहीं। भट्ठी जैसी तपती किचन में भी फटाफट 2 लोगों का नाश्ता बनाती हूं, लंच पैक करती हूं अौर स्टेशन पर उसे पकड़ा देती हूं। राजीव चौक तक हम साथ जाते हैं अौर अब लौटते भी साथ हैं। मैं कनॉट प्लेस में पूरे दिन के लिए अपने दफ्तर में समा जाती हूं अौर वह ट्रेन बदल कर शाम होने के इंतजार में कुतुबमीनार के अासपास दफ्तर में अपना दिन गुजारता है। वह नपातुला बोलता है अौर मैं नाममात्र को चुप रह पाती हूं। उसकी संजीदगी का अालम यह है कि लक्ष्मी नगर के मोड़ पर रुक जाता है, ताकि बिल्डिंग में कोई साथ अाता ना देखे। उसी ने मुझे दिल्ली में बहुत सी जगह घुमायी है। उसका कहना है यदि किसी शहर के रास्ते जाने-पहचाने लगने लगें, तो वह शहर अपना लगने लगता है। अब वाकई यह शहर मुझे अपना सा लगता है। छोटी गलियां, नुक्कड़, बाजार जो भी उसने इन सालों में पहचानना सीखा उसकी पहचान मुझसे कराता रहता है। उपन्यास पढ़-पढ़ कर मैं जितनी रोमांटिक हूं, एक्शन मूवी देख कर वह उतना ही रूखा। मुझे अाश्चर्य होता है कि उसकी बीमारी के दिनों में भी उसने मुझे कभी अपने कमरे पर नहीं अाने दिया। उस दिन चाय के अलावा वह मेरे कमरे में नहीं अाया। मैं ही उसके पीछे पड़ कर उसके लिए नाश्ता या लंच ले जाती हूं। वह मेट्रो स्टेशन पर ही िडब्बे लेता है अौर यदि शाम को साथ ना लौट पाया, तो नीचे से फोन कर देता है अौर डिब्बे दरवाजे के सामने छोड़ कर चला जाता है। कई बार मुझे उसकी इस हरकत पर बहुत गुस्सा अाता है।

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अाज रविवार की शाम है अौर बेदिल दिल्ली में जोरदार बारिश हो रही है। पिछले एक हफ्ते से वह घर गया हुअा है। अाज भी नहीं अाया क्या। मेरा मन उसे फोन करने का है, पर जिद में मैंने नहीं किया। कल तो उसे हर हालत में अॉफिस जाना है। मैसेज भी नहीं किया। पिछले हफ्ते उससे खूब लड़ाई हुई थी। कभी मूवी नहीं जाता, कभी होटल में साथ नहीं बैठता। बस कहीं बाजार का कुछ काम कहो, तो फौरन मान लेता है। अॉफिस के काम से कहीं जाना अौर रास्ता ना पता हो, तो हाफ डे ले कर छोड़ अाता है। ईमानदार बॉडीगार्ड के रूप में साए की तरह रहता है। पिछले डेढ़ साल से एक-दूसरे को जानते हैं, बाहर मिलते भी हैं, लेकिन अाज तक किसी को पता नहीं चला। बिल्डिंग में, गली में कोई नहीं कह सकता िक मैं उसके साथ घूमती हूं। मैंने उससे पिछले हफ्ते बहुत झगड़ा किया था। उस पर इल्जाम भी लगाए कि वह ऐसे ही लड़कियों को ठगता होगा इसलिए मेरे साथ दूरी रखता है, ताकि दूसरी लड़कियों को ठग सके। वह संदिग्ध है अौर ना जाने क्या क्या। वह सिर्फ इतना ही बोला, ‘‘घर जा रहा हूं। अगले रविवार शाम तक अा जाऊंगा,’’ अौर मेट्रो की सीिढ़यां उतर गया। मैंने पीछे से उसकी शर्ट पकड़ ली। मैं रुंअासी हो गयी थी, ‘‘मैंने अपने भैया को भी बता दिया है तुम्हारे बारे में। मैंने नाम नहीं बताया, लेकिन कहा है कि मुझे एक लड़का पसंद है। तुम समझते क्यों नहीं, मैं तुमसे प्यार करने लगी हूं।’’
वह बस हंसा अौर कहा, ‘‘अच्छा। चलो अा कर बात करता हूं।’’
मैं पता नहीं कितनी देर स्टेशन पर खड़ी रही, बेकार में बाजार में भटकती रही। उसका मैसेज अाया, अभी तक रूम पर क्यों नहीं पहुंची। कहां हो, रात हो रही है घर जाअो। मुझे अाश्चर्य हुअा इसे कैसे पता मैं नहीं अायी। जब परवाह ही नहीं, तो कभी भी अाऊं। मैं फिर भी नहीं गयी। मेट्रो की सीढ़ियों पर बैठी रही। मैंने देखा सामने से बरमूडा-टीशर्ट में वह चला अा रहा है। उसने कुछ नहीं कहा बस घूर कर देखा अौर मैं चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल दी।
पिछला रविवार याद अा रहा है, उससे ज्यादा उसकी याद अा रही है। बेवकूफी में किए गए ऊटपटांग तल्ख मैसेज याद अा रहे हैं। तभी दरवाजे पर चिरपरिचित थाप सुनायी दी। मैंने दौड़ कर दरवाजा खोला। सामने वह मुस्करा रहा है। मैंने उसे कम मौकों पर मुस्कराते देखा है। मैं कुछ कहती उससे पहले उसकी अावाज अायी, ‘‘देहरी थोड़ी ऊंची है मां, संभल कर अाइए।’’
मैंने अाश्चर्य से उसके चेहरे की तरफ देखा तो बोला, ‘‘मेरी मां हैं।’’ मैंने नमस्ते के लिए हाथ जोड़े, तो उसकी मम्मी हंस कर बोलीं, ‘‘अब तुम्हारी भी मां हूं।’’ मैंने अाश्चर्य से देखा तो बोली, ‘‘संजय ने बताया कि तुमने भाई को बता दिया है, तो मैंने कहा फिर परिवार के स्तर पर ही बात कर लो।’’
मैंने उसे तिरछी निगाह से देखा, तो उसकी मां ही बोल पड़ीं, ‘‘मुझे तो यकीन ही नहीं अाता कि तुम्हारे जैसी इतनी अच्छी लड़की मेरे भोले को पसंद कर सकती है। मैं एम्स अाती हूं हर महीने चेकअप के लिए। अपनी बहन के यहां ठहरती हूं। पर इस बार तुम्हारे बारे में इतना सुना कि सीधा यहीं चली अायी।’’
उसके बाद पता नहीं कितने दिन बीते, अाना-जाना, शॉपिंग, मेहमान, रस्में अौर जब हम दोनों अकेले मिले तो मैंने बस इतना ही पूछा, ‘‘तुमने तो कभी कुछ कहा ही नहीं था पहले। सीधे मां को ले अाए। यदि मैं मना कर देती तो।’’
‘‘तो क्या, मां फिर अपनी बहन के यहां चली जाती।’’
‘‘अौर तुम्हें दुख नहीं होता।’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्यों, दुख क्यों नहीं होता।’’
‘‘दुख तो तब होता जब मैं भी तुमसे प्यार करता। तुम तो गले पड़ गयी थी। यदि मना करती तो सोचता चल अच्छा हुअा पीछा छूटा,’’ वह जोर से ठहाका लगा कर हंस पड़ा।
‘‘सच बताअो तुम्हें कैसे पता चला कि मैं मान जाऊंगी।’’
‘‘तुम्हें याद है एक बार मैंने कहा था कि जब रास्ते पहचाने लगने लगें, तो शहर अपना लगने लगता है। लेकिन यदि कोई चेहरा पहचाना सा लगने लगे, तो पूरी दुनिया अच्छी लगने लगती है। उस दिन मेट्रो में तुम्हारा चेहरा पहचाना सा लगने लगा था।’’