Wednesday 20 January 2021 03:27 PM IST : By Abha Shrivastava

निरुत्तर

niruttar

कई बार लिखते समय हर बार आप कहानी नहीं लिखते। कोई याद, भूला हुआ कोई अपना, बहुत पहले छूटा हुआ कोई समय का टुकड़ा बार-बार आ कर स्मृति द्वार की कुंडी खटखटाता है, तो जी करता है कि बीता हुआ सारा समय फिर से वापस आ जाए।

रत्ना यदि उस रात मेरे स्वप्न में ना आयी होती, तब संभवत मैं उसके बारे में लिखने का कुछ सोचती भी नहीं। लेकिन वह आयी और चुपचाप मेरे सामने बैठी रही। हल्दी लगी पीली हथेलियां, पीला चेहरा और प्रश्न पूछती उसकी मूक आंखें। मौसी की साड़ी पहने हुए थी। जिसमें जगह-जगह हल्दी के थापे लगे हुए थे। टुकुर-टुकुर देखते हुए बोली, ‘‘जीजी, मेरे जाने के बाद कोई रोया था क्या?’’ कच्ची हल्दी की गंध मेरी नाक में आयी, तो मैं हड़बड़ा कर उठ बैठी। वहां मेरे आसपास या कमरे में कोई नहीं था। घड़ी देखी। सुबह के 4 बजे थे। उठ कर पानी पिया। फिर दोबारा नींद नहीं आयी। मैं सोचती रही और सोचती ही रही।

आखिरी बार रत्ना को देखा था तो ब्याह की हल्दी चढ़ रही थी उसके। कितना समय बीत गया। मन में यादों का एक गुबार सा उठ आया। कितनी बातें, कितनी यादें, बचपन की, कैशोर्य की, नानी के घर की। बीच के कितने ही बरस जाने कहां खो गए, नहीं पता। मन ननिहाल की देहरी पर जा पहुंचा। रत्ना और मैं नानी की साड़ी लपेट गुडि़या का ब्याह रचा रहे हैं, झूला झूल रहे हैं, गुट्टे खेल रहे हैं। नानी का गांव छोटा सा था।

घर से लगा हुआ आमों का बगीचा भी था, जिसमें हमारे आने पर झूले डाल दिए जाते थे। झूले की पींगे और कच्ची अमिया का स्वाद आज भी नहीं भूलता। नानी के घर से लौटना दुख देता था। पूरे बरस की प्रतीक्षा के बाद गरमी की छुट्टियां आती थीं। मैं अपने घर की अकेली थी, सो नानी के घर मौसेरे भाई-बहनों के साथ खेलने में बड़ा आनंद आता था। मेरी मौसी की बेटी रत्ना तो जैसे मेरी सखी ही थी। मैं उससे एक ही बरस बड़ी थी। सालभर के खट्टे-मीठे किस्से अपनी यादों की पोटली में भर कर रखे रहते थे हम दोनों। ननिहाल की छत पर सोते समय तारों को देखते हुए हम दोनों धीरे-धीरे बतियाते थे। मैं अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाली, बड़े शहर में रहनेवाली, मम्मी-पापा की इकलौती दुलारी थी। जबकि रत्ना सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली, चार भाई बहनों में सबसे बड़ी, छोटे शहर की। रत्ना के स्वभाव में स्थिरता और गंभीरता समय से पहले ही आ गयी थी। हम लोग जब भी गांव जाते मम्मी मेरे पहने, उतरे पुराने कपड़े, जूते, सैंडिल की पोटली बांध कर ले जातीं कि रत्ना या उसकी बहनें पहन लेंगी। काफी दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा। फिर एक बार मौसी ने ही मना किया मम्मी को, तो मुझे थोड़ा बुरा लगा। किंतु जल्दी ही मैं समझ गई थी कि रत्ना कितनी स्वाभिमानी है।

नानी का व्यवहार पापा के प्रति अलग रहता और मौसा जी के लिए अलग। यही स्थिति कमोबेश मेरे और रत्ना के प्रति रहती। धीरे-धीरे मौसी नानी के घर अकेले ही आने लगीं। इस अकेले आने के पीछे मौसी के बच्चों और मौसा जी के प्रति नानी की उपेक्षा थी अथवा बच्चों के टिकट के खर्चे या पढ़ाई का हर्जा? मैं नहीं समझ पायी। फिर धीरे-धीरे पढ़ाई आदि बढ़ने पर मेरा भी ननिहाल जाना कम हो गया। और एक दिन नानी के ना रहने पर ननिहाल ही समाप्त हो गया। हां, मेरा और रत्ना का पत्र व्यवहार बराबर चलता रहा।

हमारी और मौसी की आर्थिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर था। नाना जी ने अपनी हैसियत के हिसाब से ब्याहा, तो अपनी दोनों बेटियों को एक ही स्तर पर था, पर पापा ने नौकरी छोड़ कर बिजनेस आरंभ किया तो वो चल निकला और हमारे परिवार पर लक्ष्मी की कृपा बरसने लगी। फिर मैं उनकी इकलौती बेटी ना चाहने पर भी इकलौती ही बनी रही। क्योंकि मेरा दूसरा भाई-बहन यदि आता, तो मम्मी की जान को खतरा हो सकता था। दूसरी तरफ मौसा जी के घर बेटे के लोभ में 3-3 बेटियां हो गयी थीं। तब जा कर चंदन महाशय प्रकट हुए। सीमित आमदनी और बड़े परिवार के कारण मौसी जी के घर की अर्थव्यवस्था हमेशा ही संकट में रहती थी। नानी के पक्षपात के कारण पापा और मौसा जी में बहुत पहले से ही शीत युद्ध चलता चला आ रहा था, जिसका परिणाम था कि ना तो पापा कभी मौसा जी के घर जाते और न ही मौसा जी कभी हमारे घर आते। हां, मम्मी और मौसी के अटूट प्रेम में कभी भी अंतर नहीं आया।

जिस बरस मैंने एम.ए. किया उस साल अनायास ही मौसी की याद हो आयी। कितना समय हो गया था मौसी से मिले हुए। उस बार मैं और मम्मी ट्रेन से लखनऊ मौसी के पास आ गए। मौसी तो हमें देख कर बावरी सी हो गयीं। प्रसन्न तो मौसा जी भी लगे, पर उनकी प्रसन्नता के पीछे छिपी चिंता की लकीरों को मैंने स्पष्ट भांप लिया। रत्ना, रश्मि, रोली और चंदन सभी बड़े हो गए थे। सयानी बेटियों के पिता को कितनी चिंता सताती है इसका अनुभव शायद उस समय उतनी गहराई से मैं महसूस नहीं कर पायी थी।

अगले दिन सुबह चाय पीते समय मौसा जी ने पूछ ही लिया,‘‘बिटिया, अब एम.ए. के बाद क्या करना है, सोचा है कुछ।’’ स्पष्ट था कि उनका इरादा घुमाफिरा कर मेरे ब्याह के विषय में पूछने का था। अभी तक मेरे घर में मेरी शादी की चर्चा आरंभ नहीं हुई थी, सो मैं चट से बोल पड़ी, ‘‘अभी तो रिसर्च करनी है मौसा जी, साथ ही प्रशासनिक सेवा की तैयारी भी करती रहूंगी। शायद भाग्य साथ दे जाए अन्यथा पीएचडी पूरी कर नाम के आगे डॉक्टर तो लगा ही लूंगी।’’

‘‘जिया, तुम्हारी तो एक ही बेटी है सो एम.ए. कराअो, डबल एम.ए. कराअो या पीएचडी। ब्याह तो जब चाहे निबटा कर गंगा नहा लोगी। हमसे पूछो, 3-3 छाती पर सवार खून पीने बैठी हैं। चंदन जब तक बड़ा होगा हम तो कंगाल हो चुके होंगे,’’ मौसी ने एक ठंडी सांस ले कर अपने उद्गार व्यक्त कर ही दिए थे।

मैंने देखा गुसलखाने से नहा कर निकलती रत्ना के चेहरे पर उदासी की एक लहर आ कर चली गयी। उसने ऐसा प्रकट किया मानो कुछ सुना ही नहीं। गुस्सा तो बहुत आया। जी में आया कह दूं कि पैदा भी तो तुम्हीं ने किया था मौसी, तो अब कोस काहे रही हो। किंतु उस समय ये सब कहने की उम्र नहीं थी मेरी। हां, मम्मी ने बात संभाल ली, ‘‘छोटी, ऐसा नहीं कहते। बेटियां भी अपना भाग्य ले कर आती हैं। हीरे की कनी सी हैं तेरी बेटियां। देखना चटपट निबट जाएंगी पता नहीं चलेगा।’’

तभी मौसी व मौसा जी ने बताया कि वे लोग रत्ना के ब्याह के लिए कितने चिंतित हैं। हर बार बात दहेज और लेनदेन पर आ कर अटक जाती थी। रत्ना मौसी की दुलारी तो कभी ना थी। कैसे होती? पीठ पीछे भाई लाने के बजाय 2-2 बहनें लायी थी। बचपन में नानी के घर में रत्ना के प्रति उनके अपशब्दों काे सुन कर मैं दुखी हो जाती थी। नासमझी की उम्र थी, पर आज समझ आता है कि आम मध्यमवर्गीय परिवारों में हमेशा से ही बेटियों की उपेक्षा होती है। लेकिन वहीं मौसी मुझसे कैसे इतना दुलार करती थीं, ये बात भी उस समय मेरी समझ से परे थी।

बचपन में मैं देखती थी कि उस नन्हीं सी उम्र में भी रत्ना बेहद गंभीर और समझदार हो चुकी थी। जिस समय मैं अपने हर काम के लिए मम्मी को पुकारती, रत्ना अपने छोटे भाई-बहनों को संभालती थी। उन्हें समेट कर रखती थी। मौसी और नानी के कितने ही कामकाज बिना कहे ही कर देती थी। यहां तक कि 12 बरस की उम्र में वह बिना भिनके अपने डेढ़ बरस के छोटे भाई की पॉटी भी साफ कर देती थी। जबकि मौसी, नानी और मम्मी के साथ गप्पें मारा करती थीं।

उस दिन मौसा जी ने बताया कि बड़ी मुश्किल से बात यहां तक पहुंची है। लड़केवालों ने कहा, ‘सब ठीक है, आपके बजट से हम संतुष्ट हैं। अपनी हैसियत के हिसाब से आप जो देना चाहते हैं, लिस्ट बना कर हमें दे दें। कमीबेशी पूरी होती रहेगी।’ मौसी, मौसा जी कुछ असमंजस में थे। लेकिन मम्मी ने कहा, ‘‘इस रिश्ते को हाथ से ना जाने दो छोटी। हो सकता है रत्ना की फोटो देख कर ही उन्होंने यह निर्णय लिया हो।’’

मम्मी भी संतुष्ट थीं कि उनके सामने ही रत्ना का ब्याह तय हो गया। सच में दोनों बहनों की आर्थिक स्तर में जमीन-आसमान का अंतर था, लेकिन प्यार निस्वार्थ था। मम्मी के अचानक आ जाने से मौसी को संबल ही मिला था। रत्ना का होनेवाला पति सरकारी नौकरी में जूनियर इंजीनियर था। मौसा जी संतुष्ट थे। उनके अनुसार कल को लड़का एग्जीक्यूटिव इंजीनियर हो जाएगा। दरवाजे पर सरकारी गाड़ी खड़ी रहेगी। नौकर-चाकर, रुपया, पैसा, रुतबा सब होगा। तब रत्ना ही राज करेगी।

इस दौरान मैं रत्ना की जड़ता भांप चुकी थी। अनमनी सी थी वह। कोई उमंग, कोई रौनक उसके चेहरे पर ना थी। रहा नहीं गया मुझसे। एकांत पाते ही मैंने उसे घेर लिया, ‘‘रत्ना, मुझे नहीं बताअोगी कि तुम क्यों इतनी उदास हो?’’

‘‘नहीं जीजी, ऐसा तो कुछ भी नहीं,’’ वह आंखें चुराते हुए बोल पड़ी। लेकिन मैं समझ गयी कि उसकी आंखें उसके बोलों की चुगली कर रही हैं। मैंने भी सब्र किया कि आज नहीं तो कल रत्ना कुछ तो बताएगी।

उधर मौसी मम्मी को दहेज के सामान की लिस्ट दिखा रही थीं। था तो सब मौसी के बजट में ही। थोड़ी कमोबेशी की बहुत गुंजाइश रखी गयी थी। मौसी की गृहस्थी में बड़ी जोड़तोड़ थी। चार बच्चों के परिवार में हर महीने बचत की गुंजाइश ना के बराबर रहती थी, लेकिन मौसा जी से छिपा कर कुछ मदद का आश्वासन मम्मी ने दिया और कुछ मौसी की इंदौरवाली ननद ने। थोड़ा बहुत मौसी-मौसा जी ने जोड़ा हुआ था तो लगा रत्ना पार हो जाएगी।

हम लोग मौसी के घर से वापस लौट आए थे। रत्ना के ब्याह का हौसला मुझे भी था। दो महीने बाद ही शादी की तारीख पक्की हुई थी। मैंने भी हर रस्म के लिए नए कपड़े बनवा लिए थे।

ब्याह में कुछ ही दिन शेष थे कि अचानक मौसी का ट्रंककॉल आया, ‘‘जिया, फौरन आ जाअो। ब्याह की खास चर्चा करनी है...।’’ बस, अगली गाड़ी से हम लोग लखनऊ के लिए चल दिए। यहां आ कर पता चला कि अचानक ही वर के पिता का पत्र आ गया है। उन्होंने बड़े स्नेह से लिखा था, ‘‘आपके बजट से मैं संतुष्ट हूं। किंतु बेटे ने अपने मुंह से ही 2-3 छिटपुट चीजों के लिए कहा है। उनको भी शामिल कर लेंगे, तो उसका मन रह जाएगा। बड़ी आम चीजें हैं फिर सरकारी नौकरी वाला लड़का ढूंढ़ा है आपने, तो थोड़ा बहुत आगे-पीछे सोचना तो पड़ेगा ना।’’

पत्र पढ़ कर सबने सिर पकड़ लिया। वे छोटी मोटी चीजें थीं- एक मारुति कार, एक फ्रिज और 2 तोले की सोने की चेन। ये मांगें मौसी के परिवार पर बिजली की तरह गिरीं। लाख रुपए का बजट गड़बड़ा गया था। असल में पिछले दिनों मौसा जी ने बैंक से लोन ले कर मारुति कार खरीदी थी। हर महीने घर से दफ्तर आने-जाने में काफी समय और किराया लगता था। फिर इतने बरस की नौकरी में उनके साथ के सभी लोगों ने कार ले रखी थी। कार लेने के बाद रोली और चंदन को भी वे दफ्तर जाते समय स्कूल छोड़ते जाते थे।

सोचा था धीरे-धीरे बैंक की उधारी चुका देंगे। किंतु उन्होंने यह ना सोचा था कि उनकी कार देख कर लड़केवालों की लार टपक पड़ेगी।

मम्मी ने मौसी को चोरी छिपे जो भी दिया था वह तो छिपा ही रहा। प्रत्यक्ष में उन्होंने मौसा जी को उधार स्वरुप कुछ पैसा देने का प्रस्ताव रखा, पर उन्होंने इंकार कर दिया। वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उनके उसूलों को ये गवारा नहीं था फिर पापा के सम्मुख वे नीचा नहीं दिखना चाहते थे।

मौसी, मौसा जी तथा मम्मी दिनभर जोड़तोड़ में लगे रहे। हार कर मौसा जी ने मौसी से उनके ब्याह का सेट निकालने की बात कही। उसे बेच कर चेन और फ्रिज तो आ ही जाता। मौसी का चेहरा उतर गया। उनका स्त्रीधन आड़े वक्त के लिए था, पर वह इतनी जल्दी आ जाएगा, उन्होंने सोचा ना था। वे तनाव में आ गयीं। तभी मम्मी ने उन्हें उबार लिया, ‘‘छोटी, फ्रिज मेरी तरफ से रहेगा रत्ना के लिए। तू बाकी देख।’’ मौसी की इंदौर वाली ननद ने चेन के लिए हामी भर दी। सबकी यही कामना थी कि रत्ना का दहेज भले ही कुछ अधिक हो जाए, लेकिन वह सुखी रहे।

मौसा जी मारुति के लिए बड़े ही असमंजस में थे। एक मन कहता था कि कार के लिए लड़के वालों से क्षमा मांग लें। दूसरा मन कह रहा था कि कार के पीछे कहीं बिटिया का रिश्ता ना टूट जाए। रत्ना जबसे बड़ी हुई थी, मौसा जी की देखभाल का जिम्मा उसी ने ले लिया था। सुबह चाय देना, दफ्तर के लिए टिफिन तैयार करना, रात को उनके सिर में तेल लगाना। मानो वह मौसा जी की मां बन गयी थी। उनकी ममता बिटिया पर अधिक थी। वे रत्ना को देखते तो समाज के नियमों को कोसते। रत्ना मेधावी थी। अगर उसकी जगह बेटा होता, तो क्या वे उसे अफसर ना बनाते। वे सुनते रहते, लेकिन प्रकट में कुछ नहीं कहते।

रत्ना के लिए उन्हें अपनी मारुति का बलिदान देना ही पड़ेगा। जतन से रखी कार छह महीने बाद भी नयीनकोर ही लगती थी। हार कर निर्णय लिया गया कि रत्ना के दहेज में मौसा जी की मारुति दे दी जाएगी। रत्ना के ब्याह के कारण मौसी के घर में भयंकर तनाव और मुद्रा संकट था।

एक शाम छत पर सूनी आंखों से आकाश देखती रत्ना को मैंने आड़े हाथों लिया, ‘‘क्या बात है, रत्ना। तेरे मन में कोई और है तो बता। जिंदगीभर रोने से अच्छा है इस ब्याह से इंकार कर दे।’’

रत्ना पहले कुछ देर मुझे टुकुर-टुकुर देखती रही फिर भरभरा कर रो पड़ी, ‘‘मैं ब्याह नहीं करना चाहती जीजी। अभी और पढ़ना है मुझे। पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं। बाबू जी का सहारा बनना चाहती हूं। ब्याह की तारीख इम्तहान से पहले पड़ रही है। फाइनल दे भी पाऊंगी या नहीं, पता नहीं। सब ससुराल वालों पर निर्भर है। कैसे कह दूं कि नहीं करना ब्याह। मेरे पीछे तीन भाई-बहन और भी तो है।

यह कैसी शादी है जीजी। मेरे मन में उस अनदेखे, अनजाने व्यक्ति के लिए कोई भावना नहीं जगती। मां-पापा का उतरा चेहरा देखती हूं तो अपने बेटी होने पर शरम आती है। मेरे ब्याह की फिक्र में उनका खाना-पीना छूट गया है। मां के जेवर बिकने की नौबत आ गयी है। पापा की मारुति मेरे दहेज की बलि चढ़ गयी। कैसा ब्याह है ये जिसमें लुटेरों का सत्कार होता है। इस लूट में मैं भी तो शामिल हूं। इस लूट का अंत नहीं होगा, मैं जानती हूं। आज होली, फिर करवा, फिर दीवाली लूट का सिलसिला चलता ही रहेगा।’’

वह रोती जा रही थी और कहती जा रही थी, ‘‘अगर मैं लड़का होती तो ये सब ना होता जीजी। पढ़-लिख कर प्रोफेसर बनना चाहती थी मैं। आपको पता है एम.ए प्रीवियस में टॉप किया था मैंने, लेकिन लड़कियों की नियति है कि ब्याह ही उनके जीवन का अंतिम सत्य है। मैं भी सबकी तरह रोती-पीटती, नाक सुड़कती ससुराल चली जाऊंगी। फिर ऐसे ही 2-3 बच्चों और उनके पिता के साथ मेरा जीवन भी कट ही जाएगा।’’ वह सुबक रही थी, ‘‘अगर मैं कहूं कि मैं अपने सहपाठी मानव को पसंद करती हूं, तो कोई सुनेगा क्या मेरी। मानव अभी बेरोजगार है। उसके साथ मेरा क्या भविष्य होगा। उस दरिद्र युवक का प्यार इतना मजबूत नहीं कि इन कमजोर रीतिरिवाजों से टक्कर ले सके। सो इस रिश्ते का तो बस अंत ही भला। ब्याह के हवन कुंड में अपने सपनों की आहूति दे कर मुझे उन लुटेरों के घर वधू वेष में जाना ही होगा।’’ मैं स्तब्ध उसका चेहरा देख रही थी। वह कितना तनाव झेल रही थी ।

उधर मम्मी और मौसी की मंत्रणाएं। मौसा जी का हकबकाए सा घूमना। कभी बैंक, कभी अनाज मंडी, कभी सुनार के यहां, तो कभी तंबू कनात वालों के पास। कैसा ब्याह था यह। सबके चेहरों पर तनाव। एक भंवर था जिसके लपेटे में पूरा परिवार आ गया था।

ब्याह की तिथि आते-आते काफी व्ययों का इंतजाम हो चुका था। मौसी के घर रिश्तेदारों की भीड़ थी। आंगन में शामियाना लग गया। हलवाई ने चूल्हे का विधिवत पूजन कर कड़ाही चढ़ा दी थी। ढोलक पूज कर उस पर बन्ना-बन्नी गाए जाने लगे। घर का आंगन पकवान बायने की सुगंध से महक रहा था।

जिस दिन शाम को हल्दी चढ़नी थी उसी दिन रत्ना मुझे ले कर युनिवर्सिटी चल दी। बहाना बनाया कि इम्तहान के फार्म भरने हैं। क्या पता रत्ना को इम्तहान देने की अनुमति मिल ही जाए ससुराल से। ताई जी ने व्यंग्य भी किया, ‘‘भवानी, कॉलेज जाना बंद करो अब। रांची वालों का चूल्हा देखो।’’ उनका कर्कश स्वर सुन कर भी अनसुना कर दिया हमने।

मानव को उस दिन पहली बार देखा था मैंने। अगर वह रत्ना की पसंद था तो मुझे गर्व हुआ था। मेरी उपस्थिति में ही रत्ना मानव के गले लग गयी। मेरे गाल कुंआरी अनुभूति से रक्ताभ हो गए। मैं वहां से चलने को हुयी, तो रत्ना ने अपना हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ पकड़ लिया।

सांय के 4.00 बजे थे। वे हल्की सर्दियों के दिन थे। धुंधलका कुछ जल्दी होने लगा था। युनिवर्सिटी में सन्नाटा हो चुका था। मानव के चेहरे पर एक उदासी ठहर गयी थी।

खादी का कुर्ता-पाजामा पहने वह युवक मुझे बेहद जहीन लगा था। यदि अनुकूल परिस्थितियां, धन और समय मिलता, तो निश्चय ही उसका भविष्य उज्जवल हो सकता था।

कुछ देर बाद रत्ना उससे अलग हो कर बोली, ‘‘चलती हूं।’’ डबडबायी आंखों से वह मानव को देख रही थी। उस सूनी शाम को हम तीनों ही युनिवर्सिटी कैंपस से एक साथ बाहर निकले।

रिक्शे पर मैं और रत्ना बैठे, तो रत्ना ने एक बार फिर मानव का हाथ कस कर थाम लिया। संभवतः अपने अधूरे प्रणय का अंतिम स्पर्श भीतर तक महसूस कर लेना चाहती थी। लेकिन मानव बड़े ही पक्के मन वाला निकला। उस फक्कड़ युवक ने अपना हाथ छुड़ा कर एक बार रत्ना का सिर थपथपाया और मात्र इतना कहा, ‘‘अलविदा रत्ना।’’ उसके बाद वह पलट कर चल दिया। मुड़ कर एक बार भी ना देखा। क्या पता उसकी आंखें भी आंसुअों से भर आयी हों, जिन्हें वह छुपाना चाह रहा होगा।

रिक्शा चल पड़ा। रत्ना नम आंखों से दूर तक अपने छूटे हुए प्यार को जाते देख रही थी। मुझे भय था कि कहीं हिचकियों के साथ वह चीख कर रोना ना आरंभ कर दे। उसका हाथ मेरे हाथ में था और सर्दियों के मौसम में भी तप सा रहा था। रत्ना ने अपनी रुलाई रोक रखी थी। घर पहुंचे, तो हल्दी की रस्म की तैयारियां शुरु हो रही थी। रत्ना चुपचाप भीतर गयी और मौसी की पुरानी साड़ी लपेट कर पीढ़े पर आ कर बैठ गयी।

उसे देख कर लग ही नहीं रहा था कि अभी-अभी एक भयंकर तूफान को पार करके वो यहां आयी है। रिश्ते की चाची, मामी, भाभियों ने विवाह गीत गाने आरंभ कर दिए थे। गीतों की सुरताल पर रत्ना के माथे, कंधे, बांह, घुटनों और पैरों पर धीरे-धीरे हल्दी के थापे लगने आरंभ हो गए। फिर देखते-देखते उसकी पूरी की पूरी काया हल्दी से पीली हो गयी। न्यौछावर उतारी गयी। फिर रत्ना को कोहबर में बिठा दिया गया। मैं उसके साथ ही थी।

कुछ ही देर बाद रत्ना को ठंड लगने लगी। इतनी ठंड कि उसके दांत बजने लगे। मैंने मौसी को बुलाया। स्वेटर, शॉल, कंबल, रजाई सब उढ़ा दिए गए रत्ना को, पर उसकी कंपकंपी बंद नहीं हुई। धीरे-धीरे बुखार चढ़ आया। शरीर तपने लगा। आंखें लाल हो कर कपाल पर चढ़ गयीं। थर्मामीटर लगाया गया तो, 103 डिग्री बुखार निकला। जो-जो दवा बुखार उतारने की घर में उपलब्ध थीं, रत्ना को दी गयी। राई लोन से नजर भी उतारी गयी, पर रत्ना बेसुध ही पड़ी रही। रात गहरी हो रही थी और रत्ना का बुखार भी। हार कर मौसा जी रात के साढ़े ग्यारह बजे पड़ोस के निगम साहब के घर पहुंचे कि उनके घर से डॉ. लहरी को फोन करके बुला लिया जाए। फीस जो भी होगी भुगत ली जाएगी।

लेकिन डॉ. लहरी ने फोन पर टका सा जवाब दे दिया कि इतनी रात गए उनका मरीज के घर आना संभव नहीं है। कोई और रास्ता ना था अब। मौसा जी वापस आ गए। रत्ना शांत थी। शायद सो गयी थी। माथा अभी भी गरम तवे सा तप रहा था।

किसी तरह रात कटी। सुबह-सुबह कई दिनों से छुपी, पुछी मारुति को चला कर मौसा जी डॉ. लहरी को लेने गए। मैं भी साथ थी। डॉ. लहरी बड़े अहसानों से हमारे साथ आने को तैयार हुए। हम लोग उन्हें ले कर कोहबर में पहुंचे। रत्ना करवट लिए सो रही थी। अोढ़ी गयी रजाई का सफेद कवर ऊपर से पीला पड़ गया था। डा. लहरी ने रत्ना की नब्ज देखी और पट से हाथ छोड़ दिया उसका, ‘‘सब कुछ तो समाप्त हो गया सर। आप लोगों ने ध्यान नहीं दिया। रात के किसी समय बुखार काफी तेज हो गया होगा, तभी ऐसा हुआ। बिटिया तो गयी आपकी।’’ डॉ. लहरी ने रत्ना का मुंह ढक दिया,‘‘ मेरी होम विजिट की फीस।’’

हां, फीस तो देनी ही थी और उन्हें घर छोड़ कर भी आना था। यह मौसा जी की विवशता थी। इधर घर में रोना-पीटना मच गया। अनायास मौसी का करुण क्रंदन मेरे कानों में पड़ा ‘‘मेरी लाडो, कहां चली गयी रे... अभी तो उसका ब्याह होना था। कन्यादान होना था। भगवान, उसकी जगह मुझे क्यों नहीं उठा लिया।’’

क्या सच में मौसी को रत्ना के चले जाने का दुख था। ब्याह में आए रिश्तेदारों का मन मायूस हो गया था। जो घर कल तक ब्याह के गीतों से गूंज रहा था आज वहां मरघट जैसा सन्नाटा छाया था।

रत्ना की अंतिम विदाई के लिए मौसी ने भावुक हो कर उसके ब्याह का जोड़ा निकाला पर दादी ने डपट दिया, ‘‘रखी रह इसको। साल-दो साल में दूसरी का नंबर आएगा तब काम आएगा जोड़ा। कुंआरी लड़कियां लाल जोड़े में थोड़ी ना विदा होती।’’

मौसी ने घबरा कर ब्याह का जोड़ा अलमारी में रख दिया। जिस दिन ब्याह होना था उस दिन अर्थी उठ रही थी। मैं देख रही थी, मानव भी आया था। उसे कोई नहीं जानता था। भीड़ में अकेला खड़ा था वह। खोया, उदास, अश्रुपूरित आंखें। मानो वही रत्ना की मृत्यु का उत्तरदायी हो। मैं उससे कुछ कहना चाहती थी किंतु वह भीड़ में ही कहीं गुम हो गया।

रत्ना की विदाई हो चुकी थी। मौसी अब शांत स्थिर भाव से सबको विदा कर रही थीं। जाने वालों में अंतिम मेहमान मैं और मम्मी रह गए थे। जाने की अंतिम रात मौसी, मम्मी और मैं एक कमरे में सोए थे। मेरी नींद कुछ कच्ची, कुछ पक्की हो रही थी जब मैंने मौसी को कहते सुना, ‘‘अच्छा हुआ जिया, रत्ना चली गयी। एक बोझ कम हुआ। ब्याह कर चली जाती, तो लड़के वालों को दहेज भरते-भरते हमारी कमर ही टूट जाती। इनकी मारुति बच गयी। शौक से चलाएंगे। रत्ना का दहेज रश्मि के काम आ जाएगा। सच कहूं जिया, रत्ना के जाने के बाद पता नहीं कैसी तसल्ली महसूस हो रही है। कोख में नौ महीने रख कर पैदा किया है उसे। दिल में कहीं ना कहीं दर्द है। मैं रोना चाह रही हूं, पर इनके चेहरे का सुकून मुझे राहत दे रहा है। कितने दिनों बाद ये चैन की नींद सोए हैं। रोने और सोने की यह कैसी लड़ाई है जिया, मैं समझ नहीं पा रही।’’

मैं हड़बड़ा कर उठ बैठी। मौसी और मम्मी ऐसे बैठी थीं मानो सामान्य तौर पर कोई विमर्श मंत्रणा हो रही हो। मै पानी पीने के लिए रसोई की तरफ गयी। मौसा जी के कमरे का द्वार खुला था और उनके निश्चिंत खर्राटे गूंज रहे थे। रत्ना अब नहीं रही। वह लौट कर आएगी भी नहीं।

धीरे-धीरे सब उसे भूल गए। मैं भी तो उसे भूल ही गयी ना। लेकिन मुझे याद है रत्ना के जाने के बाद उसकी जिम्मेदारियां रश्मि ने संभाल ली थीं। मौसी-मौसा जी के चेहरे पर दुख की कोई रेखा नहीं थी। रत्ना की दादी तो अंदर ही अंदर खुश लगने लगी थीं। मुझे सब कुछ विचित्र लग रहा था। इक्कीस बरसों तक घर से जुड़ी रत्ना का जाना किसी को क्यों नहीं अखरा था।

तभी जब अचानक इतने बरसों बाद स्वप्न में वह मुझसे मिलने आयी और अपना प्रश्न पूछा, तो मैं निरुत्तर थी। वह फिर आयी, तो उसे क्या उत्तर दूंगी, नहीं जानती। बरसों बरस पुराना कटु सच उससे कैसे कह पाऊंगी।