Wednesday 20 March 2024 12:34 PM IST : By Pama Malik

फरेब भाग-1

fareb

मेरी मां सिंगल मदर हैं, मैंने बचपन से आज 19 वर्ष की उम्र तक केवल उनको ही देखा और जाना है, वे एक चुस्त-दुरुस्त, सुंदर, सबल, आधुनिक, सिद्धांतवादी, साहसी महिला के रूप में मेरे मन में बसी थीं। मेरे लिए ‘मां’ के वाक्य ब्रह्म वाक्य थे। उन्होंने मुझे कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी। वास्तव में कोई कमी थी ही नहीं, आधुनिक सुख-सुविधा से सुसज्जित फ्लैट जिसमें 2 बेडरूम थे। मां की अच्छी सैलरी थी, वे एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका थीं। मेरे पालन-पोषण के लिए मेरे पिता से भी हमें एकमुश्त धन मिलता था। उन्होंने मेरी मां को उस समय छोड़ दिया था, जब मैं 4 वर्ष का था। उनकी एक बेहद धुंधली सी आकृति मेरे जहन में थी, एक दुबला-पतला लंबा सा व्यक्ति।

‘‘प्रवीर ! नाश्ता-खाना सब बना दिया है, नाश्ता करके कोचिंग चले जाने, वहां से आ कर खाना खा कर आराम करना, घर पर ही रहना मैं देर से आऊंगी।’’

‘‘कब तक आएंगी आप?’’

‘‘8 बजे तक आ जाऊंगी, तुम कहीं घूमने मत निकल जाना,’’ वे पास आयीं, ‘‘देखो प्रवीर, तुम्हें ग्रेजुएशन पूरी करके नौकरी के लिए प्रयास करना पड़ेगा।’’

‘‘अरे ! नौकरी कहीं रखी है क्या मम्मी?’’ मैं हंसा।

‘‘तुम्हें कठोर परिश्रम करना पड़ेगा, आत्मनिर्भर होना होगा, मेरे पास इतना समय नहीं कि मैं तुम्हारे लिए लंबी प्रतीक्षा करूं।’’

‘‘तुम मेरे लिए प्रतीक्षा करना मम्मी, अभी तो मैं केवल 19 वर्ष का हूं।’’

‘‘मेरे पास बहस के लिए समय नहीं है, दो महीने बाद तुम 20 वर्ष के हो जाओगे, तुम्हारी नौकरी और शादी बस मैं केवल दो बात ही सोचती हूं। पिछले 15 वर्ष से नितांत अकेली मैं, किस तरह से एक दुधमुंहे बच्चे को ले कर इस संसार में संघर्ष करती आयी हूं, यह केवल मैं ही जानती हूं। तलाक के बाद तुम्हारे पिता से तुम्हारे लिए कोर्इ अपेक्षा करना व्यर्थ है,’’ मम्मी का कंठ भर गया और मैं सचेत हो गया।

‘‘मैं तुम्हारी परिस्थिति से भली-भांति अवगत हूं, तुम जैसा कहोगी मैं वैसा ही करूंगा, तुम्हारा सहारा बनूंगा।’’

‘‘तुम अपनी सहायता करो, बेटा ! मेरी नहीं,’’ वे हल्के से बुदबुदायीं और बैग उठा कर बाहर निकल गयीं।

मेरी मां आज भी युवा और आधुनिका थीं, अच्छे पाश्चात्य वस्त्रों, मेकअप और लेटेस्ट केशविन्यास में वे बेहद सुंदर लगतीं। यदि उन्होंने जीवनसाथी के रूप में किसी को पसंद कर रखा है, तो मैं कभी उनके मार्ग में बाधक नहीं बनूंगा। स्त्री का अपना एक व्यक्तिगत जीवन है, जिसे वह हर किसी से नहीं बांटती है, मैंने सोचा और मुझे लगा कि अब मैं बड़ा हो गया हूं। मैं उठ कर अपने कामकाज में व्यस्त हो गया।

रात में मां देर से घर लौटीं, नीचे से उनके हंसने की आवाज आ रही थी। मैंने झांक कर देखा, वे मृत्युंजय अंकल के साथ खड़ी थीं। बहुत दिनों बाद उन्हें प्रफुल्लित और बेफिक्र देखा। मृत्यंजय अंकल उन्हें अपनी कार से छोड़ कर चले गए। वे मम्मी के अच्छे मित्र थे। यदि वे दोनों साथ जीवनयापन करते, तो मुझे कोई आपत्ति ना थी। मम्मी क्यों एक ऐसे व्यक्ति के लिए ताउम्र अकेली रहे, जो उन्हें मंझधार में छोड़ गया, मैंने सोचा और लापरवाही से कंधे उचकाए।

मां अंदर आ गयी थीं, ‘‘प्रवीर, कैसा बीता दिन?’’ उन्होंने मुझे लिपटा लिया।

‘‘अच्छा रहा, आप बताइए।’’

‘‘ठीकठाक था, अरे यह सब तुम क्या कर रहे हो?’’

‘‘आपकी मुश्किल आसान कर रहा हूं, देखिए मैंने राजमा-चावल बनाया है। साथ में नीबूवाला प्याज और रायता।’’

‘‘अरे वाह ! मेरा बेटा कितना समझदार हो गया है, लेकिन मैं तो खाना खा कर आयी हूं।’’

‘‘ओह ! लेकिन आपने बताया ही नहीं,’’ मैं निरुत्साहित हो गया।

‘‘सॉरी बेटा, लेकिन कोई बात नहीं, मैं कल इसे खा लूंगी।’’
मैं अकेले राजमा-चावल खाते गुनगुनाती प्रसन्न मम्मी को देखता रहा। मम्मी मृत्युंजय अंकल के साथ घूम कर लौटने के बाद प्रसन्न रहती थीं, मेरे लिए मम्मी क्यों अकेले रहें? उन्हें भी खुश रहने, सजने-संवरने और जीवन के अन्य आनंदों का भागीदार होने का पूरा हक है, क्यों एक ‘अकेली’ स्त्री को बच्चों, परिवार के कारण अपने व्यक्तिगत प्रसन्नता से समझौता करना पड़ता है। हर वक्त उससे ही क्यों एक त्यागमयी नारी बनने की अपेक्षा की जाती है? मैं मम्मी के बारे में अकसर सोचता कि किस प्रकार उन्हें एक बेहतरीन जिंदगी दी जा सके। यद्यपि वे किसी भी प्रकार से पीडि़त, शोषित ना थीं। आर्थिक रूप से हम समृद्ध थे, मन मर्जी के मालिक थे, मम्मी ने भी कई प्रकार के किटी क्लब व सामाजिक संस्थाओंसे स्वयं को जोड़ रखा था। फिर वे बिंदास थीं, मृत्युंजय अंकल के साथ बिना संकोच के घूमती-फिरती थीं, किंतु फिर भी वे अकेली थीं।

एक दिन उनका मूड अच्छा देख कर मैंने कहा, ‘‘मम्मी ! आप अकेले ही सारे दायित्व का निर्वाह करती हैं, क्या ऐसा संभव नहीं है कि आप एक से दो हो जाएं?’’

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो?’’ वे चौंक गयीं।

‘‘क्यों इसमें कैसी शरम? यदि पुरुष तलाक के बाद दूसरी शादी करने को स्वतंत्र है, तो स्त्री क्यों नहीं?’’

मम्मी कुछ देर मुझे नजरों से तौलती रहीं फिर बोलीं, ‘‘तुम मृत्युंजय के बारे में तो नहीं कह रहे हो?’’

‘‘मैं किसी के बारे में नहीं कह रहा था, मैं आपके अकेलेपन के साथी की बात कह रहा था।’’

‘‘तुम बड़े हो गए हो, अपने ढंग से सोचते हो, लेकिन बेटा, इस दुनिया में हर किसी को मुक्कमल जहां नहीं मिलता, मैं ऐसी ही हूं।’’

‘‘लेकिन क्यों, आप दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं, तो विवाह क्यों नहीं कर सकते?’’

‘‘प्रवीर, तुम्हें जल्द से जल्द अपने पैर पर खड़े होने के बारे में सोचना चाहिए, मेरी चिंता छोड़ो।’’

‘‘लेकिन क्यों, बताइए ना मम्मी।’’

मम्मी कुछ क्षण विचित्र निगाहों से मुझे ताकती रहीं फिर बोलीं, ‘‘यदि मैं दूसरी शादी कर लूं, तो मुझे इस घर से बेदखल कर दिया जाएगा और मासिक 40 हजार की निर्वाह राशि भी नहीं मिलेगी।’’

मम्मी चुनौतीपूर्ण अंदाज से मेरे चेहरे के उतार-चढ़ाव को भांपती रहीं, किंतु मेरे चुप रहने पर अपने कामकाज में व्यस्त हो गयीं।
उस दिन के बाद मम्मी मुझसे खुल गयीं, मृत्युंजय अंकल के बारे में बेबाकी से बातें करने लगीं। कभी-कभी उनके साथ दूसरे शहर की यात्रा भी कर आतीं, उनका हमारे घर में दखल बढ़ने लगा, किंतु मुझे बुरा ना लगता। मेरे लिए मां का सुख-संतोष ही सबसे बड़ी बात थी।

फिर मैंने ज्यादा समय नहीं लिया। रात-दिन कठिन परिश्रम किया और लगनपूर्वक अपने लक्ष्य प्राप्ति में जुट गया। दोस्तों और मनोरंजन को दरकिनार किया, मौजमस्ती से एक निश्चित दूरी बना ली और अंततः मैं सफल हुआ। मैंने मात्र 4 वर्ष के अंदर ही ग्रेजुएशन करके कोचिंग के द्वारा बैंकिंग के कई एग्जाम दिए और राष्ट्रीयकृत बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर के रूप में चयनित हुआ। मेरी पहली पोस्टिंग इलाहाबाद में हुई।

मां बेहद उदास थीं। मेरी पैकिंग करते-करते मुझे तरह-तरह के निर्देश दे रही थीं। मैं आधी बातें सुन रहा था आधी नहीं। रोमांचित था, उत्साह से लबरेज था, अपने पैर पर खड़ा होने का आनंद ही कुछ और था। आज रात की ट्रेन थी, मम्मी भी साथ आना चाह रही थीं, किंतु घर, स्कूल का भी दायित्व था, उन्हें मना कर दिया। शुरू में सप्ताहभर होटल में रहने की योजना थी, फिर बैंककर्मियों के सहयोग से किराए का घर लेता या पेइंग गेस्ट बन जाता। कुछ जरूरी सामान खरीद कर घर में प्रवेश किया, तो मां की आवाज कान में पड़ी। वे अंकल से कह रही थीं, ‘‘जिस बात से मैं सबसे ज्यादा भयभीत थी, वह सब कुछ होने जा रहा है। वह उसी शहर में जा रहा है, जहां उसके पिता रहते हैं।’’

‘‘अरे ! उसे कुछ पता ही नहीं है कि वे कहां रहते हैं, ना मोहल्ले, कॉलोनी की जानकारी है। तुम बेवजह डर रही हो।’’

‘‘फिर भी कभी कहीं उनसे भेंट हो जाए?’’

‘‘तो पहचानेंगे कैसे एक-दूसरे को, प्रवीर की अपने पिता में कोई रुचि नहीं है, अन्यथा तुमसे उनके बारे में पूछता जरूर।’’

‘‘क्या पता, खून उबाल मारता है मृत्युंजय।’’

मैंने ज्यादा नहीं सुना, खंखार कर अंदर आ गया। मुझे देख कर उन्होंने दूसरी बात शुरू कर दी। पहले विषय पर पूर्ण विराम लग गया, किंतु मेरे मन में खलबली मच गयी। पापा इलाहाबाद में रहते हैं, वर्षों पुरानी एक विस्मृत तसवीर जहन में कौंध गयी, बेचैनी सी होने लगी। रात जब मम्मी मेरे रास्ते के लिए खाना बना रही थीं, तब चाबी ले कर मैंने चुपके उनकी अलमारी खोली, लॉकर में उन स्थानों की छानबीन की, जहां मम्मी अपने पेपर रखती थीं। थोड़ी मुश्किल के बाद पिता की फोटो, फोन नंबर, पता सब मिल गया। मैंने तुरंत उसे जेब के हवाले किया, अचानक एक पेपर पर मेरी नजर अटक गयी और मैं हतप्रभ रह गया। वह मम्मी और मृत्युंजय अंकल की कोर्ट मैरिज की प्रतिलिपि थी, मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था। तभी मम्मी आ गयीं, मेरे हाथ से चाबी ले कर बोलीं, ‘‘अलमारी क्यों खोली तुमने?’’

‘‘मेरी नयी पीली वाली शर्ट नहीं मिल रही है,’’ मैंने जल्दी से बहाना बनाया।

‘‘तुम्हारी अटैची में ऊपर ही रख दी है मैंने।’’

‘‘अच्छा, देखता हूं।’ मैंने पलट कर जाते देखा, मम्मी अपने कागज-पत्र संजो रही थीं फिर उन्होंने अलमारी बंद कर दी।

स्टेशन पर मम्मी सुबकने लगीं, मैं पहली बार उनसे अलग हो कर कहीं जा रहा था। मैंने उन्हें समझाया। ट्रेन चल पड़ी, रोती मां को मृत्युंजय अंकल ने अपनी बांहों का सहारा दिया और उन्हें ले कर स्टेशन के बाहर चल पड़े। ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली। मैं निश्चिंत हो कर टेक लगा कर बैठ गया। मम्मी अकेले ना थीं, लेकिन अंतर्मन में कुछ दरक सा गया। अपने जीवन की इतनी बड़ी सचाई उन्होंने मुझसे छुपा कर रखी।

क्रमश...