Friday 13 August 2021 03:53 PM IST : By Pushpa Bhatia

कहां खो गयी सुम्मी...

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शीतकालीन रात्रि के शेष प्रहर में वातावरण निस्तब्ध था। अंधकार को चीर कर फिलहाल उजाला फूटने में अक्षम था। गैस पर चाय का पानी चढ़ा कर सुमेधा बाहर का दृश्य निहारने लगी। घर्र-घर्र के भारी स्वर से वातावरण को कंपाता ईंटों से भरा एक ट्रक घर के सामने आ कर खड़ा हो गया। सुमेधा ने बैठक की खिड़की से झांक कर देखा, कुहासे के कारण दृश्य थोड़ा अस्पष्ट था। 

कुछ क्षण पश्चात कॉलबेल बजी... सुमेधा ने द्वार खोल कर देखा-एक व्यक्ति लुंगी और हाफ स्लीव का स्वेटर पहने खड़ा था। एक स्लिप उसकी ओर बढ़ा कर बोला, ‘‘सामान आ गया है, कहां उतारूं?’’

‘सामान यानी ईंटें ! क्या होगा इनका? कहीं कुछ भूल तो नहीं?' 

स्लिप देखी, नाम लिखा था, ‘निर्मला सागरकर।' सुमेधा कर चेहरे पर संशय की रेखाएं खिंच आयीं, मां क्या करेंगी इन ईंटों का? इतना बड़ा घर है। नीचे वाली मंजिल पर बैठक और 4 कमरे हैं। आगे लॉन, पीछे आंगन, सर्वेंट क्वॉर्टर फिर...’’

दरवाजा बंद करके उसने मां को पुकारा, ‘‘मां ! आपके नाम से ट्रक भर कर ईंटें आयी हैं।’’

‘‘इस समय?’’ बाथरूम से क़ुल्ला करती हुई निर्मला जी बाहर निकल आयीं। चेहरे पर हल्की सी घबराहट थी।

‘‘जाइए देखिए, क्या करना है ! मुझे तो दफ्तर के लिए देर हो रही है। आठ बजे तक कॉर्ड पंच नहीं हुआ, तो एबसेंट लग जाएगी।’’

सुमेधा पर्स उठाने के लिए अंदर गयी, तो निर्मला जी अपनी अलमारी खोल कर पैसे निकालने लगीं।

स्टाफ बस में बैठने के बाद भी ईंटें सुमेधा के मन-मस्तिष्क में जमी रहीं। ‘लाल रंग की ये ईंटें। कितनी होंगी? पांच सौ, हजार, दो हजार, कितनी? उतार कर रखेंगे कहां?10 छत पर या घर के सामने फुटपाथ पर?

पापा ने खुद खड़े हो कर यह घर बनवाया था। पुराने जमाने की ईंटें, सीमेंट, लकड़ी लगी है। इसीलिए खिड़कियां, दरवाजे सब मजबूत हैं,फिर ये तोड़फोड़ क्यों?’

पास-पड़ोस की देखादेखी मां के दिमाग में भी कुछ दिनों से इस बंगले को बिल्डर फ्लैट में तब्दील करने की योजना चल तो रही है, लेकिन इतनी जल्दी इस योजना पर क्रियान्वयन भी शुरू हो जाएगा, इस बात की तो उसने कल्पना भी नहीं की थी।

सुमेधा ने याद किया, पिछले हफ्ते पड़ोस वाली मिसेज कटियार से मां कुछ कह तो रही थीं, ‘‘जब तक जीऊंगी ऊपर वाला फ्लोर किराए पर चढ़ा कर अपना बुढ़ापा सुख से काटूंगी... फिलहाल सुमेधा काम कर रही है, आसान किस्तों पर लोन भी मिल जाएगा, उसके रिटायर होने तक चुक भी जाएगा...’’ लेकिन इतनी जल्दी मां इस योजना पर काम शुरू कर देंगी, यह उसने सोचा भी नहीं था। मां अकसर अपनी छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए सुमेधा को लोन लेने के लिए कह कर स्वयं निश्चिंत हो जाती हैं। जब तक लोन की आखिरी किस्त चुकती है, मां की कोई दूसरी जरूरत मुंह बाए खड़ी हो जाती है और लोन लेने और चुकाने का सिलसिला पुन: शुरू हो जाता है।

लेकिन इस बार मां की बातें सुन कर सुमेधा तपती रेत पर पड़ी मछली की तरह छटपटाती रह गयी थी। ‘काश ! अपने बुढ़ापे की चिंता करने के बजाय मां ने यह सोचा होता कि इस वर्ष उनकी सुमेधा भी एक वर्ष और बड़ी हो जाएगी, उसकी जवानी भी तीन सौ पैंसठ कदम पीछे हट कर बुढ़ापे की ओर अग्रसर हो जाएगी। आखिर उसका घर बसाने की चिंता करना भी तो मां का कर्तव्य है, वह भी तो उन्हीं की बेटी है...’

शायद उन्हें सोचने की जरूरत भी नहीं। सुमेधा बड़ी है ना... चिंता तो हमेशा छोटों की करनी होती है, वह तो परिवार की कर्णधार है... उसे तो हमेशा इन सबके लिए जीना है, सबकी चिंता करनी है।

कई-कई टुकड़ों में बंटी बहुत सी बातें जीवन के अनेक शब्द कोष, हंसते-दुखते दृश्य, प्रिय लगनेवाले प्रहसन, फटे-फाड़े दृश्यों के अंबार... बहुत सी काली परछाइयां, उदासी के ढेरों व्रत और किशोरावस्था से ही पूरे घर को चलाने में लस्तपस्त सांसें ! 

पिता के अपाहिज होने के बाद सुमेधा के जीवन की जैसे दशा ही बदल गयी थी, वरना उसकी झोली में भी कितने नशीले सपने थे, जिन्हें ओस भीगे गुलाबों की महक से मधुकर प्रतिदिन महकाया करते थे। शहर के बेहतरीन डॉक्टरों के इलाज पिता की जान तो बच गयी,लेकिन शरीर का निचला हिस्सा पूर्ण रूप से संज्ञाशून्य हो गया था।

हंसते-खिलखिलाते परिवार की खुशियों को जैसे ग्रहण लग गया। सुमेधा की दिनचर्या पिता की परिचर्या में बदल गयी। भारती जी को समय पर दवाई देना, मरहम-पट्टी करना, समय पर पथ्य देना, सब कुछ सुमेधा के ही िजम्मे था। आलोक और शर्वरी, यहां तक कि निर्मला को भी सड़ांध से भरे उस कमरे में जाने से उबकाई आती थी। भारती जी का कमरा जैसे सबके लिए नर्क का पर्याय बन गया था। बेहद सोच-विचार कर कोनेवाला कमरा भारती जी के लिए कर दिया गया था। सुमेधा ऊपर छत पर ही पिता के कपड़े धो कर सुखा आती थी, बाकी सब उस अज़ाब से बचे रहते थे।

पिता की शंकित और कातर दृष्टि का सामना करती, मां का मनोबल बढ़ाती, छोटे भाई-बहन को दुलारती-पुचकारती सुमेधा को देख कर मधुकर के हृदय में स्नेह का दरिया उमड़ पड़ता, सुमेधा भी फाल्गुनी बयार सी बहने लगती। मन सहज हो उठता। धीरे-धीरे इस स्नेह ने कब प्रणय का स्थान ले लिया, दोनों प्रेमी तब जान पाए जब मन प्रतिपल, प्रतिक्षण एक-दूसरे के सान्निध्य के लिए तरसने लगा। शाम ढलते ही पूरे दिन की शिथिलता एक-दूसरे के साहचर्य में विलुप्त हो जाती। दोनों प्रेमी घंटों उस गुलाब को देखते रहते, जो खुद टूट कर भी दो दिलों को जोड़ता है।

कुदरत का मजाक ! ब्याह की तारीख निश्चित करने जा ही रहे थे भारती जी कि अचानक हृदय गति रुकने से उनकी मृत्यु हो गयी। दोनों प्रेमियों ने जिस महल को सजाया था, पलभर में ढह गया।

निर्मला जी स्वयं घर का सब काम करतीं। काम करते-करते अपने भाग्य को भी दोष देती जातीं, ‘‘ईश्वर को ये दिन भी मुझे ही दिखाने थे।’’

आलोक ने बोर्ड की परीक्षा दी थी। उसकी पढ़ाई तो रुक नहीं सकती थी, बहन शर्वरी अभी स्कूल की छात्रा ही थी। केवल सुमेधा का चेहरा देख कर ही निर्मला जी भविष्य के प्रति तनिक आशान्वित हो जाती थीं। प्रतिदिन बस एक ही सवाल पूछतीं, ‘‘कोई आशा है?’’

‘‘नहीं,’’ सुमेधा का संक्षिप्त सा उत्तर होता। 

सुमेधा क्या कहती? बार-बार वही रूखा सा उत्तर देना उसे भी बुरा लगता, अपनी असमर्थता का बोध कचोटता। गंभीर मुख से बस, ‘हां-हूं’ कह कर अपने कमरे में घुस जाती। सुमेधा मां का दर्द समझती थी। उसकी चिंता तो मां की चिंता से भी अधिक थी। रोजाना के खाने-पीने में ही पिता की संचित पूजी का अधिकांश भाग समाप्त होता जा रहा था। बिजली-पानी का बिल तो ट्यूशन की कमाई से निकल जाता था, लेकिन आलोक और शर्वरी की पढ़ाई?

मधुकर सुमेधा का मार्गदर्शन करते, हर पल कोशिश करते उसका मन बहलाने की। उन्होंने सुमेधा के हर दायित्व के साथ उसे अपनाने के लिए अपना हाथ भी बढ़ाया था, लेकिन सुमेधा का मन तो पत्थर हो चुका था। सूखी रेत की तरह सपाट, ना दरकता, ना सरकता, ना फिसलता, बस अपने मन के सेहरा में ही खोया रहता। आंखों में सपना था पैसा कमा कर मां की खुशियां लौटाने का, भाई-बहन को पढ़ा कर सुखद भविष्य प्रदान करने का।

शहर में कई रिश्तेदार मौजूद थे, मगर सौजन्य की खातिर भी जब किसी ने उनकी खोज-खबर नहीं ली, तो सुमेधा भी सबसे कटने लगी थी। खुद को हर पल दूसरों की नजरों में कमजोर साबित करते रहना क्या कम त्रासद होता है? बचपन से पिता से यही तो सीखा था उसने, ‘‘मजबूत बनो और अगर बन ना भी सको, तो कम से कम दिखो जरूर।’’

वह और सोच नहीं पाती। सिर को झटका दे कर सोचती, ‘यह सब सोचने का समय नहीं है, पहले नौकरी चाहिए। बैंक में रुपया जमा करना होगा, नहीं तो शर्वरी का ब्याह कैसे होगा? अपने देश में अच्छा वर यानी अच्छे दाम। अच्छे दाम दे कर जो खरीदा जाए वह अच्छा।’ शून्यता के साथ चिंतन बढ़ा कि चाहे जो भी हो संघर्ष की चट्टान पर उम्र को कसना होगा। सुमेधा मजबूत बनी रही। दुश्चिंताओं और स्वल्पाहार से चेहरा समय से पूर्व ही पक गया। सुमेधा ने टाइपिंग, शॉर्टहैंड सीखी। आखिर उसे एक रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिल गयी। पहले दफ्तर का काम फिर ओवरटाइम। अतिरिक्त कमाई के चक्रवातों में सुमेधा पिसती रही। साथियों में जहां सहायक थे, वहीं ऐसे भी थे, जिनके उपहास और व्यंग्य बाण भी खूब सहने पड़े, लेकिन मधुकर के साथ ने हमेशा ही दृढ़ता दी, अंतर्मुखी चिंतन दिया।

धीरे-धीरे घर का रूप बदलने लगा। ड्रॉइंगरूम में नए परदे लग गए। सोने के कमरे में सुंदर बेड कवर। रसोई में काम करने के लिए एक नौकर भी आ गया। अब निर्मला जी को निर्बाध गति से पुस्तकें पढ़ने का सुयोग मिलने लगा। शाम का समय कभी किटी पार्टियों, कभी ताश पार्टियों में बीत जाता।

शर्वरी ने एमए पास कर लिया। एक इंजीनियर से उसका विवाह भी हो गया। विवाह में सुमेधा ने अपनी जमा पूंजी और बाकी ऑफिस से उधार ले कर पिता की भूमिका का निर्वहन किया। तभी पूरे घर की मरम्मत व रंगाई-पुताई भी करायी गयी थी।

आलोक डॉक्टर बन गया। नौकरी मिलते ही अपनी डॉक्टर मित्र से विवाह करके वह चंडीगढ़ चला गया। कभीकभार फोन या वाॅट्सएप पर सब की कुशल-क्षेम पूछ कर वह अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेता। इसके अलावा उसने अपने परिवार से कोई संपर्क नहीं रखा था।

सुमेधा अभी भी बंधन मुक्त कहां हुई थी? दामाद को क्या लेना-देना होगा, पूजा उत्सव के समय क्या दें कि परिवार की लाज बनी रहे। बच्चों के छूछक, मुंडन जन्मदिन पर लेनदेन? यही समस्याएं ले कर मां चिंतित रहतीं। आलोक का जीवन ठीक चल रहा है? उसे तो कोई परेशानी नहीं? उसे नर्सिंग होम के लिए पैसों की जरूरत होगी। अब तो उसके फ्लैट की ईएमआई भी शुरू हो गयी होगी। उनकी चिंताओं को मिटाने में सुमेधा चक्करघिन्नी की तरह घूमती रहती और स्वयं उसका भविष्य? इस विषय में चिंता करने का औचित्य बोध निर्मला जी को कभी नहीं होता था। मधुकर परेशान हो उठते, ‘‘अपने अरमानों को यों बर्फ मत होने दो सुम्मी, इनमें जान फूंको, सुलगने दो इन्हें। इस दायरे से बाहर निकल कर तो देखो। तुम्हारी इन वर्जनाओं और लक्ष्मण रेखा के परे का संसार कितना अनोखा और आनंददायक है। मत घुटो, यों अपने मन को पत्थर मत बनाओ।’’

‘‘जीवन में यही सब तो माने रखता है मधुकर। भावनाओं से अलग भी तो रहा नहीं जा सकता,’’ सुमेधा हंस देती।

‘‘सुम्मी ! समय मुट्ठी में बंद उस सूखी रेत की तरह होता है, जिसे मुट्ठी में बंद करनेवाला तो यही समझता है कि सारी रेत अब भी उसकी मुट्ठी में बंद है, लेकिन वह रेत किन्हीं अदृश्य सूराखों से बेमालूम ढंग से धीरे-धीरे फिसल कर समाप्त हो चुकी होती है, और मुट्ठी एकदम रिक्त। हम समय की प्रतीक्षा कर सकते हैं, लेकिन समय हमारी प्रतीक्षा नहीं करता।’’

तब परिपक्व और व्यावहारिक बुद्धि की स्वामिनी सुमेधा को लगा था मधुकर स्वप्नजीवी हैं, लेकिन अब लगता है मधुकर तो ठोस धरातल पर खड़े थे। स्वयं उसने ही अपने चारों ओर कर्तव्य निष्ठा की ऐसी सीमा रेखा बांध रखी थी, जिसे तोड़ना तो दूर लांघना भी मुश्किल था।

मधुकर विदेश चले गए। अपने अरमानों से सजे महल के खंडहरों को देखने के लिए रुकते भी क्यों? और सुमेघा किर्च-किर्च होती रही, खुरदरी पगडंडी पर जिंदगी को दौड़ाती रही और हर मौसम को गुजरता देखती रही। क्या रह गयी वह? एक टकसाल... बैंक... बहीखाता... एक बियरर चेक...? आकाश भर उदासी और ठहरे हुए सियाह समंदर जैसी खामोशी से घबरा कर कभी कुछ पूछना भी चाहा, तो ‘आप... बड़ी हैं दीदी’ या ‘तुम्हारे बिना चिरैया हम सब पंखहीन हैं’ कह कर खामोश कर दी जाती।

स्मृतियों का भार असह्य हो चला, तो सुमेधा ने आंखें मूंद ली थीं। माघ की ठंडी हवाएं तीर की तरह चुभने लगीं। बादलों के टुकड़े यहां-वहां बिखरे हुए थे और सूरज उपेक्षित सा कोने में पड़ा था सुमेधा की तरह।

हवा में खड़खड़ाती पत्तियां देख कर उसके मन में आया कि वह भी इसी तरह अपने मन की शाखाएं हिला दे। पत्तियाें की तरह उसकी शाखाएं झनझनाएं और वह अनुभव करे, कुछ नया सा, अनहोना सा, खुले बाल छितरा कर हवा में लहराए, तितलियां पकड़े, गीत गुनगुनाए। पर अगले ही पल जब आसपास उसकी नजर गयी, तो सब कुछ स्थिर ही पाया। दर्पण में उसका चेहरा, आंखों में लगा काजल, साड़ी ऐसे जैसे पहन कर प्रेस की गयी हो, कहीं कोई बिखराव नहीं, कहीं कोई हलचल नहीं।

कहीं यह होटल हिलटॉप में मधुकर से मिलने का असर तो नहीं? माथे पर झिलमिलाती बूंदों को पोंछ कर घबरायी सी सुमेधा ने चारों ओर देखा। कहीं कोई नहीं था सिवाय एक दमघोंटू सन्नाटे के या वह खुद ऐसा सोचने लगी है?

कितने वर्ष बीत गए शिमला की इन सर्पिल उपत्यिकाओं पर दौड़ते-भागते ! अब तो ऐसा लगता है जैसे उम्र कहीं ठहर गयी है इन पहाड़ियों पर जमी बर्फ की तरह। इतने बरसों बाद भी उसकी जिंदगी एक जगह इकट्ठी कहां हो पायी है? बिखरी हुई है यहां-वहां... थोड़ी सी अतीत के पिंजरे में कैद है, तो थोड़ी सी इस सोच के सवालों में कैद है कि आगे क्या... और थोड़ी सी खो गयी है कहीं, पर कहां?

उस महत्वपूर्ण सेमिनार के लंच ब्रेक में मधुकर ने सबके विषय में पूछ लिया था। सुमेधा उनके प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर देती रही थी। उस 5 वर्ष के अंतराल में मधुकर के बीते वक्त का क्या रंग रहा, यह जानने की इच्छा होते हुए भी वह चुप रही। कहीं मधुकर ने उससे प्रतिप्रश्न कर लिया कि इतने बरस उसने क्या किया, तो क्या जवाब देगी? कह पाएगी कि साथ पढ़ी-लिखी सहेलियों के घर-आंगन में नन्हे-नन्हे बच्चों की किलकारियों से गूंजने लगे और वह...?

या, कह पाएगी अपने त्याग और खुशियों की आधारशिला पर जिन भाई-बहन का भविष्य संवारा, वे सभी उसका साथ छोड़ चुके हैं? यहां तक कि मां भी !

कोई नहीं समझ पाया कि स्वभाव को इतना कड़क बनाने के लिए उसने कितनी निर्ममता से अपने मन के सुवासित उपवनों, मधुमासों को उजाड़ा था, उमंगों के कितने द्वीप समूहों को कठोर संयम-संकल्पों पर उछाल कर नष्ट किया था, परंतु इस सत्य की वह स्वयं या उसकी एकांत परछाइयां ही साक्षी थीं कि मन के इन सारे प्रतीकों को वह जड़ से कहां मिटा पायी थी? इसकी अनुगूंज अकेले क्षणों में उसे आज भी कितना निढाल कर देती है? आज भी उसके दिल में, उसकी रूह में, खयालों में, ख्वाबों में मधुकर ही बसते हैं।

‘‘कहां खो गयी सुम्मी?’’ सुमेधा की मनोस्थिति से पूर्णत: बेखबर मधुकर ने पुन: प्रश्न किया था, ‘‘मेरे बारे में कुछ नहीं पूछोगी? इतने दिन कहां रहा? क्या किया?’’

मधुकर ने सुमेधा की हथेलियों को अपने दोनों हाथों में कस लिया था। मंद-मंद हास्य से युक्त उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व को सुमेधा निहारती रह गयी थी। वही गौर वर्ण, उन्नत नासिका और घुंघराले बाल। कहीं-कहीं बालों में छिटकी सफेद चांदनी उम्र का अहसास अवश्य दिला रही थी।

‘‘क्या कर रहे हैं आजकल?’’ धीरे से निकल गया था मुख से। मन ही मन डर भी रही थी कि कुछ देर पहले जो फफोला उसके अंतस में फूटा था, कहीं अपने अंतरंग साथी को देख कर उसका मवाद ना रिस जाय, ‘‘बस कट रही है जिंदगी सुम्मी तुम्हारे बिना, मगर अब यह जिंदगी जिंदगी नहीं लगती,’’ एक सर्द आह सी निकली थी मधुकर के मुख से, ‘‘अपना नर्सिंग होम है सुबह से शाम तक मरीजों से घिरा रहता हूं। बस यह समझ लो दिन कट जाता है।’’

‘‘और शाम?’’

‘‘तुम्हारी याद में गुजर जाती है। आज भी उस शाम का इंतजार कर रहा हूं सुम्मी, जो तुम्हें अपने साथ ले कर आएगी।’’

‘‘मधुकर, हम वे सपने क्यों देखते हैं, जिनके टूटने पर भी उनके सच होने का इंतजार होता है,’’ मधुकर के कंधे पर सिर रख कर सिसक उठी थी सुमेधा। मधुकर जानते थे पहाड़ों में बहती नदी बर्फ की खामोशी ओढ़ लेती है और सर्द हो जाती है। ऊपर से बर्फ की चादर लपेटे रहती है और भीतर ही भीतर कलकल बहती रहती है। सुमेधा ने भी यही किया हुआ है... पर इस बर्फ के नीचे कितनी भावनाएं-आकांक्षाएं छिपी होंगी, वह अच्छी तरह समझते हैं... वही तोड़ेंगे इस बर्फ की चादर को।

‘‘अब चलना चाहिए,’’ सुमेधा उठ कर खड़ी हो गयी थी।

‘‘थोड़ी देर और बैठो ना।’’

‘‘नहीं,’’ उसने घड़ी की ओर देखा, ‘‘अब जाना होगा। मां के कई फोन आ चुके हैं।’’

अगले दिन मिलने का वादा करके सुमेधा बस में चढ़ गयी थी। बस की खिड़की से छोटी होती जा रही मधुकर की आकृति देख कर वह अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी। सुमेधा ने याद किया, कितनी ही बार मधुकर के साथ इन सड़कों पर इन्हीं बसों में घूमते हुए खुशनुमा शामें बीती थीं, सुख-दुख बांटे गए थे, रंगबिरंगी कल्पनाओं से सजे सपनों के घरौंदे बनाए गए थे। सजे हुए बाजार, जगमगाती सड़कें उसी प्रकार आमंत्रण दे रही हैं, जैसे पहले दिया करती थीं, किंतु जीवन इन सबसे बहुत आगे निकल चुका है।

ब्रेक के साथ ही बस को झटका लगा, तो सुमेधा की तंद्रा भंग हुई। रात के 8 बज चुके थे। वह संभलते हुए नीचे उतरी और तेज कदमों से चलते हुए घर की ओर बढ़ने लगी। सिर दर्द से फटा जा रहा था। अब तक वह 2 दर्दनिवारक गोलियां खा चुकी थी, लेकिन दर्द जाने का नाम ही नहीं ले रहा था।

निर्मला जी अपने कमरे में बैठी होम थिएटर पर कोई फिल्म देख रही थीं। ड्रॉइंगरूम की सेंटर टेबल पर रखी स्कॉच विस्की और सोडा वॉटर की कुछ बोतलें देख कर उसने अंदाजा लगाया कोई आया था। मां से कुछ पूछने का मन नहीं किया। वैसे ही कभी सीधे मुंह बात नहीं करतीं। शराब के नशे में तो कुछ भी बोलने-बतियाने से रहीं।

अपने कमरे में पहुंच कर उसने बैग को मेज पर पटक दिया और सोचा कुछ देर लेट कर आराम कर ले। आज वह बहुत थकी हुई और उदास थी। विभागाध्यक्ष ने उसके निर्धारित काम के अतिरिक्त, छुट्टी पर गए उसके कुलीग का काम भी उसे सौंप दिया था। भूख के मारे अंतडि़यों में कुलबुलाहट सी महसूस हुई, तो उसने चौके में जा कर फ्रिज टटोला, शायद मां ने कुछ उसके लिए बना कर रखा हो, लेकिन कुछ भी नहीं था फ्रिज में सिवाय एक गिलास दूध के। ‘सुबह चाय के लिए उसकी जरूरत पड़ेगी’ सोच कर उसने ठंडा पानी पिया और लिहाफ ओढ़ कर लेट गयी जैसे उसे बाहर की रोशनी से, तीखी सर्द रात से और बेखुद बना देनेवाली चांदनी के जादू से कोई सरोकार ही ना हो।

रात के 12 बजे थे। मोबाइल की घंटी बजी। ठंडी बयार सी धीमी खुशबू लिए मधुकर का बधाई संदेश सुनायी दिया, ‘‘जन्मदिन मुबारक सुम्मी...’’

जैसे पतझड़ में मधुमास चंदन-केवड़ा कुछ ऐसी परिभाषा कौंधी थी सुमेधा के मन में। कोई दूसरा याद करे ना करे, मधुकर उसके जन्मदिन पर बधाई संदेश भेजना कभी नहीं भूलते।

उसने फेस टाइम पर मधुकर का नंबर क्लिक किया। उनका थका-हारा कमजोर सा चेहरा स्क्रीन पर दिखायी दिया, शाम से ज्यादा शिथिल और परेशान दिखायी दिए थे, ‘‘सुम्मी, तुम्हारे इस पैंतीसवें जन्मदिन पर एक कड़वा और तीखा तोहफा भेज रहा हूं। चाहो तो स्वीकारना, ना चाहो तो मेरे पास लौटा देना। यह समय हम दोनों का एक-दूसरे के सुख-दुख बांटने का समय है। मत भूलना, सूर्योदय और दोपहर का समय जितना प्रभावशाली होता है, उससे कम सूर्यास्त का भी नहीं होता। इसका आकर्षण भी बहुत प्रबल होता है। समझ रही हो ना?’’

भीतर से पहाड़ी झरने की तरह प्रबल वेग से फूट कर बहने के लिए बेचैन रुलाई को रोकने की असफल कोशिश करती सुमेधा बाहर आंगन में चक्कर काटने लगी। मधुकर के शब्दों ने उसके अंतस में हाहाकार मचा दिया। मन में आया दौड़ कर मधुकर के पास चली जाए, पर ऐसे नहीं।

मधुकर निरंतर कहते जा रहे थे, ‘‘तुम अब कोई छुईमुई सी लजीली किशोरी नहीं हो सुमी, खुल कर अपनी मां से बात क्यों नहीं करती हो। आखिर वह भी कभी लड़की रही होंगी, समझेंगी तुम्हारे दर्द को, तुम्हारी पीड़ा को, तुम्हारे अकेलेपन को।’’

सुमेधा उठ कर बैठ गयी। अंधेरे में पूरी तरह आंखें खोल कर वह 10 साल की एक-एक याद को सामने देखने लगी, वक्त की गर्त झाड़पोंछ कर उन्हें चमकाने लगी। ‘मां से बात तो करनी होगी, पर क्या बोलना है, किन शब्दों में बोलना है? कहीं एेन मौके पर हमेशा की तरह जबान गूंगी हो गयी और मुख से ना कोई शब्द निकला, ना बोल फूटा तो? कभी-कभी उसे लगता है अपनी सारी शिक्षा और कामकाजी होने के बावजूद उसके भीतर एक दब्बू और कायर लड़की कुंडली मार कर बैठी है... लाख कोशिशों के बावजूद वह कायरता के खोल से बाहर नहीं निकल पाती... लेकिन आज नहीं, कदापि नहीं।’

पड़ोस के घर में बजे शंख से उसकी नींद खुली। पांच बज चुके थे। अलसायी सी सुमेधा उठी और धीमी गति से चलती हुई मां के पास जा कर खड़ी हो गयी। स्टूल पर रखी चाय की केतली में से उसने मग में चाय उड़ेली और कुर्सी खिसका कर बैठ गयी। रातभर जिन शब्दों में मां से अपने मन की बात कहने का रिहर्सल करती आयी थी, उन्हें दोहराने से पहले उसने मां से प्रश्न किया, ‘‘कल रात कोई आया था मां?’’

‘‘हां, आलोक और शर्वरी।’’

सुमेधा सोच में पड़ गयी। ‘पिछले 8 साल में दोनों ने इस चौखट पर कदम नहीं रखा, वे अचानक कैसे आ गए?’

‘‘तुझे बताना भूल गयी, दरअसल मैंने ही बुलाया था। बिल्डर और इंटीरियर डेकोरेटर के साथ मीटिंग थी। सोचा, उन दोनों के मन में कुछ आइडियाज हों, तो बता दें, वरना बार-बार टूट-फूट होती रहेगी।’’

सुमेधा के अंदर कुछ दरक सा गया। ‘यह बात मुझसे भी तो पूछ सकती थीं मां।’

जब तक सुमेधा कुछ कहती, निर्मला जी ने अपना मंतव्य प्रकट कर दिया था, ‘‘मेरे बाद तो यह घर 2 हिस्सों में बंटेगा ही बंटेगा। नीचे का हिस्सा आलोक व बहू का और ऊपर शर्वरी व उसके पति का। सोच रही हूं वकील को बुला कर अपनी विल भी बनवा लूं।’’

‘‘और मैं? मेरे बारे में क्या सोचा है मां?’’ बेसाख्ता सुमेधा के मुख से चीख निकल गयी।

‘‘तेरे बारे में क्या सोचना है? ना आगे नाथ ना पीछे पगहा। चाहे तो शर्वरी के साथ, नहीं तो आलोक के साथ रह लेना। देख बिटिया, थोड़ा-बहुत सामंजस्य तो करना ही पड़ता है। आजकल तो ओल्ड एज होम में भी रहने की प्रथा जोर पकड़ रही है।’’

सुमेधा के मन में आया कहे, ‘‘आप क्यों नहीं रह लेतीं ओल्ड एज होम में? पूरी जवानी तो ऐश में काटी, बुढ़ापा भी सुरक्षित कर लिया?’’

‘‘मां ! अब मैं विवाह करूंगी।’’

निर्मला जी कुछ देर पहले ही नींद से उठी थीं। शराब के नशे की खुमारी अभी तक उतरी नहीं थी, ‘सुमेधा नाम की लड़की, जिसने दौड़धूप करके पिता की भूमिका निभायी, पूरे परिवार को डूबने से बचाया, आज हठात कह रही है ब्याह करेगी?’

निर्मला जी उठ कर अार्मचेअर पर बैठ गयीं। दो महीने पहले ही सुमेधा मां के लिए खरीद कर लायी थी, क्योंकि मां को आर्मचेअर पर बैठ कर अखबार पढ़ना अच्छा लगता है। सुगंधित जर्दे की चुटकी खायी, फिर अपने परिचित अंदाज में आंखें तरेर कर बोलीं, ‘‘इस उम्र में? किसके साथ?’’

‘‘डॉक्टर मधुकर...’’

‘‘वह भगोड़ा डॉक्टर, जो तुझे छोड़ कर विदेश जा कर बस गया? ब्याह करके तभी क्यों नहीं ले गया अपने साथ?’’ 

जबान फिर से तालू से चिपक कर रह गयी। कह नहीं पायी कि ‘अगर इतनी ही चिंता थी इस बेटी की, तो क्यों नहीं बिठा दिया था लग्न मंडप में? बेचारे मधुकर कब तक मेरे पीछे सब्र के नंगे पांवों से दौड़ते रहते? अपना कैरिअर बनाने ही तो गए थे।

निर्मला जी ने बेटी की इस चुप्पी को जबर्दस्ती का मौका बना लिया, ‘‘तो तू क्या अब उस बुड्ढे के साथ शादी करेगी।’’ सुमेधा को मां का आशय समझते देर नहीं लगी। यदि आज नहीं, तो फिर कभी नहीं कह पाएगी। अंतस में विद्रोह ने तहलका सा मचाया और शब्द स्वतः ही होंठों से फूट पड़े, ‘‘तो आपने ही कौन सा दूल्हा ढूंढ़ लिया मेरे लिए?’’

‘‘ढूंढ़ तो रही हूं, कोई मिले भी तो...’’

‘‘मिलेगा भी नहीं मां, सच तो यह है कि आपको अपनी इस बेटी की चिंता कभी हुई ही नहीं। ना ही आपने कभी मेरी भावनाओं और संवेदनाओं को समझने की कोशिश ही की है। मेरी कमाई से मिलता पैसा आपकी प्यास बन गया है। आलोक और शर्वरी आपकी जरा फिक्र नहीं करते। अगर मेरे जैसी सोने के अंडे देने वाली मुर्गी भी हाथ से निकल गयी, तो खुले हाथों खर्च करने की रकम कहां से मिलेगी आपको?’’

सुमेधा कहते-कहते हांफने लगी। निर्मला जी के चेहरे पर अब चिंता के भाव दिखायी दिए, ‘‘लेकिन बोलने मात्र से तो विवाह नहीं होता है ना ! कुछ तैयारी भी तो करनी पड़ेगी ना? कुछ गहना-कपड़ा वगैरह...’’

‘‘वह सब हो जाएगा मां। पचास हजार मैंने आपको रखने के लिए दिए तो थे। कोर्ट में जा कर मैं और मधुकर साइन कर देंगे। एक औपचारिकता मात्र ही तो है।’’

‘‘लेकिन वे पचास हजार तो मैंने बिल्डर को एडवांस दे दिए...’’

निर्मला जी की ढीठता पर सुमेधा हैरान रह गयी। घर की जरूरतें और ठाठबाट बनाए रखने के पश्चात जो रकम उसने बचा कर रखी थी, वह भी खर्च कर दी? ये मां हैं, स्वार्थी और आत्मकेंद्रित? सिर्फ वही सबकी थी, उसका कोई नहीं।

प्रत्येक प्रश्न-संशय तथा संकुचित सोच सुमेधा की जिंदगी के दायरे से अलग होती चली गयी। शीत की धूप में तपती ईंटें अब स्पष्ट नहीं, खूब स्पष्ट दिख रही थीं। उद्भ्रांत सी सुमेधा के कदम स्वतः ही मधुकर के होटल की तरफ बढ़ने लगे थे, ठीक उसी तरह जैसे अंधकारभरी आंधी के बाद, खुले खुशनुमा वातावरण की तलाश में प्रसन्न भाव से पक्षी अपने- अपने नीड़ों की तरफ बढ़ते हैं।

अवश सी सुमेधा ने पूछा मधुकर से, ‘‘कहीं ये तमन्नाओं का बहलाव तो नहीं है मधुकर?’’

‘‘बैठो यहां तसल्ली से,’’ मधुकर ने सुमेधा के हाथ को कस कर पकड़ लिया, ‘‘नहीं सुम्मी, पुराने रिश्तों पर नए संबंधों की मुहरभर लगानी है बस।’’

आंसू के दो कतरे सुमेधा की आंखों से टपक पड़े, जिन्हें पूरे विश्वास के साथ मधुकर ने पोंछ 
दिया था। कैसा आह्लादायक समां था। ना गिरने का डर, ना भविष्य की चिंता। फिर इस सपने में वह अकेली नहीं थी। मधुकर थे उसके साथ, उसका हाथ थामे हुए।