आकाश काले बादलों से घिरा हुआ था, शाम से ही हल्की-हल्की फुहार पड़ रही थी। हर आदमी जल्द से जल्द अपने घर पहुंच जाना चाहता था। रोज का ही काम था, वह रोज 3 साल से इसी वक्त स्टूडियो के लिए निकलता था। दो साल से धक्के खाते-खाते आखिरकार उसे एक प्राइवेट रेडियो चैनल में नौकरी मिल ही गयी थी। गाड़ी के हॉर्न की आवाज हर तरफ से आ रही थी। वैसे तो आयुष की ड्यूटी 10 से 12 वाले शो टाइम में थी, पर इन बीते सालों में दिल का एक कोना खाली सा ही लगता था, जिसको भरने की हर कोशिश नाकाम हो रही थी। वह घर से 9 बजे ही निकल लेता... आरजे सुप्रिय की आवाज टैक्सी में गूंज रही थी। सुप्रिय की दिलकश आवाज और रूमानियत से भरे गाने बारिश के माहौल को और भी खुशनुमा बना रहे थे। उसे भी तो बारिश का कितना शौक था। ना जाने क्यों बारिश से ज्यादा उसकी यादों से उसका मन भीग गया। बारिश तो उसे भी कितनी पसंद थी, पर अब बारिश होती तो उसे लगता कि चोट से सिर्फ इंसान नहीं आसमान भी रो पड़ता है।
स्टूडियो के बाहर चाय की टपरी पर लोगों की भीड़ जमा थी, कुछ बारिश से छिपने के बहाने तो कुछ चाय के बहाने टपरी में घुस आए थे। चाय वाले ने माहौल की नजाकत को समझते हुए चाय का भगोना चढ़ा दिया और गैस की आंच को तेज कर दिया, शर्म और लिहाज में कुछ नहीं तो कम से कम लोग एक कुल्हड़ चाय तो पिएंगे ही। आयुष मुस्करा दिया। आयुष ने टैक्सी वाले के कंधे पर हाथ रखा और हौले से कहा, ‘‘बस यहीं... हां बस यहीं रोक देना,’’ आयुष ने अपना बैग संभालते हुए कहा।
‘‘यहां रेडियो स्टेशन पर काम करते हो बाबू?’’
‘‘हम्म !’’ आयुष ने पर्स से पैसे निकालते हुए कहा।
‘‘मजे हैं तुम्हारे... लोग बतियाने का भी पैसा देते हैं। कुर्सी पर बैठे-बैठे एसी की हवा खाते हुए बतियाते रहो। बढ़िया मस्त गाना सुनो-सुनाओ। हमारी किस्मत देखो गरमी हो या जाड़ा, बस टैक्सी लिए दौड़ते रहो।’’
आयुष मुस्करा कर रह गया, हर दूसरे दिन ऐसा ही होता था उसके साथ... पड़ोस वाली मिश्रा आंटी ने भी ऐसा ही तो कहा था, ‘‘करना क्या है हाथ में बड़ी सी कॉफी का मग लिए लड़के-लड़कियों से बतियाओं और महीने के अंत में करारे-करारे नोट जेब के अंदर... भाई गजब हाल है दुनिया का, जबान हिलाने का भी पैसा मिलता है।’’
आयुष ही जानता था कितने मजे थे इस नौकरी में... कैसी भी परिस्थितियां हों, प्लास्टिक मुस्कान ओढे़ रहो। तीन सालों से वह यही तो कर रहा था। घड़ी में साढ़े 9 बज रहे थे। आधे घंटे बाद उसका शो था, तब तक वह क्या करे... अभी वह यह सोच ही रहा था कि आयुष की नजर रेडियो स्टेशन के सामने बने वीमेंस हॉस्टल पर पड़ी। लगभग सभी कमरों की लाइट बंद थी, पर पिछले कई महीनों से सबसे कोने वाले कमरे की लाइट देर रात तक जलती रहती। खिड़की से छन कर आती रोशनी उसे हमेशा एक उम्मीद जगाती, पर खिड़की के उस पार एक परछाईं को उसने आज बेचैन महसूस किया था। तेज-तेज कदमों से कमरे के चक्कर लगाती हुई वह परछाईं आखिर इतनी बेचैन क्यों थी, कोई दर्द, कोई तकलीफ कुछ तो ऐसा था... ना जाने कितने सवाल उसके दिमाग में अपना सिर पटक-पटक दम तोड़ते रहे। आयुष के केबिन से वह खिड़की साफ दिखायी देती थी, पर हमेशा बंद रहती थी।
आखिरी गाना चल रहा था, सुप्रिय ने शीशे के उस पार से आयुष को इशारा किया और लॉबी में टहलता आयुष रेकॉर्डिंग रूम में पहुंच गया। थर्मस में रखी कॉफी को उसने कप में उड़ेला और एक गहरी सांस ली।
‘‘गुड ईवनिंग, नमस्कार, सत श्री अकाल, आदाब... मैं हूं आपका दोस्त और होस्ट आयुष... हाजिर हूं आपके पसंदीदा प्रोग्राम ‘वो जब याद आए...’ तो कैसे हैं आप... मौसम आज कुछ
ज्यादा ही मेहरबान है। शाम से रिमझिम फुहारें पड़ रही हैं। हाथ में चाय, गरमागरम पकौड़े और दिलकश गानों के साथ आपका दोस्त आयुष हाजिर है, फिर देर किस बात की, फोन उठाइए और मुझसे बातें कीजिए और मैं सुनाऊंगा आपके लिए आपकी पसंद के गाने... बस अब आप मुझे तुरंत फोन मिलाइए।’’
कितना मुश्किल होता एक सांस में बोलना। आयुष ने माइक का स्विच बंद किया और एक गहरी सांस लेते हुए एक रोमांटिक गाना लगा दिया, रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन, भीगे आज इस मौसम में लगी कैसी ये अगन...
आयुष ने कॉफी का एक बड़ा घूंट गले के नीचे उतारा और सिर कुर्सी पर टिका कर आंखें मूंद लीं। किशोर कुमार की दिलकश आवाज में वह डूबता चला गया। स्टूडियो की खिड़की के बाहर सड़क की स्ट्रीट लाइट को भिगोती बारिश की बूंदें आयुष को किसी की यादों में भिगो रही थीं। स्ट्रीट लाइट की पीली रोशनी में बारिश की एक-एक बूंद मानो छन-छन कर आ रही थी, पर कुछ था जो उसे बेचैन कर रहा था। तभी सन्नाटे को चीरती हुई एक आवाज आयी, ‘‘ट्रिन-ट्रिन !’’
आयुष ने कॉफी के मग को एक किनारे रखा और हेडफोन लगा लिया।
‘‘हेलो...!’’
उधर किसी लड़की की आवाज थी।
‘‘हेलो, मैं आरजे आयुष आपके पसंदीदा प्रोग्राम ‘वो जब याद आए’ ले कर हाजिर हूं। सबसे पहले आप अपना नाम बताइए और आप कहां से बोल रही हैं।’’
‘‘जी... मैं... खुशी खुशी चावला।’’
पता नहीं यह सच था यह भ्रम, आयुष को लगा यह एक वाक्य कहने में उसे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी, मानो वह मीलों का सफर तय करके आयी हो।
‘‘जी खुशी जी... बहुत प्यारा नाम है आपका... आप जहां भी जाती होंगी, खुशी ही बिखेरती होंगी।’’
‘‘पता नहीं। पहले तो लगता था, पर अब तो अपना नाम ही बेमानी लगने लगा है।’’
उसके स्वर में अजीब सी उदासी थी। एक अजीब सा दर्द आयुष ने उसकी आवाज में महसूस किया था, ना जाने क्यों उसे ऐसा लगा मानो उसका दर्द कुछ-कुछ उसके जैसा है। एक अजीब सी निराशा थी उसकी आवाज में...
‘‘कहां से हैं आप... कुछ बताइए अपने बारे में... हम सब जानना चाहते हैं।’’
‘‘आयुष जी, आपके शहर से ही हूं। एक कॉलेज में नौकरी करती हूं और यहां एक वीमेंस हॉस्टल में रहती हूं।’’
आयुष की नजर ना जाने क्यों स्टूडियो की खिड़की के बाहर सड़क पार वीमेंस हॉस्टल की खिड़की पर आ कर रुक गयी, जहां अभी भी लाइट जल रही थी और जिसकी खिड़की के शीशे बारिश की तेज बूंदों से सरोबर थे। वीमेंस हॉस्टल की खिड़की के पीछे कहीं ये वही तो नहीं? बारिश की वजह से खिड़की के शीशे के ऊपर पसरा हुआ धुंधलका पूरी तरह से धुल चुका था। सब साफ-साफ दिख रहा था, साफ-साफ ! खिड़की के उस पार की परछाईं पहले से ज्यादा बेचैन लग रही थी, उसकी चाल में अभी भी एक छटपटाहट थी।

‘‘हेलो-हेलो ! आप मेरी आवाज सुन रहे हैं ना?’’
आयुष ने सोच की गिरफ्त से किसी तरह अपना पीछा छुड़ाया, ‘‘जी-जी बिलकुल, अरे वाह ! ये तो वही बात हुई जब मिल बैठे दीवाने दो। कौन सा गाना सुनना चाहती हैं आप और किसको डेडिकेट करेंगी?’’
‘‘ जी मैं... वो... वो जब याद आए बहुत याद आए...’’ उसने हिचकते हुए कहा।
‘‘ओहो ! क्या बात है। मेरी-आपकी पसंद तो एक जैसी है, यह गाना मुझे भी बहुत पसंद है। वैसे किसकी याद आ रही है आपको?’’ आयुष को अचानक क्या सूझी। उसने हवा में तीर छोड़ा, तीर निशाने पर लगा।
‘‘नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं। वो एक फ्रेंड है बस उसी को डेडिकेट करना चाहती हूं,’’ लड़की ने हकलाते हुए कहा
‘‘फ्रेंड... या बॉयफ्रेंड !’’ आयुष को बात करने में मजा आने लगा था।(आगे की कहानी कल पढ़ना ना भूलें)