Friday 03 May 2024 05:24 PM IST : By Chhavi Nigam

दिल का क्या कसूर भाग-3

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वैसे तो मामले की तह तक पहुंचने की कोशिश तो हमारी क्राइम रिपोर्टर उर्फ किट्टू भी कर रही थी, पर कामयाबी उसे भी नहीं मिली थी। हालांकि इस खोजबीन के दौरान हमारी अचकचायी प्रेमकथा का अगला एपिसोड शुरू हो गया था। एकाध बार हम एक-दूसरे के मैच में चीयरलीडर बन आए थे और खाऊ गली के मशहूर गोलगप्पे भी खा आए थे। पर वे अच्छे दिन ज्यादा चल कहां पाए थे? कल ही तो सब गड़बड़ा गया था, जब निरंजन अंकल ने हम दोनों को गप्पास्टिक करते देख लिया... देख क्या लिया मतलब जैसे रंगे हाथों पकड़ लिया था।

‘‘अंदर चल किट्टू,’’ चिल्लाते हुए उनकी आवाज वो घरघरायी... नथुने वो फड़फड़ाए... भेड़िये जैसी उनकी आंखें मेरी तरफ यों लपलपायीं...कि हम समझ गए, अब तो कांड होना ही होना है। हर बुरे अंदाजे की तरह ठीक ऐसा ही हुआ। आज आधी रात उन्होंने हमारी छत पर धमाधम मचायी और फिर पापा ने खास चुने हुए अपशब्दों की रणभेरी बजा दी थी। उनकी सेना की बागडोर उनके इकलौते सैनिक यानी मुझे ही संभालनी पड़ी थी। मतलब वही, डंडे से छत को ठक-ठक करना पड़ा था। तभी से मेरी छठी इंद्रिय होशियार कर रही थी कि भैया ! अब दुश्मन कोई पुलवामा जरूर करेगा। वैसे भी हमारी यह छठी इंद्रिय जाने क्यों भूत-प्रेत, मार-कुटाई के मामलों में हमेशा सही साबित हुआ करती है।

खैर, इस तरह एक और दिन की शुरुआत हुई, यानी मुझे ठेल-ठेल कर पापा-मम्मी ने एक और दिन की शुरुआत कर दी। दोपहर को जब मैं कॉलेज से लौटा, तो घर में हो-हल्ला मचा था। पता चला, ऊपर अंकल वाली अलगनी पर जानबूझ कर गीले कपड़े टांग दिए गए थे, जिस वक्त नीचे पापा के कड़क नील लगे कपड़े सूख रहे थे। नतीजा अंकल और पापा के बीच गलवान की झड़प हो चुकी थी, पापा का बीपी गरीबी की रेखा की तरह ऊपर चढ़ता जा रहा था और सूखे के मारे किसानों की तरह मम्मी सिर पकड़े बैठी थीं। किट्टू और मेरी हालत किसी गैर चुनावी साल में फंसी उस बेबस जनता सी थी, जिसकी कोई नहीं सुनता।
कुछ वक्त निढाल रहने के बाद मैंने फिर हथियार उठा लिया। जासूसी फिल्मों का चस्का होना एक बात है, और असल जीवन में जासूसी करना बिलकुल अलग बात। पापा और अंकल की तनातनी की वजह ढूंढ़ते हुए मुझे इस बात का अच्छे से पता चल रहा था.. यानी कुछ पता नहीं चल पा रहा था। कुछ दिन सस्पेंसभरे बीते। फिर आया रहस्योद्घाटनवाला दिन। जब अचानक किट्टू अपनी स्कूटी मेरी बाइक के बगल में लगाते हुए बोली...‘‘आज शाम’’ और फिर फर्राटे से आगे निकल गयी।

अब क्योंकि अपार्टमेंट की सीढ़ियों पर बैठना खतरे से खाली नहीं रह गया था, इसलिए शाम को मैं स्टेडियम चला गया, जहां किट्टू की प्रैक्टिस चल रही थी। आज उसके हर पेंच में गजब का दमखम था और सामने वाले की पटखनी लगाते हुए वह जिन निगाहों से मुझे देख रही थी... मुझे समझ आ रहा था कि जरूर कोई दूर की कौड़ी उसके हाथ लग गयी थी। कुछ देर बाद ‘‘ये देखो’’ कहते हुए उसने
कुछ पुरानी फोटोज अपने बैग से निकाल कर मेरे सामने रख दीं। काफी फेडेड सी तसवीरें थीं वे। मैंने पलकें झपझपायीं, उन्हें उल्टा-पलटा, पर कुछ समझ ना आया।

‘‘क्या हैं ये... किसकी हैं?’’ पूछते हुए अचानक मेरे दिमाग की ट्यूबलाइट फुकफुका उठी। उसमें नजर आते अनजान चेहरों में एक तो मेरे ही पापा थे। और दूसरे... दूसरे... तो निरंजन अंकल थे। एक फोटो में वे एक-दूसरे के कंधों पर हाथ रखे खड़े थे, दूसरी में अंकल किसी तरफ इशारा कर रहे थे और पापा उधर गौर से देख रहे थे। एक कोई क्लास फोटोग्राफ था, जिसमें नीला ब्लेजर पहने और टाई लगा कर अकड़े हुए दोनों आगे-पीछे की लाइनों में नजर आ रहे थे।

मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। यह कैसे संभव था? आज की तारीख में जिनमें सांप-नेवले की दुश्मनी हो, वे क्या सचमुच...

तभी किट्टू ने मेरे सिर पर धप्प करते हुए कहा, ‘‘जी हां, गहरे दोस्त थे दोनों। बारहवीं तक साथ ही पढ़े थे दोनों अपने कस्बे वाले स्कूल में...’’

मैंने उसकी पीठ ठोंकी, ‘‘वाह किट्टू ! तुम तो बड़ी होशियार निकलीं। और क्या-क्या पता लगा?’’

वह कुछ पल खामोश रही। फिर फोटोग्राफ बैग में डालते हुए बोली, ‘‘मैं पापा के पीछे पड़ गयी, तब उन्होंने बताया... कि तुम्हारे पापा ने धोखा दिया था उन्हें...”

मेरे जेहन में मम्मी के टीवी सीरियल का जुमला ‘‘क्या... क्या... क्या ???’’ कौंध गया। इधर किट्टू कहे जा रही थी...‘‘जाने कितनी बार अंकल की खातिर चोरी-छिपे अमरूद और टिकोरे तोड़े थे उन्होंने... हथेली पर सांय-सांय संटियां खायी थीं। लेकिन ग्यारहवीं के एग्जाम में एक बार उन्होंने तुम्हारे पापा से आंसर पूछ लिया... तो उन्होंने... मना कर दिया। 2% मार्क्स घट गए मेरे पापा के...’’ कहते हुए वह रुआंसी हो गयी, तो मैं हंस पड़ा ‘‘लो, खोदा दुश्मनी का पहाड़ और निकली एक पिद्दी सी वजह। अरे यार, यह तो कितनी पुरानी बात हुई...और कितनी चाइल्डिश !’’

उसने संजीदगी से मेरी आंखों में देखा, ‘‘वजह बहुत बड़ी है दीपक। धोखा और विश्वासघात... गहरी से गहरी दोस्ती तोड़ देते हैं।’’

उसकी तीखी निगाहें जैसे आरोप लगा रही थी। मैं कसमसा उठा। यह तो सीधे-सीधे मेरे पापा पर दोषारोपण था। यहां गुटनिरपेक्षता नहीं चल सकती थी। वह अपने पापा का साथ दे रही थी, तो फिर मुझे भी अपने पापा का साथ देना था। हालांकि आने वाला वक्त मेरे दिल पर बड़ा भारी गुजरने वाला था।

दोस्ती का चटखना क्या होता है, आने वाले दिन मुझे इसका अहसास करा रहे थे। किट्टू और मैं अब कतराते, हाय-हेलो की जगह नजरों के तीखे तीर चलाते और बजाय मुस्कराने के कुछ-कुछ मुंह बिचकाते। मेरे कमरे में रीमिक्स के बजाय मोहम्मद रफी गूंजने लगे थे, मैदान में मुझसे गोल चूकने लगे थे, यहां तक कि हेअर जैल लगा कर आगे वाले बाल खड़े करने में भी मेरा इंटरेस्ट चला गया था। जब मैंने पोहे में डले मटर पर, धुलाई के दौरान फेवरेट शर्ट पर लगे मम्मी के दुपट्टे के गुलाबी निशान पर और अपनी खड़खड़ाती बाइक को ले कर भुनभुनाना छोड़ दिया, तो पापा-मम्मी को थोड़ी-बहुत फिक्र हुई, पर मैं हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया। मतलब अंगीठी के उस धुएं में... जो मैं पापा की लगायी खास चिमनी में छोड़ा करता था... जिसका मुंह ऊपर वाली बालकनी की तरफ खुलता था।

फिर कोई हफ्तेभर बाद एक सुबह अचानक हमारे अपार्टमेंट में एक जोरदार चीख गूंजी। मैं बाहर दौड़ने को हुआ तभी गौर किया कि ये तो ऊपर वाली आंटी थीं। इसे अपनी कामयाबी समझ कर मैं ठिठका ही था, तभी अचानक जोरदार चीखों की सीरीज आती चली गयी। मैं चौंक पड़ा। ये तो पापा की आवाज थी। वे रुंधी आवाज में चिल्ला रहे थे, ‘‘अरे ये क्या हो गया निरंजन। आंखें खोलो। कोई डॉक्टर को बुलाओ... दीपू... जल्दी आओ, इसे अस्पताल ले चलो। अरे जल्दी करो... दीपू... दीपू...’’

मैं दो छलांगों में बाहर पहुंचा और स्तब्ध रह गया। सीढ़ियों पर निरंजन अंकल बेहोश पड़े थे। सिर से लगातार खून बह रहा था। शायद जल्दबाजी में सीढ़ियां उतरते वक्त वे फिसल गए होंगे। आंटी रोए जा रही थीं, परेशान हाल किट्टू कभी उन्हें समझाती, कभी अंकल को हिलाती, कभी डाॅक्टर को फोन लगाती। लेकिन सबसे बदहवास हालत में पापा थे, जो अंकल के सिर के जख्म पर अपना रुमाल रखे हुए चिल्लाए जा रहे थे, ‘‘निरंजन... तुझे कुछ नहीं होगा यार... आंखें खोल... दीपू, जल्दी से ले चल इसे अस्पताल... निरंजन...’’ कुछ पल मैं हैरानी से उन्हें देखता रहा। उनकी भीगी आंखों और कांपते हाथों को। उन्हें इस कदर बेहाल पहले मैंने कभी नहीं देखा था।

एंबुलेंस आते ही मैंने पापा को उनका पर्स थमाया, मम्मी को दोनों घरों का जिम्मा, और अस्पताल को चल दिया। माथे पर टांके लगने के कुछ देर बाद अंकल को होश आ गया। वे अब ठीक थे। उनकी धुंधली नजर कमरे में घूमी और हम सब के ऊपर से घूमती हुई बगल वाली कुर्सी पर बैठे पापा पर अटक गयी। नम कोरों से दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। फिर उन्होंने चुपचाप हाथ बढ़ा कर पापा की हथेली थाम ली। दोनों को इसी मुद्रा में छोड़ कर हम सब धीरे-धीरे बाहर निकल आए। बाहर शाम का धुंधलका फैल रहा था। किट्टू, उसकी मम्मी और मैं वेटिंग एरिया में बैठ गए। अंकल डिस्चार्ज होने वाले थे। अब सब ठीक था। हमें बहुत हल्कापन महसूस हो रहा था, लेकिन क्या बात करें समझ नहीं आ रहा था। अचानक मेरे फोन में टूं-टूं का रिमाइंडर बज उठा। झटके से मैं खड़ा हो गया, ‘‘ओहो... आंटी मैं चलूं क्या?’’ फिर जाने क्यों मेरे मुंह से स्पष्टीकरण भी निकल गया, ‘‘वो... WWE का मैच है ना।’’

यह तुक्का निशाने पर लगा। किट्टू झट मेरे पास खिसक आयी, ‘‘जॉन सीना की फाइट होगी क्या?’’

मैंने उसकी चमकती आंखों में झांका, ‘‘और अंडरटेकर की भी। शायद... खली भी लड़े...’’

झटके से हम दोनों ने मुड़ कर आंटी को देखा, तो वे मुस्करा दीं, ‘‘मैं तो यहां हूं ही। जाओ, तुम लोग घर हो आओ।’’

बस फिर कुछ ही देर बाद एक सपना सच हो रहा था। शहर की सड़कों पर एक बाइक भाग रही थी। मैं था... मेरे पीछे हसीना भी थी... और बाकी सब जाने भी दीजिए...

समाप्त