Monday 08 March 2021 03:08 PM IST : By Nishtha Gandhi

डॉक्टर प्रिया वी.एस. - ये हैं भारत की पहली महिला ट्रांसजेंडर डॉक्टर

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कच्ची उम्र, मासूम मन, कन्फ्यूजन, सवाल, यही है किशाेर उम्र। जब मन थोड़ा एक्सपेरिमेंटल हो जाता है। अपोजिट सेक्स से अट्रैक्शन महसूस होता है। इन सब भावनाओं के बीच झूलता केरल में एक किशोर ऐसा भी था, जो यह समझ नहीं पा रहा था कि उसके साथ क्या हो रहा है। उसे ऐसा क्यों महसूस होता है कि उसकी कोमल सी आत्मा किसी गलत शरीर में कैद है। क्यों उसे आम लड़कों की तरह घूमना-फिरना, अपनी मर्दानगी पर गर्व करना अच्छा नहीं लगता। उसे अपने चेहरे पर उगे बालों को देखना तक पसंद नहीं आता था। और फिर शुरू होती थी बालों काे हाथ से खींच-खींच कर निकालने की दर्दभरी नाकाम कोशिश। स्कूल में बाकी बच्चों के बीच मजाक और चर्चा का विषय बनने पर एक सेंसेटिव किशोर मन किस कदर अंधेरे में डूबता होगा, इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हम बात कर रहे हैं डॉ. प्रिया वी. एस. की, जो केरल की पहली ट्रांसजेंडर आयुर्वेदिक डॉक्टर बनने का रुतबा हासिल कर चुकी हैं। ‘‘लेकिन यह सफर इतना आसान भी नहीं रहा,’’ डॉ. प्रिया बताती हैं। बचपन में जब मैं बॉर्बी डॉल के साथ खेला करती थी, तो पेरेंट्स को अजीब तो लगता था, लेकिन स्कूल में हालात अलग थे। मेरे हमउम्र दोस्त मुझे ‘साइको’ यानी मानसिक रूप से बीमार कह कर छेड़ा करते थे और मेरा खूब मजाक भी उड़ाया करते थे। नतीजतन मैंने खुद को एक खोल में बंद कर दिया था। माता-पिता ने मुझे लड़का समझ कर नाम दिया था जीनू शशिधरन, लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि जैसे मैं कुछ और ही हूं। दिल से आवाज आती थी, जीनू, तुम लड़का नहीं लड़की हो। लेकिन सचाई तो कुछ और ही थी। दुनिया मुझे लड़का ही मानती थी। दिल की इस जद्दोजहद को सुनने और समझनेवाला कोई नहीं था। मैंने अपना दिल अपनी डायरी के सामने खोल दिया। एक दिन मेरी डायरी मम्मी-पापा ने पढ़ ली और फिर मानो आजमाइशों का दौर शुरू हो गया। माता-पिता मुझे सााइकियाट्रिस्ट के पास भी ले गए, पर इसका इलाज तो तभी हो पाता ना, जब कोई समस्या होती। फिर भी मैंने बरसों कोशिश की, अपने आपको झुठलाने की और अपनी फीलिंग्स को दबाने की। हाई स्कूल तक पहुंचते-पहुंचते मैंने यह ठान लिया था कि मैं आम लड़कों की ही तरह बन कर रहूंगा। कई सालों तक मेरी मेल ईगो मेरे स्त्री मन पर हावी रही। एक लड़का, जो दूसरे लड़कों के साथ घूमता-फिरता और गर्लफ्रेंड्स बनाया करता था, अकेले में दोबारा लड़की बन जाया करता था। मैं अपने कमरे में लड़कियों की तरह तैयार हुआ करता था। मेडिकल की पढ़ाई पूरी करके मुझे नौकरी भी मिल गयी। लेकिन तब तक मैं दोहरी जिंदगी जीते-जीते थक चुका था। हां, अपने अंदर की मेल ईगो को तोड़ना बहुत मुश्किल था।

इस काम में मेरी कजिन ने मेरी बहुत मदद की। उसी ने मुझे इतनी हिम्मत दिलायी कि मैं अपनी जिंदगी का सबसे अहम फैसला ले सकूं। इससे पहले तो मुझे यही लगता था कि जैसे मैं कोई इंसान नहीं सिर्फ सांस लेती हुई एक मशीन हूं। खुद से मिलने का यह फैसला आसान नहीं था। समाज, परिवार, कैरिअर सब कुछ दांव था। त्रिसूर के सीताराम मेडिकल कॉलेज में काम करते हुए मैंने एक और रिसर्च शुरू की। अपने साथी डॉक्टर्स और सहकर्मियों से कहा कि मैं ट्रांसजेंडर्स पर एक रिसर्च कर रहा हूं। इस दौरान मैंने पाया कि यह एक ऐसा सब्जेक्ट है, जिसके बारे में लोगों को ज्यादा पता ही नहीं है। कुछ लोग इसे एक मनोरोग भी मान रहे थे। एक जरूरी बात जो मैंने सीखी, वह यह कि अगर खुद से मिलना है, तो सबसे पहले खुद से प्यार करना सीखना होगा और उनके बीच अपनी सेल्फ रिस्पेक्ट को भी बना कर रखना होगा। परिवार में वही हुआ, जिसकी मुझे उम्मीद थी। रोना-धोना, नाराजगी, लेकिन मां ने मेरा साथ देने का वादा किया। मेरे लिए यही काफी था। भाई को मनाने का काम भाभी ने किया। और बस मैं जीनू से प्रिया बनने के सफर पर निकल पड़ी। सपने पूरे करने का सफर आसान नहीं था। साइकोलॉजिकल काउंसलिंग, हारमोन ट्रीटमेंट, सर्जरी, वॉयस चेंज, कॉस्मेटिक सर्जरी इस पूरे बदलाव का हिस्सा हैं।

अपनी असली पहचान के साथ दोबारा उसी हॉस्पिटल में जॉब जॉइन करना भी कभी ना भूलने वाला अनुभव रहा है। अपने कुछ रेगुलर पेशेंट्स को मैंने पहले ही बता दिया था कि हो सकता है कि अगली बार जब आप यहां इलाज करवाने आओ, तो डॉक्टर जीनू के बजाय डॉक्टर प्रिया आपको बैठी मिले। कुछ शॉक हुए, कुछ लोग सिर्फ मुझे देखने भी आए। वे क्या सोचते हैं, इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता। मेरी फैमिली मेरे पास रहे, इतना ही मेरे लिए अहम है। इसलिए अपने नए नाम के साथ मैंने अपने माता-पिता का नाम भी जोड़ा। मां वनजा के नाम का ‘वी’ और पिता शशिधरन के नाम का ‘एस’। बचपन से ले कर आज तक वे मुझे हर काम में सपोर्ट करते आए हैं, हर सपने को पूरा करते आए हैं, अब उनका नाम भी मुझे कंप्लीट करेगा।

फिलहाल तो डॉ. प्रिया वी. एस. अपने सपनों की नयी इबारत लिखने चल पड़ी हैं, एक ऐसी शख्सियत, जो पुरुष प्रधान समाज में मेेल ईगो का पिंजरा तोड़ कर वुमनहुड यानी नारीत्व का उत्सव मना रही है। प्रिया के लिए औरत होना सिर्फ सजना-संवरना ही नहीं है, बल्कि उन सारी भावनाओं को पोषित करना भी है, जो एक नारी के चरित्र को कोमल बनाती है, लेकिन अपने सम्मान के लिए सिर ऊंचा करके खड़े होना भी सिखाती है।