Monday 08 March 2021 02:22 PM IST : By Nisha Sinha

महिला किसानों के हक के लिए लड़ रही हैं कविता कुरुगंती

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दर्द का रिश्ता हमेशा खून का नहीं होता। यह रिश्ता उनसे भी होता है, जिनकी मुश्किलों और चुनौतियों को हम दिल से महसूस करते हैं। महिला किसान नेता कविता कुरुगंती एक ऐसा ही नाम है। राष्ट्रीय राजधानी में नयी कृषि नीति के विरोध में हो रहे किसान आंदोलन में कविता आगे रही हैं। इस किसान नेता ने महिलाओं से जुड़े कई विषयों पर बहुत काम किया है। लेकिन कृषि से खास जुड़ाव होने के कारण महिला किसानों की व्यथा को अपनी आवाज से बुलंद करने का श्रेय भी उनको जाता है। पेश हैं ‘एलांयस फ्रॉम सस्टेनेबल एंड हॉलिस्टिक एग्रीकल्चर’ की संयोजक कविता से की गयी बातचीत के प्रमुख अंश-

शुरुआती दिनों में मैंने सिंगल वुमन के लिए बहुत काम किया। इसके पीछे यह वजह थी कि गांवों में ज्यादातर अकेली औरत जायदाद से वंचित होती है। छोटी उम्र में विधवा होने पर ससुराल वालों का पहला काम उनको घर से निकालने का होता है, ताकि प्रॉपर्टी घर के पुरुष आपस में बांट लें। उस विधवा स्त्री को सब आउटसाइडर मान बैठते हैं। कुछ महिलाएं पोते-पोती होने के बावजूद अपने अधिकार के लिए खड़ी नहीं हो पाती हैं। उनको संपत्ति पर अधिकार नहीं मिलता है।

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दूसरा मैंने महिला किसान को हमेशा इग्नोर होते देखा है। हमारे यहां की सामाजिक संरचना में कई ऐसी पुरानी मान्यताएं रचीबसी हैं, जो महिलाओं को मन से किसान नहीं स्वीकार पातीं। भारत में खेत जोतना पुरुषों का अधिकार माना जाता रहा है। कई राज्यों में महिलाओं को खेत जोतनेवाले हल तक को छूने का अधिकार नहीं है। (खेत के हल को महिलाओं के जेठ के तौर पर माना जाता है इसलिए वे उसे उठा तक नहीं सकतीं।) बंगाल में सुंदरवन के कई इलाकों में महिलाओं को पुरुष मछुआरों की तरह मछली पकड़ने के लिए नाव का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं है।

यही स्थिति किसान महिलाओं की है। वे घर के साथ-साथ खेती के हर काम में भरपूर योगदान देती हैं, लेकिन हमारे समाज में वे कृषि उत्पाद को बेचने के लिए लोकल या दूसरे प्रदेशों के बाजार तक नहीं जातीं। बाजार में व्यापारियों से मोलभाव शुरू से ही परिवार के पुरुष करते आए हैं। ऐसी स्थिति में उनकी मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। अकेली औरत के लिए खेती करना और उपज को बेचना दोनों कठिन हो जाता है।

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भारतीय स्त्री को किस तरह सशक्त बनाया जा सकता है? कविता कहती हैं कि आजादी के बाद भारत में महिलाओं की स्थिति पर दो कमेटी बनी हैं। पहली है कमेटी ऑन द स्टेटस ऑफ वुमन इन इंडिया और दूसरी पैम राजपूत कमेटी। पैम राजपूत कमेटी ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट महिला और बाल कल्याण मंत्रालय को सौंप दी है। मैं इस कमेटी की सदस्य रह चुकी हूं। इसमें महिलाओं के खिलाफ होनेवाली हिंसा की तरफ सरकार का ध्यान दिलाया है। इसमें महिला आरक्षण विधेयक में महिलाओं को लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 33 की जगह पर 50 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही गयी, जो राज्य सभा में 9 मार्च 2010 को पारित हो जाने के बाद भी लोकसभा में पेंडिंग है।

सबसे गंभीर बात यह है कि कामकाजी महिलाओं की संख्या में हर साल कमी आती जा रही है। शहरों में इनकी संख्या बढ़ी है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में घट रही है। जो भी तसवीर हमारे सामने उभर कर आती है, वह पुरुष किसानों की है। भारत की आजादी के बाद 2007 में बनी किसान नीति में ‘किसान कौन होता है’ की परिभाषा तय की गयी। इसे स्वामीनाथन कमीशन ने बनाया। इसमें किसान की परिभाषा को भूमि पर मालिकाना हक
से अलग कर दिया गया था। इसके बाद महिलाओं को किसानों का दर्जा देना तय होना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसलिए फिलहाल सबसे बड़ी समस्या यह है कि महिला किसानों को किसान के रूप में एक पुख्ता पहचान
अभी मिलनी बाकी है। महिलाओं को ले कर कई बातों को सुन कर दुख होता है। छोटी बच्चियों के साथ रेप हो रहा है। गैंगरेप के बाद मर्डर कर दिया जाता है। यह स्थिति दर्दनाक है।

केरल इस दिशा में काफी अच्छा काम कर रहा है। वहां महिलाओं को शामिल करके क्राइम मैपिंग की जा रही है। क्राइम मैपिंग से मतलब है कौन सी जगह महिलाओं के लिए सेफ है और कौन सी नहीं। गांव के स्तर पर कम्युनिटी आधारित व्यवस्था कायम की गयी है। इसके तहत लड़कियों को मार्शल आर्ट सिखाया जा रहा है। लड़कों को जेंडर सेंसेटिव होने की शिक्षा दी जा रही है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा रोकने की दिशा में यह सराहनीय प्रयास है। आज यह जरूरी है कि कृषि से जुड़ी नीतियों को बनाने और निर्णय लेने में स्त्री को भी शामिल किया जाए।