Thursday 24 September 2020 09:54 PM IST : By Meena Pandey

शॉल तरह-तरह की

सरदियों के मौसम में शॉल ही हैं, जो नरम गरमाहट का अहसास देते हैं। शॉल पर हुई शानदार कारीगरी की कला कश्मीर के शॉलों की खासियत है। पशमीना, जामावर, कलमकारी की शॉलें यहीं बनती हैं। 1990 के दशक में फैशन इंडस्ट्री में इन शॉलों की मांग इतनी बढ़ गयी कि इनकी कीमतें अासमान छूने लगीं।

पशमीना क्या है

पशमीना बेहतरीन कश्मीरी ऊन से बनता है। यह खास तरह की कोमलता के साथ गरमाहट से भरपूर होता है। इसकी हमेशा से शाही अहमियत रही। सम्राट अशोक अौर सम्राट अकबर तक इसके प्रशंसक थे। इसकी बुनाई की कला कश्मीर में पीढि़यों से विरासत के रूप में अाज भी कायम है। इसीलिए इसको डायमंड फैब्रिक अौर सॉफ्ट गोल्ड अॉफ एशिया कहा गया है। इसके लिए ऊन हिमालय क्षेत्र की पशमीना गोट (बकरी) के बालों से तैयार की जाती है। ये बकरियां लद्दाख, तिब्बत, चीन, नेपाल, म्यांमार में पायी जाती हैं। एक पशमीना शॉल बनाने में 3 बकरियों का ऊन इस्तेमाल हो जाता है। पशमीना नाम फारसी के एक शब्द पश्म से लिया गया है, जिसका मतलब है, बुनने लायक रेशा। असली-नकली पशमीना पहचानने का तरीका अासान है। अाप शॉल के कुछ धागे जलाएं, बाल जलने की गंध अाए, तो यह असली पशमीना है, पर प्लास्टिक जलने की गंध अाए, तो नकली है। इसकी कीमत लाखों में होती है। यहां का कानी शॉल भी बहुत मशहूर है। ये शॉल कश्मीर के कानीहामा प्रांत में तैयार किए जाते है। ये पशमीना के धागों से तैयार किए जाते हैं।

कढ़ाईदार जामावर

यह शॉल कश्मीर के कशीदाकारों के सधे हाथों की हुनरमंदी का नमूना है। इसे सुई से कई दिनों में एक ही कारीगर बनाता है। जामावर में घनी कढ़ाई होती है। इसकी कीमत लाखों में होती है व सिल्क के धागों का इस्तेमाल होता है। अच्छी क्वॉलिटी के पशमीना पर ही बढि़या जामावार कढ़ाई होती है।

कलमकारी ड्रीम शॉल

कश्मीरी कलमकारी शॉल को ड्रीम शॉल भी कहते हैं। इसकी पहचान इसकी भारी कढ़ाई है। कलमकारी का काम बहुत बारीक होता है। इसकी कढ़ाई पशमीने पर होती है। कलमकारी हस्तकला का एक प्रकार है। अांध्र प्रदेश में कलमकारी शॉल, स्कार्फ अादि सूती कपड़े से बनाए जाते हैं, जिन पर ब्लॉक प्रिंट्स होते हैं। इनका अाधार श्री कलाहस्ति व मछलीपट्टनम शैली है। शॉल पर डिजाइन धार्मिक विषयों पर बनते हैं। वहां पेंटिंग, साड़ी व दुपट्टे पर भी कलमकारी का काम होता है।

कुल्लू के मशहूर शॉल

कुल्लू शॉल के ज्योमेट्रिकल डिजाइन होते हैं। कुल्लू शॉलों पर दोनों किनारों पर धारियां डालते हुए डिजाइन बनाए जाते हैं। परंपरागत शॉलों में चमकदार चटक रंगों का प्रयोग होता है। ज्यादातर डिजाइनों में 8 रंग इस्तेमाल किए जाते हैं। ये तीन तरह के ऊन मेरिनो, अंगाेरा व स्थानीय भेड़ व याक के बालों की ऊन से बनाए जाते हैं।

परंपरागत नागा शॉल

ये नागालैंड की नागा जनजातियों द्वारा बनाए गए पारंपरिक शॉल हैं। इनको चक्षिसांग शॉल कहते हैं। ये शॉल परंपरागत अनुष्ठानों में नागालैंड के स्थानीय लोग ही पहनते हैं। इनके डिजाइन में परंपरागत लोक कथाअों को चििह्नत किया जाता है। ये शॉल देश-विदेश में काफी लोकप्रिय हैं। ये लाल, काले व नीले रंगीन ऊन से बनते हैं।

 

कैसे करें शॉल की देखभाल

  • कभी भी शॉल गरम पानी या वॉशिंग मशीन में ना धोएं। सॉफ्ट डिटर्जेंट में शॉल धो कर निकाल लें। शॉल काे कभी निचोड़ें नहीं। धो कर कुछ देर तार या नल पर टांग दें। पानी निथर जाने पर फैलाएं। मोटे शॉल को तौलिए में रोल करके हल्के हाथों से घुमाएं।

  • कभी सीधे इस्तरी ना करें, मलमल का कपड़ा शॉल के ऊपर बिछा कर प्रेस करें। तेज धूप में ना डालें। पशमीना शॉल को केवल ड्राईक्लीन कराएं। इसे तहा कर पतले कपड़े में लपेट कर अलमारी में रखें।

  • कीड़ा लगने बचाने के लिए सूखी नीम की पत्तियां, कपूर व लौंग महीन कपड़े में लपेट कर शॉल के बीच में रखें।