कुछ दिन पहले नजदीकी रिश्तेदारों के यहां लड़के की शादी में शामिल होने गयी थी। सब कुछ सुुंदर अौर बहुत खूबसूरत था। पढ़ी-लिखी, समझदार नौकरीपेशा प्रोफेशनल लड़की। देख कर बहुत अच्छा लगा। लेकिन शादी के घर में कानाफूसी ना हो, यह कैसे हो सकता है? इसी कानाफूसी का नतीजा था कि एक बात मेरे कानों से हो कर गुजरी, ‘सुना है लड़की की मां थोड़ी मेंटल है।’ यही नहीं किसी जाहिल को मैंने यहां तक कहते सुना है कि ‘बहू पागलों के खानदान की है। लड़के को भा गयी। मोटी तनख्वाह वाली नौकरी है, इसीलिए जिज्जी को कोई नुक्स नजर नहीं अाया।’ सच्ची बात यह थी कि लड़की की मां का कुछ साल डिप्रेशन का इलाज चला था और फिलहाल वह भलीचंगी शादी के कामों में मशगूल दिखी। दुलहन की खूबसूरती देख कर बीते वक्त में मां की खूबसूरती का अंदाजा लगाया जा सकता था। लेकिन डिप्रेशन को हमारी सोसाइटी किस नजर से देखती है, इस बात ने मेरा दिल दुखा दिया।
जीवन से कटना ही डिप्रेशन है। व्यक्ति जीवन से क्यों कटने लगता है? क्यों उदासी उसे जकड़ लेती है? जिंदगी रेत सी फिसलती क्यों लगती है? एक ही घर में रहते हुए हम अपने प्रियजन के अंदर उपजते अकेलेपन को क्यों पकड़ नहीं पाते? क्यों हम एक-दूसरे के दुखों को बांटना भूल जाते हैं? क्यों हम अपनों की चुप्पी पर सवाल नहीं उठाते? हम अपनों की उदास खामोशियां क्यों नहीं टटोलते? डब्लूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार डिप्रेशन के शिकार देशों की गिनती में भारत आज सबसे ऊपर आता है। हमारी आबादी का 6.5 प्रतिशत हिस्सा किसी ना किसी तरह की मानसिक समस्या या बीमारी का शिकार है। समस्या के आंकड़े और भी बड़े हो सकते हैं। चूंकि हमारे यहां जागरूकता की कमी है और डिप्रेशन को बीमारी की तरह देखा भी नहीं जाता, इसलिए इस पर बात भी नहीं होती है। इसका इलाज करना भी जरूरी नहीं समझा जाता।
समाज के हर वर्ग के बीच डिप्रेशन अपनी जड़ें फैला चुका है। हाउसवाइफ, स्टूडेंट्स, प्रोफेशनल कोई भी इसकी चपेट में आ सकता है। व्यक्ति को जब अपने जीवन की समस्या पहाड़ सी लगने लगे, अपने आपको ले कर जब उसका नजरिया नेगेटिव हो जाए और वह लगातार नाखुश रहे, तो यह खतरे की शुरुअात है। व्यक्ति को लगता है कि कुछ एेसा है, जो उसका दिल और दिमाग संभाल नहीं पा रहा है, तब वह अपने आपसे भागने लगता है, पर अपने अंदर आ रहे इस बदलाव को वह समझ नहीं पाता कि उसके अंदर घट क्या रहा है, क्या बदल रहा है। बात-बात पर उसका रोना निकलता है। गुस्सा भी बेकाबू रहता है। काम करने का मन नहीं करता। सबसे बड़ी बात है कि व्यक्ति का अपने पर से भरोसा खत्म हाे जाता है। तनाव और डर से भावनाएं सिकुड़ने लगती हैं। व्यक्ति की सोचने-समझने, काम करने की शक्ति शिथिल हो जाती है।
समाज की नजर में मेंटल हेल्थ के अंदर सिर्फ अौर सिर्फ पागलपन अाता है। डिप्रेशन नाम की समस्या को हम सिर्फ ‘रोने का मन कर रहा है’ कह कर टाल देते हैं। उदासी, अकेलापन, तनाव अौर चिंता इन सभी का लंबे समय तक बने रहना मेंटल हेल्थ के लिए खतरनाक हो सकता है, यह स्वीकारना लोगों के लिए मुश्किल होता है। हमारी सोसाइटी का ढांचा ही एेसा है, जहां इन सब बातों को नकारने में ही बहादुरी समझी जाती है। डिप्रेशन को बीमारी की तरह कोई नहीं देखता।
बच्चों के मामले में पेरेंट्स के लिए यह स्वीकारना और भी मुश्किल होता है कि उनका बच्चा डिप्रेशन का शिकार हो रहा है। ‘उसे सब कुछ तो देते हैं फिर वह कैसे डिप्रेशन में जा सकता है।’ लेकिन सच तो यह है कि हंसता-खेलता बच्चा भी मन के किसी कोने में अकेला और उदास हो सकता है। डिप्रेशन से निकलने के लिए थेरैपिस्ट के पास जाने को कोई तैयार नहीं होता और रास्ता दिखाने वाले को उलटा यह सुनना पड़ता है कि ‘हमारा बच्चा पागल थोड़े ही है।’ इंग्लैंड की डिजिटल हेल्थ स्पेशलिस्ट एेमी सेलबॉय बच्चों को डिप्रेशन से दूर रखने के लिए सलाह देते हुए विशेष तौर पर कहती हैं कि सोलह साल की उम्र से पहले बच्चों के बेडरूम से मोबाइल फोन, आईपैड और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस दूर रखने चाहिए। हजारों युवा बच्चों के साथ काम कर चुकी एेमी सेलबॉय का माता-पिता से यह अनुरोध रहता है कि बच्चों के कमरे में किसी भी तरह की स्क्रीन नहीं होनी चाहिए। बड़ा होने पर जब उसे यह सब चीजें मिलें, तो इनके इस्तेमाल के नियम भी घर में होने चाहिए। अाजकल बच्चे मोबाइल फोन को अलार्म क्लॉक की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके लिए उन्हें अलार्म क्लाॅक क्यों नहीं दी जा सकती? इंटरनेट अौर सोशल मीडिया से ज्यादा जुड़ा बच्चा भी डिप्रेशन की तरफ ज्यादा तेजी से बढ़ता है। डिप्रेशन की शुरुअात कब और कैसे होती है, यह खुद भी पता नहीं चलता।
परिवार के सदस्यों का सबसे पहला कदम यह होना चाहिए कि वे समस्या को स्वीकारें अौर मेडिकल सहायता लेने का फैसला करें। डिप्रेशन का खुद इलाज करने की गलती से बचें। व्यक्ति के व्यवहार में अचानक आए बदलावों पर गौर करें। महिलाअों में डिप्रेशन की स्थिति मेनोपॉज के दौरान तेजी से उभर सकती है, क्योंकि परिवार के प्रति उनका लगाव ज्यादा होता है। उम्र के साथ अाते बदलाव उन्हें थकाते हैं। उनकी चिंताएं बढ़ती हैं। वे सोचती ज्यादा हैं और नाराजगियों की गांठें भी मन में बांध कर रखती हैं। वे साथ चाहती हैं और पति अपनी व्यस्तता और बच्चे अपने एज ग्रुप में मशगूल रहते हैं। वक्त की कमी को देखते हुए सब अपने आपमें डूबे दौड़ते रहते हैं। जो साथ तलाशने के इंतजार में रहता है, वह अकेला पड़ जाता है। उसे लगता है कमी उसमें ही है, जो कोई उसका साथ नहीं चाहता। पत्नी को अकसर यह सुनने को मिलता है - तुम्हारी परेशानी क्या है, ठीकठाक नजर आती हो, फालतू का सोचती हो और आखिर में वह यही सुनती है, ‘यह सब तुम्हारा वहम है।’ और फिर बात आयी गयी हो जाती है। व्यक्ति चुप, आसपास के लोग चुप और बिगड़ती मानसिक स्थिति।
खुद से दूर होना ही खतरे की घंटी है। सबसे पहले खुद को प्यार करना ना छोड़ें। अपने बारे में सकारात्मक राय रखें। जिम्मेदारी लेेने से डरे नहीं। तनाव, चिंता या डिप्रेशन जैसी किसी भी तरह की फीलिंग से सामना होने पर उसके बारे में बेहिचक बात करें। यह समझना जरूरी है कि अपनी मेंटल हेल्थ के बारे में बात करना ताकत की निशानी है। अपनी मानसिक स्थिति पर बात करने से आप कमजोर नहीं कहलाएंगे। आपको खुलने की जरूरत है। जब ‘लो’ महसूस करें, जब मन भारी हो, तो किसी से बात करें। मन में आ रही फीलिंग्स को शेअर करें। बात करने के लिए बेस्ट फ्रेंड, दोस्त, कोच, टीचर कोई भी हो सकता है। बात को टाले नहीं, ना ही मन में रखें। सुपर वुमन या मैचो मैन के लेबल से मुक्त रहें। बात करने की जरूरत है, तो बात करें। मुश्किल यह है कि कोई मेंटल हेल्थ पर बोलना ही नहीं चाहता, जबकि इलाज मन को खोल कर रखने में है।
1990 में बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन ने कई तरह की नाकामयाबियां झेली हैं, जिनकी वजह से वे भी किसी समय डिप्रेशन की गिरफ्त में आ गए थे। बाद में आयी हिम्मत ने उनके लिए तरक्की के कई रास्ते खोले। अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने भी अपना डिप्रेशन खुलेअाम साझा किया। कपिल शर्मा, जो दुनिया के लिए हंसी के फव्वारे छोड़ते हैं, उन्होंने भी डिप्रेशन झेला और उससे उबरे भी। संजय दत्त भी इस दौर से गुजरे हैं। उन्होंने डिप्रेशन को प्राणायाम और योग से जीता। अनुष्का शर्मा ने तो यहां तक स्वीकारा है कि उनके परिवार में डिप्रेशन का इतिहास रहा है। तो फिर इस बात को छुपाना कैसा? ‘मैं ठीक हूं। सब कुछ ठीक है,’ कहना ही काफी नहीं। असली बहादुरी डिप्रेशन को स्वीकारने और उसे जीतने में है।