Tuesday 16 February 2021 12:52 PM IST : By Usha Wadhwa

प्यार के दो रूप

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मैं फागुनी के सामने बैठी हूं। लगभग 25 वर्षों के पश्चात आज मेरी परम प्रिय सखी फागुनी मिली। हमने हाई स्कूल और बीए एक संग किया था। यह वह उम्र होती है जब लड़कियां किशोरावस्था से निकल यौवन में प्रवेश कर रही होती हैं। बहुत कठिन होता है यह ‘एक कदम का सफर।’ बदलाव केवल शारीरिक स्तर पर ही नहीं हो रहा होता, मानसिक स्तर पर भी होता है। असमंजस, उलझन, बेबात का क्रोध एवं चिड़चिड़ापन अनेक शब्द हैं आयु के इस भावातिरेक को व्यक्त करने के लिए, भटकाव के अनेक हादसे इसी उम्र में होते हैं। तितली को प्यूपा से बाहर निकलने के लिए जद्दोजहद करते देखा है कभी। बस कुछ वैसा ही। अंतर बस इतना है कि उसके विकास की गति निश्चित है, बाहर निकलने का समय पूर्व निर्धारित। किंतु हम मानवों के विकास की गति एक सम नहीं। कुछ किशोरियां पंद्रह की होते-होते पूर्ण परिपक्व हो जाती हैं और कुछ बीस पार कर लेने के पश्चात भी मासूम और नादान ही रहती है- दुनियादारी से अनभिज्ञ, जैसे मेरी यह सखी फागुनी !

देहरादून के सामाजिक दायरे में जानेमाने रिटायर्ड कर्नल एसपी भंडारी की बेटी थी फागुनी। राजपुर रोड का उनका पैतृक निवास स्थान आज भी मेरी यादों में गहराई से बसा है। मेरे पिता की सरकारी नौकरी ने हमें अनेक बार देश के एक कोने से उठा कर ठीक दूसरे कोने पर ला खड़ा किया। किंतु जितने वर्ष हम देहरादून रहे, मेरे दिन का अधिकांश भाग फागुनी के घर पर ही बीतता। पिता जी का तबादला हो जाने पर अपना बीए पूरी कर लेने के लिए जब मुझे होस्टल में रहना पड़ा उस वक्त इस परिवार का बहुत सहारा रहा। बेटी समान ही स्नेह मिला मुझे।

कर्नल भंडारी के एक दिवंगत मित्र के बेटे थे पद्याकर। उनके माता-पिता जब मोटर दुर्घटना के शिकार हुए तब वे किशोर ही थे। ताया-ताई ने ही उन्हें स्नेहपूर्वक पाल-पोस कर बढ़ा किया, पढ़ाया-लिखाया। एमएससी के बाद पीएचडी कर वे लड़कों के एक कॉलेज में व्याख्याता बन कर देहरादून आ गए। पुराने परिचय के नाते कर्नल भंडारी अकसर ही उन्हें घर पर आमंत्रित करते। अपने साैम्य सुसंस्कृत व्यवहार के कारण वे शीघ्र ही घरभर के प्रिय बन गए।

पद्याकर जी में वे सभी गुण थे, जो यौवन की दहलीज पर खड़ी लड़कियां अपने सपनों के राजकुमार में देखा करती हैं। ऊंची कद-काठी, विलक्षण प्रतिभा और आत्मविश्वासपूर्वक बात करने का ढंग। सभी बातों पर खरे उतरते थे वे। उनकी गहन गंभीर आवाज में ऐसी कशिश थी, जो सुननेवाले को मंत्रमुग्ध कर देती। लड़कियाों के किसी कॉलेज में होते, तो उन पर लट्टू लड़कियों की एक लंबी फेहरिस्त होती। पर उनके मन में तो फागुनी के प्रति प्यार की एक नन्ही सी कोपल जन्म ले चुकी थी, जो धीरे-धीरे खिल रही थी। फागुनी की मासूमियत ने उनका मन मोह लिया था एवं वे उसे ही अपनी जीवनसंगिनी बनाने को आतुर थे।

उधर एक वह पगली थी, जो उनकी मनोभावनाओं की कोई कद्र ही नहीं करती थी। ना ही वह घमंडी थी और ना ही बुरी। बस प्रीत-प्यार का कोमल तंतु अभी उसके मन में बना ही नहीं था। बीए के अंतिम वर्ष में पहुंच कर भी उसमें बच्चों वाली मासूमियत, किशोरावस्था का अल्हड़पन अभी शेष था। किंतु गजब का धैर्य था पद्याकर जी में। वे प्रतीक्षा करने को तैयार थे। उन्होंने फागुनी के माता-पिता से यह भी कह दिया कि वे फागुनी से ‘हां’ करवाने के लिए ना तो स्वयं उस पर कोई दबाव डालेंगे और ना ही किसी और से ही डलवाने का प्रयत्न करेंगे।

मैं पद्याकर जी के गुणों की कायल थी। कितनी परिपक्वता थी उनके प्यार में। उन्हें ना तो कोई जल्दी थी, ना ही उतावलापन। अपने प्यार को उन्होंने कभी फागुनी पर थोपा नहीं। अंतिम निर्णय उसी पर छोड़े रखा। वह सही मायनों में स्त्री की भावनाओं, इच्छा-अनिच्छा की कद्र करते थे। मुझे लगता वे बहुत सुलझे हुए और समझदार व्यक्ति हैं- सीधी-सादी फागुनी के लिए एकदम उपयुक्त। और इसीलिए मैं उसे समझाने का भरपूर प्रयत्न करती।

अकेली संतान होने से और एक ही जगह पर रहने से उसने बहुत सुरक्षित जीवन जिया था। दुनियावी बातों से वह नितांत बेखबर थी, जबकि मैं उससे कहीं अधिक परिपक्व। मैं यह भी जानती थी कि फैसला लेने में चाहे उसे समय लगता है, पर एक बार निर्णय ले चुकने पर फिर वह उसे पूरे मनोयोग से निभाती है। वह मेरी बात प्रायः ही मान लिया करती थी, परंतु अपने विवाह को ले कर वह कोई निश्चय नहीं कर पा रही थी।
परीक्षा हो जाने पर देहरादून तो मुझसे छूटा ही, शीघ्र ही मेरा विवाह भी हो गया कि अचानक एक दिन फागुनी का फोन आया। उसने बताया कि पद्याकर के साथ उसकी सगाई हो रही है और इसी उपलक्ष्य मेें मुझे भी उसने आमंत्रित किया था। कुछ ही दिन पूर्व मेरे बेटे का जन्म हुआ था और चाह कर भी मेरा जाना संभव नहीं हुआ। किंतु मन तो वहीं टंगा रहा। पद्याकर ने अपने धैर्य और संयम से अपना प्यार जीत लिया था। मैं खुश थी- पद्याकर के लिए भी एवं फागुनी के लिए भी। पद्याकर के प्रति तो मेरे मन में श्रद्धा सी ही उमड़ आयी थी।

प्रकृति द्वारा पुरुष को स्त्री की अपेक्षा अधिक शारीरिक बल मिला है, जिसका वह प्रायः ही नाजायज फायदा उठाता आया है। क्षणिक आनंद के लिए पाशविक रूप धारण करने से ले कर बलपूर्वक पत्नी बनाने के दृष्टांतों से इतिहास और साहित्य दोनों भरे पड़े हैं। लड़की द्वारा ठुकराए जाने पर चेहरे पर तेजाब डाल देना अथवा हत्या तक कर देने के किस्से समाचार पत्रों में आए दिन पढ़ने को मिल जाते हैं। पर वास्तविक पौरुष तो तब है जब एक गुणवान चुंबकीय आकर्षण युक्त पुरुष अपने प्यार और संयम से स्त्री का मन जीतता है और जीत लेने तक धीरज रखता है। यही है पुरुषत्व और यही है पुरुष की असली विजय !

सगाई पर तो क्या मैं उसके विवाह पर भी शामिल नहीं हो पायी। शीघ्र ही मेरे पति का सुदूर पूर्व में तबादला हो गया और मैं अपने 2 माह के बेटे को ले कर इतनी दूर चली गयी। घर-गृहस्थी की देखभाल एवं बच्चों को पालने की व्यस्तता में वर्षों हम एक-दूसरे की खबर तक नहीं ले पाए। दिल्ली लौट आने पर भी नहीं। कि अचानक पिछले माह उसकी चचेरी बहन से बाजार में मुलाकात हो गयी और फागुनी का पता, टेलीफोन नंबर सब पा लिया मैंने।

और आज मैं फागुनी के सामने बैठी हूं- लगभग 25 वर्षों के पश्चात। सुबह 9 बजे ही मैं फागुनी के घर पहुंच गयी। उसने छुट्टी ले रखी थी, ताकि हम दिनभर बैठ गप लगा सकें। पिछले 25 वर्षों का हिसाब करना था हमें, बहुत कुछ सुनना-कहना था। मेरे पहुंचने पर सबसे पहले तो मैं और फागुनी कस कर गले मिले। फिर देर तक एक-दूसरे को निहारते रहे, यह देखने के लिए कि कौन कितनी मुटा गयी है। किसके चेहरे पर समय ने अधिक बेदर्दी से प्रहार किया है। पद्याकर जी तैयार हो कर डाइनिंग टेबल पर बैठे नाश्ता कर रहे थे। सो हम दोनों भी वहीं जा बैठीं।

पुरानी बातों का सिलसिला ऐसा चला कि समय का पता ही नहीं चला। सहसा ध्यान आया कि पद्याकर जी को कॉलेज जाने की देर हो गयी है। फागुनी फटाफट पास के कमरे से एक वीलचेअर ले आयी और पद्याकर को उसमें बैठने में सहायता की। पद्याकर स्वयं वीलचेअर चला कर बाहर ले गए, जहां ड्राइवर की मदद से उन्हें कार में बिठाया गया और चेअर को भी फोल्ड करके कार की डिक्की में रख दिया। यह सब इतना अचानक और अप्रत्याशित था कि मैं शॉक में खड़ी देखती रह गयी।

जब फागुनी भीतर आयी, तो एक पल रुके बिना मैंने पूछा, ‘‘कैसे हुआ यह सब और कब?’’

परंतु फागुनी का उत्तर सुन तो दंग ही रह गयी।

‘‘यह हादसा तो विवाह पूर्व ही हो गया था पगली, तुम व्यर्थ की चिंता मत करो।’’

मेरे चेहरे पर उभर आए प्रश्न एवं आश्चर्यमिश्रित भाव के उत्तर में उसने आराम से सोफे पर बैठते हुए यों बात शुरू की मानो कुछ अनोखा घटित हुआ ही ना हो। मानो बरसों पूर्व अधूरी छूट गयी किसी बात का सिरा फिर से पकड़ा हो उसने।

‘‘तुम्हारे चले जाने के बाद मुझे तुम्हारी बातों की सचाई नजर आने लगी सुनंदा। इससे पहले मैंने अपने भविष्य के बारे में कभी इतनी गंभीरता से सोचा भी तो नहीं था शायद। धीरे-धीरे मुझे अपने भीतर बदलाव महसूस होने लगा। मेरे भीतर पद्याकर के प्रति कोमल अहसास जगने लगा, जो शीघ्र ही प्यार में परिवर्तित हो गया। मम्मी से मैंने अपने मन की बात कही। उनकी तरफ से तो कोई अड़चन थी ही नहीं। मम्मी-पापा की पारखी नजर तो बहुत पहले से ही पद्याकर को परख चुकी थी और वे दोनों उनके प्रति बेटे का सा ही ममत्व रखने लगे थे। सो तय हुआ कि सगाई की रस्म कर ली जाए। पद्याकर अपने ताया-ताई का बहुत सम्मान करते थे। उन्होंने बहुत स्नेह से पाला था इन्हें और कभी मां-बाप की कमी महसूस नहीं होने दी थी। अब वे काफी वृद्ध हो चुके थे, सो बार-बार उनका इतनी दूर आना संभव नहीं था। अतः सगाई से पूर्व उनकी अनुमति लेने पद्याकर गांव गए।

‘‘शनिवार की सुबह लौटना था पद्याकर को। उसी दिन सांझ में पापा ने घर पर ही एक छोटी सी पार्टी का आयोजन कर रखा था। मेरे जीवन का अहम दिन था वह। सचमुच हम सब कितने खुश थे उस दिन। मम्मी-पापा खुश थे अपनी बेटी के सुरक्षित भविष्य की सोच कर और मैं तो अपना निर्णय ले पाने के संतोष से ही खुश थी। मां ने हम दोनों के लिए ही अंगूठियां भी बनवा ली थीं,’’ फागुनी मानो अपने जीवन के उसी मोड़ पर खड़ी बात कर रही थी।

‘‘हमेशा तो पद्याकर स्वयं ही आ जाते थे, पर उस दिन की बात कुछ और थी। गाड़ी ले कर पापा स्वयं बस अड्डे गए थे। मैं और मम्मी पार्टी की तैयारी में लगे थे। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे पहली ही बार उनसे मिल रही होऊं, जबकि पद्याकर के गांव जाने से एक ही दिन पूर्व हम पिक्चर देखने गए थे। फिल्म समाप्ति पर जब बाहर निकले, तो धुंधलका हो चुका था और भीड़ भी बहुत थी। पद्याकर अपनी बांह के घेरे में ही मुझे बाहर तक ले आए थे। उस दिन स्वयं को कैसा सुरक्षित महसूस किया था मैंने। जाने लोग किस स्वर्ग की कामना किया करते हैं। पर स्वर्ग में वज्र नहीं गिरा करते क्या! पापा बस अड्डे से पद्याकर को ले कर नहीं लौटे थे। दरअसल बस ही नहीं पहुंची थी। गंतव्य से 4 किलोमीटर पूर्व सामने से आती एक बस के साथ उसकी भिड़ंत हो गयी थी। पांच व्यक्ति तो वहीं खत्म हो गए। शेष को किसी तरह यहां के अस्पताल में लाया गया था।

‘‘वह दिन आज भी मेरे मस्तिष्क में उसी तरह सुरक्षित है। एक वाॅर्ड से दूसरे में हम पद्याकर को ढूंढ़ते रहे। अंत में वह हमें ओटी के बाहर मिले- गले तक चादर से ढके हुए। पता चला बायीं टांग पूरी तरह से कुचल गयी है, घुटनों के ऊपर तक काटनी पड़ेगी। दायीं टांग में भी जख्म हैं। नींद का इन्जेक्शन दे कर सुला रखा था। यह सब कुछ बता कर नर्स ने हमें एक फॉर्म भरने के लिए दे दिया। मम्मी-पापा ने मुझे घर जाने का आदेश दिया। वे पद्याकर की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी लेने को तैयार थे, पर टांग कट जाने के कारण वे स्थिति पर पुनः विचार कर लेना चाहते थे...’’

‘‘तो क्या तुम्हारे मन में एक बार भी शंका नहीं उठी?’’ मैंने पूछा।

‘‘बिलकुल नहीं। एक बार निर्णय ले चुकने पर मैं उस पर दृढ़ थी। मम्मी-पापा के हर तर्क का उत्तर था मेरे पास। यदि यह हादसा विवाह उपरांत होता तो? किसी अन्य से विवाह करने पर उसमें कुछ और कमी हुई तो? मम्मी-पापा को मेरे दृढ़ निश्चय के आगे झुकना पड़ा। मैंने फॉर्म भरा एवं रोगी से संबंध के आगे बेझिझक लिख दिया, ‘पत्नी।’ अाॅपरेशन के पश्चात जब उन्हें कमरे में लाया गया, तो अपने निश्चय की मोहरस्वरूप मां द्वारा ला कर रखी अंगूठी मैंने घर से ला कर उनकी उंगली में पहना दी।

‘‘25 वर्ष बीत चुके हैं इस बात को और मैं अपने निर्णय को ले कर एक बार भी नहीं पछतायी। एक पल को भी नहीं लगा कि मैंने जल्दबाजी की थी। जिस वय पर तब मैं खड़ी थी आज उस वय पर मेरे दोनों बच्चे खड़े हैं, पर पद्याकर का प्यार आज भी वैसा ही है- संतुलित, संयमित और गहन। उन्होंने मेरे झोली खुशियों से लबालब भर रखी है। पद्याकर वास्तव में स्त्री का सम्मान करते हैं, अपने उपयोग हेतु बनायी गयी वस्तु नहीं समझते उसे। अपनी स्वतंत्र अस्मिता बनाए रखने में उन्होंने मुझे सदा प्रोत्साहित ही किया। विवाह के पश्चात मैंने एमए किया, शोध किया और आज प्रोफेसर के पद पर हूं। और इन सबके लिए मैं तुम्हारे मार्गदर्शन की ऋणी हूं सुनंदा।

‘‘रही बात पद्याकर की, वे तो जन्मजात विजेता ही हैं। मुश्किलें तो उन्हें जन्म से मिलीं, पर उन्हें लांघ कर वे और भी मजबूत हुए हैं। सौभाग्यवश उनका कार्यक्षेत्र ऐसा था, जिसमें एक टांग की कमी उनके लिए कोई बाधा नहीं बन पायी। उनकी विद्यता, उनकी लगन के आगे यह कमी बहुत गौण हो गयी है। किसी से सहायता लेने की अपेक्षा आज भी वे औरों की सहायता ही अधिक करते हैं। कॉलेज में वे सबसे अधिक सम्मानित अध्यापक हैं और अपने छात्रों के प्रेरणा स्रोत भी।’’

असली प्यार का एक रूप मैंने वर्षों पहले पद्याकर जी की आंखों में देखा था, उसी प्यार का दूसरा रूप आज फागुनी के मन में स्पष्ट देख रही हूं। इन दोनों में किसका प्यार बढ़ कर है, यह बात अभी तक तय नहीं कर पायी हूं मैं।