Monday 04 January 2021 05:08 PM IST : By Deepti Mittal

शुक्रिया ज़िन्दगी

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इस दौड़ते जगमगाते दिल्ली शहर के दूसरे छोर पर आज रात रिद्धिमा की शादी थी और इस छोर पर अपने हॉस्टल की खिड़की पर टेक लगाए मैं कहीं दूर आसमान ताक रही थी। रिद्धिमा, मेरी बेस्ट फ्रेंड, मेरी बचपन की साथी, माई ओनली बडी... घर हो या स्कूल, क्लास हो या कैंटीन... हमने हर सफर साथ तय किया, एक-दूसरे से पसंद कराए बगैर कभी शॉपिंग नहीं की... और आज उसके जीवन के इतने बड़े पड़ाव पर मैं उसके साथ नहीं थी... उसने मुझे ऐसे दूर छिटक दिया जैसे मैं कोई इंसान नहीं, बल्कि एक लिजलिजा अहसास हूं, जिसे वह कभी महसूस करना नहीं चाहती।

मगर मेरे लिए तो वह अभी भी मेरा हिस्सा थी... दिल में बसी एक मीठी याद...। उसके लिए मुंह से अनायास एक दुआ निकली, जहां रहो, खुश रहो रिद्धिमा...। बाहर घिरे बादल यकायक बरस पड़े, लगा जैसे आसमान ने दुआ कुबूल कर उस पर बरसा दी हो। तभी फोन पर नोटिफिकेशन बजा। खिड़की बंद कर फोन उठाया, तो देखा आरुष का मैसेज था।

‘‘हाय, कल लंच पर मिल रहे हैं ना...’’

‘‘नहीं, कल कुछ काम है।’’

‘‘बहाने मत बनाओ, तुम्हारी मॉम का फोन आया था, तुम्हारे बारे में पूछ रही थी। मैंने कह दिया हम कल लंच पर मिलने वाले हैं, वहीं से आपको वीडियो कॉल कर लेंगे...’’ मॉम का नाम सुन मैंने हां की, तो आरुष ने स्माइली भेज दी। आरुष मेरा स्कूल फ्रेंड था... एक वही तो था, जो मुझे समझता था, जिसके सामने मुझे किसी झूठ को जीने की, किसी नकाब में छिपने की जरूरत नहीं थी... जैसी हूं, वैसी बन कर रह सकती थी।

रात गहराती जा रही थी। सोने से पहले हाथ फिर उसी फोटो एलबम की और बढ़ चले, जिसमें आजकल मेरी पूरी दुनिया सिमटी थी... जिसको देख कर सोना किसी मीठी लोरी को सुनने जैसा था। कुछ शुरुआती पेज पलटने के बाद एक फोटो पर नजरें रुक गयीं। दो चोटी बांधे, ऊंची फ्रॉक पहने झूले पर बैठी 5-6 साल की 2 लड़कियां, रिद्धिमा और मैं, खिलखिला कर हंसते हुए... उसे देख मेरी गीली आंखें भी हंस दीं। तब वह मेरठ में मेरे पड़ोस में रहा करती थी, हम दिनभर साथ रहा करते थे। साथ खाना-पीना, खेलना...।

कुछ पन्नों बाद एक दूसरा फोटो, शिमला के खूबसूरत व्यू पॉइंट पर हंसते-मुस्कराते मॉम-डैड और उनके साथ मुंह फुलाए खड़ी 10 साल की बच्ची। कुछ धुंधली यादें सामने आ खड़ी हुईं। मैं रो रही थी, ‘‘रिद्धिमा को भी ले चलो ना मॉम, मुझे उसके बिना कहीं नहीं जाना...’’

‘‘अच्छा, जब ससुराल जाएगी, तो भी क्या उसे साथ ले जाएगी,’’ मॉम ने मजाक किया था।

‘‘हां, ले जाऊंगी,’’ मैं तुनक कर बोली थी।

‘‘फिर तो तेरा दूल्हा तुझसे ब्याह नहीं करेगा।’’

‘‘तो ना करे, मैं रिद्धिमा से ही ब्याह कर लूंगी।’’

मॉम ने मेरे सिर पर चपत जड़ी, ‘‘चल पगली, लड़कियों के आपस में ब्याह नहीं होते...’’ तब कहां पता था कि मॉम का वह मजाक भविष्य की परछाईं दिखा रहा था। जब वह हमारे पड़ोस से शिफ्ट हुई, तो मैं कितना रोयी थी... लेकिन एक ही स्कूल और क्लास होने की वजह से हमारा साथ बना रहा।

एलबम के कुछ और पन्ने पलटे। बारहवीं क्लास के पिकनिक की ग्रुप फोटो... मैं, रिद्धिमा, आरुष, देव, सौम्या... सभी झरने के पास खड़े थे, एक-दूसरे का हाथ थामे। मैं रिद्धिमा का हाथ थामना चाहती थी, मगर वह देव का हाथ पकड़े थी। यह छोटी सी बात बेहद चुभ रही थी और जब आरुष ने मेरा हाथ पकड़ा था, तो कितना अजीब सा लगा था... उसकी हथेलियों की छुअन बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी। मन किया झटक दूं उसका हाथ, लेकिन नहीं कर पायी। तब कुछ हिला था भीतर, जिसे समझ नहीं पायी थी।

उन दिनों मन में कुछ सवाल सिर उठाने लगे थे, जिनके जवाब नहीं मिलते थे... इससे पहले लाइफ में जब भी कंफ्यूज हुई, कैरिअर, दोस्तों या ड्रेसेज को ले कर मॉम होती थीं मुझे उससे बाहर निकालने के लिए, क्योंकि वह मुझे मुझसे बेहतर समझती थी... मगर ये सवाल मन की किसी ऐसी गहरी घाटी से उठ रहे थे, जहां वे भी नहीं झांक सकती थीं।

पता नहीं हमारे मन के भीतर परत दर परत कितनी भावनाएं, कितने रहस्य छिपे होते हैं, जिन्हें हम खुद भी नहीं जान सकते... वे परतें तभी खुलती हैं जब बाहर कोई तेज आंधी चलती है। उस रात चली आंधी से कुछ इशारे मिले थे।

कैंप फायर के दौरान सौम्या कुछ लड़कियों के साथ कोई बचकाना खेल खेल रही थी। वह कह रही थी, ‘‘अगर तुम्हारे नाम में उस लड़के के नाम का पहला अल्फाबेट आ रहा है, जिसे तुम लाइक करती हो तो समझ लो, तुम्हारी जोड़ी पक्की...।’’ सब लड़कियां अपने नाम से किसी ना किसी चहेते का नाम जुड़ा देख खुश हो रही थीं। जिनका नहीं मिल रहा था, उनके चेहरे लटक गए थे। ‘‘मानसी, तू भी आ ना, देख कितना मजा आ रहा है...’’

‘‘यह क्या बकवास है, मुझे ऐसी फालतू चीजों में कोई इंटरेस्ट नहीं है...’’

‘‘बकवास नहीं है डियर, एकदम ट्राइड एंड टेस्टेड है... देख ना तेरे नाम में ‘ए’ आ रहा है। ए फॉर आरुष,’’ सौम्या ने कहा, तो सब खिलखिलाने लगे, ‘‘हमें तो पहले से ही पता था, कुछ तो है, चलो आज पक्का भी हो गया...।’’

गुस्से से मेरा चेहरा तमतमा उठा, ‘‘आरुष और मैं... छि...’’ वह अच्छा दोस्त था मगर इस तरह से उसके बारे में तो क्या, कभी किसी लड़के के बारे में नहीं सोचा था। मैं वहां से अपने रूम में चली आयी, लेकिन जब दिमाग शांंत हुआ, तो पता नहीं क्यों अपने नाम में ‘आर’ खोजने लगी। वह नहीं मिला, तो मन मायूस हो उठा। लेकिन रिद्धिमा में तो पूरा ‘मा’ है ना... यह देख कर मायूसी खुशी में बदल गयी। ‘रिद्धिमानसी...’ मैंने कागज पर हम दोनों के नाम जोड़ लिए और वह साझा नाम जैसे मंत्र बन गया हो, जिसे बार-बार, देर तक दोहराती रही...।

तब भीतर पहला सवाल कुलबुलाया, ‘यह मैं क्या कर रही हूं... माना वह दोस्त है, सबसे अच्छी दोस्त... उसे ले कर बहुत ही पजेसिव हूं... मगर उसको अपने नाम में खोजना... क्या यह सही है। यह दोस्ती का कौन सा रूप है, कैसा खिंचाव है, जो मुझसे यह सब करवा रहा है।’

मुझे खुद अपने मन की गहराइयों में झांकने से डर लगने लगा था, क्योंकि वहां से निकलनेवाली रोमांटिक फैंटेसी में बाकी टीनएज लड़कियों की तरह कोई टॉल डार्क हैडसम लड़का या कोई फिल्मी हीरो नहीं होता था, वहां रिद्धिमा खड़ी मिलती थी मुझे, बांहें फैलाए पुकारते हुए... अपने आलिंगन में भर बेतहाशा प्यार बरसाते हुए... वे बांहें दुनिया की सबसे हसीन... सबसे सुकूनभरी पनाह हुआ करती थीं, जो मेरे सारे डर, सारी शरम सोख लेती थीं। मैं उसे कहती, तुम संसार की सबसे सुंदर लड़की हो, मैं तुम्हारे प्यार में पागल हूं... और वह खिलखिला पड़ती। हम एक-दूसरे की कमर में हाथ डाल दो सिरफिरे बेबाक प्रेमियों की तरह दूर तक साथ चला करते...

हकीकत में शर्मसार मैं खुद से पूछा करती थी, ‘यह कैसे हो सकता है, लड़की हो कर किसी लड़की से प्यार। अगर कोई यह सच जान गया, तो क्या होगा। लाइफ बर्बाद हो जाएगी मेरी... सब हंसेंगे, ताने मारेंगे... और मॉम। वे तो बिलकुल टूट जाएंगी... वे पहले ही डैड की डेथ के बाद इतनी मुश्किलों से संभली हैं, उन पर क्या गुजरेगी।’

यह वह समय था, जब मुझे अपनी पहचान हुई कि आई एम ए लेस्बियन। मेरा सहज आकर्षण लड़कों के लिए नहीं, बल्कि लड़कियों के लिए है। रिद्धिमा सिर्फ दोस्त नहीं है, दोस्ती के लिबास में ढका यह अहसास दरअसल प्यार है... ऐसा प्यार जो अपोजिट सेक्स के लिए होता है, मुझे रिद्धिमा से हो गया है। नहीं, नहीं हुआ नहीं... यह तो कब से भीतर था, बस इसे कभी कोई नाम नहीं दिया था...

एक दिन लाइब्रेरी में आरुष ने मुझे प्रपोज किया। वह सब कुछ जो मैं रिद्धिमा के लिए मन की तहों में दोहरा रही थी, आरुष ने जबान से कह डाला। हड़बड़ा कर उसके ‘आई लव यू’ के जवाब में इतना ही कह पायी, ‘‘आई लव समवन एल्स...’’

‘‘कौन है वह खुशनसीब !’’ उसे सच बताने का साहस नहीं कर पायी। वह चला गया और मैं सोचती रह गयी, क्या मेरे लिए भी अपने प्रेम का इजहार करना इतना आसान होगा, जितना आरुष के लिए...क्या कभी रिद्धिमा को सच बता पाऊंगी। चाहती थी किसी दिन अपना दिल खोल कर उसके सामने रख दूं, बिना डरे, बिना झिझके... मगर कुछ डरों से पार पाना मुश्किल होता है।

रिद्धिमा देव के करीब आती जा रही थी। वे दोनों नजदीकियां खोजने लगे थे, जिनमें मेरी जगह खत्म होती जा रही थी। एक दिन उनकी फुसफुसाहट मुझ तक पहुंच गयी, ‘‘यार, जब देखो यह तुमसे चिपकी रहती है, आई डोंट लाइक दैट... सच कहूं, तो जिस तरह से वह तुम्हें देखती है, लगता है... इज शी लेस्बो।’’

मेरा रोम-रोम कांप उठा... देह पसीने से तरबतर हो गयी। ‘‘सच कहूं, तो उसकी हरकतों से मुझे भी शक होने लगा है, इट्स सो इरिटेटिंग, मगर बचपन की फ्रेंड है कुछ कह नहीं पाती। बट एनफ इज एनफ, अब मुझे उसकी बाउंड्रीज तय करनी होगी...’’ रिद्धिमा की ये बातें कानों में किसी बर्छी सी उतर गयीं। प्रेम में हारना क्या होता है, उसकी पीड़ा कितनी तेज होती है, यह उस दिन जाना और मान भी लिया... हां, मैं हार गयी।

खुद को छिपाना चाहती थी, मगर शायद शरीर की भी अपनी भाषा होती है, जो बहुत कुछ बयान कर देती है... धीरे-धीरे स्कूल में कानाफूसियां शुरू होने लगीं। किसी ग्रुप के पास से गुजरती, तो कानों में फब्तियां, गंदे मजाक तीर से चुभ जाते। वे हंसी रास्तेभर पीछा किया करतीं और मैं किसी अपराधी सी नजरें झुकाए चलती जाती।

मुझे बार-बार जताया जाने लगा कि मैं उनसे अलग हूं और इसीलिए उनकी दोस्ती की नहीं, नफरत की पात्र हूं। मेरा अलग होना प्रकृति की देन नहीं, बल्कि मेरा गुनाह है। ऐसा गुनाह जिसकी कोई माफी... मैं धीरे-धीरे सिमटती चली गयी। रिद्धिमा से, सबसे और खुद से भी। अपने सारे दोस्त खो चुकी थी, सिवाय आरुष के... एक वही था, जो मुझ पर बिना कोई लेबल लगाए, बिना जजमेंटल हुए मुझसे बात करता था, मुझे समझता था...।

घर पर मॉम मेरे बदले रवैए को ऑब्जर्व कर रही थीं। वे पूछतीं, ‘‘तेरी रिद्धिमा से लड़ाई हो गयी क्या? ना वह घर आती है, ना उसके फोन, बाकी सभी दोस्त भी गायब हैं, स्कूल में कुछ हुआ क्या। ये आरुष ना, यह आजकल बहुत आ-जा रहा है... तुम दोनों के बीच कहीं कुछ...।’’

‘‘क्या मॉम, तुम भी ना...।’’ कह कर उनके सवालों को गोलमाेल कर जाया करती थी।

वे अकसर कहतीं, ‘‘देख बेटा, इस साल बोर्ड है, तुझे ज्यादा सिंसियर होना चाहिए।’’ कैसे बताती तुम्हारी बेटी आजकल जिस इम्तहान से गुजर रही है, उसके सामने बोर्ड एग्जाम्स कुछ भी नहीं...

बातों के पता नहीं कौन से पंख लगे होते हैं, जो वे हवाअों से भी तेज उड़ सकती हैं... एक दिन स्कूल में चलनेवाले मेरे चर्चे मेरी मां तक भी पहुंच गए। रिद्धिमा ने उन्हें सब कुछ बता दिया... यह कि अब हम दोस्त नहीं हैं और क्यों नहीं हैं, यह भी...

वह दिन कभी नहीं भूल सकती... क्या-क्या नहीं कहा मॉम ने... मेरा कसूर बस इतना था कि उनके पूछने पर मैंने खुद को नहीं छिपाया। थक गयी थी दोहरे जीवन से... अब इस नकाब से आजादी चाहिए थी। सोचा था मां हैं, समझेंगी मगर उन्होंने मुझे जिस नजर से देखा वह मेरे रहेसहे वजूद को बिखेर गयी।

वे सिर पकड़ कर ना जाने क्या-क्या बड़बड़ाती जा रही थीं, ‘‘इस लड़की ने तो मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा... क्या सोचते होंगे सब, पीठ पीछे कितनी खिल्लियां उड़ाते होंगे... सब मेरी ही गलती है, जो इसे इतनी छूट दी... इससे तो अच्छा था, पैदा होते ही मर जाती...’’ और मैं बिस्तर पर औंधी लेटी तकिए में मुंह दबाए रोए जा रही थी...। उस रात ईश्वर से यही पूछती रही कि अगर मैं ऐसी हूं, तो इसमें मेरी क्या गलती है। यह मेरा अपना चुनाव तो नहीं था... कुदरत ने मेरे लिए यही निर्धारित किया था, उससे कैसे लड़ूं।

अगले कुछ दिनों हमारे बीच अबोला पसरा रहा। मैं उनका सामना करने से बचती थी। ज्यादातर समय अपने कमरे में रहती... कभी सोने का बहाना कर, तो कभी कोर्स की किताबों में मुंह छिपाते हुए...। एक दिन वे पास आयीं और बड़े प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘‘सब ठीक हो जाएगा मानू...’’ इतने दिनों बाद मॉम की प्यारभरी आवाज सुन दिल भर आया। मैं उनसे लिपट फूट-फूट कर रो पड़ी।

वे कुछ देर मुझे सीने से चिपकाए सहलाती रही और बोलीं, ‘‘मैंने काफी कुछ पढ़ा है इंटरनेट पर, कुछ लड़कियों में लड़कियों के लिए ऐसे इमोशन डेवलप हो जाते हैं मगर घबराने की बात नहीं है। और अभी तेरी उम्र ही क्या है, इस उम्र में वैसे भी कितने हारमोनल इशूज रहते हैं... तू अभी ये सब कुछ मत सोच, पढ़ाई पर ध्यान दे। मैंने डॉ. सेन से कल का अपॉइंटमेंट लिया है... वे साइकियाट्रिस्ट हैं। तेरे पापा को जानते थे, वे कोई ना कोई तरीका बताएंगे, जिससे तू ठीक हो जाएगी... तू चिंता मत कर।’’

ठीक हो जाऊंगी। मॉम मुझे बीमार समझती है, एक मानसिक रोगी... जो कुछ दवाइयां खाएगी और उनके हिसाब से सोचना, उनके तरीके से जीना शुरू कर देगी। मन बुझ गया मेरा, मगर बिना किसी प्रतिवाद के हामी भर ली।

अगले दिन हम डॉ. सेन के क्लीनिक में बैठे थे। ‘‘मिस मानसी गुप्ता...’’ नाम पुकारा गया, तो हम दोनों उठ खड़े हुए। ‘‘ओनली पेशेंट प्लीज।’’ मॉम रुक गयीं और सिर्फ मैं डॉक्टर के केबिन में गयी। उन्होंने मुझसे सहजता से बातचीत की, मेरे बारे में...मेरे स्कूल के बारे में, फिर मॉम को अंदर बुला लिया।

‘‘आपको जान कर बेहद खुशी होगी कि आपकी बेटी एकदम नॉर्मल और हेल्दी है...’’

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप, शायद इसने आपको बताया नहीं कि...’’

‘‘इसने मुझे सब बताया है, इसीलिए तो कह रहा हूं, एंड आई मस्ट से, यह बहुत बहादुर भी है... इतनी छोटी उम्र में सोसाइटी का, फ्रेंड्स का, फैमिली का प्रेशर हैंडल करना आसान बात नहीं है...’’

‘‘आप समझ नहीं रहे हैं डॉक्टर...’’

‘‘समझना तो आपको है भाभी जी... आपकी बेटी जानती है कि वह होमोसेक्सुअल है और वह उसे स्वीकार भी कर रही है, लेकिन आप नहीं कर रहीं। एक्चुअली काउंसलिंग की जरूरत मानसी को नहीं, आपको है... आपको समझना है अपनी बेटी को, उसकी सेक्सुअलिटी को ना सिर्फ समझना है उसे मॉरली सपोर्ट भी करना है... देखिए, यह कोई मानसिक या शारीरिक रोग नहीं है, यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें इंसान अपोजिट जेंडर की ओर नहीं, बल्कि सेम जेंडर की ओर आकर्षित होता है। दिस इज नेचुरल... आप इसे ईश्वर की इच्छा भी कह सकती हैं, जिसे आप या मैं नहीं बदल सकते...’’ डॉ. सेन की बात सुन कर मॉम का चेहरा सफेद पड़ गया, वे पत्थर की तरह जम गयीं।

‘‘देखिए भाभी जी, आई अंडरस्टैंड... लेकिन आपके लिए यह सोसाइटी जरूरी है या बेटी, अब यह तो आपको तय करना है। वैसे मैं आपको कुछ ऐसे पेरेंट के कॉन्टेक्ट नंबर दे सकता हूं, जिन्होंने अपने बच्चों के ऐसे इशूज बहुत अच्छे से डील किए। आप उनसे बात कर सकती हैं, गाइडेंस ले सकती है...’’

डॉ. सेन ने मॉम को बहुत अच्छे से समझाया, मगर वे जहां से चली थीं घूमफिर कर वहीं आ खड़ी हुई थीं। ज्यादातर खोयी-खोयी रहतीं, किसी से हंसना-बोलना, बाहर आना-जाना बंद कर दिया था। हमारे बीच कामभर की बातें हुआ करती थीं। बस एक बात अच्छी हुई थी, उन्होंने मुझे कोसना बंद कर दिया था, लेकिन स्वीकार अभी भी नहीं किया था।

मैं एक दिन टैरेस पर खड़ी नीचे गार्डन में खिले फूलों को देख रही थी। मॉम मेरे पास आ कर खड़ी हो गयीं, ‘‘वह उस दिन डॉ. सेन कह रहे थे ना...बायसेक्सुअलिटी के बारे में कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो लड़के और लड़कियों दोनों ओर समान आकर्षित होते हैं। देख, हो सकता है तेरा ऐसा ही स्वभाव हो बस अभी तुझे पता ना हो...’’ मैं कुछ समझ नहीं पायी। ‘‘देख, रिद्धिमा तेरी बचपन की सहेली थी, हो सकता है शायद इसीलिए तुझे उसके लिए ऐसी फीलिंग आयी हो, मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम फ्यूचर में किसी लड़के को पसंद नहीं कर सकती, उससे नॉर्मल रिलेशनशिप नहीं रख सकती... इंटरनेट पर ऐसे कितनी फेमस औरतों के बारे में पढ़ा है, जो पहले सेम जेंडर के लिए झुकाव महसूस करती थीं, मगर बाद में एक मर्द से शादी की और नॉर्मल लाइफ जी रही है... क्या पता तू भी...’’ उनकी आंखों में कुछ धुंधली उम्मीदें फिर लहरा रही थीं।

‘‘अच्छा एक बात बता, तुझे आरुष कैसा लगता है, मुझे लगता है कि वह तुझे पसंद करता है।’’

‘‘मॉम, आपसे पहले भी कह चुकी हूं कि मैंने उसके बारे में कभी ऐसे नहीं सोचा...’’

‘‘नहीं सोचा तो सोच मानू, कोशिश कर बदलने की... तेरी एक कोशिश से हम कितनी मुश्किलों से बच जाएंगे, वरना तुझे अंदाजा नहीं है, हमारी जिंदगी कितनी जहन्नुम हो जाएगी... अपने स्कूल में नहीं देख रही क्या-क्या बातें हो रही हैं तेरे लिए... देख, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि लोगों की फब्तियां, तानें सुन सकूं... नहीं बर्दाश्त कर सकूंगी यह सब, मैं तो मर ही जाऊंगी...’’

मॉम की आंखें बरसने लगी थीं और मैं नीचे गार्डन में खिले फूलों को देख सोच रही थी कि ये सब रंग-रूप और खुशबुअों में कितने अलहदा हैं, फिर भी सब खुश हैं, मुस्करा रहे हैं... इनकी दुनिया में एक फूल दूसरे से नहीं कहता होगा ना कि देखो, तुम मेरी तरह नहीं हो, इसलिए तुम्हें खिलने का, महकने का कोई हक नहीं है... काश मैं इंसान ना हो कर एक फूल होती...’’

मॉम को यों दुखी देख कर मैं कमजोर पड़ गयी। उनकी खुशी के लिए फिर एक झूठा नकाब ओढ़ लिया, आरुष को पसंद करने का... कभी-कभी हंसी आती थी देख कर कि जिस आरुष के आने पर मम्मी चौकन्नी हो जाती थीं कि कहीं मेरा उसके साथ कोई अफेअर तो नहीं है, अब वे इसी बात से बड़ी खुश रहने लगी थीं। एलबम में लगी अगली फोटो मॉम और आरुष की सेल्फी थी, जिसने मेरे होंठों पर भी मुस्कान बिखेर दी।

दो पन्नों बाद एक पार्टी की फोटो थी... दिल्ली इंजीनियरिंग कॉलेज की फ्रेशर पार्टी। मुझे यहां कंप्यूटर साइंस ब्रांच में एडमिशन मिल गया था। हॉस्टल में रहती थी और घर कम ही जाती थी। आरुष दिल्ली के एक लॉ कॉलेज में पढ़ता था। वीकएंड पर या शाम को अकसर मिलने आ जाया करता था। पूरा हॉस्टल उसे मेरा बॉयफ्रेंड मानता था और मैंने भी कभी इस बात को नहीं झुठलाया।

मगर कोई था वहां, जो मुझे पहचान रहा था। मेरी बैचमेंट तान्या। उसके बारे में सब जानते थे कि वह लेस्बियन है। पीठ पीछे बातें भी करते, हंसते भी...मगर उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उसे देख कर सोचा करती थी यह कितनी खुश, कितनी आजाद रहती है... ना कोई अपराधबोध, ना शरम... मैं ऐसे खुल कर क्यों नहीं जी सकती। कभी-कभी उसकी नजरें मुझमें कुछ तलाशती महसूस होतीं और मैं चोर निगाहें फेर लिया करती थी।
एक दिन कंप्यूटर लैब में हम साथ बैठे थे, वह अचानक बोल पड़ी, ‘‘तुम खुद को छिपाती क्यों हो?’’

‘‘वॉट डू यू मीन।’’

‘‘तुम जानती हो, मैं क्या कह रही हूं,’’ उसने मेरी आंखों में झांकते हुए कहा, तो मैं सिहर गयी, ‘‘क्या बकवास कर रही हो, मैं तुम्हारे जैसी नहीं हूं।’’

‘‘वह तो मैं जानती हूं तुम मेरे जैसी नहीं हो। तुम डरपोक हो, मैं नहीं... तुम खुद से शर्मिंदा हो, मैं नहीं... मैं खुद की रिस्पेक्ट करती हूं, खुद से प्यार करती हूं... तुम नहीं...’’ उसकी बातें सुन कर मेरी देह तप गयी, नजरें नीची हो गयीं।

‘‘डोंट डू दिस टू योरसेल्फ मानसी, खुद को इतना दबा कर, छिपा कर रखोगी, तो एक दिन बिखर जाओगी, फिर कोई नहीं समेट पाएगा तुम्हें... ना तुम्हारे घरवाले, ना डॉक्टर्स... लाइफ इज प्रीशियस... ये जीने के लिए मिली है, घुट-घुट कर मरने के लिए नहीं... एक बार खुल कर इसका सामना कर लो, फिर देखना लाइफ कितनी आसान हो जाएगी...’’

उस दिन अच्छा लगा उससे बात करके। कम से कम उससे खुद को छिपाना छोड़ दिया था। हम अच्छे दोस्त बन गए थे। वह मेरी उम्मीद थी... किसी अंधेरे रास्ते पर हाथों में दीया ले कर मुझसे आगे खड़ी लड़की, जो मुझसे कह रही हो, देखो, तुम्हारे लिए रोशनी ले कर आयी हूं तुमको आगे बढ़ना है...बस खुद पर भरोसा रखो और चलती रहो...।

कुछ देर अतीत के गलियारों में झांक मैंने उठ कर खिड़की खोल दी। बारिश थम चुकी थी, मगर हवा अभी भी तेज थी। स्ट्रीट लाइट गीली सड़कों को दूधिया रोशनी से नहला रही थी। आसमान में कौंधी बिजली के साथ आंखों में तान्या का रोशन चेहरा कौंध गया। फाइनल इयर तक आते-आते हमारी दोस्ती ने एक नए रिश्ते को आकार दे दिया था। हम अब कपल थे। कैंपस इंटरव्यू में हमारी पुणे की सॉफ्टवेअर कंपनी में जॉब लग गयी थी। कॉलेज के बाद हमने साथ रहने का निर्णय लिया था। सब इस बारे में जानते थे सिवाय मॉम के... जहन में तान्या की कही बात गूंजने लगी, एक बार इस सच का खुल कर सामना कर लो, फिर देखना लाइफ कितनी आसान हो जाएगी... कुछ सोच कर गहरी सांस भरी और सोने चली गयी।

अगले दिन लंच में आरुष और मेरे साथ तान्या भी थी, लेकिन जब मॉम की वीडियो कॉल आयी, तो वह वहां से जाने लगी। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया, ‘‘कभी तो मॉम को बताना ही होगा ना... तो आज ही सही।’’

‘‘कैसी हो मानू, तेरे कैंपस इंटरव्यू का क्या रहा...’’

‘‘मुझे पुणे की एक बड़ी कंपनी में जॉब मिली है मॉम, और एकेडमिक में स्टार परफॉर्मर का अवॉर्ड भी...’’

‘‘आई एम सो प्राउड ऑफ यू बेटा...’’

‘‘एक बात और बतानी है आपको...’’ मैं हिचकते हुए बोली, ‘‘आरुष और मैं अच्छे दोस्त हैं मॉम... आई एम सॉरी टू डिस्अपॉइंट यू बट आई एम ए लेस्बियन... एंड आई कांट चेंज दिस ट्रुथ...’’

मॉम कुछ देर चुप रही फिर बोली, ‘‘आई एम स्टिल प्राउड ऑफ यू बेटा... तू मेरी होनहार बेटी है और बहादुर भी... तूने सारी स्थिति का हमेशा बड़ी बहादुरी से सामना किया... वह तो मैं ही कमजोर थी... मैं डॉ. सेन से काफी बार मिली हूं और अब तेरी सिचुऐशन समझती हूं... आई एम विद यू बेटा...अगली बार जब घर आए, तो तान्या को भी ले कर आना, मैं मिलना चाहती हूं उससे...’’

‘‘तान्या ! आप जानती हैं उसे?’’

‘‘हां, आरुष ने मुझे सब बता दिया था, सच कहूं, तो मुझे इस हालात का सामना करने के लिए डॉ. सेन के साथ आरुष ने भी तैयार किया... कितनी अजीब बात है ना, मुझे अपनी बेटी को समझने के लिए दूसरों का सहारा लेना पड़ा।’’

आरुष बीच में बोल पड़ा, ‘‘वह बात जरूरी नहीं है आंटी जी, जरूरी यह है कि आप समझीं... वरना कितने ऐसे पेरेंट हैं, जिनकी नासमझी उनके बच्चों को बिना किसी गुनाह के सुसाइड अटैंप तक ले जाती है।’’

मॉम तान्या और आरुष से खूब बातें कर रही थी... उनके बीच हंसी-मजाक चल रहे थे। लग रहा था जैसे आज सीने से भारी बोझ उतरा हो और सालों बाद खुल कर सांस ले रही हूं... चेहरे पर जबरन ओढ़ा नकाब हटा हो और खुद को देख पा रही हूं...जो हूं, जैसी हूं, बस वैसी...

जानती थी मुश्किलें आगे भी होंगी, मगर परवाह नहीं थी। मॉम का खोया दुलार मिल गया था, तान्या का हाथ मेरे हाथों में था और आरुष जैसे दोस्त का साथ भी... बचपन के गलियारों में कहीं खोयी जिंदगी आज वापस लौट आयी थी, पहली बार दिल से निकला- शुक्रिया ज़िन्दगी ।