Friday 17 June 2022 04:49 PM IST : By Pallavi Pundir

परिचय

parichay-story

सिंदूरी सुबह की लाली को कहां पता होता है कि कुछ ही पलों में स्याह बादलों का घेरा उसे लील जाएगा। होंठों पर खेलती मुस्कान को भी माथे पर शीघ्र आने वाली शिकन का कहां पता होता है। जब तसवीरों में हम अपना समय कैद करते हैं, तब भी कहां जानते हैं कि मन की थाह लेना कितना मुश्किल होता है। हंसते-मुस्कराते चेहरों के पीछे की पीड़ा तथा फरेब की कहानी देखना दुष्कर है।

घर की सफेद दीवारों पर गहरे भूरे रंग के फ्रेम में टंगी उस तसवीर को मोहिनी अपलक निहार रही थी। वह उसके मम्मी-पापा के शादी की तसवीर थी। उसके पापा दूल्हा बने अपनी दुलहन की मांग भर रहे थे। दूल्हे की आंखों का प्रेम और दुलहन की बंद आंखों का समर्पण मिल कर उस चित्र को दर्शनीय बना रहे थे। उस चित्र के ठीक नीचे के चित्र में, प्रसूता अपने दोनों जुड़वां बच्चों के मध्य, समस्त संसार की सुंदरता को चेहरे पर समेटे लेटी थी। उस चित्र में जहां मम्मी के पीले मुख पर संतोष और सुरक्षा की लालिमा फैली थी, वहीं मुस्कराते पापा ने अपने छोटे से संसार को अपनी दोनों बाजुअों के सुरक्षाचक्र के घेरे में ले रखा था।

सब कुछ सदा से ऐसा ही तो था। अंतर्मुखी मम्मी का मौन संवाद जिसे वाचाल पापा का सुन लेना, मम्मी का समर्पण और पापा की मेहनत। जहां उसके पापा का निर्णय मम्मी के लिए कानून था, वहीं मम्मी की इच्छा पापा के लिए प्राथमिकता। उसके पापा का गुस्सा मानो तपती धरती, जिसे उसकी मम्मी वर्षा की ठंडी फुहार बन शीतल और मंजुल कर देती थी। वे मात्र जीवनसाथी ही नहीं थे, एक-दूसरे को पूर्ण भी करते थे। किंतु पिछले कुछ दिनों से वे आधे-अधूरे से हो गए थे, मम्मी चिल्लाने लगी थीं और पापा मौन हो गए थे।

आरंभ में उनका विवाद भी मौन ही था। मोहिनी को भी मम्मी-पापा के मध्य किसी विवाद की अनुभूति तो हो गयी थी, किंतु उसके गंभीर हो जाने का अनुभव पिछली कुछ रातों में हुआ था। कभी मम्मी की सिसकियां तो कभी उनका गुस्सा, कभी पापा की दबी चीख तो कभी उनका डरावना मौन, मोहिनी की नींद को सुला देता और परेशानी को जगा देता था। मोहिनी का जुड़वां भाई भार्गव पूना के बड़े कॉलेज से वकालत की पढ़ाई कर रहा था। छह महीने पहले ही उसका चयन हुआ था। उसे पूना छोड़ने मम्मी-पापा साथ ही गए थे। कॉलेज खुला होने के कारण मोहिनी नहीं जा पायी थी। वह इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रथम वर्ष की छात्रा थी। दिल्ली में ही अच्छे कॉलेज में दाखिला मिल जाने के कारण मोहिनी तो मम्मी-पापा के पास रह गयी। किंतु भार्गव को मम्मी को छोड़ कर जाना पड़ा था। जहां मम्मी का लाड़ला भार्गव उनके समान ही भावुक था, वहीं मोहिनी संवेदनशील होने के साथ अपने पिता के समान व्यावहारिक भी थी।

मम्मी की जिद पर पापा उन्हें भी अपने साथ पूना ले गए थे। बेटे के बिछोह में व्याकुल मम्मी को पूना से ले कर आना पापा के लिए एक कठोर कार्य हो गया था। मम्मी को सामान्य करने में पापा को कई दिन लगे। वे सामान्य तो हो गयीं, लेकिन सामान्य की परिभाषा बदल गयी थी।

टर्र टर्र...

डोरबेल की तेज ध्वनि मोहिनी को पुनः वर्तमान में ले आयी थी। दरवाजे पर पापा के साथ भार्गव का खड़ा होना आश्चर्य नहीं था, क्योंकि आज ही तो उसे आना था, आश्चर्यजनक तो था मम्मी का व्यवहार। उनके कमरे का दरवाजा अभी तक बंद था।

‘‘वर्षा अभी भी अंदर है,’’ पापा मोहिनी से पूछ रहे थे अथवा भार्गव को बता रहे थे, यह बात समझ पाना दोनों के लिए विकट हो गया था। इसलिए उत्तर में दोनों ने ही धीरे से सिर को हिला दिया था।

‘‘मैं आज फरीदाबाद जा रहा हूं, रोड का काम शुरू हो गया है, तो सीनियर इंजीनियर का रहना आवश्यक हो जाता है और हां... तुम्हारी मम्मी...’’ वे कुछ कहते-कहते रुक गए थे, जैसे कहना ना चाहते हों, पर कहना पड़ रहा था। उनका गला भर आया था, ‘‘तुम्हारी मम्मी और मैं अलग हो रहे हैं,’’ पापा की आवाज की सख्ती ने स्थिति की गंभीरता को स्पष्ट कर दिया था।

‘‘पर क्यों? कैसे और कब हुआ यह सब...पापा,’’ किसी प्रकार भार्गव बोल पाया था। मोहिनी तो जैसे जड़ हो गयी थी।

‘‘क्यों, कब और कैसे? यह आवश्यक नहीं है। कभी-कभी दो सही लोग गलत परिस्थिति के शिकार हो जाते हैं। यह भी तो आवश्यक नहीं कि दो सही लोग एक-दूसरे के लिए भी सही हों,’’ इतना कह कर पापा चले गए। खामोश घर और गंभीर दीवारों के मध्य मोहिनी और भार्गव तनहा रह गए। कई बार घर में रहने वाले लोग भी अजनबी से लगने लगते हैं। दरअसल, अपने ओढ़े गए खोल में सभी सुरक्षित अनुभव करते हैं। यह जानते हुए भी कि दुनिया की अधिकांश खुशियां नकली हैं, सभी भ्रम में ही जीते हैं। लेकिन जब भ्रम टूटता है, शब्द गुम हो जाते हैं। उनके लिए सत्य को स्वीकारना असंभव हो जाता है। अभी वे सहज होने का असफल प्रयास कर ही रहे थे कि दरवाजा खुलने की एक उबाऊ आवाज ने दोनों को भयभीत कर दिया। उनकी मम्मी वर्षा कमरे से बाहर आ गयी थी। 

‘‘पापा चले गए?’’ वर्षा का स्वर शांत था।

‘‘जी... जी मम्मी,’’ भार्गव सकपकाता हुआ खड़ा हो गया था। उसकी आवाज के कंपन ने मोहिनी के साथ वर्षा को भी छुआ।

वर्षा सोफे पर उनके बीच ही बैठ गयी। ना उसने भार्गव के आने पर कुछ कहा और ना ही उसकी छुट्टियों के बारे में कोई जानकारी लेनी चाही। घर की मौन दीवारें खामोशी से बोलती रहीं, उन तीनों के हृदय विलाप करते रहे, लेकिन होंठों पर चुप का पहरा कायम रहा। फिर कहीं दूर से वर्षा की आयी आवाज ने मौन को शब्द दे दिए थे।

‘‘नीरज ने जो कहा, वह सच है।’’ 

कभी-कभी सत्य को जानते हुए भी उसके झूठ हो जाने की कामना होती है। उस एक वाक्य ने मोहिनी और भार्गव को सत्य का आईना दिखा दिया था। भार्गव स्वयं को संभाल नहीं पाया।

‘‘मम्मी, क्या हुआ है। हम बच्चे नहीं हैं, आप कहें, तो...’’ वह अपनी मम्मी के घुटनों के पास जा कर बैठ गया था। वर्षा ने प्यार से उसके चेहरे को हाथों में भर कर उसका माथा चूम लिया।

‘‘मुझे अपने बच्चों की समझदारी और स्वतंत्र विचारों पर गर्व है,’’ वर्षा की दृष्टि मोहिनी से मिल गयी थी। उस एक पल में मोहिनी जैसे नींद से जाग गयी। वर्षा के कंधों पर उसके हाथ का दबाव बढ़ गया था।

‘‘मम्मी, क्या पापा का अफेअर चल रहा है?’’ 

मोहिनी के प्रश्न को सुनते ही भार्गव के हाथ कांपने लगे थे, लेकिन मम्मी शांत बैठी थीं। 

‘‘मोहिनी, क्या बोल रही है,’’ अब भार्गव की आवाज भी तेज हो गयी थी।

‘‘भागू, तुम कुछ देर चुप रहो। मम्मी को बोलने दो। तुम यहां नहीं थे। मैं उन रातों की गवाह हूं, जब मैंने इनके बीच उस तीसरे की आहट सुनी है। अब तक मेरे मन ने मुझे इस सत्य को स्वीकारने से रोक रखा था। लेकिन सत्य को शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती। क्यों मम्मी, मैं सही हूं ना।’’

वर्षा ओर मोहिनी अपलक एक-दूसरे को निहार रही थीं, लेकिन भार्गव का बड़बड़ाना चालू हो गया था, ‘‘मम्मा, पापा को इस गलती की सजा जरूर मिलेगी। आप परेशान ना हों। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं। हम उनसे कभी बात नहीं करेंगे। हार कर उन्हें आपके पास लौटना ही होगा। आप जो भी निर्णय लेंगी, हम आपके साथ...’’

‘‘मैं जो भी निर्णय लूं...’’ वर्षा ने भार्गव को बीच में ही रोक दिया था।

‘‘जी...’’ इस बार मोहिनी और भार्गव का समवेत स्वर गूंजा।

‘‘हम्म...’’ वर्षा कुछ देर तो शून्य को निहारती रही, फिर उठ कर खिड़की के पास खड़ी हो गयी। एक गहरी सांस भर कर उसने कहा, ‘‘हां, यह समाज इस रिश्ते के लिए अफेअर जैसा ओछा शब्द ही इस्तेमाल करता है। वैसे मेरे लिए तो यह स्वयं से मिलने जैसा था।’’

भार्गव एक तेज चीख के साथ खड़ा हो गया था। जिन आंखों के सागर में कुछ क्षण पूर्व अपनी मां के लिए सहानुभूति, प्रेम और पीड़ा की लहरें उठ रही थीं, वहां घृणा और द्वेष का तूफान आ चुका था।

‘‘अफेअर पापा का नहीं मेरा चल रहा है,’’ वर्षा की स्वीकारोक्ति से झटका तो मोहिनी को भी लगा, किंतु भार्गव तो बेकाबू हो गया था। हालांकि, वर्षा को उससे ऐसी ही प्रतिक्रिया की आशा थी। लेकिन अपनी आहत भावनाअों को व्यक्त करने के लिए भार्गव ने जिन शब्दों का चुनाव किया, उसके लिए मोहिनी और वर्षा दोनों ही प्रस्तुत नहीं थीं।

‘‘आप जैसी स्त्री को मम्मी कहते हुए शरम आती है। एक चरित्रहीन मां का बेटा कहलाने से अच्छा होगा कि मैं आत्महत्या कर लूं। पुरुष तो स्वभाव से ही चंचल होता है। किंतु, एक स्त्री ही होती है, जो घर को बांधती है। एक मां से मर्यादित आचरण की आशा होती है। स्वेच्छाचारी और स्वार्थी स्त्रियों से उत्पन्न समाज, व्याभिचार का अड्डा मात्र होगा। ऐसी स्त्रियां कभी एक संस्कारी परिवार की रचना नहीं कर सकतीं।’’

अपमान और पराजय की पीड़ा से वर्षा की आंखें भीगने लगी थीं। उसका हृदय फटना चाह रहा था, लेकिन मानो किसी ने भारी पत्थरों से उसे दबा रखा था। तभी शब्दों के मेघ की गर्जना हुई, नेत्रों में दामिनी समेटे मोहिनी बरसी थी, ‘‘जिस समाज का निर्माण परमार्थी और अनुशासन प्रिय पुरुषों ने किया है, उस समाज में व्याप्त अराजकता, रक्तपात, नफरत, भ्रष्टाचार, अनियमितता तथा अन्याय को देख कर तो लगता है कि काश इस समाज की डोर स्वेच्छाचारी और आवारा स्त्रियों के हाथ में होती।’’

‘‘मोहिनी, तुम मम्मी का समर्थन और मेरा विरोध कर रही हो,’’ भार्गव स्तंभित था।

‘‘मैं तुम्हारा नहीं, तुम्हारी इस घृणित पितृसत्तात्मक सोच का विरोध कर रही हूं। वह सोच, जो पुरुष और स्त्री के एक समान लिए गए निर्णय को, पुरुष की मात्र गलती और स्त्री का अक्षम्य अपराध बना देती है। जब तक तुम्हें लगा कि अफेअर पापा का चल रहा है, तुम क्रोधित हुए, मम्मी के लिए दुखी भी हुए, लेकिन उसे पापा की गलती बताते रहे। पर जिस क्षण तुम्हें पता चला बात मम्मी की हो रही है,तुमने उनके चरित्र पर उंगली उठा दी। तुम यह कितनी आसानी से भूल गए कि जैसे पुरुष मनुष्य है, वैसे ही स्त्री भी हाड़-मांस की बनी मनुष्य ही है। फिर यह विभेद क्यों। पुरुष को यह तो ऐसा ही है कह कर स्वतंत्रता दे दी। वहीं स्त्री को देवी बना कर सदा के लिए गुलाम बना दिया। पापा की गलती, मां का अपराध नहीं बन जाती। या तो दोनों गलत हैं या दोनों सही। या तो दोनों अपराधी हैं अथवा कोई नहीं।’’ 

जिस क्षण मनुष्य की शक्ति धूमिल होने लगती है और उसे अपनी पराजय निकट प्रतीत होती है, ठीक उसी क्षण यदि आशा उसके कानों में वीर रस की कोई कविता गाने लगे, तो वह पुनः पूर्ण जोश के साथ अपनी पराजय का जय करने निकल पड़ता है। मोहिनी के शब्दों ने वर्षा पर ठीक वैसा ही असर किया था।

जिस क्षण भार्गव के शब्दों को सुन कर वह स्वयं को एक मां के रूप में पराजित अनुभव कर रही थी, उसी क्षण मोहिनी के शब्दों ने विजय पताका उसके हाथों में पकड़ा दी थी। वह आगे बढ़ी और मोहिनी के हाथों को अपनी मुट्ठी में समेट कर होंठों से लगा लिया। उस क्षण मोहिनी ने अपनी मां की आंखों में वह देखा, जो उसने अपने संपूर्ण जीवन में कभी नहीं देखा था, आत्मविश्वास।

‘‘मम्मी, आई एम सॉरी। जानता हूं कि गलत बोल गया हूं,’’ भार्गव मात्र इतना कह कर खामोश हो गया था। ‘‘लेकिन, लेकिन मम्मी आप ट्राई तो करो, पापा बुरे नहीं हैं। आप हमारे लिए सोचो...आप...’’ मोहिनी का गीला स्वर वर्षा को भिगो गया था।

ऐसा नहीं था कि वर्षा अपने बच्चों की स्थिति को नहीं समझ रही थी, वह सब समझ रही थी। लेकिन भरे हुए घड़े पर पानी डालने से पानी बाहर ही आएगा। घड़ा लाख चाहे, वह अपने परिमाप से अधिक पानी का संचय नहीं कर सकता। अब समय आ गया था कि उसके बच्चे भी इस बात को समझ जाएं।

अपने सिर को दीवार से लगा कर वर्षा ने बोलना आरंभ किया था, ‘‘मेरी और तुम्हारे पापा की शादी एक अरेंज्ड मैरिज थी। धीरे-धीरे हम करीब आए, एक-दूसरे को समझा और प्रेम हुआ। हम जीवनसाथी बने, प्रेमी बने, प्रबंधक बने, बस दोस्त नहीं बन पाए। उन्होंने जब शादी के बाद नौकरी ना करने का आदेश दिया, मैंने स्वीकार कर लिया। मैं उन्हें संगीत महाविद्यालय का कॉल लेटर दिखा ही नहीं पायी। उन्हें नॉनवेज की गंध से भी परहेज था। मैं उन्हें चिकन बिरयानी के प्रति अपनी दीवानगी के बारे में कभी बता ही नहीं पायी। उनकी हर पसंद-नापसंद को मैंने अपना लिया। नीरज ने भी मुझे प्रेम, अपनापन और आर्थिक सहयोग दिया। लेकिन सम्मान देना भूल गए। वे सदा कहते रहे कि मैं हूं, किंतु उनके मैं में मेरा मैं कहीं गुम हो रहा था, यह वे देख ही नहीं पाए। मुझे घर की मालकिन कहते रहे, किंतु घर के बाहर मेरे नाम की तख्ती की आवश्यकता भी उन्हें महसूस नहीं हुई। तुम खाना अच्छा बनाती हो, यह कह कर प्रेम देते, तो अगले ही पल तुम दिन भर करती क्या हो कह कर मेरी आत्मा को छलनी कर देते। वे कभी घर में बड़ी पार्टियों के मेरे अकेले संचालन की तारीफ करते, तो वहीं तुम्हें कहां इतनी अक्ल है कह कर मेरे आत्मविश्वास को छलनी भी कर दिया करते थे। जीवनसाथी बन कर भी मैं उनके लिए अपरिचित ही रही। लेकिन इसके लिए मैं मात्र नीरज को दोष नहीं देती, मैं भी तो एक अच्छी पत्नी एक अच्छी बहू और एक अच्छी मां बनने के प्रयास में स्वयं को समाप्त करती गयी। मैं यह भूल गयी थी कि किसी को प्रेम करने के क्रम में स्वयं को प्रेम ना करना अपराध है।’’

मोहिनी और भार्गव के सामने पहली बार वह सत्य प्रकट हो रहा था, जो उनके सामने होते हुए भी गायब था। सब जो ठीक ही लगता था, वास्तव में ठीक नहीं था। वह वर्षा का चुप था, जो सभी ने सामान्य समझ लिया था। ऐसा ही तो होता आया है, स्वयं की इच्छाअों को कुचलती वर्षा को कभी किसी ने नहीं देखा।

मोहिनी पहली बार अपनी आंखों से माता-पिता के नाम के चश्मे को उतार कर वर्षा और नीरज के संबंध को देख रही थी। उसे वर्षा का समझौता, उसका समर्पण और अकेलापन ही दिखा। उनके संबंधों में कोई गर्माहट शेष नहीं थी। नीरज के प्रेम में अपमान मिश्रित था। वर्षा के हर निर्णय में नीरज की अनुमति आवश्यक थी, किंतु नीरज के निर्णयों में वर्षा की कोई भागीदारी नहीं थी।

यहां तक कि एक समय के बाद मोहिनी और भार्गव का मन भी महत्वपूर्ण हो गया, लेकिन वर्षा का मत सुनने की किसी ने कोशिश भी नहीं की। मम्मी तो वही करेंगी, जो पापा कहेंगे, ऐसा सोच कर वर्षा से अनुमति लेना बच्चों के लिए भी आवश्यक नहीं रह गया था। अनजाने में ही सही, अपनी मां का अपमान उन्होंने भी किया था। 

भार्गव के कंधे को हौले से छू कर, कंठ में फंसी रुलाई को रोकते हुए मोहिनी मात्र इतना कह पायी थी, पापा बहुत अच्छे हैं, लेकिन मां के लिए सही नहीं हैं, इस बार भार्गव ने भी खामोशी से सिर को हिला दिया था। समझने और मानने की दूरी को तय करना मुश्किल है,नामुमकिन नहीं।

‘‘तो मम्मी, अब आप उनके साथ रहेंगी?’’ मोहिनी ने स्वयं को संंभाल लिया था।

वर्षा के होंठों पर एक फीकी मुस्कान खेल गयी थी। 

‘‘किसी के साथ रहने का सुख मैंने पा लिया है। अब मैं स्वयं के साथ रहना चाहती हूं।’’ 

‘‘क्या मतलब?’’ मोहिनी और भार्गव एक साथ बोल पड़े थे।

‘‘मुझे मसूरी के एक बोर्डिंग स्कूल में नौकरी मिल गयी है। संगीत में स्नातकोत्तर की डिग्री अब काम आयी, वैसे कुछ महीने से उमंग ने भी रियाज में बहुत मदद की है। संगीत में उनका ज्ञान अप्रतिम है।’’
पांच महीने पूर्व वर्षा ने उमंग की सिंगिंग एकेडमी को जॉइन किया था। संगीत की तान नीरज को सदा से शोर ही लगती थी। उसने वर्षा के इस गुण को कभी बच्चों के सामने आने ही नहीं दिया। अब जब बच्चे बड़े हो गए, तो बड़ी मुश्किल से वर्षा ने नीरज को मना तो लिया, किंतु अभी भी उसे घर में गाने की अनुमति नहीं थी। शर्तों पर ही सही, वर्षा ने जीवन में पहली बार स्वयं को प्राथमिकता दी थी। पहली मुलाकात में ही उमंग के साथ ने उसे डरा दिया था। उमंग वह सब कुछ था, जो कभी वह स्वयं हुआ करती थी। उससे मिलना वर्षा के लिए स्वयं से मिलने जैसा था। जहां एक अजनबी आकर्षण उसे उमंग की तरफ खींच रहा था, वहीं पारिवारिक बंधन उसे रोक रहे थे। हार कर उसने एकेडमी जाना बंद कर दिया था। लेकिन वर्षों बाद स्वयं से मिल कर स्वयं से मुंह मोड़ना कठिन होता है। वर्षा ने उमंग से मिलने की इच्छा को तो चुप करा दिया था, लेकिन जो वर्षा अब जाग गयी थी, उसने मौन होने से इंकार कर दिया। अब वह नीरज की गलत बातों पर सिर झुकाने के स्थान पर सिर उठाने लगी थी। वह बोलने लगी थी।

‘‘तो वे उमंग सर हैं?’’ मोहिनी ने हौले से पूछा था।

‘‘हम्म...’’ वर्षा ने कहा और मोहिनी पर एक अर्थपूर्ण दृष्टि डालते हुए आगे बोली, ‘‘मुझे स्कूल कैंपस में ही क्वॉर्टर भी मिल रहा है। तुम दोनों जब चाहो, वहां मुझसे मिलने आ सकते हो।’’

मोहिनी और भार्गव को कुछ समझ नहीं आ रहा था। यदि वर्षा नीरज को उमंग के लिए छोड़ रही थी, तो फिर उसके साथ रहने क्यों नहीं जा रही। मोहिनी चुप नहीं रह पायी, उसने वर्षा से पूछ ही लिया था। 

‘‘आ... आप... मेरा मतलब है, आप अपने मित्र के साथ नहीं रहेंगी !’’

वर्षा ने आगे बढ़ कर अपने दोनों बच्चों की हथेलियों को वैसे ही मजबूती से थाम लिया, जैसे बचपन में कोई महत्वपूर्ण बात समझाने के समय थाम लेती थी। 

‘‘बेटा, पंत साहब की बहू, मिसेज नीरज, मोहिनी की मम्मी और भार्गव की मम्मी जैसे परिचय में मेरा वास्तविक परिचय तो कहीं खो गया था। उमंग ने मुझसे मेरा परिचय दोबारा कराया। मुझे वर्षा से मिलाया, मैं सदैव उनकी ऋणी रहूंगी। मेरे हृदय में उनका एक विशेष स्थान सदा रहेगा। लेकिन अभी, मैं, मैं के साथ व्यस्त हूं। अभी-अभी तो स्वयं से प्रेम हुआ है। भविष्य का तो पता नहीं। किंतु इस समय मुझे ना तो मंजिल की ख्वाहिश है और ना उस तक पहुंचने की जल्दी, अभी तो आरंभ है। सफर शेष है।’’