Tuesday 22 March 2022 04:50 PM IST : By Abha Srivastava

गली गली ढूंढ़ा तुझे

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उस दिन किसी घरेलू समारोह में जब बड़ी जिज्जी से मिलना हुआ, तो उन्होंने मुझे बताया, ‘‘तुझे सुनयना की याद होगी, ज्ञान। उसी की बेटी का ब्याह है। मुझसे तेरा पता और फोन नंबर मांगा है उसने, ताकि तुझे ब्याह का न्योता भेज सके।’’

एक पल को मैं सकपका गया था। इतने बरसों के बाद सुनयना को मेरी याद कैसे आ गयी। हालांकि मैं भी उसे कभी भूला तो नहीं था। सुनयना कैसी होगी अब। मैंने पलभर को आंखें मूंद ली थीं। कुछ समय बाद खोली, तो सामान्य होने में थोड़ा समय लगा। मुझे लगा चांदनी की चमक बहुत धुंधली पड़ गयी थी। आती हुई सरदियों के दिन थे। ओस की एक हल्की परत सारे वातावरण पर छा गयी थी और उस कुहासे को चीरते हुए एक कमसिन सा भोला चेहरा मेरी स्मृति में उतर आया। यह सुनयना थी। सुनयना मेरे यौवन का एक बहुत ही मोहक स्वप्न थी और हर स्वप्न सच तो नहीं हो पाता। कभी कैसे-कैसे सपने देखे थे सुनयना के साथ। साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खायी थीं। जिस दिन मैं हॉस्टल जाने लगा था, सुनयना बेतरह हिचकियां ले कर रोयी थी। वे आंसू इतने धाराप्रवाह थे कि मैं उनमें भीग भीग गया था। मुझे विश्वास था कि सुनयना को मेरी प्रतीक्षा करनी ही थी। मैं इंटर के बाद इंजीनियरिंग पढ़ने गया और सुनयना ने बीए में दाखिला ले लिया था। 

सुनयना बचपन से ही हमारे घर आया करती थी। बड़ी जिज्जी से कभी बुनाई सीखती, कभी कढ़ाई, कभी उपन्यास मांगने आती, तो कभी गप्पें मारने। वह कब और कैसे मेरे मन में बसती चली गयी, नहीं समझ पाया था मैं। जुड़वां से घर थे हमारे। दीवारें ही नहीं, मन भी जुड़े थे। दोनों घरों से कच्ची-पक्की सब्जियां मांगी जाती थीं। लेकिन मेरी और सुनयना की खिचड़ी अलग ही पकती थी। हमारा घर कायस्थों का घर था, जहां मांस मछली, प्याज, लहसुन सभी कुछ पकता था। वहीं सुनयना के घर वाले घोर सनातनी ब्राह्मण थे। फिर भी पांडे चाची के बच्चे प्याज, लहसुन की खुशबू सूंघते अकसर हमारे घर की रसोई में जीमने आ जाते थे। अम्मा भी उन्हें बड़े प्रेम से खिलाती थी। 

किसी को कानोंकान खबर नहीं थी और मेरा और सुनयना का रिश्ता दोस्ती और पड़ोसी से कहीं अलग हो कर कई सरहदें पार कर चुका है। मुझे सुनयना सत्यजित रे की नायिका सरीखी लगती थी। मुझे महसूस होता था कि सुनयना की देह में सरगम सा उतार-चढ़ाव है। उसके पास सुंदरता से अधिक एक भोला सा सलोनापन और सलोनेपन से अधिक लय थी। तांत की मोटी साड़ियों और सूती सलवार सूट में भी उसकी देह के मोहक अवयवों के अलग-अलग अस्तित्वों का पला चलता था। घनी काली दो चोटियों के मध्य उसका भोला सा मुखड़ा एक निष्पाप शिशु सा लगता था। मैं स्वयं को बेहद भाग्यवान समझता था कि इतनी लावण्यमयी नवयौवना मेरी प्रेयसी है।

सुनयना को किसी तरह आश्वस्त करके मैं बाहर पढ़ने चला गया था। कुछ ही महीनों के बाद बड़ी जिज्जी के ब्याह में घर लौटा, तो पता चला कि सुनयना का ब्याह तय हो गया है। मुझ पर जैसे गाज गिर गयी थी। मैं यकीन ही नहीं कर पाया था कि यह सच भी हो सकता है। 

बड़ी जिज्जी के ब्याह में सुनयना का मोहक नृत्य मानो उसने मुझ पर कटाक्ष करके ही किया था, ‘‘बन्ना ढूंढ़े गली-गली, बन्नी अब ससुराल चली...।’’ उसकी पतली कमर किसी कुशल नर्तकी की भांति ही लचक रही थी और मेरे जी में आ रहा था कि दौड़ कर अपने खोए हुए रत्न को अंटी में बांध लूं। लेकिन सुनयना के हावभाव से मुझे कहीं नहीं लग रहा था कि उसके मन में मुझे खो देने का जरा सा भी दुख है। मुझे अपने हॉस्टल जाने के एक दिन पहले की घटना याद आयी थी। उस रात मुझे छोड़ कर सभी घर वाले किसी रिश्तेदार के ब्याह में गए थे। मेरी सारी पैकिंग हो चुकी थी और मैं आंगन में खाट पर बैठा गुमसुम सा आसमान देख रहा था, मानो चांद से कुछ कहना चाह रहा था। तभी ना जाने किस क्षण सुनयना मेरे करीब आ कर धप्प से बैठ गयी थी। इतने एकांत में वह मुझसे बिलकुल सट कर बैठी थी। पूर्णिमा की चांदनी में उसका सलोना सा रूप आज भी मेरे मन में सजीव है। उसका उदास चेहरा मैंने अपने वक्ष से सटा लिया था। उसके बालों और शरीर से आती सुगंध ने मुझे पागल बना दिया था। मेरा आलिंगन दृढ़ से दृढ़तर होता चला गया था। घर वालों के आने की संभावना भी मुझे रोक नहीं पायी थी। सुनयना की आंखों में आमंत्रण था। माथे, चिबुक और अधरों पर मेरे अधरों का स्पर्श उसे भी अवश बना गया था। आमंत्रण के उस ज्वार में मैं कुछ भी आगा-पीछा नहीं देख सका था। प्रणय की एक तीव्र लहर आयी थी, जिसमें हम दोनों ही बह गए थे। वह लहर जब वापस लौटी, तो कितना कुछ बहा ले गयी थी। यह रात एक सामान्य रात नहीं थी। यह हमारे पवित्र मिलन की साक्षी थी। हम दोनों ने ही एक-दूसरे को कुछ दिया था। सुनयना की अधखुली पलकों की लाजभरी चितवन और अधरों की तृप्तिभरी मुस्कान मुझे कहीं ना कहीं आश्वस्त कर रही थी। मुझे सुनयना पर ममता हो आयी थी। इसने मुझे अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया, मुझ पर अटूट विश्वास किया, मैं इसका प्यार और विश्वास जीवनभर निभाऊंगा।

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‘‘सुनयना, मुझे थोड़ा समय दो। नौकरी लगते ही तुम्हारे बाबू जी से तुम्हारा हाथ मांग लूंगा। जाति-बिरादरी हमारे प्रेम में रोड़ा नहीं बनेगी,’’मैं उसके सामने घुटने टेक कर बैठ गया था।

उससे दूर जाने के बाद मैं लगातार सोचता रहा था कि सुनयना मेरी प्रतीक्षा करेगी। लेकिन मेरी वही सुनयना साल के भीतर ही किसी और की होने जा रही थी। ऐसा क्यों हुआ। यह मैं समझ ही नहीं पाया था। वह अगर प्रतीक्षा कर पाने में असमर्थ थी, तो मुझे एक चिट्ठी तो डाल ही सकती थी। मैं कैसे भी करके यह ब्याह रुकवा देता। लेकिन शायद सुनयना के प्रेम में वह आग नहीं रही होगी, जो घर वालों से विद्रोह कर सके। उसका प्रेम सच में कच्चा रहा होगा। वह बड़ी जिज्जी के ब्याह में भी मुझसे कटी-कटी रही कि कहीं मैं उससे उसके ब्याह की कोई कैफियत ना पूछ बैठूं।

सुनयना ब्याह कर दूसरे शहर, दूसरे घर चली गयी थी और इसके बाद मैंने स्वयं को पढ़ाई में झोंक दिया। सुनयना से मुलाकातें लगभग बंद ही हो गयी थीं। स्वाभाविक था। वह अपनी घर-गृहस्थी और बच्चों में व्यस्त हो गयी थी। फिर वह मुझसे मिलना भी क्यों चाहती। अब उसकी दुनिया ही अलग थी। कभी-कभी बड़ी जिज्जी से उसकी खबरें मिलती रहती थीं। सुनयना के बेटी हुई। सुनयना के बेटा हुआ। बेटी ने हाईस्कूल कर लिया। बेटे ने कॉलेज में टॉप किया। बेटा बॉस्केट बॉल का बहुत अच्छा खिलाड़ी है। कॉलेज टीम का चैंपियन है, वगैरह-वगैरह। मैं कोई इंटरेस्ट नहीं दिखाता था, जबकि हकीकत यह थी कि सुनयना मेरे जहन से कभी गयी ही नहीं थी। वह एक टीस बन कर मेरे भीतर हमेशा ही दुखती थी। कई बार सुनयना को देखने का मन चाहा, लेकिन सामाजिक वर्जनाओं के चलते टाल गया। किस रिश्ते का हवाला दे कर मिलता उससे।

बरस दर बरस बीतते चले गए। जीवन आगे बढ़ता चला गया। सुनयना की मोहक छवि हमेशा मेरे मन के तहखाने में सुरक्षित रही। मैंने कभी अपनी पत्नी तक से इसका जिक्र नहीं किया। आज इतने बरस बाद में यह सोच कर रोमांचित था कि सुनयना ने मुझे याद किया था। अपने ब्याह में ना सही, बेटी के ब्याह में तो मुझे बुलाया। अगले दो-तीन दिनों तक मैं बड़ी बेसब्री से उसके फोन की प्रतीक्षा करता रहा।

फिर एक दिन सुनयना का फोन आ ही गया। वह एक अनजानी आवाज थी। मैं इस आवाज में बरसों पुरानी अनुगूंज पहचानने की कोशिश कर रहा था। उसकी आवाज में एक उम्रदराज महिला जैसा पक्कापन था। वह अपने स्वर को भरपूर कोमल बना कर बात कर रही थी। लेकिन उसकी आवाज में एक संकोच अवश्य था। सुनयना शायद इस बात से जागरूक थी कि वह एक ऐसे व्यक्ति से बात कर रही है, जिसके साथ उसका नाता बरसों पहले टूट गया था। मैं अनायास ही अपनी आवाज में बरसों पहले का कैशोर्य लाने का प्रयास करने लगा था या संभवतः मैं स्वयं ही अपनी आवाज के प्रौढ़पन से परेशान हो उठा था। खैर, उसने मुझे अपनी बिटिया के ब्याह में आमंत्रित किया। संयोग से उसके पति की पोस्टिंग इन दिनों हमारे पुराने अपने शहर में ही थी, सो ब्याह भी वहीं से होना था।

मैं अकसर सोचा करता था कि अगर सुनयना से मेरा ब्याह हो गया होता, तो मेरा घर, घर जैसा रहता, सराय नहीं। माया, मेरी पत्नी, एक बड़े अफसर की बेटी और एक बड़े अफसर की बीवी थी। उसका दंभ उसके चेहरे पर इस कदर छाया रहता कि उसकी सुंदरता देखने वाले को मोहती कम, सहमाती ज्यादा थी। उम्र के साथ इस अहंकार में वृद्धि हो चली गयी थी। बाबू जी ने मुझे मोहरा बनाया और भरपूर दहेज ले कर मेरा ब्याह किया। माया के प्रति मेरा मन कभी भी प्रणयासक्त नहीं हो पाया था, क्योंकि मैं उसमें सुनयना को ही ढूंढ़ा करता था। जानत प्रिया एकु मन मोरा, सो मनु रहत सदा तोहि पाही। रामचरित मानस की इन पंक्तियों की तरह मेरा मन भी सदैव सुनयना में ही बसा रहा।
मैं बरसों बाद अपने शहर लौटा था। जैसे ही मेरी कार गली के मोड़ पर मुड़ी, मेरा दिल धड़कने लगा था। यही वह जगह थी, जहां मेरे बचपन से ले कर किशोरावस्था तक के दिन हंसते-खेलते बीते थे। वह उम्र बीती थी, जब स्वप्न और सच में भेद नहीं हो पाता है। सारी कल्पनाएं सुनहरी और सत्य लगती थीं।

वह एक गर्दभरी शाम थी। ऊपर फीका नीला आकाश, पतझड़ के कारण हाते में सूखी पत्तियां झरी हुई थीं। मैंने बरसों पहले का मौसम याद किया। यह चिरपरिचित पल, बहुत समय बाद अपने छूटे हुए शहर की पहली शाम के साथ में अपने कुछ-कुछ टूटे, पुश्तैनी घर के सामने खड़ा था। अनायास ही मेरे पैर थरथराने लगे थे। गाड़ी का स्वर सुन कर रामकिशन भागा चला आया। इस मूर्तिकार के परिवार को बाबू जी ने ही यहां बसा दिया था। वही हमारे घर की देखरेख, सफाई इत्यादि करता था।

‘‘कब आए भइया, अचानक,’’ रामकिशन आ कर मेरे निकट खड़ा हो गया था। मैंने उसे अपने आने की खबर भी तो नहीं की थी। सांझ की रोशनी में मैंने गौर से देखा। मेरा हमउम्र होते हुए भी रामकिशन कितना वृद्ध दिखने लगा था। उसके माथे के बचेखुचे चंद बाल बिलकुल सफेद हो चुके थे। मुझे मुट्ठी में बंद अपने यौवन पर गर्व हो आया। पचास पार करने के बाद भी मैंने अपना यौवन संभाल कर रखा हुआ था। ना एक बाल सफेद, ना चेहरे पर एक भी झुर्री। सधी, सफेद दंतपंक्ति। दो किशोर बच्चों का पिता होते हुए भी मैं युवाओं को मात देता था।

रामकिशन ने फुर्ती से मकान का ताला खोला। ओसारे में बिछी चौकी को अपने गमछे से पोंछ कर मुझे बिठाया। मैंने निगाहभर कर देखा। साफ-सुथरा घर और उसकी परिचित गंध ने रास्ते की सारी थकान दूर कर दी थी। 

‘‘भइया जी, चाय,’’ रामकिशन इतनी देर में चाय ले आया था।

‘‘पांडे जी के घर ब्याह का न्योता है तुमको, रामकिशन,’’ मैंने उससे आत्मीयता के साथ पूछा।

‘‘भइया जी, न्योता तो है, पर हम गरीब लोगन को वहां जाए में सकुच लगती है,’’ वह दीन भाव से बोल पड़ा।

‘‘आप अकेले ही आए, भइया जी?’’ उसने पूछा। 

‘‘हां रामकिशन, अकेले ही आया हूं,’’ मेरी स्मृति में अपनी पत्नी माया का चेहरा तैर गया। क्लब, ताश पार्टी और शॉपिंग में ही उसके प्राण बसते थे। हम दोनों पति-पत्नी की दुनिया अलग थी। बच्चों को बोर्डिंग भेज कर हम दोनों निश्चिंत हो कर अपनी सोशल लाइफ एंजाॅय कर रहे थे। सोशल मीडिया पर हैप्पी फैमिली की फोटो पोस्ट कर हम सोचते कि हम सच में खुश हैं। 

मैं पैसे कमा रहा था, माया पैसे उड़ा रही थी। सरकारी नौकरी में तनख्वाह के अतिरिक्त अन्य किन-किन स्रोतों से पैसे आते हैं, मुझे सभी की जानकारी थी। फिर स्टेटस को बनाए रखने के लिए हर तरफ से हर तरह से पद का दुरुपयोग करके पैसे कमाना मेरे लिए आवश्यक हो गया था। एक बार तो किसी खबरी की सूचना पर मेरे घर सीबीआई की रेड पड़ते-पड़ते रह गयी थी। किसी तरह पैसे भर कर मैंने वह केस दबवा दिया था। हां, अपने चरित्र को मैंने संयम की चाबुक से साध कर रखा था। 

खैर, रामकिशन से मैं क्या कहता। सुनयना ने मुझसे फोन पर कहा था कि वह मेरी प्रतीक्षा करेगी। फोन पर उसका स्वर सुन कर मैं मन ही मन बौरा सा गया था। यादों का एक सैलाब सा उमड़ आया था मेरे भीतर। बचपन की यादें, कैशोर्य की यादें, बीच के बीत गए इतने बरस जैसे कहीं खो गए थे।

अगले दिन रामकिशन ने ड्राइवर को सुनयना के घर का रास्ता समझा दिया था। वैसे ब्याह का कार्ड भी मेरे हाथ में था। गलियों में ढूंढ़ते हुए जिस जगह ड्राइवर ने गाड़ी रोकी, वह एक छोटा सा घर था। छोटी-छोटी लाइट्स लगी थीं, जिससे पता चल रहा था कि इस घर में शादी है। कुछ लोग दालान में बैठे थे। मेरी बड़ी सी गाड़ी देख कर और मुझे इस जगह से अपरिचित समझ कर एक वृद्ध सज्जन बाहर आए, ‘‘कहिए, किससे मिलना है आपको,’’ उन्होंने पूछा।

‘‘सुनयना, सुनयना पांडे, उन्हीं की बेटी की शादी है ना,’’ मैं कुछ-कुछ असहज सा होने लगा था। समझ नहीं आ रहा था कि क्या परिचय दूं अपना।

‘‘अरे तुम ज्ञान हो ना। सक्सेना जी के बेटे,’’ वे वृद्ध सज्जन मुझे पहचान चुके थे, ‘‘मैं पांडे चाचा हूं बेटा, सुनयना का पिता,’’ वे एकदम से खुश हो गए। सच, इतने बरसों में वे कितने वृद्ध हो गए थे। नहीं बदली थी, तो केवल उनकी अतर चाल।

‘‘अच्छा किया बेटा, तुम आए,’’ वे मुझे कंधे से पकड़ कर घर के भीतर ले गए, ‘‘असल में ब्याह तो धर्मशाला से है बेटा, पास ही में है। चाय-नाश्ता कर लो, तब मैं तुम्हें वहां ले चलता हूं।’’

धर्मशाला पहुंच कर मैं एक अपरिचय के भाव से घिर सा गया था। अपने ऊंचे ओहदे के कारण मेरा उठना-बैठना एलीट क्लास में होता रहा था। इस तरह के आयोजनों से मेरा दूर-दूर तक वास्ता नहीं था। मैं मन ही मन स्वयं को कोसने लगा कि क्यों यहां आया। धर्मशाला के मुख्य द्वार से हम अंदर की तरफ जाने लगे। आंगन पार के किसी कमरे से ढोलक की थाप पर विवाह गीतों की स्वर लहरी आ रही थी। मेरा दिलधक धक कर रहा था। बीते समय की महक मानों रोम-रोम में बस गयी थी। मेरे भीतर अतीत का चेहरा उतर आया था, जिसमें सुनयना बसी थी। मोहक, नाजुक, मदिर मधुर।

‘‘सुनैना, सुनैना, देखो कौन आया है,’’ पांडे चाचा ने आवाज दी। बगल के कमरे में किसी का बच्चा रोया। ढोलक की थाप रुक गयी थी। सामने के दरवाजे से एक स्थूलकाय महिला निकल कर बाहर आयी। अधखिचड़ी बाल, बेतरतीब साड़ी, बेरौनक चेहरा। कौन थी वह।

‘‘बेटा, पहचाना नहीं, ये सुनैना है, ‘‘पांडे अंकल ने उसकी तरफ इशारा और सुनयना से बोले, ‘‘और ये ज्ञान है।’’

‘‘अरे, आप तो जरा भी नहीं बदले,’’ सुनयना अपनी स्थूल काया संभालते हुए आगे बढ़ी। उसका फटा स्वर सुन कर मैं हतप्रभ था। कौन थी यह। परेशान, पस्त चेहरा, रूखी निस्तेज आंखें, सूखे होंठ, झुर्रियां पड़े हाथ। देह के आरोह-अवरोह सब गायब थे। क्या यह वही सुनयना थी, जिसके लिए मैंने कभी ‘बंगाल का जादू’ की उपमा दी थी। जिसके लिए मैंने जाने कितने शेर इकट्ठा कर रखे थे कि मिलने पर उसे सुना सकूंगा। सुनयना, जो जीवन को गति, लय, सुर और ताल के साथ जीना चाहती थी, वह सुनयना इतनी बेसुरी और बियाबान कैसे हो गयी थी। मैं घबरा उठा था उसे देख कर। सुनयना को देख कर मुझे लगा ही नहीं कि मेरे प्रति उसके मन में कोई कोमल भावना शेष बची थी। उसने बेटी के ब्याह का निमंत्रण भी संभवतः मुझे दुनियादारी निर्वाह करने के लिए यों ही दे दिया था। उसे उम्मीद भी नहीं रही होगी कि उसके एक निमंत्रण पर मैं ऐसे भागा चला आऊंगा। सचमुच, उसके चेहरे पर प्रतीक्षा या प्रसन्नता का कोई भाव नहीं था। अपनी घर-गृहस्थी को संभालते, संवारते हुए उसने अपने असमय बुढ़ापे को सहजता से स्वीकार कर लिया था।

मेरा सुकोमल अतीत मेरे सामने एक विकृत वर्तमान बन कर साक्षात खड़ा था। मुझे ऐसा लगा कि आसमान का रंग काला पड़ गया है। हर चीज ने अपना रंग, अपनी धुन, अपनी गंध, अपना स्वाद खो दिया है। कुछ पलों के लिए मुझे लगा कि मैं अपना मानसिक संतुलन खो बैठूंगा। किसी तरह वहां से विदा ले कर मैं वापस लौट रहा था, बिना कुछ गंवाए, सब कुछ गंवा कर। मेरे लिए यह मर्मांतक पीड़ा थी। मैं जिस सुनयना को जानता था, वह तो समय के गर्त में कहीं गुम हो चुकी थी। यह वो सुनयना थी ही नहीं। जी में आया कोई अपना पास होता, जिसके कंधे पर सिर रख कर मैं फूट-फूट कर रो लेता। आज मेरा शहर मेरे लिए सचमुच पराया हो गया था। समय क्या सभी के लिए इतना क्रूर, इतना निर्मम हो जाता है। क्यों, क्यों, क्यों। कहीं कोई जवाब नहीं था।

मेरे लिए दुनिया की सभी कविताएं शून्य में गुम हो गयी थीं। मैं अचानक ही बूढ़ा हो गया था। सिर के सारे बाल सफेद। रीढ़ झुक गयी थी। अपनी यादों से मुझे भय लग रहा था। एक अपरिचित कवि की परिचित सी पंक्तियां मेरे खंडित मन पर बार-बार दस्तक दे रही थीं-

बरसों के बाद कहीं, हम तुम यदि मिले कहीं

देखें कुछ परिचित से, लेकिन पहचाने ना।

बातें जो साथ हुईं, बातों के साथ गयीं,

आंखें जो मिली रहीं, उनको भी जाने ना।