Tuesday 19 April 2022 04:02 PM IST : By Savitri Rani

स्वाद दांपत्य का

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आज सुबह-सुबह किसी मामूली सी बात पर सावी का अपने पति अमित से झगड़ा हो गया। अमित तो सावी द्वारा तैयार किया हुआ नाश्ता खा कर और लंच बॉक्स ले कर ऑफिस चला गया, लेकिन सावी के दिमाग में उसकी कही बातें अभी भी घूम रही थीं। सारी समस्या क्रेडिट कार्ड के बिल को ले कर शुरू हुई थी। बिल की राशि देख कर अमित का माथा ठनका था और फिर सावी के सफाई देने पर वह भड़क गया था। उसका यह कहना कि, ‘‘तुम पैसा नहीं कमातीं, पैसा मैं कमाता हूं, इसलिए मुझे पता है कि पैसे कैसे कमाए जाते हैं,’’ सावी के दिल को कहीं अंदर तक हर्ट कर गया था। ऐसा आज पहली बार नहीं हुआ था। पहले भी कई बार उसे पैसे कमाने का ताना दे चुका था।

आज भी सावी को वह दिन याद है, जब वह पहली बार मां बनी थी। पूरा परिवार बच्चे के आने से खुश था। सास-ननद बच्चे की बलैयां लेते नहीं थक रही थीं, लेकिन जब घर संभालने और बच्चे की परवरिश की बात आयी, तो सभी नजरें सावी की ओर ही उठी थीं। सावी से कहा गया था कि नौकरी से 2-3 साल का ब्रेक ले लो, उसके बाद बच्चा बड़ा हो जाएगा और तुम वापस अपनी जॉब शुरू कर लेना।

लेकिन वह दिन फिर कभी नहीं आया। पहले बच्चे के कुछ साल बाद दूसरा बच्चा और फिर घर-परिवार की कभी ना खत्म होनेवाली जिम्मेदारियों ने कभी सावी को अपनी प्रोफेशनल लाइफ में वापस लौटने का मौका ही नहीं दिया।

पच्चीस साल की शादी में सास-ससुर, ननद-देवर से भरे परिवार से ले कर अपने बच्चों को पालने-पोसने तक, क्या-क्या नहीं संभाला, क्या-क्या नहीं संवारा था सावी ने। लेकिन उसकी सहनशक्ति आज जवाब दे गयी थी। वह सावी, जो बड़ी से बड़ी बातों को भी आसानी से नजरअंदाज करती आयी थी, उसे आज अमित की यह बात बर्दाश्त नहीं हो रही थी। हमेशा बच्चों, पति और उसके परिवार के बारे में सोचनेवाली सावी आज अपने बारे में सोच बैठी थी।

‘हमेशा मैं ही क्यों झुकूं, मैं ही क्यों समझौता करूं? कभी अमित को भी तो मेरा नजरिया समझना चाहिए। कभी तो उसे भी मेरे जूते में पांव डाल कर देखना चाहिए,’ सावी का स्वयं से संवाद लगातार चल रहा था।

‘झगड़े की वजह तो हमेशा एक ही होती है कि वह सही है और मैं गलत हूं, सो इस बार भी थी। मुझे यह तो नहीं कहना कि किस बार कौन गलत था और किस बार कौन सही। लेकिन यह कैसा संबंध है, जिसमें कोई भी सही हो, या कोई भी गलत, सजा दोनों को ही मिलती है। परिणाम एक ही होता है, दोनों का मूड खराब, घर का माहौल खराब और एक लंबी जानलेवा चुप्पी। पति-पत्नी के संबंधों का समीकरण भी कितना निराला है। इसमें माइनस-माइनस भी माइनस होता है माइनस-प्लस भी माइनस।’

उम्र के 50वें पायदान पर खड़ी सावी को कनाडा में रहते हुए करीब 15 साल हो चले थे। अपनी शादीशुदा जिंदगी के पहले 10 साल इंडिया में अमित के परिवार के साथ रहने के बाद वह अमित की नौकरी के चलते यहां आयी थी। अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देने और अपनी घर-गृहस्थी की अनेक जिम्मेदारियों को निभाते हुए उसने अपने हर पौधे के लिए खुद को खाद बनाया था। अब थकते अरमान और ढलती उम्र जब उन दिनों और सालों का हिसाब मांगती, तो कभी-कभी वह अपने को बहुत असहाय सा महसूस करती थी।

आज सावी का सब्र टूट गया था और वह अकेले बड़बड़ाए जा रही थी, ‘‘सुना था कि जिंदगी तलवार की धार पर चलने का नाम है। एक गलती और सब खत्म। लेकिन वह गलती है भी या नहीं, इसका निर्णय कौन करेगा? हो सकता है कि जज वही हो, जिसकी गलती थी। जिसने सारे एफर्ट्स डाले हों, हर काम को परफेक्शन से किया हो, जज साहब गलती उसी की निकालें और इस गलती के लिए उसकी माफी भी ना कबूलें।’’

अपने सारे त्याग आज उसे एक-एक करके याद आ रहे थे। सावी के सब्र का बांध जो टूटा, तो जैसे आत्मजागृति का पानी रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, ‘कौन कहता है कि मौत से बड़ी कोई सजा नहीं होती। होती है नाÑहैंग बट नॉट लेट डाई। यह अनुभव हर उस औरत से पूछो, जो घर बसा कर बैठी है। जो अपने घर को बिगड़ने नहीं देना चाहती। जो अपने घर और परिवार के लिए दी गयी कुर्बानियों की लिस्ट भी जारी नहीं करना चाहती। जो हर रोज पैसा कमानेवालों की धौंस सहते हुए कभी खुद को भी यह याद नहीं दिलाना चाहती कि यदि इस घर-परिवार को बनाने और संवारने में उसने अपनी काबिलियत और अपनी जान को ख्वार ना किया होता, तो पैसा तो वह भी कमा सकती थी। जो औरत चौबीस घंटे की ड्यूटी तमाम उम्र कर सकती है, वह भी बिना किसी वीकली ऑफ के, उसके लिए आठ घंटे की ड्यूटी भला क्या मुश्किल थी।’

आज जैसे सावी के दिल के सारे फफोले रिसने लगे थे। वह खुद ही से पूछ रही थी, ‘लेकिन इन बातों का अब क्या फायदा। जिंदगी वन डे क्रिकेट की तरह वन इनिंग का गेम है। एक इनिंग की गलती सुधारने को दूसरी इनिंग नहीं होती। जिंदगी की संध्या में अब सारी उम्र के बलिदानों को गिनवाने का भी क्या फायदा। जिंदगी एक सीरीज है, सर्कल नहीं, जो लौट कर वहीं वापस आता हो।’’

‘लेकिन अब किया क्या जाए?’

‘अगर किसी को तुमसे जो भी काम लेना था, वह ले चुका, फिर उसके लिए तो तुम अनुपयोगी हो गए ना? अगर उसके उपयोग में आते-आते तुम्हारी सारी जवानी और ताकत फना हो गयी, तो हो गयी। उस व्यक्ति ने तो अपने सारे एफर्ट्स, पोजिशन और पैसा बनाने में लगाए,प्रॉपर्टी बनायी और अपने आज के साथ अपना कल भी सुरक्षित किया।’

एक लंबी सांस ले कर सावी फिर बड़बड़ायी, ‘‘लेकिन वह औरत अब क्या करे, जिसने अपनी सारी ताकत, सारी काबिलियत इस व्यक्ति के परिवार, उसके मां-बाप, भाई-बहन और बच्चों की जिम्मेदारियों को निभाने में लगा दी। इस सबकी तो कोई मटीरियलिस्टिक वैल्यू नहीं है ना? तुमसे एक काम चाहा गया, तुमने कर दिया, बात खत्म। अब इस बात का क्या मतलब रह जाता है कि वह काम कितना मुश्किल था या कितनी अटेंशन चाहता था।’’

अब तक गुस्से का गुबार थोड़ा बैठ गया था, लेकिन दिमागी उठापटक जारी थी। अपनी हस्ती का जैसे आज सावी खुद ही मूल्यांकन कर रही थी। वह अमित की नजरों में कहां स्टैंड करती है? यह बात वह बैठ कर शांति से सोचना चाहती थी। क्या उनका यह रिश्ता अपनी स्ट्रेंथ खो रहा था? क्या अब अमित उसे प्यार नहीं करता? इन सवालों के जवाब वह खुद ही में खोजना चाहती थी। लेकिन दिल के बुलबुले अभी तक उफन रहे थे, ‘हर इंसान जानता है कि किसी पेड़ का वजू़द ही नहीं होता, अगर किसी ने अपनी हस्ती को मिटा कर उसके लिए खुद को खाद ना बनाया होता। उसे आंधी-तूफान से बचा कर प्यार और देखभाल का जल ना दिया होता। लेकिन एक बार अपनी शक्ति को पा लिया, तो फिर कौन सा प्यार, कैसा जल?’

‘आज जो पति इस पोजिशन पर पहुंचे हैं, जहां वे अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं और अपने आज को भी एंजॉय कर सकते हैं, वे उन सहारों को कितनी आसानी से भूल जाते हैं, जो कल उनके लिए मजबूत संबल बने थे। जब वे अपने पंख पसारने को घरों से बाहर निकले थे, तो कोई था जो घर में उनकी जड़ों को थामे बैठा था। कोई था, जो उनकी नन्ही फुलवारी को अपने आंचल में समेटे हर आंधी-तूफान को अपने ऊपर ले रहा था। कोई था, जो उन्हें उनके नए क्षितिज तलाशने में अपना मूक सपोर्ट हर तरफ से पहुंचा रहा था।’

लेकिन अब क्या?

कल का मजबूत सहारा अब खुद सहारा चाहता है। ऐसा एक्स्ट्रा लगेज भला कोई क्यों ढोए? पहली फुरसत में उससे छुटकारा पाना तो बनता ही है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि उस लगेज का कोई सहारा है भी या नहीं? यह समर्थ का सिर दर्द थोड़े ही है। हर एक इंसान को अपना आगा-पीछा सोचना चाहिए था। बड़ी बेवकूफ औरत है। कुछ भी नहीं कमाया, कुछ भी नहीं बचाया भविष्य के लिए।

यह कहानी सावी को हर उस गृहिणी की लग रही थी, जिसने पैसा कमाना जरूरी नहीं समझा और एक बहुत बड़े प्रश्नचिह्न पर आ कर रुकती है कि क्या एक औरत को अपनी फैमिली को, अपने कैरिअर पर तरजीह देनी चाहिए?

सावी अपनी गिले-शिकवों की तहरीरों में गले तक डूबी थी, तभी उसका फोन बजा और वह अचानक जैसे सपने से जागी और फोन उठा कर बोली, ‘‘हेलो।’’

‘‘हाय, मैं लक्ष्मी...’’

‘‘ओह हां, हाय लक्ष्मी। कैसी है तू?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं, पर तुझे क्या हुआ? इतनी बुझी-बुझी क्यों साउंड कर रही है?’’ सावी की आवाज की उदासी ने उसे बता दिया कि कहीं तो गड़बड़ है। 

‘‘तू क्या कर रही है?’’ सावी ने पूछा।

‘‘कुछ नहीं, तू बोल।’’ 

‘‘तो फिर ठीक है, एक घंटे में विजया को ले कर अपने फेवरेट कैफे में पहुंच। हम वहीं मिल कर बात करते हैं।’’ 

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‘‘वो तो ठीक है, पर हुआ क्या है?’’

‘‘मिल कर बताती हूं,’’ कह कर सावी ने फोन रख दिया।

सावी, विजया और लक्ष्मी तीनों बहुत अच्छी दोस्त थीं। सावी दिल्ली से, लक्ष्मी कर्नाटक से और विजया हैदराबाद से थी। ये तीनों अलग-अलग शहरों से करीब-करीब एक समय कनाडा पहुंची थीं। इनकी दोस्ती जिस शहर में गरमायी, वह था कनाडा के सबसे ठंडे शहरों में एक एडमिंटन। तीनों के घर आसपास थे, तीनों की बेटियां एक ही उम्र की थीं और एक ही स्कूल में पढ़ती थीं। बच्चों की दोस्ती की वजह से ही ये तीनों मिली थीं और फिर अकसर मिलने लगी थीं, कभी बच्चों के स्कूल प्रोजेक्ट के बहाने, कभी शाम की सैर के बहाने, तो कभी रेसिपी एक्सचेंज करने के बहाने।

तीनों ही अपने दोस्त, अपना परिवार सब पीछे छोड़ कर आयी थीं। उसी खाली स्थान को भरते-भरते जाने कब ये तीनों एक-दूसरे के लिए दोस्त और परिवार सभी कुछ बन गयी थीं। जाने-अनजाने तीनों ने ही यह समझ लिया था कि वे एक-दूसरे को वही दे रही हैं, जो उससे चाहती हैं। बिना कुछ मांगे, बिना कुछ कहे यह तिगड़ी इतनी प्यारी बन गयी थी कि ठंडी वादियों की बर्फीली राहें भी अब उन्हें मखमली सी लगने लगी थीं। ये तीनों एक-दूसरे से हर समस्या शेअर करती थीं।

धीरे-धीरे तीनों के बच्चे बड़े हो गए थे और अपने-अपने घोंसलों से निकल कर विभिन्न शहरों की यूनिवर्सिटीज के आकाश पर अपने पंख पसारने निकल गए थे। तीनों के पति पहले से ही बिजी थे, लेकिन ये तीनों सहेलियां एक-दूसरे के खालीपन को भरने का माध्यम यों ही बनी रहीं। सावी को ड्राइविंग आती थी, लेकिन रास्ते कभी याद ना रहते, तो लक्ष्मी रास्तों के मामले में पूरी जीपीएस थी, लेकिन गाड़ी के स्टेयरिंग को छूते ही उसके हाथ-पांव फूल जाते।

एडमिंटन में जून से अगस्त तक ही सुहाना मौसम होता था। बाकी सारे साल तो सरदी के ही रंग देखने को मिलते थे। जुलाई का महीना था। मौसम काफी अच्छा था और वीकेंड के प्लांस बनाते-बनाते ही सावी का अमित से झगड़ा हो गया था।
सावी जल्दी-जल्दी तैयार हो कर अपने फेवरेट कैफे में पहुंची। विजया और लक्ष्मी वहां पहले से मौजूद थीं। सावी के पहुंचते ही उन्होंने उसकी पसंद की कॉफी का ऑर्डर दिया और सावी की ओर चिंतित नजरों से देखते हुए लक्ष्मी बोली, ‘‘हां तो अब बता, बात क्या है?’’

‘‘अच्छा, पहले तुम दोनों मुझे एक बात बताओ। विजया, तू हमेशा से नौकरी करती आयी है और लक्ष्मी, तूने कुछ साल नौकरी की और फिर तेरी नौकरी छूट गयी। मैंने तो यहां आ कर कभी नौकरी की ही नहीं। तो अब तुम दोनों मुझे यह बताओ कि क्या यहां कनाडा में ऑफिस का काम घर की जिम्मेदारियों से ज्यादा मुश्किल होता है? यानी क्या यहां पैसा कमाना ज्यादा मुश्किल काम है? जबकि यहां हम हाउसवाइव्स भी पूरी गृहस्थी बिना किसी मेड या ड्राइवर के ही चलाती हैं।’’

‘‘ऐसा क्यों पूछ रही है तू आज?’’ विजया ने स्थिति को समझने की कोशिश करते हुए पूछा।

‘‘क्योंकि मैं जब भी अमित से घर के किसी काम में मदद मांगती हूं, तो उसका एक ही जवाब होता है कि ऑफिस से थक कर आया हूं। वीकेंड में बोलो, तो कहेगा कि वीकेंड ही तो मिलता है आराम करने को और आज उसने मुझे पैसा कमाने की धौंस फिर से दिखायी,’’ सावी का जवाब था।

‘‘हुआ क्या है, कुछ खुल कर बता ना? आज इतना क्या ज्ञान बखान रही है?’’ लक्ष्मी ने पूछा।

‘‘कुछ खास नहीं यार, लेकिन खास है भी,’’ सावी ने दोनों की ओर देख कर बोला, ‘‘असल में आज मेरा सुबह-सुबह अमित से झगड़ा हो गया। तब से एक ही बात मेरे दिलोदिमाग में घूम रही है।’’

‘‘वह क्या? लक्ष्मी ने थोड़ा आगे झुक कर पूछा।

‘‘वह यह कि मैंने कहीं पढ़ा था कि मर्दों का सोचने-समझने का तरीका ज्यादातर औरतों से फर्क होता है। पर क्या सभी मर्द समान स्थिति में एक जैसा ही रिएक्ट करते हैं या सिर्फ मेरा अमित ही सबसे निराला है? यार, अगर हर आदमी के नसीब में एक ही औरत और हर औरत के नसीब में एक ही आदमी लिखा है, तो फिर वे दोनों यह कैसे जान पाएंगे कि जो उन्हें मिला है, वही बेस्ट है? या फिर जो उनके बीच में हो रहा है, वही नॉर्मल है?’’

‘‘तू कहना क्या चाहती है?’’ लक्ष्मी ने पूछा। 

‘‘तो कहना यह है कि आज हम यहां तीन फ्रेंड्स नहीं, तीन औरतें मिल रही हैं, जो तीन मर्दों के बारे में बातें करेंगी,’’ सावी ने कहा। 

‘‘कैसी बातें?’’ विजया की उत्सुकता जागी।

‘‘तो विजया पहले तू बता, क्या तेरा दीप घर के कामों में तेरी मदद करता है? क्या वह पैसे कमाने की अकड़ दिखाता है?’’ सावी ने पहला सवाल रखा।

‘‘हां यार, दीप घर के कामों में मेरी मदद करता है। फिर हम दोनों ही जॉब करते हैं, तो बिना उसकी मदद के घर चलाना मुश्किल भी है। लेकिन उसने हर एक के काम बांट रखे हैं। अपने हिस्से के काम करने के बाद का वक्त उसका अपना होता है। उसमें वह जो चाहता है वह कर सकता है। तो वह या तो गोल्फ खेलता है या फिर नेट सर्फिंग करता है। हम दोनों अपना-अपना खाली टाइम ज्यादातर अलग-अलग ही बिताते हैं। दीप के साथ खाली वक्त बिताने की हसरत में मुझे कई बार बहुत अकेलापन महसूस होता है। रही बात पैसा कमाने की, तो मैं तो वर्किंग हूं। अपने पैसे खुद कमाती हूं,’’ विजया के जवाब में कोई उत्साह नहीं था। 

‘‘लक्ष्मी, तेरा क्या हाल है?’’ सावी ने पूछा।

‘‘यार, मेरा वाला तो इस मामले में पक्का मर्द है। तीन बहनों का अकेला भाई होने के कारण उसे तो यह बात घुट्टी में ही पिलायी गयी है कि मर्द घर का काम नहीं करते, इसलिए घर के काम तो उससे कोई नहीं करवा सकता। फिर घर के हर अहम फैसले में भी उसी का ज्यादा दखल रहता है। हां, लेकिन बाहर के सारे काम वह पूरी जिम्मेदारी से करता है। फिर वह घर का अकेला कमाने वाला है, तो सारी आर्थिक जिम्मेदारी भी उसी के कंधों पर है। तू तो जानती ही है कि यहां आने के कुछ साल बाद ही मेरी जॉब चली गयी थी। फिर कभी मिली ही नहीं। थैंक्स टू रिसेशन,’’ लक्ष्मी ने होंठ बिचका कर कहा। 

‘‘हूं,’’ इन दोनों की कहानी सुन कर सावी सोच में पड़ गयी। उसका सारा गुस्सा तो पहले काफूर हो चुका था। अब उसकी सोच का स्टेयरिंग दूसरी तरफ घूमा। वह सोचने लगी, ‘मैं भी ना आम और अंगूर की तुलना करने चली थी। गलती शायद कहीं मेरी भी थी। अगर अमित ने कहा कि वह पैसे कमाता है, तो यह तो ठीक ही कहा था ना उसने, पैसे तो वही कमाता है। फिर मैं भी तो कहती हूं ना कि खाना मैं बनाती हूं या घर और बच्चों को मैं संभालती हूं, तब अमित तो इस बात पर गुस्सा नहीं होता।’

‘इंसान तो इंसान होता है, औरत या मर्द नहीं। समान परिस्थिति में भी हर इंसान अलग-तरह से रिएक्ट करता है। हर एक का अपना तरीका होता है, जो उसके हिसाब से सही होता है, क्योंकि वह उसी के तजुर्बों की देन होता है। तो फिर गलत-सही तो सिर्फ नजरिए का फर्क हुआ ना?’
अब सावी का भ्रम मिट रहा था। उसे लग रहा था कि उसका अमित तो कुछ-कुछ इन दोनों के पतियों के मिश्रण जैसा है। लेकिन उनकी अच्छी बातों का मिश्रण। जब वह घर में होता, तो किचन में बातें करते-करते उसके साथ किचन का छोटा-मोटा काम भी करवा देता है और फिर उसकी मजेदार बातों में काम, काम ही नहीं लगता।

उसके दिमाग से गुस्से के बादल छंटे, तो सब साफ-साफ दिखायी देने लगा। उसने सोचा, ‘हम दोनों तो अपना सारा खाली समय साथ में बिताते हैं और खूब एंजॉय करते हैं। अमित के होते हुए बोर होने का तो सवाल ही नहीं उठता। उसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह मुझे और बच्चों को बहुत प्यार करता है और किसी भी अन्य रिश्ते को कभी हमारे बीच नहीं आने देता,’ यही सब सोचते हुए सावी ने खुद को एक चपत लगायी और मन ही मन बुदबुदायी, ‘मैं भी ना, कभी-कभी राई का पहाड़ बना लेती हूं,’ और कॉफी खत्म कर उठते हुए बोली, ‘‘चलो यार, काफी वक्त हो गया है।’’

‘‘अरे, लेकिन असल में हुआ क्या था और डिसाइड क्या हुआ, वह तो बता,’’ विजया ने टोका।

‘‘वह फिर कभी बताती हूं, अभी तो मुझे घर जा कर अमित की पसंद का डिनर बनाना है।’’

‘‘उसी अमित की पसंद का ना, जिसने तुझसे सुबह झगड़ा किया था?’’ लक्ष्मी ने मुस्करा कर चुटकी ली।

‘‘हां, हां, ठीक है ना, होता है कभी-कभी,’’ सावी ने झेंपते हुए कहा।

शाम को जब अमित घर आया, तो सावी ने उसकी पसंदीदा ड्रेस पहन कर मुस्कराते हुए दरवाजा खोला। अमित ने सावी के फेवरेट पीले गुलाबों का एक बड़ा सा बुके उसे थमाते हुए गले से लगा लिया और आंखों में ढेर सा प्यार भर कर बोला, ‘‘सॉरी यार, मैं सुबह कुछ ज्यादा ही रूड हो गया था। वह असल में ऑफिस की कुछ टेंशन थी। लेकिन आगे से ऐसा नहीं होगा, पक्का। एंड आई लव यू ऑलवेज।’’

‘‘लव यू टू हमेशा,’’ कहते हुए सावी उसके गले लग गयी और सोचने लगी कि मेरी दादी ठीक ही कहती थीं, ‘‘मियां-बीवी की लड़ाई, जैसे दूध की मलाई। कब आए, कब खाए। कोई जान ना पाए।’’