Monday 12 October 2020 11:17 AM IST : By Aarti Priyadarshini

पिघलता दर्पण (भाग- 1)

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‘‘वाह कितनी ताजी हवा है... और यह बेला के फूलों की खुशबू... नीचे जाने का मन ही नहीं कर रहा।’’

‘‘हां... कल रात हल्की बारिश होने से मौसम बिलकुल सुहावना हो गया है। भीगी हुई कलियां अभी-अभी प्रस्फुटित हो रही हैं, जिनकी खुशबू से हमारी मैडम प्रफुल्लित हो गयी हैं।’’

‘‘अब यह अपने न्यूज रीडर वाले डायलॉग चैनल पर जा कर बोलना। पहले तो नीचे चलो किचन अरेंज करने में मदद करो, वरना नाश्ता नहीं बनेगा और फिर से तुम्हें इडली और नारियल की चटनी खानी पड़ेगी।’’

‘‘ना बाबा ना ! यह इडली और नारियल की चटनी इन चेन्नईवासियों को ही मुबारक हो। मुझे तो आज तुम्हारे हाथों के गरमागरम आलू-परांठे खाने हैं, वह भी अदरक-लहसुन की चटनी के साथ,’’ इतना कहने के साथ ही मैंने निशा का हाथ पकड़ते हुए नीचे चलने का इशारा किया।

‘‘अरे शोभित रुको। यह देखो क्या है। इतना बड़ा सा आईना यहां क्यों रखा है?’’ निशा ने अचकचाते हुए कहा, तो मैंने भी छत के ऊपर देखा। एक पुरानी सीमेंट की बनी हुई पानी की टंकी थी, उसी के ऊपर एक बहुत बड़ा सा आईना तिरछा करके एक स्टैंड के सहारे रखा हुआ था। जब हम यहां आए थे, तो हमारी नजर नहीं पड़ी थी। मगर अब जब सूरज की किरणें उस पर परावर्तित हो रही हैं, तो उसकी चमक ने निशा का ध्यान आकर्षित किया।

‘‘एेसा तो आमतौर पर वहां लगाया जाता है, जहां सोलर पैनल बना होता है। परंतु यह तो आईने जैसा है और हमारे घर में तो बिजली की पूरी वायरिंग है और पानी भी म्युनिसिपलिटी का सप्लाई होता है। रुको, मैं आज ही लैंडलॉर्ड से पूछता हूं इसके बारे में,’’ मैंने निशा को आश्वस्त किया।

लेकिन हम लोग नीचे जा कर काम में व्यस्त हो गए और आईना हमारे दिमाग से निकल गया। मैं पिछले 2 वर्षों से मुंबई के न्यूज चैनल में काम करता था। जब उसकी चेन्नई ब्रांच में अंग्रेजी न्यूज रीडर के लिए मेरा ट्रांसफर हुआ, तो निशा बहुत दुखी हो गयी थी।

‘‘वहां का रहनसहन, खानपान, बोली, भाषा सब कुछ अलग है शोभित... मैं कैसे एडजस्ट करूंगी। आन्या भी अभी छोटी है, ऊपर से सालभर गरमी का मौसम...’’

‘‘चिंता मत करो, कंपनी हमें वहां रहने को घर देगी। मैं पहले ही कह दूंगा कि जहां उत्तर भारतीय ज्यादा रहते हों वहीं पर घर दें और वह भी समंदर से काफी दूर,’’ मैंने निशा को समझाने की कोशिश की।

मैं जानता था निशा चेन्नई क्यों नहीं जाना चाहती। एक तो शुद्ध शाकाहारी निशा को मछली की महक बिलकुल पसंद नहीं। ऊपर से 2004 में आयी सुनामी में उसका बड़ा भाई जो चेन्नई में ही काम करता था, लापता हो गया। इसलिए उसके मन में समुद्र के नाम से ही दहशत हो गयी थी।

यह जगह चेन्नई के पैराम्बूर इलाके में थी, जो समंदर से काफी दूर है। मेरा दफ्तर चेन्नई सेंट्रल के पास है, जो यहां से काफी दूर है। मगर मैंने निशा की खुशी के लिए हामी भर दी थी। मुझे हर रोज लोकल ट्रेन की सवारी करना मंजूर था, मगर निशा की सहूलियत ज्यादा जरूरी थी। पैराम्बूर में महानगर की भीड़भाड़ नहीं है। जो घर हमें दिया गया था वह काफी पुराना था, मगर मकान मालिक ने हमारे आने से पहले रंगरोगन और साफ-सफाई करवा दी थी। पड़ोसी भी हिंदी भाषी क्षेत्रों के ही थे। आसपास हरियाली भी थी। यानी कुल मिला कर निशा के मन मुताबिक जगह थी।

‘‘अरे ! बैठे-बैठे क्या सोचने लगे। नाश्ता तैयार है, तुम नाश्ता करो तब तक मैं आन्या को नहला देती हूं।’’

निशा आन्या को नहलाने की तैयारी करने लगी और मैं नाश्ता करते-करते सोशल मीडिया की सैर करने लगा। लेकिन इन्हीं सब के बीच मैं लैंडलॉर्ड को फोन करके शीशे के बारे में पूछने की बात भूल गया।

दो-तीन दिनों में घर का सामान भी पूरी तरह व्यवस्थित हो गया। आजकल यहां लगभग हर रोज बारिश हो रही थी, इसलिए मौसम भी खुशनुमा बना हुआ था।

एक दिन तड़के ही निशा की चीख से मेरी नींद खुल गयी।

‘‘शोभित-शोभित जल्दी उठो। आन्या बिस्तर पर नहीं है।’’

‘‘यहीं कहीं होगी। ध्यान से देखो। तुम्हारे पीछे-पीछे निकल गयी होगी।’’

‘‘जब मैं उठी, तो वह तुम्हारे बगल में ही सो रही थी। अभी जब मैं बाथरूम से हो कर आयी, तो वह यहां नहीं थी,’’ निशा की आंखों में आंसू आ गए थे।

‘‘छत पर देखा तुमने?’’

‘‘शोभित, आन्या ढाई साल की बच्ची है। वह छत पर अकेली कैसे जा सकती है !’’

निशा ठीक ही कह रही थी, फिर भी मैं छत पर चला गया। पीछे-पीछे निशा भी आ गयी। लेकिन आन्या वहां भी नहीं थी। हम दोनों ने पुकारा भी मगर कोई आवाज नहीं आयी। उतरते वक्त फिर से मेरी नजर उस चमकदार शीशे पर पड़ी। अभी मैं मन ही मन कुछ सोचने की कोशिश कर ही रहा था कि अचानक आन्या की आवाज सुनायी दी। और हम दोनों धड़धड़ाते हुए सीढि़यों से नीचे उतर आए। नीचे आ कर देखा, तो आन्या कपड़ों की अलमारी के पास बैठी कपड़ों से खेल रही थी।

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‘‘अरे यह यहां कैसे आ गयी। अभी तो मैं ढूंढ़ कर गयी थी, लेकिन आन्या तो यहां नहीं थी,’’ निशा आश्चर्यचकित हो रही थी।

‘‘अरे, यह तुम्हारे साथ लुका-छुपी खेल रही थी,’’ मैंने आन्या को गोद में उठाते हुए कहा। आश्चर्य तो मुझे भी हो रहा था, मगर आन्या मिल गयी थी, इसलिए मैं कुछ और नहीं सोचना चाहता था।

इस घटना के बाद निशा अब एक पल के लिए भी आन्या को अकेला नहीं छोड़ती थी। रविवार को मेरी छुट्टी रहती थी। इसलिए मैंने सोचा कि क्यों ना पड़ोसियों से थोड़ी जान-पहचान कर ली जाए, ताकि निशा और आन्या का मन लगा रहे।

हमारे घर के दाहिने तरफ तो एक बड़ा सा बगीचा था, जहां लोग टहलते थे। बाईं तरफ कई घर थे। सबसे नजदीक में एक गुजराती परिवार रहता था, जिग्नेश भाई का। हम लोग जब उनके घर गए, तो उन्होंने बहुत ही अच्छे से हमारी आवभगत की। आन्या तो 5 मिनट में ही जिग्नेश भाई और उनकी पत्नी से घुलमिल गयी। वे लोग पिछले 10 वर्षों से यहां रह रहे थे। उनका एक ही बेटा है, जाे अपने परिवार के साथ दुबई में रहता है। बातों-बातों में मैंने जिग्नेश भाई से आन्या के गायब होने और मिल जाने की बात कही, तो उनके चेहरे पर कुछ सिलवटें आ गयीं, ‘‘चलो अच्छा हुआ कि आन्या गायब हो कर फिर से मिल गयी। मिस्टर गुप्ता और उनकी पत्नी तो आज तक नहीं मिले।’’

‘‘मतलब... मैं कुछ समझा नहीं,’’ मैंने आश्चर्यचकित हो कर जिग्नेश भाई से पूछा।

‘‘10 साल पहले जब मैं यहां आया था, तो उस घर में गुप्ता जी और उनकी पत्नी रहते थे। मुझे यहां आए हुए 10-15 दिन ही हुए थे कि अचानक वे घर से गायब हो गए। कहां गए? क्या हुआ? किसी को नहीं पता चला।’’

‘‘हो सकता है कि वे लोग कहीं दूसरी जगह रहने चले गए हों...’’

‘‘अगर वे लोग कहीं दूसरी जगह रहने जाते, तो घर का सामान ले कर और घर में ताला लगा कर जाते। दो-तीन दिन बाद किसी ने मकान मालिक को खबर कर दी, तो उसने आ कर सारा सामान गाड़ी में रखवा कर कहीं भिजवा दिया और घर को बंद कर दिया। उसके बाद अब आप लोग आए हैं।’’

जिग्नेश भाई के चेहरे से लग रहा था कि उस घटना ने इन्हें बहुत प्रभावित किया है। वह तो अच्छा हुआ, कि निशा जिग्नेश भाई की पत्नी के साथ अंदरवाले कमरे में थी, वरना यह सब सुन कर तो वह बहुत परेशान हो जाती।

वैसे परेशान तो मैं भी हो गया था, मगर मेरा पेशा ही कुछ एेसा है कि इस तरह की बातों पर यकीन नहीं करने देता। मैं जानता हूं कि सुनीसुनायी बातों में सचाई कम और अफवाह ज्यादा होती है। फिर भी मैंने मकान मालिक से मिल कर इस सचाई का रहस्य जानने का फैसला कर लिया।

अगले दिन मैंने आधे दिन की छुट्टी ली, अॉफिस से अपने मकान मालिक का एड्रेस लिया और निकल पड़ा। मैंने निशा को कुछ भी नहीं बताया था। कैब बुक कर ली थी, इसलिए आसानी से मकान मालिक सिद्धार्थ के घर पहुंच गया, वरना यहां की गलियों के नाम का स्पष्ट उच्चारण मुझसे नहीं हो पाता था।
सिद्धार्थ मेरा ही हमउम्र था तथा उत्तर भारतीय था। मगर वह और उसके माता-पिता पिछले कई दशकों से चेन्नई में ही रह रहे थे।
मैंने जब उससे जिग्नेश भाई की आशंका और आन्या के गायब होने की बात कही, तो उसने मुझे स्पष्ट कहा कि यह सब अफवाह है।

‘‘मैं तो पत्नी के साथ मास्को में रहता था। पिता जी की मृत्यु के बाद उनका कारोबार संभालने मुझे यहां आना पड़ा। वैसे एक बार पिता जी ने मुझे बताया था कि गुप्ता दंपती अचानक ही वहां से चले गए। वे निसंतान थे तथा किसी से ज्यादा बात भी नहीं करते थे। उनके स्थायी आवास पर भी जा कर पता किया, मगर वे वहां भी नहीं पहुंचे थे। एक बार पिता जी रामेश्वरम गए थे, तब संतों की एक टोली में गुप्ता दंपती को देखा था। वे दोनों ही अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में थे। उन्होंने पिता जी को भी नहीं पहचाना। पिता जी ने उन्हें वापस चेन्नई लाने का प्रयास भी किया, मगर उनके साथियों ने आपत्ति जतायी। पिता जी भी अकारण किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे, इसलिए गुप्ता दंपती को वापस लाने का विचार त्याग दिया।

‘‘बाद में पड़ोसियों ने घर के बारे में अफवाह फैलानी शुरू कर दी इसलिए पिता जी ने उसे बंद कर दिया। मैंने भारत आने के बाद कुछ कंपनियों से कॉन्टेक्ट करके अपने कई पुराने घरों को किराए पर लगा दिया है। और रही बात आन्या के गायब होने की, तो यह एक संयोग मात्र है। मेरी मानिए तो आप एक फुल टाइम मेड रख लीजिए। आप कहेंगे, तो मैं आपके लिए कोई हिंदी भाषी मेड ढूंढ़ दूंगा,’’ सिद्धार्थ ने धैर्यपूर्वक मेरे सभी सवालों का जवाब दिया।

‘‘अरे नहीं-नहीं... धन्यवाद। इसकी अभी कोई आवश्यकता नहीं है।’’

मुझे अच्छी तरह मालूम था कि निशा को अपनी बेटी के लिए या घर के कामों के लिए मेड रखना कतई पसंद नहीं है।

‘‘मैं एक बात और पूछना चाहता था आपसे...’’ अचानक मुझे कुछ याद आया, ‘‘हमारे घर के ऊपर जो एक बड़ा सा आईना लगा है वह क्या है, क्यों है,’’ मैंने सिद्धार्थ के किसी जवाब का इंतजार किए बगैर ही कई प्रश्न कर दिए।

‘‘इसके बारे में मैं ज्यादा तो नहीं जानता, बस इतना पता है कि बहुत सालों पहले मेरे पिता जी के एक वैज्ञानिक मित्र वहां रहते थे। उन्होंने ही वह शीशा वहां लगवाया था, हालांकि उसकी वजह से किसी तरह की कोई असुविधा ना होने के कारण उसे हटवाने का विचार ही नहीं आया। मगर आपको अगर कोई परेशानी हो, तो मैं उसे आज ही हटवा देता हूं। वैसे काफी बड़ा और भारी शीशा है। हटाने के चक्कर में टूट भी सकता है,’’ सिद्धार्थ की बातों में उसकी असुविधा स्पष्ट दिख रही थी।

‘‘नहीं-नहीं... हमें उससे कोई परेशानी नहीं है। मैं तो उत्सुकतावश पूछ बैठा।’’ मैं जानता था कि मेरे इस जवाब से सिद्धार्थ को कितनी तसल्ली मिली होगी।

‘‘वैसे आज आसपड़ोस में वह घर कन्नड्डी विडू के नाम से प्रसिद्ध है। मोहल्ले का एक पहचान बन गया है,’’ सिद्धार्थ ने मुझे आगे बताया।

‘‘कन्नड्डी विडू... क्या मतलब!’’ मैंने चौंकते हुए पूछा।

‘‘हां, हिंदी में शीशेवाला घर या शीश महल कह सकते हो,’’ सिद्धार्थ ने हंसते हुए कहा।

‘‘चलो अच्छा है, अब हम भी इसे शीश महल ही कहेंगे। शायद शहजादे सलीमवाली फीलिंग आ जाए,’’ मैंने भी हंसते हुए जवाब दिया।

घर आ कर मैंने सिद्धार्थ से मिलनेवाली बात निशा को बतायी। कन्नड्डी विडू वाली बात पर वह भी हंसे बिना ना रह सकी।

‘‘चलो कम से कम एक तमिल शब्द तो सीखा मैंने।’’

छतवाले शीशे की हकीकत जान कर निशा भी पूरी तरह आश्वस्त हो गयी, मगर मैंने उसे गुप्ता दंपतीवाली कहानी नहीं बतायी।

समय पंख लगा कर उड़ता जा रहा था। बारिश का माैसम समाप्त हो गया था। इसीलिए हम रविवार को आसपास में घूमने निकल जाते थे। आन्या भी पहले से ज्यादा स्वस्थ और खुशमिजाज हो गयी थी। शायद यहां की आबोहवा का असर था या निशा की देखरेख का। जिग्नेश भाई हमारे अच्छे पड़ोसी साबित हुए। सिद्धार्थ से भी मेरी गहरी दाेस्ती हो गयी थी। एक-दो बार वह हमारे घर भी आया। इन सबके बीच एक घटना जो हर रोज घटती थी, वह यह थी कि आन्या हम दोनों से पहले जग जाती थी और बेड से उतर कर चुपचाप कपड़े की अलमारी के पास खेलती रहती थी।

‘‘आन्या के कारण मुझे हर रोज कपड़े अरेंज करने पड़ते हैं। पता नहीं इसे क्यों इतना प्रेम है इन कपड़ों से।’’

‘‘घबराअो नहीं, थोड़ी बड़ी होगी, तो यह खुद ही कर दिया करेगी। लड़कियों वाले गुण अभी से दिखते हैं इसमें,’’ यह कहते हुए मैं आन्या को गोद में ले लेता और निशा घर के कामों में लग जाती। मगर मैं जानता था कि बच्चे कुछ भी अकारण नहीं करते, वह भी नियमित रूप से। मगर मैं यह सब कह कर निशा को परेशान नहीं करना चाहता था।

मैं आन्या को अब हर रोज पासवाले पार्क में घुमाने भी ले जाता था। उसे वहां बहुत अच्छा लगता था और मुझे भी, क्योंकि आन्या की तोतली बोली के कारण मेरी भी बहुत सारे लोगों से बातचीत हो जाती थी, विशेषकर महिलाअों से।

एक दिन आन्या की तबीयत थोड़ी ठीक नहीं थी। वह सो रही थी इसीलिए मैं अकेला ही पार्क में चला गया। लेकिन वहां पहुंच कर याद आया कि अपना मोबाइल तो घर पर ही भूल आया हूं। मैं जाने की सोच ही रहा था कि मुझे निशा आती हुई दिखी।

‘‘तुम्हारे बॉस का फोन आ रहा था, कुछ जरूरी बात करनी थी इसीलिए मैं तुम्हारा फोन ले कर आ गयी।’’

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‘‘चलो मैं भी घर चल कर ही बॉस से बातें कर लेता हूं,’’ अभी मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि निशा चीख पड़ी, ‘‘शोभित, अपने घर की छत पर देखो कौन है वह... और... और उसकी गोद में आन्या है, यह तो...’’

‘‘मैं तो आन्या को सुला कर आयी हूं अभी-अभी... जल्दी चलो शोभित...’’ निशा की घबराती आवाज सुन कर मैंने भी छत की तरफ देखा। हमारे घर की छत पर एक स्त्री थी, जो काले रंग का लिबास पहने हुए थी और सिर पर भी काला स्कार्फ बांधा था। स्त्री का चेहरा नहीं दिख रहा था। उसने आन्या को कंधे पर रखा था। मैं भी यह सब देख कर बेहद डर गया। हम लगभग दौड़ते हुए घर पहुंचे। निशा तो इतना ज्यादा घबरा गयी थी कि मेन गेट का ताला भी नहीं खोल पा रही थी। उसकी मनाेस्थिति भांपते हुए मैंने उसके हाथ से चाबी ली और गेट खोला। हम दौड़ कर सीधे छत पर पहुंचे। मगर वहां कोई नहीं था, ना ही किसी के होने का कोई निशान था। जो दृश्य हम दोनों ने एक साथ देखा था, उसे मैं भ्रम नहीं मान सकता था। निशा रोती हुई आन्या को पुकारने लगी और मेरी नजर फिर से उस शीशे पर चली गयी... u

आखिर कौन थी वह काले लिबासवाली औरत? वह अंदर कमरे में सो रही आन्या को उठा कर छत पर कैसे ले गयी? क्या था छत पर लगे उस शीशे का राज? इन सारे सवालों के जवाब कहानी की दूसरी किस्त में