Friday 10 November 2023 11:10 AM IST : By Vanita Team

मिलें उनसे, जिनकी दीवाली मनती है ऑन ड्यूटी

रोशनी और उल्लास से भरे त्योहार दीवाली मनाने का जो मजा परिवार के साथ आता है, वह कहीं और नहीं। लेकिन कुछ लोगों को यह मौका उनकी जॉब के कारण नहीं मिल पाता। मिलते हैं ऐसे ही कुछ डॉक्टर, फायर फाइटर, पुलिस ऑफिसर, लेडी बस ड्राइवर व एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री से जुड़े लोगों से, जिन्होंने काम की जगह पर ना सिर्फ दीवाली मनायी, बल्कि दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित किया- 

विभागाध्यक्ष की मौजूदगी से प्रेरणा मिलती है- डॉ. एसपी बजाज सीनियर डॉक्टर, दिल्ली

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दीवाली बिना पटाखे-फुलझडि़यां कैसी, लेकिन यही पटाखे कई बार गंभीर दुर्घटनाओं का कारण भी बन जाते हैं, जब इन्हें चलाने में लापरवाही की जाए। डॉ. एसपी बजाज ने सालों तक दिल्ली के बड़े सरकारी अस्पतालों में बड़ी जिम्मेदारी संभाली है। दीवाली के अवसर पर जिस तरह उन्होंने अपने स्टाफ को मोटिवेट किया और मरीजों की देखभाल का अनूठा सिस्टम इंट्रोड्यूस किया, वह काबिलेतारीफ है। वे बताते हैं, ‘‘मैंने ड्यूटी पर दीवाली मनाने का प्रोसेस 2 जगहों पर किया, सफदरगंज अस्पताल और आरएमएल अस्पताल में। दोनों जगहों पर मैं बर्न एंड प्लास्टिक सर्जरी डिपार्टमेंट में हेड ऑफ द डिपार्टमेंट था। सफदरगंज अस्पताल में 1982 से 1987 तक और फिर 1996 से 2002 तक और आरएमएल अस्पताल में 1987 से 1996 तक रहा। उन दिनों दीवाली के दिन फायर क्रैकर की वजह से अस्पताल में शाम 6 बजे से रात के 2 बजे तक 150 से 250 लोग पटाखों से जल कर आते थे। अस्पताल में पहुंचने वाले मरीजों की संख्या इतनी अधिक होती थी कि उन्हें संभालना मुश्किल होता था। जब मैंने लंदन से लौट कर यहां 1982 में अस्पताल जॉइन किया, तब से कभी भी दीपाली अपने घर में नहीं मनायी। पहले रात के समय केवल जूनियर डॉक्टर्स ही अस्पताल में होते थे। सारे स्टाफ को मोटिवेशन मिले, इसके लिए मैंने उनसे कहा कि काम तो आप लोग ही करोगे, लेकिन मैं भी व्यक्तिगत रूप से दीवाली की रात अस्पताल में सुपरवाइज करने के लिए मौजूद रहूंगा। दरअसल, पटाखों से जलने के अलावा दूसरे पेशेंट्स भी आते थे। हमारा मकसद था मरीजों को अटेंड करना, उनके परिजनों को संभालना और उनके उपचार के शुरू होने में जरा भी देरी ना होने देना।

‘‘मैंने अस्पताल में ऐसी व्यवस्था कर रखी थी कि पेशेंट के उपचार में आने वाली जरूरत की चीजें उपलब्ध हों। दीवाली की रात हर मरीज का इलाज 7 मिनट के अंदर शुरू हो सके, ऐसा अरेंजमेंट था। मरीज की गंभीरता को देखते हुए उन्हें अटेंड किया जाता था। यह सिस्टम हम ना केवल दीवाली के दिन, बल्कि दीवाली के एक हफ्ते बाद तक जारी रखते थे, क्योंकि बाद में भी पटाखों से जलने वाले मरीज आते थे। खासकर गरीब बच्चे, जो दीवाली के अगले दिन ना जले हुए पटाखे बटोर कर जलाते थे और गंभीर रूप से जख्मी हो जाते थे। जब डेनमार्क और दूसरे देशों से आए लोगों ने हमारे काम को देखा, तो उन्हें हैरानी हुई कि हम बिना किसी दिक्कत के मरीजों की देखभाल कर रहे हैं, इलाज एकदम मुफ्त हो रहा है और सीनियर डॉक्टर भी साथ में काम कर रहे हैं।

‘‘मुझे लगा कि दीवाली के दिन पूरा स्टाफ अपने घर-परिवार को छोड़ कर काम में लगा होता था, तो क्यों ना यहीं दीवाली सेलिब्रेट की जाए। चूंकि दीवाली की छुट्टी के कारण हॉस्टल मेस बंद रहता था, तो मैं सबके लिए घर से खाना ले कर आता था। उनके लिए मिठाई भी लाता था।’’

क्या कभी ऐसा हुआ कि कभी किसी जूनियर डॉक्टर को दीवाली पर घर जाने का मन हुआ, तो आपने उसे जाने नहीं दिया? पूछने पर डॉ. एसपी बजाज कहते हैं, ‘‘दूरदराज से आए हमारे स्टूडेंट्स को हमने कभी नहीं रोका। करीब 90 प्रतिशत स्टाफ को दीवाली पर अस्पताल आने में कोई दिक्कत नहीं होती थी, हां, बाकी के 10 प्रतिशत को हमने कभी जबर्दस्ती नहीं रोका। सबने बहुत अच्छी तरह से सहयोग दिया।’’

आपकी फैमिली ने कभी आपको दीवाली पर अस्पताल जाने से नहीं रोका? डॉ. बजाज कहते हैं, ‘‘मेरे घर वालों को पता रहता था कि आज की रात मैं घर में नहीं रहने वाला हूं, तो पूजा-पाठ हम जल्दी कर लिया करते थे। मेरी वाइफ मेरे पूरे स्टाफ के लिए खाना बनाती थीं। घर में भी सभी ने मेरा पूरा सहयोग किया, इस तरह मैंने फैमिली फ्रंट और प्रोफेशनल फ्रंट दोनों को बहुत अच्छी तरह संभाला।’’

क्या दीवाली पर सीनियर डॉक्टर के अस्पताल में मौजूद रहने और जो वर्किंग सिस्टम आपने इंट्रोड्यूस किया था, वह आज भी जारी है? डॉ. बजाज कहते हैं, ‘‘ना केवल सफदरगंज और आरएमएल अस्पतालों में यह जारी है, बल्कि अनेक अन्य अस्पतालों ने भी यह सिस्टम अपनाया है। मैंने अनेक कॉन्फ्रेंसों में इस सिस्टम को पेश किया था, जिसे काफी सराहा गया। मेरे टीचर्स भी इस तरह के स्टेप्स मरीजों के हित में उठाते रहे थे, लेकिन दीवाली की रात हेड ऑफ द डिपार्टमेंट के खुद स्टाफ के साथ अस्पताल में मौजूद रहने की परंपरा मैंने ही शुरू की।’’

सीनियर की जिम्मेदारी ज्यादा - अरुण आनंद टेस्टिंग एंड कमीशनिंग इंजीनियर, डीएमआरसी, दिल्ली

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अरुण आनंद कुछ सालों से नोएडा मेट्रो रेल कॉरपरेशन के एक्वा मेट्रो पर डेप्यूटेशन ड्यूटी पर हैं। डीएमआरसी के हेड ऑफिस में सुबह ही दीवाली पूजन हो जाता है, पर ब्रांच ऑफिस में ऐसा नहीं होता। वे कहते हैं, ‘‘दीवाली में ऑफिस जाना तो किसी को भी नहीं अच्छा नहीं लगता। लेकिन ऑफिस आना जरूरी है। ऑफिस में एक ना एक सीनियर का जिम्मेदारी निभाना जरूरी होता है। पैसेंजर को सर्विस प्रोवाइड करनी है, जिससे वे तीज-त्योहारों पर अपने परिवारों के पास पहुंच सकें। काम पहले, बाकी बातें बाद की हैं। जब यह जॉब शुरू की थी, तभी हमें पता था कि हम किस तरह की जॉब में आए हैं। वैसे भी दीवाली की रौनक तो देर रात तक रहती है। जब घर पहुंचता हूं तभी दीवाली मनती है।’’

फर्ज आगे फन पीछे - परमादित्य ,जॉइंट कमिश्नर, दिल्ली पुलिस

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दिल्ली पुलिस की सेंट्रल रेंज के जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस परमादित्य का कहना है, ‘‘पुलिस फोर्स इमरजेंसी सर्विसेज का हिस्सा है। हमारी फोर्स का सामना पब्लिक से उन मौकों पर होता है, जब पैनिक या ट्रॉमा की स्थिति होती है। ऐसे में लोगों की हमसे उम्मीदें बहुत ज्यादा होती हैं। इस स्थिति में हम पर प्रेशर भी बढ़ जाता है। चाहे दीवाली हो, होली हो या कोई और त्योहार हो, हमारी कोशिश अपना 100 परसेंट देने की रहती है। परिवार घर पर हमारा इंतजार करता है, लेकिन हमारा त्योहार सड़कों पर कानून व्यवस्था बनाए रखने में निकलता है, यह हमारी ड्यूटी की डिमांड है, जिसे पूरा करना इस महकमे के हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। इस काम में जूनियर्स को मोटिवेट करने के लिए सीनियर ऑफिसर्स भी उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े रहते हैं। पुलिस के लिए यह फख्र की बात है कि हम ड्यूटी पर तैनात रहते हैं, उसी की वजह से लोग अपने त्योहार राजी खुशी सेलिब्रेट कर पाते हैं।’’

लेकिन जो लोग दूसरों के सेलिब्रेशन को सफल बनाते हैं, उनके अपने परिवारिक आयोजन कई बार फीके और बेमजा रहते हैं। हालांकि ऐसी स्थिति में परिवार जन शिकायत नहीं, बल्कि पूरा सपोर्ट करते हैं। देखा जाए, तो इन लोगों की प्रेरणा का स्रोत है उनकी फैमिली, जो हर परिस्थिति में इनके साथ एडजस्ट करने को तैयार रहते हैं। परमादित्य बताते हैं, ‘‘हालांकि हमारे विभाग में भी खास दिनों जैसे बर्थडे, एनिवर्सरी आदि पर स्पेशल लीव का प्रावधान है, लेकिन कई बार इमरजेंसी होने पर यह लीव भी कैंसिल कर दी जाती है। मैं खुद अपने बर्थडे पर सारा दिन फील्ड में ड्यूटी कर रहा था। यह हमारी जॉब की डिमांड है, जिसे परिजन समझते हैं। इसके लिए हम उनके शुक्रगुजार भी हैं, वरना हमारा ड्यूटी पर स्ट्रेस फ्री रहना संभव ही नहीं हो पाता। सीनियर ऑफिसर्स की तो जिम्मेदारी डबल होती है, उन्हें अपनी ड्यूटी के साथ जवानों का हौसला भी बढ़ाना होता है। लगभग सभी सीनियर ऑफिसर्स फील्ड में ड्यूटी कर रहे जवानों की हौसलाअफजाई के लिए निकलते हैं। उन्हें मिठाई खिला कर शुभकामनाएं देते हैं। फेस्टिवल बीत जाने के बाद बड़े खाने का आयोजन किया जाता है, जिसमें सभी छोटे-बड़े अफसर साथ बैठ कर खाना खाते हैं।’’

कोई भी त्योहार घर की महिलाओं के बिना अधूरा होता है, ऐसे में महिला अफसर त्योहारों पर कैसे मैनेज करती हैं, इस पर परमादित्य बताते हैं, ‘‘हालांकि हमारी कोशिश महिलाओं को इस दिन जल्दी फ्री करने की या फिर उन्हें छुट्टी देने की रहती है, लेकिन फिर भी कई बार उनका ड्यूटी पर आना जरूरी हो जाता है। ऐसे में विभाग की तरफ से उन्हें घर छोड़ने व जल्दी से जल्दी फ्री करने की कोशिश की जाती है। महिला ऑफिसर भी अपने काम से जुड़ी चुनौतियों को भलीभांति समझती हैं, जिस पर हमें गर्व है।’’

जॉब से ही दीवाली है- योगिता पुरिल, डीटीसी बस ड्राइवर

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अपनी जॉब को ले कर योगिता जोश से भरी हैं। तेरह साल की उम्र से वे गाड़ी चला रही हैं। डीटीसी में काम करने से पहले वे ड्राइविंग स्कूल में ड्राइविंग सिखाती थीं। लेकिन जॉब लगने के बाद वे खुश हैं। वे कहती हैं, ‘‘आज की स्थिति को देखते हुए मुझे लगता है जॉब है तो रुपए हैं, रुपए हैं तो दीवाली है। मैं दीवाली में बस ड्राइव नहीं करूंगी, तो कोई और करेगा। रास्ते में सवारी चलनी बंद नहीं होगी। दीवाली ही क्यों, होली जैसे पर्व में भी मेरी स्पेशल ड्यूटी लगती है। पर्व आने से पहले जो भी छुट्टी होती है, उस समय मैं दीवाली से जुड़ी खरीदारी कर लेती हूं। महिलाओं से ही पर्व की सुंदरता है, जब मैं जॉब की वजह से घर 9 बजे के बाद तक आती हूं, घर पर मेरा सब इंतजार करते हैं। जब आती हूं, तब दीवाली शुरू होती है। परिवार के सभी सदस्य मेरी मदद करते हैं। मेरे माता-पिता का मुझे काफी सपोर्ट है। सच तो यह है, ड्राइविंग ध्यान और मेहनत मांगती है, दीवाली जैसे पर्व में खासतौर पर मध्यमवर्गीय परिवारों के लोगों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का आनंद ही कुछ और होता है।’’

क्रू मेंबर्स के साथ मनायी दीवाली- साक्षी सक्सेना, स्क्रिप्ट सुपरवाइजर, मुंबई

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मैंने कई बार दीवाली घर से दूर मनायी है। एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री को असेंशियल सर्विस में नहीं माना जाता, लेकिन किसी भी फिल्म या सीरीज को शूट करने के लिए बहुत सारे लोगों का क्रू दिन-रात मेहनत करता है। एंटरटेनमेंट के लिए कंटेंट रेडी करना एंटरटेनमेंट नहीं है, शेड्यूल का सख्ती से पालन करना पड़ता है। अगर फिल्म का शेड्यूल किसी लोकेशन पर 60 दिन का है, तो उतने ही दिनों में खत्म करना पड़ता है। बारिश, गरमी या तूफान में भी इंडोर शूट रुकता नहीं है। शेड्यूल को समय पर खत्म करने के लिए कई बार शिफ्ट टाइमिंग बढ़ती है, तो कई बार बर्थडे और त्योहार भी सेट पर ही मनते हैं। शूट का शेड्यूल इतना लंबा होता है कि क्रू फैमिली की तरह बन जाता है। आउटडोर लोकेशन यानी किसी और शहर से शूट के बीच क्रू या एक्टर्स घर नहीं जा पाते हैं, तो होली या दीवाली सेट पर क्रू और एक्टर्स के साथ ही मनायी जाती है। पिछले साल भी दीवाली सीरीज के शूट के दौरान मैंने क्रू के साथ ही मनायी। दिन में रेस्ट डे मिला, तो आराम करने के बाद होटल के आसपास की मार्केट एंजॉय की, फिर शाम में प्रोडक्शन की तरफ से होटल में ही दीवाली पार्टी हुई। पूरा क्रू जिसमें डाइरेक्टर, सिनेमैटोग्राफर और एक्टर्स ने साथ दीवाली सेलिब्रेट की थी। क्रू कुछ महीने बाद नए प्रोजेक्ट पर चले जाते हैं, लेकिन बॉन्ड फैमिली जैसा ही रहता है। इस साल मेरा प्रोजेक्ट दीवाली से पहले खत्म हो रहा है और मैं घर जा कर सेलिब्रेट करने के लिए एक्साइटेड हूं।

कहीं आग ना लगे, तो समझिए दीवाली मन गयी- हर्षिनी कान्हेकर, फायर फाइटर, त्रिपुरा

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दीवाली में कोई दुर्घटना ना हो, फायर फाइटर्स की जरूरत ना पड़े, ऐसा बहुत ही कम होता है। आग लगने की दुर्घटना को कैसे समय से कंट्रोल किया जाए, यह काम फायर फाइटर्स का होता है। हर्षिनी बताती है कि वे लंबे समय से इस प्रोफेशन से जुड़ी है। वे कहती हैं, ‘‘हमारे लिए दीवाली बोनस यही है कि दीवाली जैसे पर्व में कहीं आग ना लगे और हमारी जरूरत ना पड़े। अभी मेरी पोस्टिंग त्रिपुरा में है। मुझे दिल्ली की एक दीवाली याद है, जब एक रॉकेट से शू फैक्टरी में आग लगी थी और हम चाह कर भी उसे नहीं बुझा पा रहे थे। बिल्डिंग में दरारें पड़ गयी थीं, बिल्डिंग के ब्लास्ट होने का खतरा था। अपनी जान जोखिम में डाल कर उस बिल्डिंग में घुस कर आग बुझाने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं था। कई बार मैं सोचती हूं कि हम सैनिकों की तरह काम करते हैं, पूरा परिवार हमारा इंतजार करता है, पर जितना सम्मान हमें मिलना चाहिए, उतना क्यों नहीं मिलता।’’