Thursday 27 February 2025 12:36 PM IST : By Pooja Makkar

कई सवाल खड़े कर रही है सान्या मल्होत्रा की मिसेज

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मिसेज एक ऐसी फिल्म, जिसे आप पसंद करें या ना करें, नजरअंदाज बिल्कुल नहीं कर पाएंगे। हम आमतौर पर उन फिल्मों को नजरअंदाज नहीं कर पाते जो एक्सट्रीम बिहेवियर (extreme behaviour) पर बनाई जाती है। बहुत ज्यादा वॉयलेंस यानी हिंसा दिखाई जाए.... जरूर से ज्यादा सेक्स दिखाया जाए या फिर किसी घटना को लेकर एक्सट्रीम रिएक्शन दिखाया जाए।

मिसेज भी इसी तरह की फिल्म है। सोशल मीडिया इस फिल्म को लेकर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाओं से भरा पड़ा है। कुछ लोग मान रहे हैं कि 22वीं सदी में भी महिलाओं की परिस्थितियां बहुत ज्यादा नहीं बदली हैं। तो कुछ को शिकायत है कि आज के दौर की महिलाएं अपनी बात रख ना पाए, यह गले नहीं उतरता।

मिसेज में श्रीमती का किरदार सान्या मल्होत्रा ने निभाया है। फिल्म में नाम है रिचा। बेहतरीन एक्टिंग की है। रिचा आज के दौर की लड़की है डांस का शौक है। शादी भी एक डॉक्टर से होती है। सासू मां PHD होल्डर रह चुकी हैं। ससुर जी भी डॉक्टर रह चुके हैं।

लेकिन इस परिवार में महिलाओं की भूमिका चूल्हा चौका करने और घर संभालते तक ही सीमित है। रिचा शादी के बाद अपने डांस के शौक को कायम रखना चाहती है और चूल्हे चौके से बाहर भी अपनी एक जिंदगी देखना चाहती है लेकिन ना घर में अपनी निजी जिंदगी के लिए फुर्सत बचती है और ना ही पतिदेव और ससुर बाहर काम करने या डांस के शौक को फिर से जीने की इजाजत देते हैं।

इजाजत यानी मंजूरी - यहीं से शुरू होती है दर्शकों की शिकायत।

शिकायत नंबर 1 - आज के दौर की पढ़ी-लिखी लड़की अपनी बात को पुख्ता तरीके से रख क्यों नहीं पा रही।

शिकायत नंबर 2 - यह कैसा पढ़ा लिखा परिवार है जो महिलाओं को घरेलू कामों से निकालकर कुछ करने का माहौल ही नहीं दे रहा।

शिकायत नंबर 3- जब रिचा से यह सब बर्दाश्त नहीं होता तो वह किचन पाइप से निकलने वाले पानी को मेहमानों को शिकंजी के तौर पर सर्व कर देती है - ऐसा कौन करता है भला ?

शिकायत नंबर 4- इतनी सी बात पर नौबत सीधे तलाक तक आ जाए.... यह क्या बात हुई?

ऐसी आपत्तियां और शिकायतों पर सोशल मीडिया पर सैकड़ो प्रतिक्रिया आ चुकी है इसकी सबसे बड़ी वजह यह है की फिल्म का क्लाइमेक्स समस्या का समाधान तलाक के तौर पर दिख रहा है। यानी यह मान लिया गया है कि इस हालत में आम सहमति की गुंजाइश ही नहीं है।

ऊपरी तौर पर देखें तो यह थोड़ा अटपटा जरूर लगता है कि पढ़ी-लिखी महिला और उसका पढ़ा लिखा डॉक्टर पति आपस में बैठकर इस समस्या को सुलझा क्यों नहीं पा रहे।

लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज भी बहुत से परिवारों में सत्ता पुरुषों की ही चलती है। अगर पति ना चाहे, तो पत्नी के लिए बाहर जाकर नौकरी करना, अपना खुद का बिजनेस करना या फिर डांस जैसे शौक को ही पूरा करना - यह सब मुश्किल हो जाता है।

यह और बात है कि ज्यादातर महिलाएं ऐसे हालात से समझौता कर लेती है और अपने शौक और करियर को भूल जाती है।

जिन लोगों को रिचा यानी फिल्म की हीरोइन का तलाक लेने का फैसला अटपटा लग रहा है, वह अगर गहराई से सोचेंगे तो यह मानेंगे कि महिलाएं आजाद जरूर हैं लेकिन बहुत से घरों में उनकी आजादी का दायरा क्या होगा - ये पुरुष ही तय कर रहे हैं।

महानगरों में ज्यादातर घरों में आने वाली काम वाली बाई पैसे कमा रही है इसलिए आप उसे आत्मनिर्भर मान सकते हैं। लेकिन महीने की पगार उसे अपने पति के हाथ में ही देनी पड़ती है कई काम वाली बाइयों की पगार पति के शराब के खर्चे में बर्बाद हो रही है। कहने के लिए यह काम वाली बाई आजाद है क्योंकि वह अपने घर से निकलकर आपके घर तक आ रही है - लेकिन वह असल में गुलाम है क्योंकि उसके कमाए पैसों पर उसका कोई हक नहीं है।

कुछ इसी तरह बहुत सारी कामकाजी महिलाओं के काम के घंटे, काम का प्रेशर यहां तक कि तनख्वाह भले ही उनके पतियों से ज्यादा हो - लेकिन घर के काम की बुनियादी जिम्मेदारी आज भी महिलाओं के पास ही है।

महिलाएं दोहरी जिम्मेदारी भी निभा रही हैं और अपनी आजादी की कमान भी पूरी तरह अपने हाथ में नहीं रख सकती। हालात बदल जरूर रहे हैं लेकिन महिलाओं का एक बहुत बड़ा तबका अभी भी हालात के बदलने का इंतजार ही कर रहा है। ‌

मिसेज का स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखने वाली लेखिका अनु सिंह चौधरी से हमने पूछा कि जेन जी और जेन एल्फा को यह फिल्म वास्तविकता से कोसों दूर लग रही है तो उन्होंने कहा " वैसे तो यह बात पूरी तरह सच नहीं है फिर भी अगर यह मान लिया जाए कि यह फिल्म उनकी रियलिटी से मेल नहीं खाती तो यह उनके घर में उनकी मां या दादी की रियलिटी जरूर रही होगी यानी जेन जी की जिंदगी से भी इस फिल्म की कहानी बहुत दूर तो नहीं है।"

अनु सिंह चौधरी के मुताबिक, "पति की भूमिका के साथ-साथ सास ससुर की भूमिका भी बेहद अहम होती है। शादी करके आई लड़की से उसके माता-पिता भी यही उम्मीद करते हैं कि वह उनका नाम तो रोशन करेगी ही, नए परिवार की उम्मीदों पर भी खरी उतरेगी। इस काम को वह कितना बखूबी कर पाती है यह इस बात पर निर्भर करेगा कि जिस घर में वह शादी करके गई है वहां के बड़े बुजुर्ग पारिवारिक लोकतंत्र कायम करने में क्या रोल अदा करते हैं।"

हालांकि आप यह जानकर हैरान होंगे कि अनु ने खुद कभी शादी से पहले और शादी के बाद भी किचन में खाना नहीं बनाया है। उन्हें कुकिंग नहीं आती। लेकिन इसका मतलब यह नहीं की एक महिला के तौर पर उनकी अपने संघर्ष नहीं रहे और शादी के बाद तालमेल बैठाने में उनके रास्ते में चुनौतियां नहीं आई।

अनु सिंह चौधरी "नीला स्कार्फ" समेत 3 किताबें लिख चुकी हैं और सुष्मिता सेन अभिनीत वेब सीरीज आर्या और ग्रहण का स्क्रीन प्ले और डायलॉग्स भी उन्होंने ही लिखे हैं।

कितनी आत्मनिर्भर है महिलाएं? आंकड़ों की नजर से जानिए

बिजनेस संस्थान फिक्की की महिला विंग फिक्की फ्लो के आंकड़ों के अनुसार भारतीय महिलाएं तकरीबन 380 मिनट यानी दिन के 6 से 7 घंटे ऐसे काम में बिता रही हैं जिसके उन्हें कोई पैसे नहीं मिलते. यानी वो अवैतनिक काम है। जबकि पुरुष तकरीबन डेढ घंटे यानी 90 मिनट ऐसे कामों में बिता रहे हैं जिसके उन्हें पैसे नहीं मिलते।

भारत में 37% महिलाएं कामकाजी हैं - इस आंकड़े में खेतों में काम करने वाली महिलाएं भी शामिल हैं। जबकि विश्व का औसत 47% है। 2024 में सरकार के महिला और बाल विकास मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक अगर काम करने योग्य महिलाओं की हिस्सेदारी कामकाजी क्षेत्र में बढ़ जाए तो भारत की जीडीपी में 7 से 10% की बढ़ोतरी हो सकती है।

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन के 2023 के सर्वे में सामने आया था कि भारत में महिलाओं के काम करने के रास्ते में सबसे बड़ी और पहली चुनौती है - घर और बाहर के काम के बीच में तालमेल बिठा पाना।

अब आप एक बार फिर से सोच सकते हैं कि क्या महिलाएं सच में आज़ाद हैं ? क्या घर चलाने की बुनियादी जिम्मेदारी सच में बराबर बराबर बांटी जा सकती है?

हालांकि फिल्म की नायिका यह समझौता नहीं करती। वह तलाक लेती है और अपने डांस के शौक को पूरा करने में जुट जाती है। अभी तक जिन लोगों ने यह फिल्म नहीं देखी है उन्हें एक बार यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। अच्छी लगे या ना लगे, यह तय है कि यह फिल्म लंबे समय तक आपके जे़हन में अपनी जगह बना कर रहेगी।