Monday 05 October 2020 11:42 AM IST : By Nisha Sinha

महाराष्ट्र के ठाणे में चलता है दादी और नानियों के लिए स्कूल

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झुर्रियोंवाले गोल चेहरे पर कांपते हाथों से लाल कुमकुम को ललाट के बीचोंबीच चिपकाने के बाद 70 पार की दादी ने बस्ता संभाला, तो 7 साल का पोता खिलखिला कर हंसने लगा। दरअसल, आजकल उसके गांव में उसके कई दोस्तों की दादियां और नानियां स्कूल जाने लगी थीं। गांव के बच्चों को इस बात पर भले ही ठिठोली सूझ रही हो, लेकिन उनके अभिभावकों अौर समाजसेवी योगेंद्र बांगर के प्रयासों के कारण बुजुर्गों को साक्षर बनाने का प्रयास शुरू किया गया है। महाराष्ट्र के ठाणे जिले की इस अनोखी बुजुर्गों की पाठशाला के जनक योगेंद्र बांगर से जब पूछा कि बूढ़ी महिलाअों के लिए स्कूल खोलने का विचार उनके मन में कैसे अाया? तो पेशे से शिक्षक रहे योगेंद्र बांगर ने बताया, ‘‘कुछ साल पहले छत्रपति उत्सव में हो रहे पाठ के दौरान एक बूढ़ी काकी ने बहुत दुखी मन से कहा कि कितना अच्छा होता अगर वह भी इस जन्म में छत्रपति का पाठ कर पाती। अगर पढ़ी-लिखी होती, तो कम से कम भगवान के पास अनपढ़ तो नहीं जाती। यह बात मेरे मन को छू गयी।’’ वे कहते हैं, ‘‘जीवन के आखिरी पड़ाव पर शिक्षा के प्रति ऐसी ललक देख कर मेरा शिक्षक मन दुखी हो गया था। फिर मोतीराम दलाल चैरिटेबल ट्रस्ट की मदद से मैंने इस स्कूल की नींव रखी। महिलाअों के लिए हो रही इस अलग तरह की शुरुअात के लिए मैंने महिला दिवस (8 मार्च 2016) का अवसर चुना। मुंबई से करीब 125 किलोमीटर दूर यह स्कूल मराठी में अाजीबाईची शाला के नाम से लोगों में लोकप्रिय हो रहा है।’’

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पिछले 18 साल से शिक्षण से जुड़े योगेंद्र सर के इस स्कूल में 60 से 90 वर्ष की वृद्धाएं पढ़ने अाती हैं। घर के काम को निबटाने के बाद सभी समय से स्कूल पहुंचती हैं। स्कूल की सबसे बड़ी छात्रा की उम्र 90 साल है। हर स्कूल की तरह इस स्कूल की भी अपनी यूनिफॉर्म है। स्कूल अाने के पहले सभी वृद्धा छात्राएं रानी कलर की साड़ी में तैयार होती हैं। इस रंग को स्कूल ड्रेस के रूप में चुनने की वजह क्या रही? यह पूछने पर योगेंद्र बताते हैं कि दरअसल इन महिलाअों में से कुछ विधवाएं भी हैं। इसलिए ये हरी रंग साड़ी (महाराष्ट्र में सुहागिनें हरी साड़ी पहनती हैं) नहीं पहन सकती थीं।’’ फिर पिंक कलर तो युवतियों को बेहद पसंद रहा है। स्कूल यूनिफॉर्म के साथ ही स्टूडेंट की दूसरी सबसे प्यारी चीज उसका बैग होती है। इन्हें स्कूल की तरफ से बैग भी दिए गए। इसमें उनकी अक्षर ज्ञान की किताब, स्लेट अौर चॉक होती है।

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इनकी क्लास दोपहर में 2 बजे शुरू होती है, जो 4 बजे तक चलती है। इनकी शिक्षिका हैं, शीतल मोरे। दसवीं तक पढ़ी लगभग 30 साल की शीतल मोरे के विद्यार्थियों में उसकी सासू मां भी शामिल हैं। इनके पति प्रकाश मोरे ने तो इस स्कूल के लिए जमीन भी दान दी है। इस स्कूल की सभी छात्राएं बिना अनुपस्थित हुए रोज क्लास करने अाती हैं। कुछ तो बीमार होने पर भी स्कूल अाना बंद नहीं करतीं। ये सभी बुजुर्ग छात्राएं ध्यान से शिक्षिका शीतल के पढ़ाए गए पाठ का अनुकरण करती हैं। सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र का मानना है कि फिलहाल उनका उद्देश्य हैं कि इन वृद्ध महिलाअों को इतना पढ़ा-लिखा बना दें कि वे अपने नाम से हस्ताक्षर करना शुरू कर दें।
इस उम्र में पढ़ते लिखते समय क्या अांखों से कम दिखने की समस्या उनके आड़े नहीं आती, पूछने पर योगेंद्र कहते हैं, ‘‘इस मामले में ये सभी बेहद स्वस्थ हैं। शायद यह ग्रामीण खानपान अौर परिवेश के असर के कारण है। फिर इनका उत्साह शायद कुछ अौर सोचने का मौका नहीं देता।’’ कुछ परिवार ऐसे भी हैं, जहां अब दादी-पोती साथ बैठ कर पढ़ती हैं।

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इस स्कूल के विद्यार्थी केवल अपनी पढ़ाई को ही एंजॉय नहीं कर रहे हैं, मस्ती भी चलती है। ये अपने साथियों अौर शिक्षक के साथ स्कूल से ट्रिप पर भी जाते हैं। एक बार अपने योगेंद्र सर के साथ इनको समाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के गांव रालेगण सिद्धी टूर पर जाने का मौका मिला। उनके लिए यह बेहद अनूठा अनुभव था। उनके अौर भी कई जगह जाने के प्लान हैं। इस स्कूल ने इनके जीवन को एक नयी शक्ल दी है। इनकी िशक्षिका शीतल मोरे की एक छात्रा कांताबाई को नहीं पढ़ने का मलाल तो हमेशा था। जब वे छोटी थीं, तो पांच भाई-बहनों के परिवार में केवल उनके भाई ही पढ़ने के लिए स्कूल जाते थे। उनके पिता जी ने अपनी बेटियों को कहा कि उनके पास इतने पैसे नहीं कि वे सभी बच्चों को स्कूल भेज सकें। इसी कारण वे अौर उनकी बहनें कभी स्कूल नहीं जा पायीं। इस आजीबाईची स्कूल की तमाम बुजुर्ग विद्यार्थियों की कहानी इससे मिलती-जुलती है।
जीवन के सांध्यकाल में ही सही, लेकिन उन्हें इस बात की खुशी है कि वे स्कूल जा रही हैं। इनमें से कइयों को अपना नाम लिखना अा गया है, ये सभी अब बड़े गर्व के साथ हस्ताक्षर की जगह पर अंगूठा लगाने के बजाय अपना पूरा नाम लिखती हैं।  
वे बच्चे जो सालभर पहले अपनी दादी के स्कूल जाने की बात पर उनकी खिंचाई कर रहे थे, नानी को स्कूल तक छोड़ने के नाम पर मुंह बनाते थे, आज खुद स्कूल से लौटने के बाद अपने एक हाथ में बूढ़ी दादी का बस्ता और दूसरे हाथ में झुर्रियोंभरे हाथ को थामे स्कूल छोड़ने जाते हैं।
किसी ने सही कहा है-
साहिल के सूकूं से किसे इंकार है लेकिन।
तूफान से लड़ने का मजा और ही कुछ है।