Monday 05 October 2020 12:12 PM IST : By Nisha Sinha

कई संस्थाएं बना रही हैं इको फ्रेंडलि सैनिटरी नैपकिन

green-periods-4

सैनिटरी नैपकिन बोलते समय आज भी फुसफुसाना पड़ता है। आज भी इसे अलमारी के किसी कोने में दबा-छुपा कर रखा जाता है, भारतीय समाज में सैनिटरी नैपकिन और माहवारी से जुड़ी तमाम बातें पुराने ढर्रे पर चल रही हैं। ऐसे में कुछ लोगों के अनवरत प्रयासों के कारण दूरदराज के गांवों या गरीब तबकों की युवतियों को सस्ते और पर्यावरण के लिए सुरक्षित सैनिटरी नैपकिन मिल पाना संभव हो सका है। कुछ संस्थाएं ऐसी हैं, जो जरूरतमंदों को हेल्थ किट के साथ ही सैनिटरी पैड भी उपलब्ध करा रही हैं। इन सैनिटरी नैपकिन्स को बनाते वक्त यह ख्याल भी रखा गया कि ये इकोफ्रेंडली हों, ताकि पर्यावरण पर अतिरिक्त प्लास्टिक का बोझ ना पड़े, क्योंकि एक अनुमान के अनुसार इस तरह की चीजों को प्राकृतिक रूप से गलने में 500 साल लग जाते हैं और ये जब तक डिकम्पोज नहीं होते, तब तक यह एनवायरमेंट को नुकसान पहुंचाते रहते हैं।

anshu-gupta अंशु गुप्ता


चौंकें नहीं आंखें खोलें

arunachalam अरुणाचलम मुरुगनानथम


हाल ही में प्लान इंडिया एनजीओ की ओर से कराए गए एसी नील्सन के सर्वे में पाया गया कि भारत की 3 करोड़ 50 लाख महिलाएं हैं, जिनको माहवारी होती है। उनमें से 12 प्रतिशत महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं। भारी संख्या में महिलाएं इन विशेष दिनों के लिए पुराने रद्दी कपड़े, बालू, भूसा, राख का इस्तेमाल करती हैं, जिससे संक्रमण होने की आशंका होती है। कई बार पुराने कपड़ों के इस्तेमाल करने से इन्फेक्शन के कारण युवतियाें की मृत्यु तक हो जाती है। एक बार एक युवती ने अपने फटे-पुराने ब्लाउज का इस्तेमाल सैनिटरी पैड की तरह किया। कपड़े में मौजूद हुक के कारण वह संक्रमण का शिकार हुई और उसकी मृत्यु हो गयी। इस घटना ने गूंज संस्था के निदेशक अंशु गुप्ता को बेहद आहत किया। उसके बाद उन्होंने सैनिटरी पैड की दिशा में गंभीरता से काम करना शुरू किया। मैगसेसे अवॉर्ड पा चुके सामाजिक कार्यकर्ता अंशु गुप्ता की संस्था गूंज में बनाए जा रहे सैनिटरी नैपकिन ‘माई पैड’ ना केवल बायोडिग्रेडेबल हैं, बल्कि संस्था की अोर से दी जानेवाली हाइजीन किट में भी शामिल हैं। क्लोदिंग मैन (कपड़े देनेवाला व्यक्ति) के नाम से मशहूर अंशु गुप्ता की संस्था गूंज में दान किए जानेवाले पुराने सूती कपड़ों से ये सैनिटरी पैड बनाए जा रहे हैं। संस्था में इन पैड्स को हाइजीन के सभी मानकों को ध्यान में रख कर तैयार किया जा रहा है। पीरियड्स के दिनों के लिए तैयार किए गए ये पैड कई युवतियों के लिए वरदान बन चुके हैं।

green-period-2 जयदीप मंडल


आज से कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के एक तांगेवाले की बेटी शालू सैनिटरी पैड की किल्लत के कारण यह दुआ करती थी कि ईश्वर मासिकधर्म जैसी चीज को हमेशा के लिए खत्म कर दे। उसके पिता की कमाई से बमुश्किल ही घर का खर्च चलता था, ऐसे में वह सैनिटरी पैड को खरीदने की बात कैसे सोचती। सूती कपड़े से बने होने के कारण ये पैड पर्यावरण के लिए भी कोई खतरा नहीं हैं। इस तरह के 2-2.5 करोड़ पैड का निर्माण अब तक किया जा चुका है। ये पैड आपदाग्रस्त क्षेत्रों में भी बांटे जाते हैं।


पैडमैन के नाम से प्रसिद्ध तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुगनानथम को 2016 में उनके इस क्षेत्र योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया। चौबीस साल के मुरुगनानथम को शादी के बाद पता चला कि उनकी पत्नी फटे-पुराने कपड़ों का इस्तेमाल मासिकधर्म के दौरान करती है। उन्होंने जब उसे सैनिटरी पैड इस्तेमाल करने को कहा, तो पत्नी ने बताया कि ऐसा करने पर पूरे परिवार के लिए आनेवाले दूध के खर्च में कटौती करनी होगी। मुरुगानानथम बताते हैं, जब वे दुकान पर पैड लेने गए, तो केमिस्ट ने इसे एक पैकेट में लपेट कर दिया, जैसे यह स्मगलिंग का सामान हो। बाद में उन्होंने पाया कि जितने पैसे में ये पैड आते हैं उतने में ही ढेरों पैड्स बन सकते हैं। फिर उन्होंने कई प्रयोग किए अौर अपने बनाए गए पैड परिवारवालों को इस्तेमाल करने को दिए। कभी-कभी प्रयास असफल भी हुए। फिर उन्होंने नए तरीके से फिर पैड बनाए। इस पूरे सफर में उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा यहां तक कि पत्नी और मां भी घर छोड़ कर चली गयीं, पर प्रयास जारी था।


करीब साढ़े 4 साल बाद इन्होंने एक छोटी सी मशीन बनायी। फिर मेडिकल कॉलेज की स्टूडेंट्स को मशीन से तैयार नए पैड इस्तेमाल करने के लिए दिए। इसके अच्छे परिणाम मिले। इसी बीच आईआईटी मद्रास में कई देशों की प्रतियोगिता के बीच अरुणाचलम मुरुगनानथम की मशीन को भी शामिल किया गया। यहां उनके प्रयासों को सराहा गया और उनकी मशीन को प्रथम पुरस्कार मिला। धीरे-धीरे उन्होंने और भी मशीनें बनायीं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनके काम की तारीफ होने लगी। उसी बीच एक दिन उनकी पत्नी ने उन्हें टेलीविजन पर देखा अौर फिर उनके काम की तारीफ की। उन्होंने ऐसी कई मशीनें बनायीं, जिनसे सस्ते नैपकिन तैयार किए जा सकते हैं। मुरुगानानथम बताते हैं कि उनकी मशीनों से बने पैड सस्ते होने के साथ-साथ बायोडिग्रेडेबल भी होते हैं।
सस्ते और डिकम्पोजेबल नैपकिन निर्माण की दिशा में एक और प्रयास ‘आकार इनोवेशंस’ की ओर से किया गया। इसका श्रेय इसके जनक और एमडी जयदीप मंडल को जाता है। वे कहते हैं, ‘‘हमारे आनंदी पैड का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों, शहरी झुग्गियों अौर कम आयवर्ग की युवतियों को सस्ते अौर डिकंपोजेबल पैड मुहैया कराना है। हमारी प्राथमिकता मेंस्ट्रुअल सैनिटेशन के बारे में उन युवतियों को समझाना है, जो गंदे कपड़े, घास-भूसे, बालू, राख जैसी महिला स्वास्थ्य के लिए घातक चीजों का इस्तेमाल करती हैं। महिलाअों के लिए बेहतर व सेहतमंद विकल्प तैयार करने के बारे में सोच कर ही हमने सस्ते सैनिटरी नैपकिन बनाने की दिशा में कार्य शुरू किया’’ जयदीप कहते हैं, ‘‘जल्दी ही मुझे अहसास हुअा कि हमारे टारगेट ग्रुप की युवतियों को इस्तेमाल हो चुके सैनिटरी नैपकिन को डिस्पोज करने का तरीका भी नहीं पता है। तब जा कर हमने डिकंपोजेबल नैपकिन बनाना शुरू किया। इन्हें एग्रीवेस्ट से तैयार किया जाता है। गैर सरकारी संस्थाअों की मदद से ग्रामीण इलाकों अौर शहरी झुग्गियों में उत्पादन इकाइयां लगायी गयीं, ताकि आनंदी बहनों अौर आकार वर्कर्स के माध्यम से सभी तक इन्हें पहुंचाया जा सके।


साहस को शुक्रिया


शोधों से पता चला है कि केवल मासिकधर्म की वजह से 23 प्रतिशत लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है। इतना ही नहीं आज भी महंगे सैनिटरी पैड करीब 70 प्रतिशत भारतीय परिवारों की पहुंच से दूर हैं। ऐसे में सस्ते और पर्यावरण के लिए सुरक्षित इकोफ्रेंडली सैनिटरी नैपकिन बनाने का काम एक शानदार प्रयास है। इस हाइजीनिक उपाय के माध्यम से युवतियों को ना केवल जननांगों के संक्रमण की समस्या कम होगी, बल्कि उनमें सर्वाइकल कैंसर की अाशंका भी घटेगी।


युवतियों के लिए सैनिटरी हाइजीन जैसे मुद्दों को रूढ़िवादी समाज के सामने रखने अौर विषम परिस्थिितयों में भी इस विषय पर शोध के लिए प्रयासरत रहने के पुरुषों के योगदान की जितनी भी सराहना की जाए कम है। क्लोदिंग मैन अंशु गुप्ता हों या पैडमैन फिल्म के रियल हीरो अरुणाचलम मुरुगानानथम या आकार इनोवेशन्स के जयदीप मंडल, इन सभी के प्रयास या फिर ऐसे तमाम पुरुषों अौर िस्त्रयों के प्रयास को सलाम है, जिन्होंने अपने-अपने तरीके से लोगों को मासिक, महीना, पीरियड्स जैसे शब्दों पर मुंह छुपा कर बोलने की हिचक को तोड़ा है। शायद उन्हीं के प्रयासाें का फल है कि आज कई गरीब घरों की बेटियां भगवान से यह सवाल नहीं पूछतीं कि आखिर ये दिन उनकी जिंदगी में क्यों अाते हैं। इन्हीं की वजह से आज कई अौरतें पुराने चिथड़ों अौर उसमें फंसे जंग लगे हुक की वजह से मौत के मुंह में जाने से बच रही हैं। किसी ने सही ही कहा है -


सीढ़ियां उन्हें मुबारक हो, जिन्हें सिर्फ छत तक जाना है।
मेरी मंजिल तो आसमान है, रास्ता मुझे खुद बनाना है।