Thursday 21 September 2023 04:02 PM IST : By Pooja Samant

सादगीभरी शोख अदाकारा वहीदा रहमान

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वहीदा रहमान भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की सर्वश्रेष्ठ अभिनेित्रयों में से एक हैं। आज भी उनकी फिल्में प्यासा, गाइड, चौदहवीं का चांद, कागज के फूल देख कर दर्शक चकित रह जाते हैं। भरतनाट्यम में ट्रेंड इस अदाकारा के नृत्य को देखने के लिए उस जमाने में लोग कई-कई बार उनकी फिल्में देखते थे। आज भी वहीदा रहमान किसी कार्यक्रम में शिरकत करती हैं, तो पूरे माहौल में मानो एक शालीनता आ जाती है। पेश हैं उनसे हुई एक बातचीत के प्रमुख अंश-
वहीदा जी, आप मीडिया से दूरी बना कर रखती हैं। इसकी वजह क्या है?
ऐसा मैंने सोच-समझ कर नहीं किया है, मेरा स्वभाव ऐसा है। मैं अभिनय में हूं, वरना तो सुर्खियों में रहना मेरी फितरत नहीं है। मेरी दोस्त आशा पारेख भी हमेशा कहती है कि तुम मीडिया से दूर क्यों भागती हो?
कोरोना ने लगभग दो साल दुनिया को रुलाया। उस दौर में आपकी दिनचर्या क्या होती थी? कैसे सब कुछ मैनेज करती थीं?
वह दौर सबके लिए मुश्किल था। मैं मुंबई में थी। स्टाफ में एक ही बंदा था। शुरू के कुछ दिन तो बड़ी बेचैनी हुई, धीरे-धीरे घर में रहने की आदत पड़ने लगी। कई फिल्में होम थिएटर में देखीं। अपनी ही फिल्मों को यूट्यूब पर देखा। गार्डनिंग में व्यस्त रही। इंडोर प्लांट्स लगाए, नयी रेसिपीज ट्राई कीं। वीडियो कॉल पर सबसे कनेक्ट रहती थी। मैं हमेशा पॉजिटिव सोचती हूं। मन में विश्वास था कि कभी ना कभी कोरोना भी जाएगा। तो जीना क्यों भूलें, हां एहतियात के साथ रहें।
अब जब आप अभिनय में नहीं हैं, तो क्या गतिविधियां रहती हैं आपकी?
मेरी बेटी काशवी (रेखी) ने शादी नहीं की। वह स्क्रिप्ट राइटिंग और सुपरविजन करती है। वह मेरे ही साथ रहती है। बेटा सोहेल रेखी विदेश में है। उसने भूटान की लड़की से शादी की है। दोनों यहां आते-जाते रहते हैं। मुझे बच्चों का साथ भाता है। मैं सुबह 7 से 9 बजे तक गार्डनिंग ही करती हूं। फिर 15 मिनट योग, प्राणायाम करती हूं। इसके बाद अखबार पढ़ती हूं या टीवी देखती हूं। मूड होता है, तो किचन में जा कर कुछ बनाती हूं। नयी जेनरेशन की फिल्में देखती हूं।
आप फिल्मों में कैसे आयीं?
मेरा जन्म तमिलनाडु के चिंगुलपेट में हुआ था। मां का नाम मुमताज बेगम था और पिता मोहम्मद अब्दुर्रहमान आईएएस ऑफिसर थे। हम 4 बहनें थीं जाहिदा, सईदा, शाहिदा और मैं। मैं डॉक्टर बनना चाहती थी। दक्षिण के कल्चर के हिसाब से हम बहनों ने भी भरतनाट्यम सीखा था। अब्बा का ट्रांसफर विशाखापत्तनम हो गया, तो हम भी वहीं चले गए। मैं सेंट जोसेफ कॉन्वेंट में तब आठवीं की छात्रा थी, तभी जिंदगी ने ऐसी करवट ली, जिसके बारे में हमने कभी सोचा भी नहीं था ! अब्बा को अचानक हार्ट अटैक आया और वे दुनिया को अलविदा कह गए। उनके जाने के बाद अम्मी अकसर बीमार रहने लगी थीं और जो भी पूंजी हमारे पास थी, उससे पूरे परिवार का गुजारा मुश्किल हो रहा था। एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में मेरा डांस किसी ने देखा, तो साउथ की तेलुगू फिल्म रोजलु मर्यायी का ऑफर मुझे मिला। मैंने काम किया, फिल्म सफल रही। अम्मी की बीमारी का इलाज करवाने की खातिर मैंने अपना मेडिकल का सपना छोड़ दिया और अभिनय में आ गयी। यह मेरा अच्छा फैसला रहा।
फिर हिंदी फिल्मों में कैसे आ गयीं?
साउथ इंडियन फिल्मों की सफलता के बाद हुई एक पार्टी में मुंबई के उभरते प्रोड्यूसर गुरुदत्त का आना हुआ। जब मेरा परिचय उनसे कराया गया, तो उन्होंने मुझे बॉम्बे आने का न्यौता दिया। इस पर मैंने कहा कि अम्मी के बिना मैं नहीं जा सकती, तो उन्होंने कहा कि उन्हें भी साथ लाएं। बॉम्बे आयी, तो स्टेशन पर गुरुदत्त प्रोडक्शन का बंदा टैक्सी ले कर आया था। चर्चगेट के पास ही रिट्ज होटल में हमारे रुकने का इंतजाम किया गया था। 1955 के दौर में भी बॉम्बे में खासी भीड़ थी, गाड़ियों का शोरगुल सुन कर अम्मी बोलीं, ऐसे शहर में कैसे रह पाएंगे हम? यह तो शुरू की बात थी। बाद में बॉम्बे की इतनी आदत हुई कि बंगलुरु जहां हमारा फार्महाउस है, मैं वहां तक नहीं जाना चाहती।
आपने पहली ही फिल्म में नेगेटिव किरदार निभाया। डर नहीं लगा कि टाइप्ड हो जाएंगी?
1956 में सीआईडी के लिए गुरुदत्त जी ने मुझे निर्देशक राज खोसला से मिलवाया। देव आनंद के अपोजिट शकीला तय हो चुकी थी। राज खोसला जी ने मुझे कामिनी के किरदार के बारे में समझाया। यह वैंप का रोल था, मगर चैलेंजिंग लगा तो मैंने स्वीकार कर लिया। फिल्म सफल हुई, तो कई लोगों ने कहा कि डेब्यू फिल्म में नकारात्मक किरदार नहीं निभाना चाहिए था ! मुझे तब अच्छी हिंदी नहीं आती थी। इस इंडस्ट्री की समझ भी कम थी। फिर भी मुझे यह मलाल नहीं हुआ कि मैंने इस किरदार को निभाया।
गुरुदत्त से आपकी वर्किंग केमिस्ट्री अच्छी रही। आपने कई फिल्में उनके साथ कीं। उनके बारे में कुछ बताएं।
गुरुदत्त को मेरे परफॉर्मेंसेस अच्छे लगे। उनके होम प्रोडक्शन में प्यासा, कागज के फूल, चौदहवीं का चांद जैसी फिल्में कीं, जो आगे चल कर कल्ट-क्लासिक फिल्में कहलायीं। वे मेरे मेंटर थे, वही मुझे बॉम्बे लाए।
सुना है, तब की रिवायत के मुताबिक आपको भी अपना स्क्रीन नाम बदलने को कहा गया था?
गुरुदत्त चाहते थे कि जिस तरह मीना कुमारी, मधुबाला, नर्गिस के ऑनस्क्रीन नाम अलग थे, वैसे ही मेरा भी अलग नाम रखा जाए, क्योंकि वहीदा नाम सुनने में अच्छा नहीं है। मगर मैंने मना कर दिया, क्योंकि यह मेरे माता-पिता का दिया गया नाम था और मैं इसे बदलना पसंद नहीं करती थी। इस तरह मैं अपने रियल नाम के साथ ही यहां रही।
आपने राज खोसला निर्देशित फिल्म सोलहवां साल में भी निर्देशक से अपनी बात मनवायी, क्या यह सच है?
देव आनंद मेरे इस फिल्म के हीरो थे। यह 1958 में रिलीज हुई थी। एक 16 साल की लड़की प्रेमी के साथ घर से भाग जाती है, लेकिन उसे अहसास होता है कि प्रेमी दगाबाज है। उसकी मुलाकात एक प्रेस रिपोर्टर से होती है, कैसे रिपोर्टर उसे घर भेजता है, यही कहानी थी। स्क्रिप्ट के हिसाब से मेरे कपड़े बारिश में गीले होते हैं। हीरो (देव आनंद) मुझे धोबी घाट की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘तुम वहां जा कर कपड़े बदल लो।’ इसमें मुझे राज खोसला जी ने एक ट्रांसपेरेंट चोली पहनने को कहा, लेकिन मैंने उसे पहनने से साफ इंकार किया! क्या धोबी घाट जैसी जगह पर ऐसी फैंसी चोली हो सकती है। फिर मैं ऐसे कपड़े क्यों पहनूं। राज खोसला ने मुझे समझाया कि ‘शॉट आज ही पूरा करना है,’ देव आनंद ने भी कन्विंस करने की कोशिश की। राज ने कहा कि ‘अभी-अभी तुम साउथ से आयी हो और अपनी चलाने लगी हो।’ पर मैं अपने उसूलों से हटी नहीं। आखिर में मैंने चोली पर एक दुपट्टा ओढ़ लिया। यह बात राज को पसंद नहीं आयी, लेकिन शॉट पूरा हो गया।
आप मूलतः एक डांसर हैं। क्या आपको लगता है आपके नृत्य का फिल्मों में सही उपयोग हुआ?
नहीं ! गाइड की बात छोड़ दूं, तो किसी भी फिल्म में नृत्य कौशल दिखाने का मौका मुझे ज्यादा नहीं मिला।
क्या यह सच है कि आप फिल्म गाइड नहीं करना चाहती थीं?
निर्देशक राज खोसला से सोलहवां साल के बाद थोड़ी खटास आयी थी। फिल्म गाइड का प्रोजेक्ट आया, तो देव आनंद ने यह फिल्म ऑफर की, निर्देशक राज खोसला थे। मैंने देव को मना किया पर उन्होंने समझाया कि ये सारे क्रिएटिव मतभेद फिल्मों में होते रहते हैं। इन्हें छोड़ देना चाहिए। फिर राज खोसला फिल्म से अलग हुए, चेतन आनंद ने फिल्म को हाथ में लिया, मगर उनकी डेट्स क्लैश कर रही थीं, तो फिल्म विजय आनंद ने डाइरेक्ट की। मैंने भी मन बदला और रोजी का किरदार निभाया। आज भी यह फिल्म और यह किरदार मेरे दिल के काफी करीब हैं।
शादी के बाद आप फिल्मों से दूर होती गयीं। आप लगभग 12 साल परदे से दूर थीं।
निर्माता यश जौहर से पारिवारिक स्नेह था। एक्टर और उद्योगपति कमलजीत (शशि रेखी) से मेरी शादी हुई। वैसे यह शादी 1964 में ही हो जाती, क्योंकि फिल्म शगुन में हमने साथ काम किया था। मगर हम दोनों बातूनी नहीं थे, तो कोई स्पार्क भी नहीं बना। हालांकि कमलजीत मुझे पसंद करते थे, यह बात उन्होंने यश जी से शेअर की थी। यश जी ने मुझे फोन पर कहा, ‘कमलजीत किसी काम से मिलना चाहते हैं।’ तब कमल पेरिस में इंडियन रेस्टोरेंट खोलना चाहते थे, तो मुझे लगा कि इसी बारे में बात करना चाहते होंगे। मुझे कुकिंग पसंद थी और कभी मैंने यों ही बात-बात में कहा था कि होटल शुरू करना चाहिए। जब कमल घर आए, तो मुझे लगा कि होटल वाली ही बात होगी। मैंने छूटते ही उनसे कहा, ‘सॉरी, मुझे इंटरेस्ट नहीं है, क्योंकि मेरे पास फंड की कमी है।’ इस पर वे चौंक कर बोले, ‘शादी के प्रपोजल में पैसे की कमी का क्या मतलब है?’ जब उन्होंने सीधे शब्दों में पूछ लिया, तो मैंने भी हामी भर दी। निहायत शरीफ, दिल के सच्चे और पढ़े-लिखे इंसान थे। हमारी गृहस्थी जितनी भी थी, हम बहुत खुश थे। हमारे दो बच्चे हुए। उनकी परवरिश के लिए मैंने ब्रेक लिया।

अब फिल्मों का आकर्षण नहीं रहा....

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यश जौहर अच्छे फ्रेंड थे तो उनकी कई फिल्मों चांदनी, लमहे, कभी-कभी में मैंने रोल निभाए। कभी खुशी कभी गम में रोल करना था (जया जी का रोल), लेकिन शूटिंग शुरू होते ही मेरे पति का देहांत हो गया, तो मैंने फिल्म छोड़ दी। अब बस जीवन का लुत्फ लेती हूं। आशा पारेख व हेलन जैसे दोस्तों के संग वक्त गुजारती हूं। कभी हमारे ग्रुप में शम्मी, नंदा, साधना भी थीं। अब वे तीनों दुनिया में नहीं रहीं....